Book Title: Acharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Author(s): Rajshree Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 232
________________ इन व्यक्तियों के अनुसार ही उनके मकान होना आवश्यक है, जिसे वसति शब्द के रूप में उल्लेखित किया है ।११९ वस्त्राभूषण श्रमण एवं गृहस्थों की अपेक्षा विविध प्रकारों को समझा जा सकता है। भिक्षु छः प्रकार के वस्त्रों की गवेषणा कर सकता है। जैसे-१. जंगिय (जागमिक), २. भंगिय (भांगिक), ३. साणय (सानिक), ४. पोत्तग (पोत्रक), ५. खोमिय (लोकिक) और ६. तूलकड (तूलकृत)। . वृत्तिकार ने निक्षेप की दृष्टि से दो भेद भी किये हैं-द्रव्य वस्त्र और भाव वस्त्र । द्रव्य वस्त्र के तीन भेद किये हैं-१. एकेन्द्रिय निष्पन्न (कपास कृत वस्त्र), २. विकलेन्द्रिय निष्पन्न (चीनांसू वस्त्र), ३. पञ्चेन्द्रिय (निस्पन्न) कम्बल रत्न आदि । भाववस्त्र शील की अपेक्षा से अठारह हजार बतलाये गये हैं जिन्हें दिशायें या आकाश के रूप में प्रस्तुत किया गया है। कौशेय, कंबल, कासिक, क्षौम (अलसी की छाल से बना) शाणज (सन से बना), भंगज (भंग की छाल से बना हुआ) वस्त्र । इसके अतिरिक्त-कृष्ण, मृगचर्म, रूस (मृग विशेष), चर्म एवं छाग-चर्म, सन का वस्त्र, क्षुपा (अलसी) एवं मेष (भेड़) के लोम से बना वस्त्र । २१ ___ वस्त्रों की तरह आभूषणों का भी विवेचन किया गया है। आभूषण मूलतः सोने एवं चाँदी के होते थे। विविध प्रकार के रत्न, मणियों एवं मुक्ताओं से अलंकृत किये जाते थे। वृत्तिकार ने कनक रस, कनक कांति कनक पट्ट, कनक स्पष्ट शब्द के द्वारा यह संकेत किया है कि प्रायः आभरण सोने के बनते थे। इसके अतिरिक्त विविध प्रकार के आभरणों का उल्लेख किया है। उसमें व्याध चर्म से बने हुए वस्त्र का भी उल्लेख है ।१२२ कुछ आभूषण धागे से गुंथे हुए भी थे, जैसे—कुंडल, रत्नावली हार २४ आदि सभी आभूषण या आभरण बहूमूल्य होते थे। उनके खो जाने पर चिन्ता भी गृहस्थ को होती थी। उन पर विविध प्रकार के बेल-बूटे, फूल-पत्ती आदि भी बनाये जाते थे। वस्त्र या आभूषण का प्रतिवेदन श्रमण अवश्य करता था। क्योंकि बहुमूल्य वस्तुओं में दोष अवश्य होता है इसलिये उनका प्रतिलेखन साधु करता था। परन्तु स्वयं के लिये उचित वस्त्रों को धारण करता था। आभूषण धारण करने का प्रश्न ही नहीं उठता था। साज-सज्जा से युक्त विलासता पूर्ण वस्त्र साधु जीवन में सर्वथा वर्जनीय थे।१२४ आभूषणों में हार (अठारह लड़ी वाला), अर्धहार (नौ लड़ी का) वक्षस्थल का आभूषण (गले का आभूषण) मुकुट, लम्बी माला, स्वर्ण सूत्र आदि का भी उल्लेख है ।१२५ १९४ आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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