Book Title: Acharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Author(s): Rajshree Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 235
________________ आदि में किये जाते थे। मनोरंजन को देखने के लिये सभी तरह के लोग उपस्थित होते थे तथा वे अपनी शक्ति, भक्ति या वाद्य कला का प्रदर्शन भी करते थे। विवाह मण्डपों में अश्व युगल स्थानों में और हस्ति युगल स्थानों में भी मनोरंजन होते थे, कथा करने के स्थान पर घुड़-दौड़, कुश्ती, प्रतियोगिता या अन्य बड़े-बड़े स्थानों पर विशेष महोत्सवों के अवसर पर नृत्य गीत, वाद्य, तंत्री, तल, ताल, तुटित् वाद्य एवं अन्य मनोरंजन को प्रदान करने वाले साधनों का उपयोग किया जाता था। मनोरंजन के समय में स्त्रियाँ पुरुष, बुद्ध, डहर (बालक) एवं युवक विशेष आभूषणों से युक्त होकर गीत गाते हैं। वाद्य बजाते हैं, नाचते हैं, हँसते हैं, रमण करते हैं, एक दूसरे को मोहित करते हैं, बहुत से अशन, पान और खाद्य का उपयोग भी करते हैं। परस्पर उन पदार्थों को बाँटते हैं, परोसते हैं, परित्याग करते हैं, और कभी-कभी तिरस्कार भी करते हैं ।१३६ वाणिज्य वाणिज्य कर्म विशेष रूप से प्रत्येक युग में होते रहे हैं, वाणिज्य कर्म को करने वाले व्यक्ति के लिये वैश्य या वणिक कहा जाता है। वैश्य के समुदाय को वैश्य कुल कहा गया है। वैश्य १५ प्रकार के व्यापार को करता था जिसे आगमों की भाषा में कर्मादान कहा गया है। ये कर्मादान इस प्रकार हैं १. इगालकम्मे (अंगार-कर्म), २. वणकम्म (वन-कर्म), ३. साडी-कम्म (साठी का कर्म), ४. भाड़ी-कम्म (भाटी-कर्म), ५. फोड़ी-कम्म (फोटी-कर्म), ६. दंत-वाणिज्य (दन्त-वाणिज्य), ७. लक्ख-वाणिज्य (लाख-वाणिज्य), ८. रस-वाणिज्य (रस-वाणिज्य), ९.केस-वाणिज्य (केश-वाणिज्य), १०. विस-वाणिज्य (विश-वाणिज्य), ११. जंत-पीलण-कम्मे (यंत्र पीलण कर्न), १२. निलंलछण-कम्म (निर्लछन कर्म), १३. दवग्गिदावणया (दावाग्नि कर्म),१४. सरदहतलाय सोसणया (सरदहतलाय शोषणता), १५. असईवण पोसणया (असति जन पोषण)। . . कर्म-समारम्भ अर्थात् विविध प्रकार की क्रियाओं को वणिक करते थे। क्षेत्र, वस्तु, धन, धान्य, त्रणिक, काष्ट-संचय, यान,३७ वाहन, भोजन, पान, पात्र, कम्बल, स्वर्ण, रजत, माणिक्य आदि वस्तुओं का क्रय एवं विक्रय किया जाता था। व्यापार में मनुष्य और पशु दोनों को ही सेवक रूप में रखा जाता था। तुला आदि नापने के साधन भी थे।३८ व्यापार के लिये व्यापारी आपणक अर्थात् दुकान भी रखते थे। इसे पण्णशाला भी कहा जाता था तथा पणियशाला भी इसे कहा गया है ।१३९ वस्तुओं की खरीद के लिये दीनार नामक मुद्रा का प्रचलन था।१४० आचाराङ्ग-शीलावृत्ति : एक अध्ययन १९७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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