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॥ णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स॥
आवश्यक सूत्र
(मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ और विवेचन सहित)
उत्थानिका - भूतकाल में अनंत तीर्थंकर हो चुके हैं, भविष्य में फिर अनंत तीर्थंकर होवेंगे और वर्तमान में संख्यात तीर्थंकर विद्यमान हैं। अत एव जैन धर्म अनादिकाल से है इसीलिये इसे सनातन (सदातन - अनादिकालीन) धर्म कहते हैं।
जैन धर्म में ज्ञान के पांच भेद किये गये हैं - १. मति २. श्रुत ३. अवधि ४. मन:पर्यव और ५. केवल। नंदीसूत्र में श्रुत के १४ भेद किये गये हैं - १. अक्षर श्रुत २. अनक्षर श्रुत ३. संज्ञी श्रुत ४. असंज्ञी श्रुत ५. सम्यक् श्रुत ६. मिथ्या श्रुत ७. सादि श्रुत ८. अनादि श्रुत ९. सपर्यवसित श्रुत १०. अपर्यवसित श्रुत ११. गमिक श्रुत १२. अगमिक श्रुत १३. अंगप्रविष्ठ श्रुत और १४. अनंगप्रविष्ठ श्रुत। संक्षेप में श्रुत का प्रयोग शास्त्र के अर्थ में होता है।
वैदिक शास्त्रों को जैसे वेद और बौद्ध शास्त्रों को जैसे पिटक कहा जाता है वैसे ही जैन शास्त्रों को 'आगम' कहा जाता है। . वर्तमान में जैन धर्म में दो परंपराएं प्रचलित हैं - १. दिगम्बर परंपरा और २. श्वेताम्बर परंपरा (श्वेताम्बर स्थानकवासी, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, श्वेताम्बर तेरहपंथ)। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परंपरा ४५ आगम मान्य करती है जबकि श्वेताम्बर स्थानकवासी और श्वेताम्बर तेरहपंथ की मान्यता निम्नानुसार बत्तीस आगम मानने की है - ११ अंग - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथांग,
उपासकदशांग, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण एवं विपाक सूत्र।। १२ उपांग - औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, - चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा सूत्र। ४ छेद - दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ सूत्र। ४ मूल - उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नंदी और अनुयोगद्वार सूत्र। १ आवश्यक सूत्र।
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