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इस मंदिरमे आदिनाथकी प्रतिमाके पहले महावीर प्रभुकी प्रतिमा होगी ऐसा अनुमान होसकता है । चौथा मंदिर वह है कि जिसको लोग सिलाटोंका मंदिर कहते हैं । इसका असली नाम "खरतर-वसति" है । इसकी प्रतिष्ठा करानेवाले जिनचंद्र सूरि वि. संमत् १५१४ से १५३० तक विद्यमान थे।
देलवाड़ेकी यात्रा करके अचलगढ जाया जाता है। वहां भी भव्य और मनोहर जिन चैत्य और जिन प्रतिमाएँ हैं जिनका वर्णन परिशिष्ट नंबर १ के पृ. ७३ से ७७ तक लिखा गया है।
परिशिष्ट नं. २ के पृ. ८३ पर इस बातका भी वर्णन करदिया गया है कि दशवीं शताब्दीमें भी आबुतीर्थपर जैन मंदिर थे, इस बातको उद्योतन सूरिजीके आगमन वृत्तान्तसे स्फुट करनेकी चेष्टा की गई है और वह जिकर सहस्रावधानी परम संवेगी विद्वन्मुखमंडन श्रीमुनिसुंदरसूरिजीकी बनाई पद्यावलिके आधारसे लिखा गया है।
वाचक महाशय परिशिष्ट नं. १ में पढ चुके हैं कि
कर्नल टॉड साहबने हिंदुस्तानमें जो जो इमारतें देखीथीं उसमेंसे आबुके मंदिरोंको प्रथम स्थान दिया था । परंतु अफसोस है कि १९००० माईलके फांसलेपर बैठे हुए शिल्पियोंकी शिल्प कलाको सुनकर हम आश्चर्यमें गर्क होते जाते हैं और प्रत्यक्ष विद्यमान वस्तुको प्रेमसे निरीक्षण करनेकीभी हमे फुरसत नहीं।
अपने पूर्वजोंकी कुशलताको न जानकर उनकी तहजीबके
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