Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 123
________________ १०५ पुरा-तत्त्वज्ञोंने बहुतसे लेखोंका उद्धार किया है । पर इन पुस्तकोंके लेखकोंसें कहीं कहीं प्रमाद होगये हैं । अत एव पुराने प्रमादोंको दूरीकरण और समस्त प्राचीन लेखोंके प्रकाशनके लिये ऐसे संशोधन मंदिरकी बड़ी आवश्यकता थी । संतोषकी बात है, यह आवश्यकता, इसतरह, दूर होगई। इस संशोधनमंदिरके कार्य कर्ताओंनें “प्राचीन जैनलेख-संग्रह" नामका एक ग्रंथ निकाला है । उसका दूसरा भाग हमारे सामने है । पहला भाग हमारे देखने में नहीं आया । वह शायद कभी पहिले निकल चुका है । दूसरा भाग बहुत बड़ा ग्रंथ है । आकारभी बड़ा है । पृष्ठसंख्या आठसौंसे कुछ कम है । छपाई और कागज़ अच्छा और जिल्द बड़ी सुन्दर है । मूल्य ३॥) है । इसके संग्राहक और सम्पादक हैं, पूर्वोक्त मुनि जिनविजयजी । और प्रकाशक है, श्री जैन-आत्मानंद-सभा, भावनगर । सूचियों आदिको छोड़कर पुस्तक मुख्यतया दो भागोंमें विभक्त है । पहिले भागमें जैनोंके ५५७ प्राचीन लेखोंकी नकल है । यह लेख देवनागरीके मोटे टाईपमें छपे हैं । लेखोंकी भाषा अधिकांश संस्कृत है । दूसरे भागके ३४४ पृष्ठोंमें पहिले भागके लेखोंकी आलोचना है । यह भाग गुजराती भाषामें है और गुजरातीही टाईपमें छपा है । आरंभकी भूमिका आदिभी गुजरातीहीमें है। जैनियोंके दो सम्प्रदाय हैं-एक दिगम्बर, दूसरा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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