Book Title: Varddhamanakshara Chaturvinshati Jin Stuti
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि रचिता वर्द्धमानाक्षरा चतुर्विंशति-जिनस्तुतिः म. विनयसागर भारतीय साहित्य की अनेक विशेषताओं में एक प्रमुख विशेषता उसका विशाल स्तोत्र साहित्य भी है । स्तोत्र साहित्य भारतीय साहित्य का हदय कहा जा सकता है । सभी जातियों ने स्तोत्र रचना में अपना बहुमूल्य योग दिया है । बौद्धों ने बुद्ध भगवान् की, जैनों ने अर्हत् की, वैष्णवों ने विष्णु व उनके अनेक रूपों की, शैवों ने शिव की, शाक्तों ने भगवती दुर्गा की और अन्य लोगों ने अपने इष्टदेवों की स्तुति मधुरतम गीयमान स्तोत्रों द्वारा की है, आत्म-निवेदन किया है, श्रद्धा के प्रसून अपित किये हैं । स्तोत्र द्वारा भक्त-हृदय स्वच्छन्दतापूर्वक अपने भावों को इष्टदेव के सम्मुख प्रस्तुत करता है । हृदय का आवरणरहित स्वरूप उसमें देखा जा सकता है । निरावृत्त व मुक्त-हदय का आत्म-निवेदन ऐसी भाषा में अभिव्यक्त होता है, जिसे भाषा न जाननेवाला भी किसी-न-किसी तरह समझ लेता है । स्तोता की भाषा विशुद्ध मानव-हृदय की भाषा होती है जिस पर बुद्धि व तज्जन्य प्रपंचों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । स्तोता की मधुर अनुभूतियों को स्वतः ही मधुरतम शब्द मिल जाते हैं जिसके लिए रचना-कौशल की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी अनुभूति की 'सघनता की। पावस-ऋतु में जैसे जीवनदायक मेघों की फुहार पड़ते ही बीजों में अंकुर उत्पन्न होने लगते हैं, उसी तरह सघन-अनुभूतियाँ मधुरतम शब्दों में मूर्ती होने लगती है । इस कार्य में किसी तरह के प्रयत्नों का कोई हाथ नहीं होता । जैन मनीषि-पुंगवों ने भगवत्-स्तवना करने में दो विधाएँ अपनाई हैं - १. स्तोत्र, २. स्तुति । १. स्तोत्र - किसी तीर्थंकर विशेष की या समन्वित समस्त तीर्थंकरों की या किसी तीर्थस्थित तीर्थंकर विशेष की स्तवना करते हुए जो हृदय Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ के उद्गार प्रकट होते हैं, वे स्तोत्र कहलाते हैं। इन स्तोत्रों के माध्यम से अनेकान्त स्याद्वाद की प्ररूपणा, भगवान् की देशना अथवा दार्शनिक विवेचन का स्वरूप चिन्तन भी होता है । भगवत् गुणों का वर्णन करते हुए अष्ट महाप्रातिहार्य, ३४ अतिशय, ३५ वाणी इत्यादि का भी समावेश किया जाता है। भगवान के साथ तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करते हुए अपनी लघुता भी प्रदर्शित की जाती है और स्वकृत पापों की आत्मगर्हा भी । स्तुति - स्तुति यह केवल ४ पद्यों की होती है। प्रथम पद्य में किसी तीर्थंकर विशेष की या सामान्य जिन की, दूसरे पद्य में समस्त तीर्थंकरों की, तीसरे पद्य में भगवत् प्ररूपित द्वादशांगी आगम को और चतुर्थ पद्य में तीर्थंकर विशेष, के शासन देवता की । इन लक्षणों पर आधारित कई सामान्य स्तुतियाँ भी प्राप्त होती हैं और कई विशिष्ट स्तुतियाँ भी । जिसमें यमक और श्लेषालंकार आदि का छन्दवैविध्य के साथ उक्तिवैचित्र्य का समावेश होता है, वे विशेष कहलाती है । आचार्य बप्पभट्टिसूरि और शोभनमुनि आदि का स्तुति साहित्य विशिष्ट कोटि में ही आता है । श्रीभुवनहिताचार्य आदि रचित स्तुतियों में छन्दवैविध्य पाया जाता है । बढ़ते हुए अक्षरों के साथ छन्दों में रचना करना वैदुष्य का सूचक है ही । श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि रचित चतुर्विंशतिस्तुति भी इसी विधा की रचना है। लक्ष्मीकल्लोलगणि - स्तुतिकार ने प्रान्त पुष्पिका में "उ. श्री हर्षकल्लोलप्रसादात्" लिखा है । अत: इससे एवं अन्य प्रमाणों से निश्चित है कि ये श्री हर्षकल्लोलगणि के शिष्य थे । आचार्य सोमदेवसूरि की परम्परा से कमल-कलश और निगम-मत निकले थे। सोमदेवसूरि तपा० सोमसुन्दरसूरि के शिष्य थे, किन्तु उन्होंने १५२२ के लेख में लक्ष्मीसागरसूरि का शिष्य भी लिखा है । इनके शिष्य रत्नमण्डनसूरि हुए । रत्नमण्डनसूरि की परम्परा में श्रीआगममण्डनसूरि के प्रशिष्य और श्रीहर्षकल्लोलगणि के शिष्य १. त्रिपुटी महाराज : जैन परम्परानो इतिहास - भाग ३, पृ. ५६० २. त्रिपुटी महाराज : जैन परम्परानो इतिहास - भाग ३, पृ. ५६६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर लक्ष्मीकल्लोगगणि थे । इनके अतिरिक्त इनके सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है । इनका परिचय, जन्म, दीक्षा, पद आदि भी अज्ञात है । लक्ष्मीकल्लोलगणि आगम- साहित्य और काव्य-साहित्य शास्त्र के प्रौढ़ विद्वान् थे । आगम ग्रन्थों पर इनकी दो टीकाएँ प्राप्त होती हैं : १. आचाराङ्ग सूत्र तत्त्वागमारे टीका प्राप्त होती है जिसका रचना सम्वत् १५९६ दिया हुआ है । जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास में टीका के स्थान पर अवचूर्णी लिखा है ।। २. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र 'मुग्धावबोध टीका५- इसमें रचना सम्वत् प्राप्त नहीं है। श्री देसाई ६ के मतानुसार सोमविमलसूरि के विजयराज्य में विक्रम सम्वत् १५९७-१६३७ के मध्य रचना की गई है । इससे इनका साहित्य रचनाकाल १५९० से १६४० तक निर्धारित किया जा सकता है। आगम साहित्य पर टीका रचना से यह स्पष्ट है कि आगम साहित्य पर इनका चिन्तन और मनन उच्च कोटि का था । इन दोनों टीकाओं के अतिरिक्त स्वतन्त्र कृतियों के रूप में कुछ स्तोत्र भी प्राप्त होते है वे निम्न हैं : ११९९ जिन स्तव (समस्याष्टक) १३४२ साधारण जिन स्तवः (समस्याष्टक) १४४० ऋषभदेव स्तव १७७२ महावीर स्तोत्र (सावचूरि) ५०८९ समस्याष्टक ६२३२ साधारण जिन स्तव (पराग शब्द के १०८ अर्थ) जिनरत्नकोश : पृष्ठ २४, इसके अनुसार इसकी प्रति A descriptive Catalogue of the Mss. in the B.B.R.A.S. Vol. No. 1397 4. पृष्ठ ५२०, पैर नं. ७६१ ५. जिनरत्रकोश : पृष्ठ १४७, इसके अनुसार इसकी प्रति A descriptive Catalogue of the Mss. in the B.B.R.A.S. Vol. No. 1473 6. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ ५२०, पैरा नं. ७६१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ ये सारे क्रमांक कैटलॉग ऑफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैनुस्कृप्ट मुनिराज श्री पुण्यविजयजी संग्रह भाग - १, २ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद के दिए गये हैं । चमत्कृति प्रधान इन स्तोत्रों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि श्री लक्ष्मीकल्लोलोपाध्याय साहित्य और लक्षणशास्त्र के भी उद्भट विद्वान थे । इनके अतिरिक्त स्वतन्त्र कृति के रूप में 'वर्द्धमानाक्षरा चतुर्विंशति जिनस्तुति' प्राप्त होती है । इसमें २४ तीर्थंकरो की स्तुति के साथ अन्तिम गौतम गणधर की भी स्तुति प्राप्त है । एकाक्षर से प्रारम्भ कर २५ अक्षरों तक के विभिन्न छन्दों में प्रत्येक की स्तुति की है जो कि इसके परिशिष्ट में दिये गये छन्दसूचि से स्पष्ट है । छन्द - शास्त्र के ये अजोड़ विद्वान् थे । इन छन्दों में कई छन्द ऐसे हैं जो कि प्रायः प्रयोग में नहीं आते हैं । प्रान्त पुष्पिका में 'अनुप्रासालङ्कारमय्यश्च' अर्थात् प्रत्येक स्तुति में अनुप्रासालङ्कार का विशेष रूप से प्रयोग किया है । प्रत्येक स्तुति का अवलोकन किया जाए तो प्रत्येक श्लोक के पहले और दूसरे चरण में, तीसरे और चौथे चरण में एकाक्षर या द्व्यक्षर में अनुप्रास का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । उदाहरण के रूप में देखिए - विमलनाथ की स्तुति प्रथम पद्य, प्रथम चरण 'नमाम:' और दूसरे चरण में रमामः 'मामः' का प्रयोग है । इसी स्तुति में दूसरे श्लोक के तीसरे चौथे श्लोक में 'वन्तां' का प्रयोग है । इस प्रकार प्रत्येक पद्य के समग्र चरणों का अवलोकन करें तो अन्त्यानुप्रास की छटा सर्वत्र दृष्टिगोचर होगी । कवि का अभीष्ट भी अनुप्रासालङ्कार प्रतीत होता है । श्लेष, उपमा, रूपक, यमक आदि अलंकार भी स्थान-स्थान पर मुक्ताओं की तरह गुंथे हुए नजर आते हैं । I इस कृति की प्रतियाँ भी अत्यन्त दुर्लभ हैं । विक्रम सम्वत् २००१ में श्रद्धेय गणिवर्य श्री बुद्धिमुनिजी महाराज ने जामनगर में रहते हुए इसकी पाण्डुलिपि तैयार की थी। उनकी कृपा थी कि स्वलिखित प्रति मुझे भिजवा दी, वही आज प्रकाशित की जा रही है । गणिवर्य लिखित पाण्डुलिपि में किस भण्डार की प्रति से उन्होंने इसकी प्रतिलिपि की है, इसका संकेत न होने की वजह से यह कहने में असमर्थता है कि यह किस भण्डार की Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर प्रति है ? इन स्तुतियों प्रातः एवं सायं प्रतिक्रमण में इसका उपयोग किया जा सकता है । पाठको के रसास्वादन के लिए प्रस्तुति कृति प्रस्तुत है : श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि रचिता वर्द्धमानाक्षरा चतुर्विंशति-जिनस्तुतिः [पण्डित श्री ५ श्रीलक्ष्मीकल्लोलगणि-चरणकमलेभ्यो नम:] १ - श्रीऋषभजिनस्तुतिः, (श्रीछन्दसा) मेऽघं । स्याऽर्हन् ॥१॥ नोऽजाः' । स्युर्यैः२ ॥२॥ नोऽकं । नव्यम् ॥३॥ गीः शं । वोऽव्यात् ॥४॥ २ - श्रीअजितजिनस्तुतिः (स्त्रीछन्दसा) अन्यः, सार्वः । सिद्धिं, दद्यात् ॥१॥ सार्वाः, सर्वे । सात, दद्युः ॥२॥ सार्वा, वाचः । नः शं, कुर्युः ॥३॥ वाणी, देवी । लक्ष्म्यै, भूयात् ॥४॥ १. जिनाः । २. लक्ष्म्यै । ३. क्रियात् । ४. अजितः । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 ३ - श्रीशम्भवजिनस्तुतिः ( नारीछन्दसा ) 3 तीर्थेशस्तात्तयः । वृद्धि वः प्रादुष्येत् ॥ १ ॥ येऽन्तस्ते पापं । भक्तानां छिन्द्यासुः ॥२॥ सार्वीयः, सिद्धान्तः । मच्चित्तं, पोपूयात् ॥३॥ सुत्रास्यः साधूनां । विघ्नौघं, लोलूयात् ७ ॥४॥ ४- श्रीअभिनन्दनजिनस्तुतिः (सुमतिच्छन्दसा ) 4 प्लवगाङ्कं गलिताङ्कम् । हतजालं, भजतालम् ||१|| जिनवृन्दं कृतभन्द (द्र ? ) म् । कनकाच्छं, ददताच्छम् ||२|| जिनवाक्यं जितशाक्यम् । भज भव्यं मुनिनव्यम् ||३|| श्रुतदेवी, पदसेवी । अघहर्त्री, सुखकर्त्री ॥४॥ , ५ - श्रीसुमतिजिनस्तुतिः (अभिमुखीछन्दसा ) 5 सुमतिजिनं, गतवृजिनम् । श्रय मुनिपं चिदवनिपम् ॥१॥ ५. प्रकटीकरोतु । ६ पुनातु । ७. लुनातु । ८. ज्ञानप्रभुम् । अनुसन्धान ३४ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर जिननिकरं, जनसुकरम् । कृतविभवं, भज विभवम् ।।२।। जिनवचनं, वररचनम् । शिवसुखदं, नयतु पदम् ॥३॥ अमलतरा, कमलकरा । वितरतु कं, कजजतुकम् ॥४॥ ६ - श्रीपद्मप्रभजिनस्तुतिः (रमणाछन्दसा) धरभूपभवं, वररूपरवम् । कृतकामजयं, श्रथधाममयम् ॥१॥ जिनराजगणं, नतभूरमणम् । शमताशरणं, कुरुताच्छरणम् ॥२॥ भगवत्समयः, शमशूकमयः । भवतान्तिहरः, शिवशान्तिकरः ॥३॥ सुमतः कुसुमः, सुरसालसमः । जनतेहितशं, तनुतादनिशम् ॥४॥ ७ - श्रीसुपार्श्वजिनस्तुतिः (मधुनामाछन्दः) कनकसमधनः, करत शमधनः । नतनरसुमनाः, शिवममलमनाः ॥१॥ सकलजिनपतीन्, विमलनरपतीन् । भजत मुनिजना ! विगलितवृजिनाः ॥२॥ गणधरगदितं, यतिततिविदितम् । शमरससहितं, कुरु हृदि सहितम् ॥३॥ जयति भगवती, विमलगुणवती । शुचिरुचिमवती, शशिकरसुदती ॥४॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ८ - श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तुतिः (प्रमाणिकाछन्दः) * विशालवंशभूषणः, प्रणष्टकर्मदूषणः । ममाष्टमो जिनेशिता, तनोतु तां जगत्पिता ॥१॥ जिना दिशन्तु मे समे, समग्रसौख्यसङ्गमे । शिवालये पदं विभा - भरेण सूर्यसन्निभाः ॥ २॥ जिनोत्तमागमं सदा, कुरुध्वमानने मुदा । भवार्णवौधतारकं, विनोदवृन्दकारकम् ॥३॥ जिनेन्द्रपादपावितः प्रभूतभक्तिभाव (वि)त: । ददातु यक्षनायकः, समाङ्करस्मसायकः ॥४॥ } ९- श्रीसुविधिनाथस्तुतिः (भद्रिकाछन्दसा) १ आनुवे सुविधिनायकं भव्यजन्तुभवतायकम् । कर्म्मशत्रुभटभञ्जनं, साधुलोककृतरञ्जनम् ॥१॥ शं दिशन्तु सुजिनेश्वराः सर्वजन्तुषु कृपापराः । सिद्धिसाधुरमणीवराः पादनम्रजनशङ्कराः ॥२॥ श्रीजिनागममहर्निशं संश्रयेऽहमतिसद्वशम् । क्षीरनीरनिधिसन्निभं सूक्तिशक्तिरिव निर्निभम् ॥३॥ यो जिनः, कुमतितान्तिदः साध्यराड् भवतु शान्तिदः । जैनशासनविभासनः प्राणिनां कृतसुवासनः ॥४॥ 1 अनुसन्धान ३४ १० - श्रीशीतलजिनस्तुतिः ( --- छन्दसा ) 10 वन्देऽहं श्रीशीतलजनुषं, श्रीवत्साङ्कं काञ्चनवपुषम् । नन्दाजातं श्रीपतिविनतं मुक्तिप्राप्तं सुन्दररवितम् ॥१॥ ९. अतिसन्तः - अत्युत्तमाः, तेषां वशे यस्या (योऽ) सावतिसद्वशस्तम् । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर सर्वे सर्वज्ञाः कुशलकराः, नानावर्णाकारवरतराः । संसाराब्धौ मग्नजनधराः, देयासुः शं मुक्तिपदवराः ॥२॥ श्रीसिद्धान्तो मे कुशलकरः, श्रीसर्वज्ञोक्तो दुरितहरः । जीयात्संसाराब्धिघटभवः, शश्वद्भक्तानां कृतविभवः ॥३॥ साऽशोकादेवी मम सुखदा, तेजःपुञ्जोद्दीततररदा । अर्हद्रक्त्युत्थप्रबलमदा, भूयाद्रव्याङ्गिप्रहतमदा ॥४॥ ११ - श्रीश्रेयांसजिनस्तुतिः (---छन्दसा)11 सकलसिद्धिविधानविदग्धं, दशमतोऽग्रिममीशममुग्धम् । अमितकामितदानसुरहू, श्रयत शोषितलोभमितहम्१० ॥१॥ जिनवरा: प्रदिशन्तु सतां शं, न लभते मरमर्द्विशतां शम् । हरिहराद्यपरः सुरसार्थः, प्रभुतया धृतयाऽपि कृतार्थः ॥२॥ जिनपतेर्वचनं भविकानां, भवत९ लब्धमहाभविकानाम् । दुरितसन्ततिसंहरणाय, प्रबलसंसृतिसंहरणाय ||३|| अखिलमङ्गलमूलविधात्री, गुरुतरोच्चलचिन्तितदात्री । विकटसङ्कटवल्लिकृपाणी, जिनमते जयताद्भुवि वाणी ॥४॥ १२ - श्रीवासुपूज्यजिनस्तुतिः (तामरसच्छन्दः)12 नमत सुरासुरसेवितपादं, वदनविभाजितशीतलपादम् । महिषधरं गतवेदविषादं, जलधरगर्जिगभीरनिनादम् ॥१॥ सकलजिनेशगणं विनुवेऽहं, हुतकनकधुतिसत्तमदेहम् । चरणमाहदि सुन्दरहारं, पदयुगलप्रणते हितकारम् ||२|| जिनवनवाग्विभवो मम सातं, दिशतु महोदयपत्तनजातम् । नयगमभङ्गभरप्रतिपूर्णः, कठिनपुराणतमस्कृतचूर्णः ॥३॥ १०. समुद्रम् । ११. प्राप्तमहन्मङ्गलानाम् । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ जिनपतिपादपयोरुहभक्तः, श्रितजिनशासनभासनमरक्तः । करतु कुमारसुरः शिवमिष्टं, न भवति यत्र कदाचन कष्टम् ॥४॥ १३ - श्रीविमलनाथस्तुतिः (प्रहर्षणी छन्दः) देवेन्द्रप्रणतपदं जिनं नमामः, चित्तं तच्चरणयुगे वयं रमामः । क्रोडाईं निखिलसमीहितार्थकारं, नैर्मल्यं सृजतु कृतामरोपहारम् ॥१॥ सर्वज्ञाः सकलगुणाभिरामदेहा, आदित्यधुतिभरदीप्तधामगेहाः । मुक्तिश्रीरमणकलाभिलाषवन्तः, कुर्युः शं हृदयभवं शिवं ब्रुवन्तः ॥२॥ सिद्धान्तो जिनवदना[व]तीर्यमाणः, साध्वोधैः श्रवणपुटावधार्यमाणः । भव्यानां शिवसदनाभिलाषुकानां, श्रेयोऽर्थं भवतु भयक्षयोत्सुकानाम् ॥३॥ विघ्नौघं जिनपदसेवके हरन्ती, सर्वाधिप्रशमसुखं जने करन्ती । सा भूयान्मम सुखमङ्गलादिकी, सर्वापत्प्रधनभयामयादिहीं ॥४॥ १४ - श्रीअनन्तजिनस्तुतिः (लक्ष्मीछन्दः)14 तं वन्दे सर्वभावज्ञानतत्त्वोपदेशं, दुष्कर्मध्वान्तनाशादित्यतेजोनिवेशम् । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर 11 संसाराम्भोधिमज्जज्जन्तुपोतायमानं, श्येनाकं पङ्कपूरोद्भासमेघायमानम् ॥१॥ सर्वज्ञा विज्ञवित्ता वासमासं दधाना, भूयासुभूरिभूरिप्राज्यराज्यप्रतानाः । सम्पत्प्राप्त्यै वरेण्यागण्यपुण्यप्रतीता, मदनमायाऽभिमानक्रोधलोभव्यतीता: ॥२॥ सिद्धान्तः स्ताच्छिवाध्वप्राप्तिहेतुर्जनानां, नानाभङ्गैर्गभीरार्थप्रकाशो घनानाम् । पाप्महच्छेदकर्ता शासनाम्भोजभानुभूयिष्टोत्पत्तिबद्धाऽदृष्टकक्षे कृशानु:१२ ॥३॥ पाताल: सेवकानां शुद्धधीसंश्रितानां, सेवाहेवावशेन प्राप्तसर्वेप्सितानाम् । कुर्याद्धर्या महार्या सम्पदं स्फीतभीति:, कामप्रोद्दामधामा भग्नविघ्नौघभीतिः ॥४॥ १५ - श्रीधर्मनाथस्तुतिः (ऋषभच्छन्दसा)15 जिनराजमुत्तमगुणाश्रयणीयदेहं कुलिशाङ्कितक्रममहं महिमैकगेहम् । धिषणाऽवधीरितगुरुं प्रणमामि नित्यं, त्रिदशाधिपक्षितिपतिप्रणताधिपत्यम् ॥१॥ जिनपा दिशन्तु कुशलं शिवसङ्गरङ्गा, वरकेवलद्धिकलिता गलिताङ्गसङ्गाः ।। समतारसार्णवनिमग्नमनोविनोदाः, सुकृताप्तिपुष्टजनताजनितप्रमोदाः ॥२॥ जिनवक्त्रतोऽर्थरचनावचनोपदिष्टः, सुगणाधिपैः पठितपाठतयाऽतिदिष्टः । १२. प्रचुरजन्मसञ्चितकर्मवनेऽग्निधर्मः । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 अनुसन्धान ३४ दुरितं जहाति परिशीलित एव भव्यैः, प्रतिषेवणीय इति वाक्यचयस्स नव्यैः ॥३॥ जिनसेवके विपुलमङ्गलमादधानः, सुरकिन्नरः सकलसाध्यगणप्रधानः । दह(द?)तां धनानि जनताकृतकामितानि, सततं परोपकरणप्रवणस्ततानि ॥४॥ १६ - श्रीशान्तिनाथस्तुतिः (पञ्चचामरच्छन्दसा)16 स शान्तिनाथनायकस्तमोभरक्षयङ्करः, करोतु कर्मसञ्चयप्रमोषणप्रियङ्करः । अनन्तसातदायकः शिवाभिलाषसम्भवं, सुखं विषादवर्जितं समग्रसौख्यतो नवम् ॥१॥ दिशन्तु मां जिना (रमां)विशालवंशसम्भवाः, प्रमत्तदत्तदेशना भवार्णवौघविद्रवाः । अनीतिभीतिघातका गुणावलीविभूषिता, महोदयास्पदस्थिताः कुसङ्गभङ्गयदूषिताः ॥२॥ जिनागमं श्रयाम्यहं शठावबोधदुस्तरं, प्रभूतभग्नसंशयप्रकाशितार्थविस्तरम् । अनेकभङ्गसङ्कुलं भवभ्रमव्यथाऽपहं, मुमुक्षुसङ्घसेवितं गतक्रुधं गुणावहम् ॥३॥ जिनेन्द्रपादपङ्कजोपजीवनाऽलिलालस:१४, सुशीलसाधुयातनाविधानकेलिसालसः । सुसम्पदं ददातु नो महीतलावभासिनी, स ब्रह्मशान्तिसेवक: प्रशस्यचारुहासिनीम् ॥४॥ १३. कर्मसमूहविनाशनेऽभीष्टः । १४. श्रद्धा । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम्बर १७ - श्रीकुन्थुनाथस्तुतिः (हरिणीछन्दः)" जिनपदयुगं वन्दे मोहद्रुमप्रमयप्रधि, निरवधिगुणग्रामारामाद्रिजातटसन्निधिम् । शिवपुरपथप्रस्थानाश्वं व्यपोहितदुर्मति, प्रथिमशमथश्रीमत्कुन्थोः प्रसारितसन्मतिम् ॥१॥ जिनपरिवृढा गाढं गूढाध्वत: कलुषव्रजाऽपहतिचतुरा गोत्रोन्नत्यप्रथा प्रथनध्वजाः । मम विदधतां चेतःस्वास्थ्यं कषायहतात्मनः, शिवपदसुखे तेजःपुञ्जात्मका विवशात्मनः ॥२॥ गणधरवरैर्यनिष्पाद्यं तमोत्तरभास्कर, विगलितमदद्वेषोन्मादव्यलीककलाबलम् । भजत भविनो जैनं वाक्यं मरुत्तरुसत्फलम् ॥३॥ प्रवचनसुरः श्रीगन्धर्वस्तनोतु तनूमतां, नयनकुमुदानन्दी माद्यद्विवेकवचोवताम् । अतुलकुशलश्रेणी सम्यग्दृशामुपकारकः, पिशुनरसनादृग्दोषोत्थव्यथाऽर्णवतारकः ॥४॥ १८ - श्रीअरनाथस्तुतिः (हरिणीछन्द:18) भगवदरनाथं नौमीशं देवराजनतक्रम, विदुरनिकराराध्यं देवं निष्ठिताघभरभ्रमम् । दुरितदहनस्वाहाकान्तं श्लेशलेशविनाशकं, विमलचरणज्ञानाधारं शुद्धपन्थप्रकाशकम् ॥११॥ जिनपतिगणास्ते भूयासुः श्रेयसां ततिकारका, अवितथपथाख्यानप्रष्ठाः सारलक्षणधारकाः । १५. शस्त्रधारम् । _ *एक चरण तूटेल छे. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ समवसरणाद्योतन्नत्यश्रीदेवताव्रजसंस्तुताः, परमपदवीं सम्प्राप्ता ये माननीयजनाश्रिताः ॥२॥ वचनरचनासंश्लिष्टाशं ग्रामरामरागपवित्रितं, प्रणमत मनोऽभीष्टार्थाप्तिं भूरिपाठविचित्रितम् । शमरससुधावाक्यं पूर्ण जीतनीतिनिरूपकं, गणभृदुहि(दि?)तं श्रीसिद्धान्तं ध्वान्तवैरिसरूपकम् ।।३।। जिनपतिपादाम्भोजे भक्ता धारिणी तनुताच्छिवं, जिनमतजनासीष्टानादरासुकृतावहम् । सरलमनसां दत्ताधारा व्याधिरोधनकारिका, कलिमलभरभ्रान्तस्वान्तप्रान्तलोकनिकारिका ||४|| १९ - श्रीमल्लिनाथस्तुतिः ___(मेघविस्फूर्जिताछन्दः)" जिनेन्द्रं निस्तन्द्रं दुरि[त]तिमिरापायनाशाब्जहस्तं, घटाळू श्रीमल्लिं भवजलधिवातापिवैरिप्रशस्तम् । वहामश्चैनोऽन्तर्विशदतरभावेन हावेन मुक्तं, पवित्रां चारित्रश्रियमनुभवन्तं परानन्दयुक्तम् ॥१॥ जिनेन्द्राः कुर्युस्ते सपदि भवनिस्तारमारप्रहीणाः, सुरेन्द्राद्यैर्वन्द्याः प्रचुरतरचित्तेजसोऽतिप्रवीणाः । महानन्दप्रोद्यत्परमसुखसम्प्राप्तपुण्यप्रकर्षा, दरिद्रोद्यन्मुद्राविघटनघनाघातजातानुतर्षाः ॥२॥ जिनेन्द्रास्योद्भूतं भवतु भवभीतिप्रतीघातनाय, पुनः स्पष्टो दृष्टोत्कटचरटसङ्घातसंशातनाय । अनेकार्थाकीर्णं गमशमरमालीढमाधारभूतं, जनानां सिद्धिश्रीकमलमपयादूतिसङ्केतदूतम् ॥३॥ जिनेन्द्रोपास्तौ या चतुरतरधीवैभवव्यासमत्ता, मुनिश्राद्धव्याधिप्रमयसमयस्थापितैकाग्रचित्ता । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर 15 विदध्यात्सङ्घस्यातुलकुश[ल]सन्दोहमूर्जस्वला सा, प्रभाविद्युत्तारा धरणदयिता हस्तिविङ्ख्याविलासा ||४|| २० - श्रीमुनिसुव्रतस्वामिस्तुतिः (शोभाछन्दः)20 जिनाधीशं वन्दे कुशलनिपुणधारीगम्यरम्यस्वरूपं, नमन्नाकिश्रेणीमुकुटपतितमालासुपूज्यं सुरूपम् । सुरेन्द्रैस्संस्तुत्यं चरणकमलं लक्ष्माणमुन्निद्रनेत्रं, भवाम्भोधौ मज्जजननिकरतरी तुल्यमेनोऽरिजेत्रम् ॥१॥ क्रियासुस्ते सार्वाः परमपदपुरप्राप्तये प्राज्यवीर्य, जगदुर्जेयश्रीतनयमदविनाशाप्तशौर्याः सधीर्यम् ।। प्रमाणोपेतश्रीसमवसरणभूसंस्थिताः स्वान्तशान्ता, निराधाराधाराः शिशुतरुणजराजीर्णभावेऽपि कान्ताः ॥२॥ कृतान्तः सार्वीयः सुरतरुसदृशश्चिन्तितार्थप्रदाता, मनोवृत्तेर्भक्त्या परमशुचितयाऽऽराधितः शंधिधाता । ददातु प्रज्ञां मां गलितकलिमलांशूकसत्कृत्यतूर्णा, महारेकोद्रेकच्छिदुरविदुरतातत्परः पुण्यपूर्णाम् ||३|| जगत्स्वामिध्यानाचरणसततधी: सज्जनानां श्रिये स्तादतिज्योति:शाली वरुण इति सुरो यः सुराणां पुरस्तात् । अभद्राणां श्रेणीलवनजवने वैज्ञानिकत्वं दधानः, सदानन्दी दीनात्तिहरणचतुरः स्मेरकीर्तिप्रतान:. ॥४॥ १६. प्रभोद्यज्झात्कारा इति वा पाठः । १७. नवहनसमं पातकामित्रजैत्रम् इति पाठान्तरम् । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 २१ श्रीनमिनाथस्तुतिः (चन्दनप्रकृतिच्छन्दः) 21 जिनेशपावकध्यानाऽत्यमलतरमतिरभिनवगुताः, सदा नमे ! पदाम्भोजं तव शमविदलितकलुषकण: 1 भजामि विश्ववात्सल्यं चरमपरमपदसुखकरणं, भवाब्धिमग्न भव्यौघप्रवहणसदृशविहितशरणम् ॥ १ ॥ दिशन्तु मां जिना: सौख्यं कलिमलदलगलितकलं, व्यथाप्रथापथातीतामदमदनखलविदलितथलम् । समस्तवासवार्चाऽर्हाः शमसंयमनियमपरिकलिताः, प्रभूतलक्ष्मणाकीर्णाश्चलननलिननतजनफलिताः ॥२॥ जिनोदितं ममेष्टार्थं वितरतु यमशमगमललितं, प्रकामभाग्यसंस्कारप्रकटितशुभफलमुनिमिलितम् । विचारसारसम्भारप्रथनकथितसुकृतकलफलं, अनुसन्धान ३४ समग्रभावसूचाया अतिविदितविषज्ञधरणितलम् ॥३॥ सशासनोन्नतिप्रो भृकुटिरिति विबुधजनविदितं, नमेर्भुजिष्यतां प्राप्तः सततमिति यतिपतिनिगदितम् । करोतु तन्ममाधानं शिवसदनगमनरसिकजने, वरेण्यलक्षणोपेताभयदपदयुगलविधृतमने ||४|| २२ - श्रीनेमिनाथस्तुतिः (महास्त्रग्धराछन्दः) 22 जिनपं भावेन वन्दे सुरनरमहितं मान (नि) नीसङ्गशून्यं, प्रहतको प्रतापं प्रमुदितमनसं ध्यानचित्तादशून्यम् ! मथिताजन्यं प्रसन्नं विदलितमदनं शाश्वत श्रीनिदानं, सुकृताद्वैतप्रपन्नात्तिहरणविदुरं शङ्खलक्ष्मप्रधानम् ॥१॥ सकलार्थाः साधिता यैस्त्रिभुवनविनतास्तीर्थपाः सन्तु सिद्ध्यै, सतताभिप्रायविज्ञाः शमदमनिचिता ज्ञानसन्तानवृद्धयै । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम्बर 17 ममतामिथ्यानिरस्ता अमितगुणमणीगन्धमातासमानाः, समतासीमन्तिनीशाः पदनतजनता प्रत्तरामानिधानाः ॥२॥ गणधारैर्भाषितं यद्गमनयबहुलं लङ्घनीयं न देवैधिषणावद्भिनिषेव्यं त्रिभुवनविदितं संस्तुवे पूतहेवैः । अविसंवादिप्रमेयं रुचिरतरवचो वर्णनीयं प्रगल्भैरमितार्थं व्यर्थहेतुव्यपगमनिपुणं प्रस्फुरद्दिव्यवल्मैः(ल्भैः?) ॥३।। विदधातु स्वर्निवासी प्रवचनवरिवस्याविधानाभिरूपः, सबल: सन्तापहर्ता विदुरनरचमत्कारकारिस्वरूप: । प्रबलारिष्टप्रह" जिनमतसततोपासकप्राणभाजां, कुशलं गोमेधनामा करकृतनकुलाहिः स्फुरत्पुण्यभाजाम् ॥४॥ २३ - श्रीपार्श्वनाथस्तुतिः (वृन्दारकच्छन्दः) जिनेशमभिनौमि तं दलितमोहमायान्धकारप्रचारं सदा, दिनेशसममुत्तमं निहतरागरोषादिदोषं युतं सम्पदा । सुरेशजनसंस्तुतं नृपतिलोकनम्रीकृतं पार्श्वनाथप्रभु, महेशपदवीश्रितं कमठमानवज्जापितं लोकरक्षाविभुम् ।।१।। समस्तजिनमण्डलं मम पुनातु विश्वत्रयीज्ञातसद्विस्तरं, कठोरवृजिनोच्चयक्षयकरं समश्वेतकल्याणकुप्रस्तरम् । विमुद्रवहनाम्बुजप्रमदकृतसुखं श्रेणीविश्राणनाकोविदं, विसारिगुणसञ्चयप्रसृतविश्वभावावबोधस्फुरत्संविदम् ॥२॥ जिनेन्द्रवचनामृतं मम लुनातु दुःखावलिं पातकान्तंकजा, प्रभूतजनिसञ्चितप्रबलदुष्टदोषप्रकर्षा रजस्सङ्गजाम् ॥ भवामयभरागदं चतुरचित्तचातुर्यदानप्रधानो(नौ)जसं, कृपाशमरसात्मकं कुमतकौशिकव्यूहहंसोल्लसत्तेजसम् ॥३।। धिनोतु जनमानसं धरणराजनागेन्द्रपत्नी सुपद्मावती, विचारचतुराञ्चितं परमसुन्दराकारसद्रूपशोभावती । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 प्रमोदपरिपूरिता जनितजैन लोकप्रकाण्डोल्लसत्सम्पदा, मनीषिजनतास्तुता विशदबुद्धिसंसिद्धिसर्वद्धिसिद्धिप्रदा ॥४॥ २४ - श्रीवर्द्धमानजिनस्तुतिः (विभ्रमगतिच्छन्द: ) 24 सिद्धार्थान्वयमण्डनं जिनपतिस्त्रैलोक्यचूडामणिर्जितपावकः, पञ्चास्याङ्कितभूघनो घनगभीरध्वानविस्तारयुगादघातकः । संसारार्णवसेतुबन्धसदृशः सिद्ध्यङ्गनासङ्गमी गतकन्दल:, जीयाद्यः कमनप्रतापहननस्थाणूपमप्राणभृच्छमशम्बलः ॥१॥ सर्वे सार्वचयाः सुपर्वनिचयाधीशप्रमोदस्तुताहितवाचका:, चारित्रावसरापवर्जनकला दारिद्रविद्रावणोद्धृतयाचकाः । जीयासुः प्रतिकृष्टकर्मनिकरच्छेदोद्यताः पादपूतरसातलाः, प्रोन्मीलत्कमनीयकान्तिकलितास्तत्त्वार्थविद्भास्करप्रग्रहामलाः ॥२॥ यज्जैनेन्द्रवच: प्रभावभवनं दुर्वादिगर्वापहं जनपावनं, सेवे शान्तरसामृतोद्भवमहं पुण्याङ्करार्णोधरं शुभभावनम् । शुद्धाचारनिरूपणव्रतधनस्वर्गापवर्गप्रदं मतिमिश्रितं, सर्वात्मप्रतिपालनासु ललितं कुन्मानमायाहृति व्रतिसंश्रितम् ॥३॥ मातङ्गोऽर्हदुपासकः प्रकुरुतात् वः श्रेयसं प्राणिनां सुमनोवराः, श्रीसङ्घस्य कृपाकरो मुनिमन: श्रेणीसमुल्लासकः सुमनोहरः । मातङ्गोपरिसंस्थितो भुजयुग: श्यामः सकर्णावली नुतलक्षणः, सर्वप्राण्युपकारकारणकलासक्तः सुदृष्टिः सदाऽतिविचक्षणः || ४ || अनुसन्धान ३४ २५ - श्रीगौतमगणधरस्तुतिः )25 ज्ञाततनूजाद्यान्तेवासी सकलचरित्रादिगुणनिधानं हितकर्त्ता, गौतमनामा दीव्यद्धामा विमलयशः कायवसुमतीपीठविहर्त्ता । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर 19 अक्षयमुख्याः सर्वाः सहल्लब्धय इह पृथ्वीविदिततरायास्तदमत्रं, मुख्यगणाधीशो धेयान्मां विपदपतन्तमतिपरिपूर्णः सुचरित्राम् ॥१॥ तीर्थकरास्ते भूयासुर्मा परमपदाप्त्यै सुरनरनूता: शमपूताः, केवलचिद्रूपालोकालोकितभुवना भोगविरतचित्ता भ्रमधूताः । पातकजातानेकासातप्रकरकुबाधाव्यथितजनानां रतिकाराः, सुरतपूर्त्या नेत्रानन्दप्रथनसुधीदीधितिसमयादाः समताराः ।।२।। आगमवाक्यं साधुश्रेष्ठैर्विदुरजनानामुपकृतिहेतोरुपनीतं, बादरसूक्ष्मप्राणाजीवप्रमुखविचारव्रजभृतमध्यचरजीतम् । ज्ञानदयादानव्याख्यानाद्यनणुगुणालीग्रथितसुशास्त्रं गतदोषं, कर्णपुटाभ्यां यैरानिन्ये भविकनरास्ते शिवसुखमीयुः कृतजोषम् ॥३॥ शासनदेवा देव्यः सर्वा मुनिनिवहानामचलसुखं ते जिनभक्ता, ये हतदुष्टवाता: कुर्युर्यमनियमाचारनयरतानां रसरक्ताः । पण्डितलक्ष्मीकल्लोलस्पर्शननिपुणा निर्मथितविकारा अतिशिष्टाः, स्वीकृतसन्धानिर्वाहाः सज्जनपरमानन्दपदनिदानाहितकष्टाः ॥४॥ [अथ स्तुतिकृतो नामनिर्देशकं वृत्तम्एवं श्रीजिनपुङ्गवाः स्तुतिपथं नीताश्चतुर्विंशतिः, श्रीमद्वीरविनेयगौतमयुताः सद्वर्द्धमानाक्षरैः । वृत्तनिर्भरभक्तिसम्भृतमनोवृत्त्या मया काम्यया, मुक्तिस्त्रीपरिरम्भणस्य कमलाकल्लोलमेधाविना ॥१॥ इति श्रीप्रतिस्तुतेर्जिनसङ्ख्याप्रमाणवर्द्धमानाक्षरा अनुप्रासालङ्कारमय्यश्च श्रीगौतमगणधरस्तुतियुताश्चतुर्विंशत्यर्हतां स्तुतयः पूर्वाचार्यै रकृतपूर्वी विनोदमावतया मया कृतपूर्वी उ० श्री ५ श्रीहर्षकल्लोलप्रसादात् । - - - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 अनुसन्धान ३४ टिप्पणी : १. एकाक्षर छन्द का नाम है श्री । इसका लक्षण है - केवल गुरु - 5 इस छन्द का नाम श्री है। २. व्यक्षर छन्द का नाम है स्त्री। - इसका लक्षण है - दो गुरु - 55 इस छन्द का नाम गंगा है। अन्य छन्दोग्रन्थों में अत्युक्तं, नौ, स्त्री, पद्यम् और आशी नाम भी प्राप्त होते है। ३. त्र्यक्षर छन्द का नाम है नारी । इसका लक्षण है - 555 इस छन्द के अन्य नाम मन्दारम्, नारी, श्यामांगी मिलता है । ४. चतुरक्षर छन्द का नाम है - सुमति । इसका लक्षण है - । | 5, 5, सगण, गुरु । यह छन्द अप्रसिद्ध है। पञ्चाक्षर छन्द का नाम है - अभिमुखी । इसका लक्षण है - ।। ।। 5, नगण, लघु, गुरु । यह छन्द भी अप्रसिद्ध है । ६. षडक्षर छन्द का नाम है - रमणा । इसका लक्षण है - । | 5, ।। 5, सगण, सगण । इसके अन्य नाम प्राप्त होते हैं - नलिनी, रमणी, कुमुदं । ७. सप्ताक्षर छन्द का नाम है - मधु । इसका लक्षण है - III, 4, 5, नगण, नगण, गुरु । इसके अन्य नाम प्राप्त होते हैं - मधुमति, हरिविलसित, चपला, द्रुतगति, लटह । ८. अष्टाक्षर छन्द का नाम है - प्रमाणिका । इसका लक्षण है - ISI, ऽ।ऽ, 15, जगण, रगण, लघु, गुरु । इसके अन्य नाम प्राप्त होते हैं - स्थिरः, मत्तचेष्टितं, बालगर्भिणी । नवाक्षर छन्द का नाम है - भद्रिका । इसका लक्षण है - ऽऽ, , जाड, रगण, नगण, रगण । १०. दशाक्षर छन्द का नाम है - ......... इसका लक्षण है - 555, 551, 1, 5, मगण, तगण, नगण और गुरु । इस छन्द का नाम प्राप्त नहीं ११. एकादशाक्षर छन्द का नाम है - रोधक । इसका लक्षण है - ll, 50, 50, 55, नगण, भगण, भगण, यगण । यह छन्द भी अप्रसिद्ध Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर १२. द्वादशाक्षर छन्द का नाम है - तामरस । इसका लक्षण है III, ISI ISI, Iऽऽ, नगण, जगण, जगण, यगण । इसके अन्य नाम ललितपदा और कमलविलासिणी प्राप्त होते है । 1 १३. त्रयोदशाक्षर छन्द का नाम है - प्रहर्षिणी । इसका लक्षण है - ऽऽऽ, III, ISI, SIऽ, ऽ, मगण, नगण, जगण, रगण और गुरु । इसका भिन्न मयूरपिच्छम् प्राप्त होता है । नाम १४. चतुर्दशाक्षर छन्द का नाम है लक्ष्मी है । इस छन्द का नाम लक्षण 551, 55, मगण, रगण, तगण, तगण, गुरु, चन्द्रशाला, बिम्बालक्ष्यम् प्राप्त होते है । कम होता है ! है ऽऽऽ, 515, 551, गुरु | इसके अन्य नाम इस छन्द का प्रयोग भी १५. पञ्चदशाक्षर छन्द का नाम है। ऋषभ । लक्षण है 115, 151, 115, ॥5, 155, सगण, जगण, सगण, सगण, यगण, इस छन्द का प्रयोग क्वचित् ही होता है । १६. षोडशाक्षर छन्द का नाम है पञ्चचामर । लक्षण है - 151, 515, 151, 515, 151, 5, जगण, रगण, जगण, रगण, जगण, गुरु । १७. सप्तदशाक्षर छन्द का नाम है - हरिणी । लक्षण है - III, 515, 115, 15, नगण, सगण, मगण, रगण, सगण, लघु, अन्य नाम वृषभचरित और वृषभललित । 15, 555, गुरु। इसके १८. अष्टदशाक्षर छन्द का नाम है ऽऽऽ, 551, 511, 515, नगण, इस छन्द का प्रयोग क्वचित् ही १९. एकोनविंशत्यक्षर छन्द का नाम है - मेघविस्फूर्जिता । लक्षण है हरिणीपदम् । लक्षण है 11,115, सगण, मगण, तगण, भगण, रगण । देखने में आता है । ऽऽ ऽऽऽ, 11, 115, 51, 51, 5, यगण, मगण, नगण, सगण, रगण, रगण, गुरु, गुरु । २१. एकविंशत्यक्षर छन्द का नाम है - चन्दन प्रकृति । लक्षण है - SIS, 515, 551, II, III, III, 115, जगण, रगण, तगण, नगण, नगण, नगण, सगण । इस छन्द का भी क्वचित् ही प्रयोग होता है । २२. द्वाविंशत्यक्षर छन्द का नाम है महास्त्रग्धरा । लक्षण है - 115, 551, - — -- 21 - 1 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 अनुसन्धान 34 55I, III, ||s, SIS, 55, 5, सगण, तगण, तगण, नगण, सगण, रगण, रगण, गुरु / इसका प्रयोग भी क्वचित् ही होता है / 23. त्रयोविंशत्यक्षर छन्द का नाम है - वृन्दारक / लक्षण है - ISI, IIs, ।ऽ।, , 155, I55, 15, 15, जगण, सगण, जगण, सगण, यगण, यगण, यगण, लघु, गुरु / इस छन्द का भी क्वचित् ही प्रयोग होता 24. चतुर्विशत्यक्षर छन्द का नाम है - विभ्रमगति / लक्षण है - 55s, IS, ISI, IIS, 551, 55I, SI, SI5, मगण, सगण, जगण, सगण, तगण, तगण, भगण, रगण / इसका प्रयोग भी क्वचित् ही होता है / 25. पञ्चविंशत्यक्षर छन्द का नाम प्राप्त नहीं होता है। इसका लक्षण है - _II, 555, 555, III, Iss, III, 05, भगण, मगण, मगण, नगण, यगण, नगण, यगण, सगण, गुरु / प्रशस्ति पद्य के छन्द का नाम है - शार्दूलविक्रीडित / इसका लक्षण है - 555, ||s, ISI, IIS, 551, 551, 5, मगण, सगण, जगण, सगण, तगण, तगण, गुरु / C/0. प्राकृत भारती अकादमी 13-ए, मेन मालवीय नगर जयपुर