Book Title: Acharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Author(s): Rajshree Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 236
________________ कई प्रकार के व्यापारों में पशु व्यापार तथा दास, दासी, नौकर, चाकर आदि का व्यापार भी प्रचलित था। घी, दूध, दही, मक्खन, वस्त्र आदि का व्यापार भी होता था। १४१ उस समय में जो मुद्राएँ प्रचलित थीं उन मुद्राओं में कुछ ऐसी मुद्राएँ भी प्रचलित थीं जिनमें खोटे सिक्के को स्थान भी दिया जा सकता है। अर्थात् क्रय करने वाले व्यक्ति वस्तुओं के खरीदने के लिये जिन सिक्कों का प्रयोग करता था, उनमें नकली सिक्के भी प्रचलित हो गये थे । कृषि - वन, उपवन, आदि की व्यापकता के साथ कृषि कर्म की व्यापकता भी थी । गृहस्थ अपनी आजीविका के लिये विविध प्रकार के धान्यों की उपज करते थे और उससे निश्चित ही अपनी आजीविका चलाते रहे होंगे । इसलिये वृत्तिकार ने कृषि सेवा का प्रयोग किया है । १४२ जंतपिलणकम्म दवग्गीदावणिया कम्म” कृषि से सम्बन्धित ही कर्म हैं। कृषि कर्म करने वाले किसानों के खेतों में जो मचान होते थे, वे पलालपुंज के बनाये जाते थे ।१४३ कृषक कृषि कर्म के साथ-साथ दूध, दही, मक्खन एवं पशु-पालन आदि क्रियाओं को भी करते थे १४४ मान्यताएँ— 4 . १४५ आचारांग में आचार-विचार सम्बन्धी विवेचन पर्याप्त रूप में हुआ है परन्तु कुछ ऐसी प्रथाएँ हैं जो सामाजिक चिंतन के लिये महत्त्वपूर्ण विचार प्रस्तुत करते हैं। आचारांग के धूत्तवाद का व्याख्यान कई प्रकार की मान्यताओं को प्रस्तुत करता है, जैसे—अभिषेक, अभिसम्भूत, अभिसंजात, अभिनिभ्भट, अभिसम्बुद्ध, अभिसम्बद्ध, आक्रन्दन, आतुर लोक ४६, विद्युत कल्पी १४७, भातृ सम्मान, आचार्य भक्ति, स्नेह भाव, सहिष्णुता" आदि मान्यताओं का उल्लेख है । धरोहर प्रथा, ईमानदारी, एक दूसरे के प्रति विश्वास का भी उल्लेख है। मृतक देह का विसर्जन करने के लिये श्मशान भूमि का वर्णन है । वृत्तिकार ने श्मशान को पितृवन कहा है१४९ धर्मचक्र प्रवर्तन चैत्य निर्माण१५० और स्तूप १५१ बनवाने की प्रथा भी प्रचलित थी । १४८ पुत्र-जन्मोत्सव, भक्ति, पूजा, गुरु-उपासना, सेवाभाव, आत्म-प्रशंसा, मंत्र - सिद्धि, यज्ञ, देवी-देवताओं के चैत्य, पर्वत, गुफाएँ, तालाब, नदी आदि बनवाने की प्रथाएँ भी प्रचलित थीं । विविध उत्सवों के साथ गाथापति, गाथापति - कुल एवं अन्य परिजनों आदि के विचारों का उल्लेख है । अन्य कई मान्यताएँ भी प्रचलित थीं, जैसे—मुण्डन संस्कार, कर्ण छेदन, भेदन आदि । नभोदेव, गर्ज देव, विद्युत देव, प्रविष्ट देव, निविष्ट देव, सूर्य, चन्द्र, रात्रि, अग्नि, जल, समुद्र, पृथ्वी, वायु आदि प्रकृति की सम्पदाओं को देवता मानने जैसी प्रथाएँ भी थीं । १९८ Jain Education International आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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