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अनुसन्धान ३४
के उद्गार प्रकट होते हैं, वे स्तोत्र कहलाते हैं। इन स्तोत्रों के माध्यम से अनेकान्त स्याद्वाद की प्ररूपणा, भगवान् की देशना अथवा दार्शनिक विवेचन का स्वरूप चिन्तन भी होता है । भगवत् गुणों का वर्णन करते हुए अष्ट महाप्रातिहार्य, ३४ अतिशय, ३५ वाणी इत्यादि का भी समावेश किया जाता है। भगवान के साथ तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करते हुए अपनी लघुता भी प्रदर्शित की जाती है और स्वकृत पापों की आत्मगर्हा भी । स्तुति - स्तुति यह केवल ४ पद्यों की होती है। प्रथम पद्य में किसी तीर्थंकर विशेष की या सामान्य जिन की, दूसरे पद्य में समस्त तीर्थंकरों की, तीसरे पद्य में भगवत् प्ररूपित द्वादशांगी आगम को और चतुर्थ पद्य में तीर्थंकर विशेष, के शासन देवता की । इन लक्षणों पर आधारित कई सामान्य स्तुतियाँ भी प्राप्त होती हैं और कई विशिष्ट स्तुतियाँ भी । जिसमें यमक और श्लेषालंकार आदि का छन्दवैविध्य के साथ उक्तिवैचित्र्य का समावेश होता है, वे विशेष कहलाती है । आचार्य बप्पभट्टिसूरि और शोभनमुनि आदि का स्तुति साहित्य विशिष्ट कोटि में ही आता है । श्रीभुवनहिताचार्य आदि रचित स्तुतियों में छन्दवैविध्य पाया जाता है । बढ़ते हुए अक्षरों के साथ छन्दों में रचना करना वैदुष्य का सूचक है ही । श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि रचित चतुर्विंशतिस्तुति भी इसी विधा की रचना है।
लक्ष्मीकल्लोलगणि - स्तुतिकार ने प्रान्त पुष्पिका में "उ. श्री हर्षकल्लोलप्रसादात्" लिखा है । अत: इससे एवं अन्य प्रमाणों से निश्चित है कि ये श्री हर्षकल्लोलगणि के शिष्य थे । आचार्य सोमदेवसूरि की परम्परा से कमल-कलश और निगम-मत निकले थे। सोमदेवसूरि तपा० सोमसुन्दरसूरि के शिष्य थे, किन्तु उन्होंने १५२२ के लेख में लक्ष्मीसागरसूरि का शिष्य भी लिखा है । इनके शिष्य रत्नमण्डनसूरि हुए । रत्नमण्डनसूरि की परम्परा में श्रीआगममण्डनसूरि के प्रशिष्य और श्रीहर्षकल्लोलगणि के शिष्य १. त्रिपुटी महाराज : जैन परम्परानो इतिहास - भाग ३, पृ. ५६० २. त्रिपुटी महाराज : जैन परम्परानो इतिहास - भाग ३, पृ. ५६६
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