Book Title: Acharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Author(s): Rajshree Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 179
________________ प्रामाण्य और अप्रामाण्य जैन दर्शन में परत:ज्ञान को अन्यास दशा कहा गया है और श्रुतः ज्ञान को अभ्यास दशा माना गया है । प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति इन दोनों से ही होती है । प्रामाण्य ज्ञान अविसंवादि होता है । अप्रामाण्य ज्ञान विश्संवादि होता है । प्रमाण वस्तु के अनेक अंशों को ग्रहण करता है। इसमें अवयव और अवयवी दोनों ही पाये जाते हैं। यह प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान के के कारण दो प्रकार का है इसमें मिथ्या ज्ञान को स्थान नहीं दिया जाता है । यह मिथ्या ज्ञानों का निराकरण करने वाला है 1 1 अनुमान यह दर्शन शास्त्र का सबसे महत्त्वपूर्ण अङ्ग है । आगमों में कथन किया गया है कि जो ज्ञान मतिपूर्वक होता है वह अनुमान है। इसके दो अङ्ग —– साध्य और साधन हैं। इसके दो भेद भी किये जाते हैं - स्वार्थानुमान और परार्थानुमान । सूत्र कृतांग में अज्ञमनः और परतः ये दो ज्ञान के साधन बतलाये गये हैं । १०० जल की सचेतना सिद्ध करने के लिए वृत्तिकार ने अनुमान का सहारा लिया है तथा आत्मसिद्धि के लिए भी अनुमान को आधार बनाया। उन्होंने प्रतिपादन किया है कि शरीर को ग्रहण करने वाला कोई न कोई द्रव्य है; क्योंकि यह शरीर कफ, रुधिर, अङ्गोपांग आदि का परिणाम मात्र है । अन्न आदि की तरह । जैसे अन्न को ग्रहण करने वाला कोई न कोई है। वैसे शरीर को ग्रहण करने वाला कोई द्रव्य है । १०१ अनुमान के विविध अवयवों का प्रयोग जैन दार्शनिकों ने अनेकान्त दृष्टि से व्यक्त किया है जिसे निम्न प्रकार निर्दिष्ट किया जा रहा है— प्रतिज्ञा उदाहरण प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण Jain Education International अवयव प्रतिज्ञा आचाराङ्ग - शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन दृष्टान्त उपसंहार निगमन प्रतिज्ञा प्रतिज्ञा विशुद्धि हेतु हेतु विशुद्धि दृष्टान्त दृष्टान्त विशुद्धि उपसंहार उपसंहारविशुद्धि निगमन निगमन विशुद्धि For Personal & Private Use Only प्रतिज्ञा प्रतिज्ञा विभक्ति हेतु हेतु विभक्ति विपक्ष प्रतिषेध दृष्टान्त आशंका तत्प्रतिषेध निगमन १४१ www.jainelibrary.org

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