Book Title: Acharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Author(s): Rajshree Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 213
________________ असन्तपुर नगर में जितशत्रु नाम का राजा था । धारिणी नाम की उसकी पत्नी थी। उनके धर्मरुचि नामक पुत्र था। किसी समय राजा का चित्त वैराग्य में रंग गया और वह तापसी दीक्षा ग्रहण करने के लिये उद्यत हुआ । उसने अपने पुत्र को सिंहासन पर आरूढ़ करने का निश्चय किया । राजकुमार ने अपनी माता से पूछा कि पिताजी राज्यश्री का त्याग क्यों कर रहे हैं? इसके उत्तर में माता ने कहा कि राज्यलक्ष्मी चंचल है। इसमें अनेक कूट-कपट की चालें चलनी पड़ती हैं। यह स्वर्ग और अपवर्ग के साधन में अर्गला भूत है । राज्य के लिये घोरतम पाप भी किये जाते हैं । इससे आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता। इससे शाश्वत सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसलिये उस सुख को प्राप्त करने के लिये वे राज्य का परित्याग कर रहे हैं । माता का यह कथन सुन कर धर्मरुचि बोला – माता, क्या मैं पिता को अनिष्ट हूँ जो यह पापमय राज्यलक्ष्मी मुझे दे रहे हैं ? जिस राज्य को अहितकर और दुःखवर्धक जान कर वे छोड़ रहे हैं उसे मैं क्यों ग्रहण करूँ? मैं भी सुख का अभिलाषी हूँ । अतः मैं भी पिता के साथ ही आश्रम में जाऊँगा । माता-पिता के बहुत समझाने-बुझाने पर भी राजकुमार ने राज्य सिंहासन पर बैठना स्वीकार नहीं किया और वह अपने पिता के साथ ही तापसों के आश्रम में . चला गया। वहाँ वे पिता-पुत्र तापसों की क्रियाओं का पालन करने लगे। किसी समय अमावस्या के एक दिन पहले किसी बड़े तापस ने सूचना की कि कल अमावस्या है इसलिये अनाकुट्टि (कन्दमूल लता आदि का छेदन नहीं करना ) होगी । अतः आज ही फूल, कुश, कन्दमूल, फल, ईंधन वगैरह ले आना चाहिए। यह सुनकर धर्मरुचि ने अपने पिता से पूछा कि “अनाकुट्टि” क्या चीज है ? पिता ने समझाया — कल पर्व दिन है। पर्व के दिनों में कन्दमूल आदि का छेदन नहीं किया जाता; क्योंकि इनका छेदन करना सावध है । यह सुनकर धर्मरुचि ने विचार किया कि यदि हमेशा ही अनाकुट्टि रहे तो कैसा अच्छा हो, दूसरे दिन तपोवन के मार्ग से विहार करते हुए जैन साधुओं के दर्शन का उसे अवसर मिला । उसने उन साधुओं से पूछा कि क्या आज अमावस्या के दिन भी आपके अनाकुट्टि नहीं है जो आप जंगल में जा रहे हैं ? उन साधुओं ने कहा कि हमारे लिये तो सदा ही अनाकुट्टि है । हमने सदा के लिये हिंसा का त्याग कर दिया है। यह कह कर वे साधु चले गये । उन साधुओं के वचनों को सुनकर और उन पर ऊहापोह करते हुए उसे जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हो गया कि मैंने जन्मान्तर में दीक्षा लेकर देवलोक के सुख का अनुभव किया और वहाँ से च्यव कर यहाँ उत्पन्न हुआ है I आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only ९७५ www.jainelibrary.org

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