Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 3
________________ प्रकाशकीय जन-जगत् मे सर्वाधिक विश्रुत आचार्य कुन्दकुन्द के द्विसहस्राब्दी वर्ष के अन्तर्गत जनविद्या सम्थान की ओर से आचार्यश्री से सम्बन्धित यह द्वितीय प्रकाशन है। भगवान् महावीर के सिद्धान्तो को ग्रथ रूप मे निबद्ध कर उन्हे स्थायित्व प्रदान कर आचार्य कुन्दकुन्द ने दिगम्बर जैन साहित्य और आम्नाय को तो मुरक्षित रखा ही, माय ही दार्शनिक-जगत् मे भी अमूल्य योगदान दिया । प्राचार्य कुन्दकुन्द की उपलब्ध सभी रचनाए तात्विक चिन्तन से प्रोत-प्रोत हैं । आचार्यश्री प्रथम जैन दार्शनिक है जिन्होने अपने ग्रन्थो मे द्रव्य की अवधारणा का विशद वर्णन किया है। जगत् मे जो कुछ है वह 'मत्' है । सत् अर्थात् अस्तित्वशील । जो सत् है उमी की मत्ता है । इस प्रकार जगत् की प्रत्येक वस्तु 'सत्' है । जैन दर्शन के अनुसार जो मत है वह द्रव्य है । आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य का लक्षण बताया है दव्व सल्लक्खणिय उप्पादव्ययधुवत्तसजुत । गुणपज्जयासय वा ज त भण्णति सव्वण्णहु ।।101 पचास्तिकाय, जिमका लक्षण मत् है वह द्रव्य है । जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त है वह द्रव्य है। जो गुण और पर्याय का पाश्रय है वह द्रव्य है । द्रव्य छह प्रकार के है-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । प्रत्येक द्रव्य का अस्तित्व, स्वरूप, गुण और परिणमन भिन्न है, पृथक् है । छहो द्रव्यो मे जीव ही चेतन है शेप सब अचेतन-जड है। जानना-देखना जीव का स्वभाव है । वह अन्य द्रव्यो को उनके स्वभाव से जाने, उनके अपने से भिन्न स्वरूप को समझे, अपने को उनमे घुला-मिला न ममझे, यह भली-माति ममझाने के लिए, छहो द्रव्यो के स्वरूप से परिचय कराने के दृष्टिकोण से प्राचार्यों ने उनका विशद वर्णन किया है।

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