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अनुसन्धान ३४
ये सारे क्रमांक कैटलॉग ऑफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैनुस्कृप्ट मुनिराज श्री पुण्यविजयजी संग्रह भाग - १, २ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद के दिए गये हैं ।
चमत्कृति प्रधान इन स्तोत्रों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि श्री लक्ष्मीकल्लोलोपाध्याय साहित्य और लक्षणशास्त्र के भी उद्भट विद्वान थे ।
इनके अतिरिक्त स्वतन्त्र कृति के रूप में 'वर्द्धमानाक्षरा चतुर्विंशति जिनस्तुति' प्राप्त होती है । इसमें २४ तीर्थंकरो की स्तुति के साथ अन्तिम गौतम गणधर की भी स्तुति प्राप्त है । एकाक्षर से प्रारम्भ कर २५ अक्षरों तक के विभिन्न छन्दों में प्रत्येक की स्तुति की है जो कि इसके परिशिष्ट में दिये गये छन्दसूचि से स्पष्ट है । छन्द - शास्त्र के ये अजोड़ विद्वान् थे । इन छन्दों में कई छन्द ऐसे हैं जो कि प्रायः प्रयोग में नहीं आते हैं । प्रान्त पुष्पिका में 'अनुप्रासालङ्कारमय्यश्च' अर्थात् प्रत्येक स्तुति में अनुप्रासालङ्कार का विशेष रूप से प्रयोग किया है । प्रत्येक स्तुति का अवलोकन किया जाए तो प्रत्येक श्लोक के पहले और दूसरे चरण में, तीसरे और चौथे चरण में एकाक्षर या द्व्यक्षर में अनुप्रास का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । उदाहरण के रूप में देखिए - विमलनाथ की स्तुति प्रथम पद्य, प्रथम चरण 'नमाम:' और दूसरे चरण में रमामः 'मामः' का प्रयोग है । इसी स्तुति में दूसरे श्लोक के तीसरे चौथे श्लोक में 'वन्तां' का प्रयोग है । इस प्रकार प्रत्येक पद्य के समग्र चरणों का अवलोकन करें तो अन्त्यानुप्रास की छटा सर्वत्र दृष्टिगोचर होगी । कवि का अभीष्ट भी अनुप्रासालङ्कार प्रतीत होता है । श्लेष, उपमा, रूपक, यमक आदि अलंकार भी स्थान-स्थान पर मुक्ताओं की तरह गुंथे हुए नजर आते हैं ।
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इस कृति की प्रतियाँ भी अत्यन्त दुर्लभ हैं । विक्रम सम्वत् २००१ में श्रद्धेय गणिवर्य श्री बुद्धिमुनिजी महाराज ने जामनगर में रहते हुए इसकी पाण्डुलिपि तैयार की थी। उनकी कृपा थी कि स्वलिखित प्रति मुझे भिजवा दी, वही आज प्रकाशित की जा रही है । गणिवर्य लिखित पाण्डुलिपि में किस भण्डार की प्रति से उन्होंने इसकी प्रतिलिपि की है, इसका संकेत न होने की वजह से यह कहने में असमर्थता है कि यह किस भण्डार की
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