Book Title: Acharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Author(s): Rajshree Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 219
________________ आचार्य, जिन-कल्पि और स्थविर,२ स्थविर भगवन्त,३ अर्हन्त-भगवन्त,४ श्रमण-भगवन्त, सुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी, स्कन्ध, (स्वामी कार्तिकेय), मुकुन्ध, रूद्र" आदि ऐतिहासिक पुरुषों का उल्लेख है। आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के १५वें अध्ययन में महावीर के पञ्च कल्याणकों की ऐतिहासिक दृष्टि है। इसमें गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, और निर्वाण इन पाँच कल्याणकों का उल्लेख है। देवा-नन्दा ब्राह्मणी का भी उल्लेख है। महावीर के प्रचलित नाम-१. वर्धमान, २. सन्मति, ३. महावीर का भी उल्लेख है। भगवान् के परिजन, माता, पिता आदि की भी चर्चा इस अध्ययन में की गई है। वृत्तिकार ने सैद्धान्तिक दृष्टि को महत्त्वपूर्ण बनाते हुए श्रमण-श्रमणियों की भावना को आदरस्वरूप में प्रस्तुत किया है। वृत्तिकार ने प्रत्येक भावना पर विचार करते हुए पञ्च महाव्रत सम्बन्धी २५ भावनाओं के सार को महत्त्व देते हुए कहा है कि जो व्यक्ति पाँच महाव्रतों की २५ भावनाओं को यथा-श्रुत, यथा-कल्प और यथा-मार्ग इनका भली-भाँति कीर्तन करता है, पालन करता है और भगवान् की आज्ञानुसार चलता है, वह कृत-कृत होता है। इस तरह आचारांग वृत्ति में वृत्तिकार ने तीर्थंकर, अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु जैसे महत्त्वपूर्ण तीर्थं प्रवर्तकों के प्रवर्तन का जहाँ उल्लेख किया है, वहाँ उनके शिष्यों आदि का भी इसमें उल्लेख है। मूलतः मात्र उल्लेख ही पर्याप्त नहीं है, अपितु उनकी जीवन पद्धति, जीवनचर्या आदि कैसी थी.? उसको भी वृत्तिकार ने अपनी वृत्ति में महत्त्व दिया है। धार्मिक व्यवस्था धर्म की दृष्टि से सम्पूर्ण समाज को दो भागों में विभक्त किया जाता है १. श्रमण समाज, २. गृहस्थ समाज । १. श्रमण समाज.. श्रमण, संयत, तपस्वी, साधु, ऋषि, वीतराग, अणगार, भदन्त, यति, प्रज्ञावन्त, अचेलक, निर्गन्थ, भिक्षु, वीरा, अप्रमत, यम आदि कई श्रमण के नाम हैं। वृत्तिकार ने श्रमण की परिभाषा करतें लिखा है-“जो सदैव प्रयत्नशील होता है, वह श्रमण कहलाता है।"२२ “वह समभाव में स्थित साधना की क्रिया में लीन रहता है।” श्रमण सम्बन्धी विवेचन आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में किया गया है। श्रमण या श्रमणी, भिक्षु या भिक्षुणी साधना के क्षेत्र में प्रवेश करते ही भाव शुद्धि को प्रमुख आधार बनाते हैं। अर्हत शासन में उन्हें वृत्ति या अणगार कहते हैं। अणगार की व्याख्या करते हुए लिखा है-“जो आगार, अर्थात् गृह के आधिपत्य को छोड़ देता है, वह अणगार कहलाता है ।२३ अणगार का जीवन शुद्ध एवं निरासक्त होता है। वे आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन १८१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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