Book Title: Acharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Author(s): Rajshree Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 125
________________ की क्रिया क्या है? उसे कैसे चलना चाहिए? उसे किस तरह की ग्रन्थियों को काटना चाहिए? और किस तरह से समाधि में स्थित होना चाहिए? इत्यादि साधु की समस्त क्रियाओं का विस्तार से विवेचन किया गया है। धर्म के स्वरूप को जानने वाले साधक बाह्य और आभ्यन्तर आदि उपकरण तथा हेय पदार्थों से ममत्व छोड़कर प्रयलशील बना रहता है। सच्चा साधक संयम साधना को सर्वोपरि मानकर पाँच प्रकार के त्यागने योग्य कारणों को छोड़ देता है। आगम में कथन किया गया है कि सच्चा आराधक इस संसार में महिमा एवं पूजा की इच्छा नहीं करता है, वह परलोक की अभिलाषा नहीं करता है, जीवित रहने की इच्छा नहीं करता है मरने से नहीं घबराता है और काम-भोगों को नहीं चाहता है ।१८६ इस तरह की इच्छाओं से रहित साधक जीवनपर्यन्त समभाव की ओर अग्रसर रहता है ।१८७ नवम अध्ययन : उपधान श्रुत उपधान श्रुत-आचरणगम्य एवं आदर्श स्वरूप जिनका मार्ग है उन वीर प्रभु की चर्या साधना, आहार-विहार, शयन, आसन आदि के स्वरूप को प्रतिपादित करने वाला यह अध्ययन है। इस अध्ययन में महावीर के तपोमय जीवन का समग्र चित्रण है, इसमें उनके सफलतम ज्ञान, दर्शन और चारित्र के उपधानों का सम्यक् विवेचन है। यद्यपि यह समग्र विवेचन महावीर की चर्या के नाम से प्रसिद्ध है। नियुक्तिकार ने इसके समग्र चित्रण को निक्षेप नय के आधार पर इसका जो स्वरूप उपस्थित किया है वह अपने आप में महत्त्वपूर्ण एवं साधक का उच्च आदर्श प्रस्तुत करने वाला है। वृत्तिकार ने तपोकर्म की सार्थकता पर प्रकाश डालते हुए कथन किया है कि समस्त तपो कर्म उपसर्गों से रहित जहाँ होता है वहाँ केवल ज्ञान की देशना होती है। — “उप सामीप्येन धीयते व्यवस्थाप्यते इत्युपधानम्"८८ अर्थात् जो समीप में रखा जाये वह उपधान है। उपधान के दो प्रकार हैं-१. द्रव्य उपधान और २. भाव उपधान । द्रव्य उपधान शय्या आदि है और भाव उपधान, ज्ञान दर्शन एवं तपश्चरण ।१८९ भाव उपधान के विषय में कहा गया है कि जिस प्रकार मलिन वस्त्र जल आदि द्रव्यों से शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार भाव उपधान से अष्ट कर्म नष्ट हो जाते हैं और आत्मा निर्मल हो जाता है ।१९० _ . आचारांग के वृत्तिकार ने प्रत्येक अध्ययन को निम्न चार भागों में विभक्त किया है-१. चर्या, ३. शय्या (वसति), ३. परीषह सहन और ४. आंतकित ।१९१ इस अध्ययन को चार उद्देशकों में विभक्त किया गया है जिनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार हैप्रथम उद्देशक • महावीर ने गृह परित्याग कर जिस तरह से तपश्चरण को अङ्गीकार किया उसका विवेचन इस उद्देशक में है। दीक्षा अङ्गीकार करके प्रभु ने गुरुत्तर कर्मों के आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन ८७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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