Book Title: Aatmbodhak Granthtrai
Author(s): Yogtilaksuri
Publisher: Sanyam Suvas
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૨૬૫
सत्तू विसं पिसाओ, वेआलो हुअवहो वि पज्जलिओ । तं न कुणइ जं कुविआ, कुणंति रागाइणो देहे ॥ ८६ ॥ जो रागाईण वसे, वसम्मि सो सयलदुक्खलक्खाणं । जस्स वसे रागाई, तस्स वसे सयलसुक्खाइं ॥ ८७ ॥ केवलदुहनिम्मविए, पडिओ संसारसायरे जीवो । जं अणुहवड़ किलेसं, तं आसवहेउअं सव्वं ॥ ८८ ॥ ही संसारे विहिणा, महिलारूवेण मंडिअं जालं । बज्झति जत्थ मूढा, मणुआ तिरिया सुरा असुरा ॥ ८९ ॥ विसमा विसयभुयंगा, जेहिं डसिया जिआ भववणम्मि । कीसंति दुहग्गीहिं, चुलसीई जोणिलक्खेसु ॥ ९० ॥ संसारचारगिम्हे, विसयकुवाएण लुक्किया जीवा । हियमहिअं अमुणंता, णुहवंति अणंतदुक्खाई ॥ ९१ ॥ हा हा दुरंतदुट्ठा, विसयतुरंगा कुसिक्खिआ लोए । भीसणभवाडवीए, पाडंति जिआण मुद्धाणं ॥ ९२ ॥ विसयपिवासातत्ता, रत्ता नारीसु पंकिलसरम्मि । दुहिया दीणा खीणा, रुलंति जीवा भववणम्मि ॥ ९३ ॥ गुणकारिआई धणियं, धिइरज्जुनियंतिआइं तुह जीव ! । निययाइं इंदियाई, वल्लिनिअत्ता तुरंगु व्व ॥ ९४ ॥

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