Book Title: Acharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Author(s): Rajshree Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 230
________________ आदि से सहायता लेते थे । १०६ भोजन के लिये थाली एवं कटोरी आदि का भी प्रयोग होता था । भोजन ऊँचे स्थान पर रखा जाता था और भोजन के लिये सचिन और अचित्त जल का प्रयोग किया जाता था । १०७ श्रमण के आहार आदि का विस्तार से उल्लेख है प्रत्येक अध्ययन में किसी न किसी रूप में श्रमण शिक्षा का विवेचन है । नहीं करने योग्य कार्यों का भी उल्लेख है । आहार के दोषों में सोलह उद्गम के सोलह उत्पादन तथा दस एषणा सम्बन्धी आहार के दोषों का वृत्तिकार ने वर्णन किया है । १०८ द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रारम्भिक विवेचन में आहार की जिस विधि का विवेचन किया गया है उस पर स्वतन्त्र रूप से विस्तृत समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जा सकता है। ऋण (धान्यकण) कणकुण्डक कणो सक मिश्रित चोकर, कण कुथालि (कणों से मिश्रित रोटी), चाऊल (चावल), चाऊलिपिठ (चावलों का आटा) तेल ( तिलपीठ) तिल पप्पडक (तिल पपड़ी) आदि । १०९ भोज अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य - इस प्रकार के चार भोज्य पदार्थों का वर्णन आचारांग सूत्र एवं आचारांग वृत्ति में भी किया गया है। इन भोज्य पदार्थों को विशेष आयोजनों पर देने की व्यवस्था का भी उल्लेख है । विशेष भोज में पारिवारिक सदस्यों, कुटुम्बीजनों, इष्ट-मित्रों, दास-दासी, नौकर-चाकर, राजपुरुष, राज कर्मचारी आदि को निमंत्रित किया जाता था और अधिक दूरी पर रहने वाले कुटुम्बीजनों और मित्रों आदि को भोज्य पदार्थ भेजे जाते थे । भोज्य पदार्थों में आमंत्रित किये जाने वाले . व्यक्तियों के लिये भोजन सात्विक एवं संध्या काल के पूर्व ही कराया जाता था । अर्थात् इससे यह स्पष्ट होता है कि अधिकतर विशिष्ट भोज संध्याकाल में ही होते थे । ११० आचारांग में दो प्रकार की भोज व्यवस्था का उल्लेख है १. आहेणं - विवाह के बाद जब नववधू गृह प्रवेश करती थी, उस समय वर पक्ष के लोग जो भोज देते थे, वह आहेणं कहलाता था । २. पण — विवाह में या बाद में वधू को लेने के लिये गये अतिथियों के सम्मान में जो भोज दिया जाता था, वह पहेणं भोज कहलाता था । इसके अतिरिक्त मरण भोज को हिंगोल भोज कहा जाता था । उत्सव विशेष पर या ऋतु आदि प्रारम्भ होने पर भी भोज कराया जाता था। ऋतु भोज में अर्थात् तपस्या आदि की पारणा में व्रत उद्यापन में या अन्य किसी धार्मिक प्रसंग के आयोजनों में विशेष रूप से श्रमणों, ब्राह्मणों तथा अतिथियों को भी निमंत्रित किया जाता था । १११ भोज पदार्थ प्रायः धृष्ट प्रकृति वाले होते थे। कई प्रकार के उदर रोग भी हो जाते थे । ११२ धृष्ट १९२ आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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