Book Title: Aatmbodhak Granthtrai
Author(s): Yogtilaksuri
Publisher: Sanyam Suvas
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૨૫૭
संसारचक्कवाले, सव्वे वि अ पुग्गला मए बहुसो । आहारियाय परिणामिआ य न तेसु तत्तोऽहं ॥ १७ ॥ उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई । भोगी भइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ ॥ १८ ॥
अल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टियामया । दो वि आवडिया कूडे, जो अल्लो सो तत्थलग्गइ ॥ १९ ॥
एवं लग्गंति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गंति, जहा सुक्के अ गोलए ॥ २० ॥ तणकट्ठेहि व अग्गी, लवणसमुद्दो नईसहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्ने, तिप्पेउं कामभोगेहिं ॥ २१ ॥ भुत्तूण वि भोगसुहं, सुरनरखयरेसु पुण पमाएणं । पिज्जइ नरएसु भेरव - कलकलतउतंबपाणाई ॥ २२ ॥ को लोभेण न निहओ, कस्स न रमणीहिं भोलिअं हिअयं । को मच्चुणा न गहिओ, को गिद्धो नेव विसएहिं ॥ २३ ॥
खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा,
पगामदुक्खा अनिकामसुक्खा । संसारमोक्खस्स विपक्खभूआ,
खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ॥ २४ ॥

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