Book Title: Aagam 01 ACHAR Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम (०१)
“आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१५३], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५३]
दीप अनुक्रम
च कर्मोपादानं तथा दर्शयति–'अन्तः' मध्ये पतहकस्य प्राणिनो-द्वीन्द्रियादयः, तथा बीजानि रजो वा 'पर्यापो-11 रन्' भवेयुः, तथाभूते च पाने पिण्डं गृह्णतः कर्मोपादानं भवतीत्यर्थः, साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्पूर्वमेव । पात्र प्रत्युपेक्षणं कृत्वा तद्गतप्राणिनो रजश्चापनीय गृहपतिकुले प्रवेशो निष्क्रमणं वा कार्यमिति । किश्च
से मि० जाव समाणे सिया से परो आहह अंतो पडिग्गहगंसि सीओदगं परिभाइता नीहट्ट दलला, तहप्प० पटिग्गहगं परहत्यसि वा परपायंसि वा अफासुर्य जाव नो प०, से य आहब पडिग्गहिए सिया खिप्पामेव उदगंसि साहरिना, से पडिग्गाहमायाए पाणं परिडविजा, ससिणिद्धाए वा भूमीए नियमिक्षा ।। से० उदउहं वा ससिणिद्धं वा पडिम्गई नो आमजिज वा २ अह पु० विगओदए मे पडिग्गहए छिन्नसिणेहे तह पडिगई वओ० सं० आमजिजा वा जाव पयाविन वा ॥ से मि० गाहा. परिसिउकामे पडिग्गहमायाए गाहा० पिंड० परिसिज वा नि०, एवं महिया वियारभूमी विहारभूमी बा गामा० दूइजिजा, तिन्चदेसीयाए जहा विइयाए वत्थेसणाए नवरं इत्थ पडिम्पहे, एवं खलु तस्स० जं सबद्वेर्हि
सहिए सया जएनासि (सू० १५४ ) तिबेमि ॥ पाएसणा सम्मत्ता ॥ २-१-६-२॥ स मिथुर्रहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टः सन् पानकं याचेत, तस्य च स्यात्-कदाचित्स परो गृहस्थोऽनाभोगेन प्रत्यनीकतया, तथाऽनुकम्पया विमतया वा गृहान्ता-मध्य एवापरमिन् पतहाई स्वकीये भाजने आहृत्य शीतोदक 'परिभाज्य' विभागीकृत्य 'पीहड्ड'त्ति निःसार्य दद्यात्, स-साधुस्खयापकारं शीतोदकं परहस्तगतं परपात्रगतं वाऽमासुक
[४८७]
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