Book Title: Achalgaccha ka Itihas
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 7
________________ प्रकाशकीय अद्यावधि विद्यमान गच्छों में अचलगच्छ (अंचलगच्छ) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। चन्द्रकुल से निष्पत्र प्रवर्तमान गच्छों में प्राचीनता की दृष्टि से खरतरगच्छ के पश्चात् अंचलगच्छ का ही स्थान है। वि०सं० ११६९ में आचार्य आर्यरक्षितसूरि द्वारा विधिमार्ग की प्ररूपणा और उसका पालन करने के कारण यह गच्छ अस्तित्व में आया। इस गच्छ में आचार्य जयसिंहसूरि, धर्मघोषसूरि, महेन्द्रसिंहसूरि, धर्मप्रभसूरि, महेन्द्रप्रभसूरि, जयशेखरसूरि, मेरुतुंगसूरि, जयकेशरीसूरि, धर्ममूर्तिसूरि, दादा कल्याणसागरसूरि आदि विभिन्न प्रभावक एवं विद्वान् आचार्य हो चुके हैं। धीरे-धीरे इस गच्छ में भी शिथिलाचार प्रविष्ट हुआ और क्रमश: बढ़ता गया। विक्रम संवत् की २०वीं शती में हुए मुनि गौतमसागर जी ने गच्छ में व्याप्त शिथिलाचार का प्रबल विरोध करते हुए सुविहित मार्ग को पुनः प्रतिष्ठापित किया। वि०सं० २००४ में इस गच्छ के अन्तिम श्रीपूज्य आचार्य जिनेन्द्रसागरसूरि के निधन के पश्चात् यति-गोरजी की परम्परा यहाँ से समाप्त हो गयी और संवेगी मुनि गौतमसागर जी के नेतृत्व में गच्छ में पुन: नवीन स्फूर्ति आयी। वि०सं० २००८ में गौतमसागर जी म. सा. आचार्य और गच्छनायक के पद पर प्रतिष्ठित हुए। उनके निधन के पश्चात् आचार्य गुणसागरसूरि जी के नेतृत्व में इस गच्छ का चातुर्दिक विकास प्रारम्भ हुआ जो वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य गुणोदयसागरसूरि जी व आचार्य कलाप्रभसागरसूरि जी म.सा. के समय भी निर्बाध रूप से जारी है। अंचलगच्छ से भी समय-समय पर विभिन्न शाखायें अस्तित्व में आयीं, परन्तु वे सभी समय के साथ-साथ समाप्त हो गयीं। वर्तमान में इस गच्छ की कोई शाखा विद्यमान नहीं है। वर्षों पूर्व सुप्रसिद्ध विद्वान् भाई श्रीपार्श्व द्वारा लिखित अंचलगच्छीय दिग्दर्शन नामक एक बड़ा और प्रामाणिक ग्रन्थ गुजराती भाषा और उसी लिपि में प्रकाशित हुआ था, जो लम्बे समय से अनुपलब्ध रहा। हिन्दी भाषा में तो इस विषय पर कोई पुस्तक ही नहीं थी। संस्थान के प्रवक्ता डॉ० शिवप्रसाद ने इस कमी को पूर्ण करते हुए इस गच्छ का प्रारम्भ से लेकर वर्तमान समय तक का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत किया है। प्रामाणिकता की पुष्टि हेतु लेखक के अनुरोध पर जैन इतिहास व पुरातत्त्व के अधिकारिक विद्वान् साहित्य वाचस्पति म० विनयसागर द्वारा इसका आद्योपान्त अवलोकन भी करवा दिया गया है। इसके प्रकाशन के लिये आचार्य कलाप्रभसागर जी म.सा० की प्रेरणा से आर्य जयकल्याण केन्द्र ट्रस्ट, मुम्बई की ओर से ५ हजार रुपये की राशि प्राप्त हुई है, अत: हम आचार्यश्री एवं उक्त ट्रस्ट के ट्रस्टीजनों के आभारी हैं। इसके प्रकाशन सम्बन्धी जिम्मेदारी संस्थान के ही प्रवक्ता डॉ० विजयकुमार ने वहन की है, अत: हम उनके भी आभारी हैं। अन्त में सुन्दर अक्षर-सज्जा के लिये सरिता कम्प्यूटर्स और मुद्रण के लिए वर्धमान मुद्रणालय, भेलूपुर, वाराणसी के प्रति अपना आभार प्रकट करते हैं। संजय कुमार कानोडिया अध्यक्ष प्राकृत भारती अकादमी जयपुर प्रो० सागरमल जैन मंत्री पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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