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श्री विद्याभवन संस्कृत ग्रन्थमाला ३४
अश्लीलांशवर्जितः
श्रुतबोधः
(छात्रोपयोगि-संस्करणम् )
પૂ. આ. શ્રી વિજય ભકિતસૂરિ જો નમક, આ. શ્રી વિજય પ્રેમસૂરિ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-१
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।। श्रीः ॥
विद्याभवन संस्कृत ग्रन्थमाला
GGAE
महाकविश्रीकालिदासविरचितः
श्रुतबोध:
'विमला' संस्कृत-हिन्दीटीकोपेतः
टीकाकारः पण्डित श्रीकनकलालठक्करः
संस्कर्ता पण्डित श्रीब्रह्मशङ्करमिश्रः
चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी.१
१९६८
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प्रकाशक : चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी मुद्रक : विद्याविलास प्रेस, वाराणसी संस्करण : चतुर्थ, वि० संवत् २०२५ मूल्य : ०-४०
© The Chowkhamba Vidyabhawan
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( INDIA)
1968 Phone : 3076
प्रधान कार्यालय :चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस
__गोपाल मन्दिर लेन, पोआ० चौखम्बा, पोस्ट बाक्स नं०८, वाराणसी-१
फोन : ३१४५
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प्राकथनम्
विदितमेवास्ति भवतां यत् महाकविश्रीकालिदासविरचितः श्रुतबोधनामा छन्दोमन्थः कीदृशरछन्दोज्ञानोपयोगीति । टीका अप्यस्य बह्वयः सन्ति । तथापि परिक्षार्थिनामत्युपयोगाय मयाऽपि परीक्षोपयोगिविमलानामसंस्कृतभाषाकाद्वयं निरमाथि । एतच्च टीकाद्वयं परीक्षार्थिनां परिक्षायामत्युपयोगं विधाम्यतीत्याशासे
सं०
१
२
३.
४
७
८
संख्या - गणनाम-रूप- देवता - फलमित्रादि
शुभाशुभ - ज्ञापकचक्रम् —
देवता फलम्
मही | लक्ष्मीः
| वृद्धिः
गणनाम
मगणः
यगणः
रगणः
सगणः
तगणः
जगणः
भगणः
नगणः
रूपम्
SSS
ISS
SIS
IIS
SSI
ISI
SII
111
जलम्
अग्निः
वायुः
नभः
I
कनकलालउक्कुरः
i
मित्रादि | शुभाशुभे
मित्रम्
शुभम्
शुभम्
मृत्युः
शत्रुः
अशुभम्
विदेशः शत्रुः अशुभम्
रविः
शशी । यशः
स्वर्गः सुखम्
दासः
शून्यम् उदासः
रोगः उदासः
दासः
मित्रम्
समम्
श्रशुभम्
शुभम्
शुभम्
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गणनाम-देवताफलानि मो भूमिः श्रियमातनोति य-जलं वृद्धिं र-वह्निर्मृति सो वायुः परदेशदूरगमनं त-व्योम शून्यं फलम् । जः सूर्यो रुजमाददाति विपुलं भेन्दुर्यशो निर्मलं
नो नाकश्च सुखप्रदः फलमिदं प्राहुर्गणानां बुधाः ।। अर्थात् मगण का देवता भूमि है वह लचमी का विस्तार करता है, यगण का देवता जल है वह वृद्धि करता है, रगण का देवता अग्नि है वह मृत्यु देता है, सगण का देवता वायु है वह परदेश वा दूरगमन कराता है, तगण का देवता आकाश है उसका शून्य फल है, जगण का देवता सूर्य है वह रोग देता है, मगण का देवता चन्द्रमा है वह निर्मल यश देता है और नगण का देवता स्वर्ग है वह सुख देता है। इस प्रकार से पण्डित लोग गणों का फल वर्णन करते
गणानां मन्त्राः
१. मगण-ॐ म मगणाय नमः । २. यगण-ॐ यं यगणाय नमः। ३. रगण-ॐ रं रगणाय नमः । ४. सगण-ॐ सं सगणाय नमः।
५. तगण-ॐ तं तगणाय नमः । ६. जगण-ॐ जं जगणाय नमः । ७. मगण-ॐ मं मगणाय नमः । ८. नगण-ॐ नं नगणाय नमः ।
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संख्या- गणनाम-रूप- देवता-नक्षत्र - राशि - जन्मदिन - जाति- मास-पक्ष तिथि वर्ण-देश-पुर-पर्वत-मित्रादि-फल- स्त्री - ज्ञापकयन्त्रम
पक्ष |ति वण देश
पर्वत फल मित्रा. फल
गण ८ | रूप
ना.
१ म. sss पृथ्वी रोहिणी वृष
+4
ދ
४ स.
य. ISS जल ज्येष्ठा वृश्चिक चन्द्र
३ |र. sIs
५ त .
IIS
1
देवता | नक्षत्र राशि ज. दिन जाति | मास
६ ज. ISI
T
SSI आका० रेवती
८ न. ।।।
वैश्य आषाढ
अनि अश्वि. मेष रवि क्षत्री पौष
पवन पूर्वाभा कुम्भ
मीन
शनि शूद
श्रवण मकर
स्वर्ग अनु
राधा
पौष शुक्ल १० मिश्रित
शुक्ल
१२ श्याम कोशल विपुला वंशकैवर्त वृद्धि दाम
शुभ ब्रह्माणो शुक्ल ९ रक्त महेन्द्र मकरंद मलयाचल मृत्यु शत्रु अशुभ स्वधा
शत्रु अशुभ गारुडी ।
उदा
सीन
बुध वैश्य कार्तिक शुक्ल ६.
शुक्र ब्राह्मण मार्ग. शुक्ल ५
भौम शब्द चैत्र शुक्ल ३ धूम धूम्र कुन्तल
७ भ. s॥ चन्द्रमा रेवती मीन गुरु देवता आश्विन शुक्ल १३ श्वेत
नील विडंबर कंकेर सेतुबन्ध परदेश
कर्णगिरि
रक्त
जाल
न्धर
१५ गौ वृश्चिक बुध क्षत्री ज्येष्ठ शुक्ल १५ गौर
प्रबल
पुरी
स्वर्ग शैलाधि लक्ष्मी मित्र शुभ कमला
शुक्ल
कौच
चम्पावती
चित्र
पुरी
प्रभाव
तीपुरी
काञ्ची पुरी
शुन्य
उदयाचल रोग
कुमारगिरि यश
स्त्रा
चन्द्रगिरि सुख
1
समान शून्य
उदासीन शुभ आप
दासं शुभ शुक्ला
सञ्जी
मित्र शुभ वनी
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छन्दः सूची
(१) ग्रन्थप्रतिज्ञा (२) गुरुविचारपरिभाषा (३) गणलक्षण १ आर्या छन्द: २ गीति ३ उपगीति ४ अक्षरपंक्ति ५ शशिवदना ६ मदलेखा ७ अनुष्टुप् ८ पद्य ९ माणवका क्रीड , १० नगस्वरूपिणी , ११ विद्युन्माला १२ चम्पकमाला , १३ मणिबन्ध १४ शालिनी १५ मन्दाक्रान्ता १६ हंसी १७ दोधक १८ इन्द्रवजा १९ उपेन्द्रवजा
| २० उपजाति छन्द २१ आख्यानको २२ रथोद्धता २३ स्वागता २४ वैश्वदेवी २५ तोटक २६ भुजङ्गप्रयात २७ द्रुतविलम्बित , २८ प्रमिताक्षरा २९ हरिणीप्लुता | ३० वंशस्थ ३१ इन्द्रवंशा
३२ प्रभावती ८ ३३ प्रहर्षिणी
३४ वसन्ततिलका .. ३५ मालिनी
३६ हरिणी ३७ शिखरिणी | ३८ पृथिवी । ३९ शार्दूलविक्रीडित , । ४० स्रग्धरा
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अश्लीलांशवर्जितः
श्रुतबोधः
'विमला' संस्कृत-हिन्दीटीकोपेतः
OXOS
ग्रन्यप्रतिज्ञा छन्दसां लक्षणं येन श्रुतमात्रेण बुध्यते ।
तमहं सम्प्रवक्ष्यामि श्रुतबोधमविस्तरम् ।। १ ।। अन्वयः-येन श्रुतमात्रेण छन्दसाम् लक्षणं बुध्यते । अहम् अविस्तरं तं श्रुतबोधं सम्प्रवच्यामि ।
व्याख्या-येन ग्रन्थेन श्रुतमात्रेण श्रुतेनैव छन्दसाम् आर्याऽनुष्टुप्प्रभृतीनां लक्षणं चिहं ( लघुगुरुवर्णमात्रास्वरूपं ) बुध्यते ज्ञायते विद्वनिरिति शेषः । अहं कालिदासः अविस्तरं विस्ताररहितं तं प्रसिद्धं श्रुतबोधनामानं ग्रन्थं सम्प्रवघयामि कथयिष्यामि ।
भाषा-जिस ग्रन्थ के सुनने से हो आर्या आदि छन्दों का चिह्न जाना जाता है; उस संक्षिप्त श्रुतबोध नामक ग्रन्थ को मैं कहूँगा ॥ १ ॥
गुरुविचार-परिभाषा संयुक्ताद्यं दीर्घ सानुस्वारं विसर्गसम्मिश्रम् ।
विज्ञेयमक्षरं गुरु पादान्तस्थं विकल्पेन ॥२॥ अन्वयः-संयुक्ताचं दीर्घ सानुस्वारं विसर्गसम्मिश्रम् अक्षरं गुरु विज्ञेयम् । पादान्तस्थम् अक्षरं विकल्पेन (गुरु विज्ञेयम् )।
व्याख्या-संयुक्ताचं संयुक्तवर्णप्रथमं दीर्घ द्विमात्रिकं (भा-ई-ऊ-त्र) सानुस्वारम् अनुस्वारसहितं विसर्गसम्मिश्रं विसर्गयुक्तम् अपरं वर्णः गुरु गुरुसंज्ञक
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श्रुतबोधः
(द्विमात्रिक) विज्ञेयं बोध्यम् । पादान्तस्थं पादान्तवर्ति (अक्षरं) विकल्पेन पाक्षिक (गुरुसंज्ञकं विज्ञेयम् )।
भाषा-संयुक्त वर्ण के आदि वर्ण, द्विमात्रिक वर्ण, अनुस्वारयुक्त वर्ण, विसर्गयुक्त वर्ण को गुरु जानना और पाद के अन्तवर्ती वर्ण को विकल्प से गुरु जानना ॥२॥
गणलक्षणम् आदिमध्यावसानेषु भजसा यान्ति गौरवम् ।
यरता लाघवं यान्ति मनौ तु गुरुलाघवम् ।। ३ ।। अन्वयः-मजसाः भादिमध्यावसानेषु गौरवं यान्ति । यरताः (आदिमध्याव. सानेषु) लाघवं यान्ति । तु मनौ (आदिमध्यावसानेषु) गुरुलाघवं (यातः)।
व्याख्या-भजसाः भगण-जगण-सगणाः आदिमध्यावसानेषु प्रथममध्यान्तेषु (क्रमशः) गौरवं गुरुतां यान्ति प्राप्नुवन्ति । यरताः यगण-गण-तगणाः (आदिमध्यावसानेषु क्रमशः) लाघवं लघुतां यान्ति गच्छन्ति । तु किन्तु मनी मगणनगणौ ( आदिमध्यावसानेषु सर्वत्र ) गुरुलाघवं गुरुवं लघुत्वं च ( यातः )।
उदाहरणम्-भगण जगण सगण यगण
SI रगण
ISI 1 is iss तगण मगण नगण
s। ss। sss ।।। भाषा-भगण का प्रथम अक्षर गुरु होता है। नगण का मध्य अक्षर गुरु होता है। सगण का अन्त्य अक्षर गुरु होता है। यगण का आदि अक्षर लघु होता है। रगण का मध्य अक्षर लघु होता है। तगण का अन्त्य अक्षर लघु होता है । मगण के तीनों अक्षरगुरु होते हैं। नगण के तीनों अक्षर लघु होते हैं।
(.) आर्या छन्दः यस्याः प्रथमे पादे द्वादश मात्रास्तथा तृतीयेऽपि । अष्टादश द्वितीये चतुर्थके पञ्चदश सार्या ॥४॥
अन्वयः-यस्याः प्रथने पादे तथा तृतीयेऽपि (पादे) द्वादश मात्राः (भवन्ति) हितीये ( पादे) अष्टादश (मात्रा भवन्ति), चतुर्थके (पादे च) पञ्चदश (मात्राः भवन्ति ), सा आर्या ( भवति)।
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अश्लीलांशवजितः
व्याख्या - यस्याः वृत्तेः प्रथमे आधे पादे चरणे द्वादश मात्रा (भवन्ति ) तथा तृतीयेऽपि पादे चरणे ( द्वादश मात्रा भवन्ति ) । द्वितीये (पादे) अष्टादश ( मात्रा भवन्ति ) चतुर्थ के चतुर्थे ( पादे च ) पञ्चदश मात्रा भवन्ति । सा आर्या नाम वृत्तिः भवतीति शेषः । आर्यायां पूर्वार्द्ध त्रिंशन्मात्रा परार्द्धे च सप्तविंशतिमात्रा भवन्तीति भावः ।
उदाहरणं यथा—
सा जयति जगत्यार्या देवी दिवमुत्पतिष्णुर तिरुचिरा । दृश्यतेऽम्बरतले कंसवधोत्पातविद्युदिव ॥
या
भाषा - जिस छन्द के प्रथम और तृतीय चरण में बारह-बारह मात्रायें, द्वितीय चरण में अठारह मात्रायें और चतुर्थ चरण में पन्द्रह मात्रायें हों वह आर्या नाम का छन्द कहा जाता है ॥ ४ ॥
( २ ) गीति: ( आर्या ) छन्दः
आर्या पूर्वार्धसमं द्वितीयमपि यत्र भवति साधुगते ! | छन्दोविदस्तदानीं गीति तां प्राक्तना हि भाषन्ते ॥ ५ ॥
अन्वयः - हे साधुगते ! सज्जनाचरणशालिन् ! यत्र यस्मिन् वृत्ते द्वितीयम् उत्तरार्द्धमपि आर्या पूर्वार्द्धसमम् आर्याप्रथमार्द्धतुल्यं भवति । प्राक्तनाः प्राचीनाः छन्दोविदः छन्दोज्ञातारः ( पण्डिताः ) तदानीं तां पूर्वोत्तलक्षणलक्षितां गीतिं तन्नाम्नीम् (आय) हि निश्चयेन भाषन्ते कथयन्ति ।
उदाहरणं यथा
१
केशव वंशगीतिक मनोहरिणहारिणी जयति । गोपीमान ग्रन्थेर्विमोचनी दिव्यगायनाश्चर्या ॥
भाषा - जिस छन्द के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दोनों आर्या के पूर्वार्द्ध के तुल्य हो, उसे कवियों ने गीति नामक छन्द कहा है ॥ ५ ॥
(३) उपगीतिः (आर्या ) छन्दः
आर्योत्तरार्द्धतुल्यं प्रथमार्धमपि प्रयुक्तं चेत् |
लोके तामुपगीतिं प्रकाशयन्ते महाकवयः ॥ ६ ॥
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श्रुतबोधः
अन्वयः-प्रथमार्द्धम् अपि आर्योत्तरार्द्धतुल्यं प्रयुक्कं चेत् लोके महाकवयः ताम् उपगोति प्रकाशयन्ते ।
व्याख्या-(यत्र वृत्ते) प्रथमार्द्धम् पूर्वार्द्धम् अपि आर्योत्तरार्द्धतुल्यम् आर्यापरार्द्धसदृशं प्रयुक्तं नियोजितं चेत् भवेत् , तदा लोके छन्दोजगति महाकवयः काव्यकर्तारो विद्वांसः तां पूर्वोतलक्षणलक्षिताम् उपगीति तन्नाम्नी वृत्ति प्रकाशयन्ते कथयन्ति । उदाहरणं यथा
अधिसुरभारति भारत-वर्षीया भारती भातु ।
येन हि भाषा राष्ट्र-स्योन्नतिपदवीं सदा यातु ॥ भाषा-जिस छन्द के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दोनों ही भाग आर्या के उत्तरार्द्ध के सदृश हों, उसे महाकवियों ने उपगीति छन्द कहा है ॥ ६ ॥
(४) अक्षरपलिच्छन्दः आद्यचतुर्थ पञ्चमकं चेद् ।
यत्र गुरु स्यात् साऽक्षरपतिः ।। ७ ॥ अन्वयः-यत्र आद्यचतुथं पञ्चमकं (च) चेत् गुरु स्यात् सा अक्षरपतिः (भवति)।
व्याख्या-यत्र यस्मिन् छन्दसि आधचतुर्थ प्रथमं तुयं च ( तथा ) पञ्चमकम् पञ्चममपि अक्षरं चेत् गुरु द्विमात्रिकं स्यात् , सा पूर्वोक्तलक्षणलक्षिता अक्षरपतिः, भवतीति शेषः । उदाहरणं यथा
कृष्णसनाथा तर्णकपतिः । यामुनकच्छे चारु चचार ॥ भाषा-जिस छन्द के प्रथम, चतुर्थ और चञ्चम भक्षर गुरु हो उसको अक्षरपङ्क्ति छन्द कहते हैं ॥ ७ ॥
(५) शशिवदनाच्छन्दः अगुरु चतुष्कं भवति गुरू द्वौ।
विमलमते ! हे ! शशिवदनाऽसौ ।। ८ ।। अन्वयः-हे विमलमते ! यत्र चतुष्कम् अगुरु भवति, द्वौ गुरू (भवतः) असौ शशिवदना (भवति)।
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अश्लीलांशवर्जितः
व्याख्या-हे विमलमते ! निर्मलबुद्धे ! यत्र यस्मिन् छन्दसि चतुष्कं प्रथमतो वर्णचतुष्टयम् अगुरु गुरुभिन्नं लावति यावत् भवति विद्यते ( ततो) द्वौ वर्णी गुरू दीघों भवतः, असावेषा शशिवदमा तन्नामच्छन्दो भवति ।
उदाहरणं यथाशशिवदनानां ब्रजतरुणीनाम् । हृदयविनोदं मधुरिपुरैच्छत् ॥
भाषा-जिसके प्रथम से चार अक्षर लघु और पाँचवा तथा छठा अक्षर गुरु हों, उसे शशिवदना छन्द कहते हैं ॥ ८ ॥
(६) मदलेखा छन्दः तुर्य पञ्चमकं चेद्यत्र स्याल्लघु विद्वन् ! ।
छन्दोविद्भिरवश्यं प्रोक्ता सा मदलेखा ।। ६ ।। अन्ययः-हे विद्वन् ! यत्र तुर्य पञ्चमकं लघु चेत् स्यात् सा छन्दोविद्भिः मदलेखा अवश्यं प्रोक्ता।
व्याख्या-हे विद्वन् ! मनीषिन् ! यत्र यस्मिन् छन्दसि तुर्य चतुर्थ पञ्चमकं पञ्चमं च अक्षरं लघु हस्वं चेत् यदि स्यात् भवेत् , (तदा) सा इयं छन्दोविद्भिः छन्दःशास्त्र-पण्डितैः मदलेखा अवश्यं प्रोक्ता कथिता । उदाहरणं यथा
रङ्गे बाहुविरुग्णाद् दन्तीन्द्रान्मदलेखा ।
लग्नाऽभून्मुरशत्रौ कस्तूरीरसचर्चा ॥ भाषा-जिसके चतुर्थ और पञ्चम अक्षर लघु हों, उसे छन्द के पण्डितों ने मद लेखा निश्चित कहा है ॥ ९ ॥
(७) अष्टाक्षरजाता ( अनुष्टुप् ) छन्दः श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम् ।
द्विचतुष्पादयोह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ॥१०॥ अन्वयः-श्लोके सर्वत्र लघु पष्टं (च) गुरु, द्विचतुष्पादयोः सप्तमं हस्वम् अन्ययोः ( सप्तमं ) दीर्घ ज्ञेयम् ।
व्याख्या-श्लोकेऽनुष्ठुभि सर्वत्र चतुर्यु पादेषु पञ्चमं पञ्चमाक्षरं लघु हस्वं षष्ठं पष्ठातरं गुरु च दीर्घ, द्विचतुष्पादयोः द्वितीय-चतुर्थ चरणयोः सप्तमम् अक्षरं ह्रस्वं लघु, अन्ययोः प्रथमतृतीयचरणयोः सप्तममक्षरं दीर्घ द्विमात्रिकम ज्ञेयम् बोध्यम् ।
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श्रुतबोधः
भाषा-जिस छन्द के चारों चरणों में पञ्चम अक्षर लघु तथा षष्ठ अक्षर गुरु हो, और दूसरे चौथे चरण में सप्तम अक्षर हस्व हों, और प्रथम तथा तृतीय चरण में सप्तम दीर्घ हों, उसको अनुष्टुप् छन्द कहते हैं ॥ १० ॥
(८) पद्यच्छन्दोलक्षणम् पञ्चमं लघु सर्वत्र सप्तमं द्विचतुर्थयोः ।
षष्टं गुरु विज्ञानीयादेतत्पद्यस्य लक्षणम् ।। ११ ।। अन्वयः-सर्वत्र पञ्चमं लघु द्विचतुर्थयोः सप्तमं ( लघु सर्वत्र ) षष्ठं (च) गुरु ( भवेत् ), एतत्पद्यस्य लक्षणं विजानीयात् ।
व्याख्या-यत्र छन्दसि सत्र चतुर्षु चरणेषु पञ्चमं पञ्चममनरं लघु हस्वं, द्विचतुर्थयोः द्वितीयतुर्थयोः पादयोः सप्तमं सप्तमसंख्याकमक्षरं लघु भवति, पष्टं पष्टाक्षरञ्च गुरु दीर्घ भवेत् , एतत् परस्य पद्यनाम्नश्छन्दसो लक्षणं चिह्न विजानीयात् वुध्येत । उदाहरणं यथा
रामचन्द्र-दयादृष्टया नित्यं विद्याविलासभृत् :
ब्रह्मशङ्करतां यातु भारते शिष्यमण्डली ॥ भाषा-जिसके चारों चरणों में पञ्चम अक्षर एवं द्वितीय और चतुर्थ चरणों में सप्तम अक्षर लघु हों और सर्वत्र पष्ठ अक्षर दीर्घ हों, उसको (पद्य ) छन्द कहने हैं ॥ ११ ॥
(९) माणवकाक्रीडच्छन्दः आदिगतं तुर्यगतं पञ्चममं चान्त्यगतम् ।
स्याद् गुरु चेत्तत्कथितं माणवकाक्रीडमिदम् ॥ १२ ॥ अन्वयः-आदिगतं नुर्यगतं पञ्चमकम् अन्त्यगतं च गुरु चेत् स्यात् , तत् इदं माणवकाक्रोडं कथितम् ।
व्याख्या-आदिगतं प्रथमं तुर्यगतं चतुर्थ पञ्चमकं पञ्चमम् अस्यगतं पादान्तवर्ति ( अष्टममिति यावत् ) च अक्षरं गुरु दीर्घ चेत् यदि स्यात् भवेत् , तत् तदा इदम् एतत् माणवकाकडं तन्नामकं वृत्तं कथितम् अभिहितम् । उदाहरणं यथा
माणवकाक्रीडितकं यः कुरुते वृद्धवयाः । हास्यमसौ याति जने भिक्षुरिव स्त्रीचपलः ॥
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अश्लीलांशवर्जितः
भाषा - जिसके चारों चरणों में प्रथम, चतुर्थ, पञ्चम और अष्टम अन्तर गुरु हो, वह माणवकाक्रीडनामक छन्द कहा गया है ॥ १२ ॥
(१०) प्रमाणिका ( नगस्वरूपिणी ) छन्दः द्वितुर्यपष्ठमष्टमं गुरु प्रयोजितं यदा |
तदा निवेदयन्ति तां बुधा नगस्वरूपिणीम् ॥ १३ ॥ अन्वयः - यदा द्विनुर्यपष्टम् अष्टमं च गुरु प्रयोजितं तदा बुधाः तां नगस्वरूपिणीं निवेदयन्ति ।
व्याख्या - यदा यस्मिन् छन्दसि द्वितुर्यषष्ठं द्वितीयं तुयं चतुर्थं पष्टम् अष्टमं अक्षरं गुरु दीर्घ प्रयोजितं प्रयुक्तं ( भवेत् ), तदा बुधाः पण्डिताः तां नगस्वरूपिणीं तन्नामकं छन्दः निवेदयन्ति कथयन्ति ।
उदाहरणं यथा
स्वमातुरङ्घ्रपङ्कजं समचितुं समुत्सुकाः । सदैव ये भवन्ति ते प्रयान्ति नूनमुन्नतिम् ॥
भाषा - जिसके प्रत्येक पाद में द्वितीय, चतुर्थ, षष्ट और अष्टम अक्षर दीर्घ हों, उसे पण्डितों ने नगस्वरूपिणी नाम का छन्द कहा है ॥ १३ ॥
(११) विद्युन्मालाच्छन्दः
सर्वे वर्णा दीर्घा यस्यां विश्रामः स्याद्वेदे वेदैः । छन्दोऽभ्येतद्विद्वृन्दै व्याख्याता सा विद्युन्माला ॥ १४ ॥ अन्वयः - हे छन्दोऽध्येतः ! यस्यां सर्वे वर्णाः दीर्घाः ( भवेयुः तथा ) वेदैः वेदैः विश्रामः स्यात् सा विद्वद्वृन्दैः विद्युन्माला व्याख्याता ।
:
व्याख्या - हे छन्दोऽध्येतः ! छन्दःशास्त्रविद्यार्थिन् ! यस्यां वृत्तौ सर्वे वर्णाः समस्तान्यक्षराणि दीर्घाः गुरुणि भवेयुः, तथा वेदैवें दैः चतुभिश्चतुभिरक्षरैः विश्रामो विरामः स्यात् भवेत् सा असौ विद्वद्वृन्दैः पण्डितगणैः विद्युन्माला तन्नामिका वृत्तिः व्याख्याता कथिता ।
:
,
उदाहरणं यथा—
वासोवल्ली विद्युन्माला
बर्हश्रेणी शाकश्वापः ।
यस्मिन् स स्यात् तापांच्छियै गोमध्यस्थः कृष्णाम्भोदः ॥
भाषा - जिसके सब अक्षर दीर्घ हों और चार २ अक्षरों पर विश्राम हो
उसको पण्डितगण विद्युन्माला छन्द कहते हैं ॥ १४ ॥
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श्रुतबोधः (१२) चम्पकमाला (रुक्मवती) छन्दः शिष्य ! गुरु स्यादाद्य चतुर्थ पञ्चमपष्टं चान्त्यमुपान्त्यम् | इन्द्रियबाणैर्यत्र विरामः सा कथनीया चम्पकमाला ।। १५ ।।
अन्वयः-हे शिष्य ! यत्र आद्यचतुर्थ पञ्चमपष्ठम् अन्त्यम् उपान्त्यम् च गुरु स्यात् , (तथा) इन्द्रियबाणः विरामः (स्यात् ) सा चम्पकमाला कथनीया ।
व्याख्या हे शिप्य ! छात्र ! यत्र यस्यां वृत्तौ आद्यचतुर्थप्रथमतुर्य पञ्चमपष्टं पञ्चमम् षष्ठम् अन्त्यं पादान्त्यम् ( दशममिति यावत् ) उपास्यं नवमं च अक्षरं गुरु दीर्घ स्यात् भवेत् , (नथा) इन्द्रियवाणैः पञ्चभिः पञ्चभिः वणः विरामः विश्रामः ( स्यात् ), सा चम्पकमाला तन्नाम्नी वृत्तिः कथनीया अभिधेया ॥ उदाहरणं यथा
कायमनोवाक्यः परिशुद्धैर्यस्य सदा कंद्विपि भक्तिः ।
राज्यपदे हालिरुदारा रुक्मवती विघ्नः खलु तस्य ।। भाषा-हे छात्र ! जिसके प्रथम, चतुर्थ, पञ्चम, षष्ट, नवम और दशम अक्षर गुरु हों और पाँच पाँच अक्षरों पर विश्राम हो, वह चम्पकमाला नामक छन्द है।
(१३) मणिबन्धच्छन्दः चम्पकमाला यत्र भवेदन्त्यविहीना बुद्धिनिघे!।
इन्द्रियवेदैश्चेद्विरतिस्तन्मणिबन्धं संकथितम् ।। १६॥ अन्वयः-हे बुद्धिनिधे! यत्र चम्पकमाला अन्त्यविहीना भवेत् , इन्द्रियवेदैः विरतिः, चेत् तत् मणिबन्धं संकथितम् ।।
व्याख्या हे बुद्धिनिधे ! ज्ञाननिधान ! यत्र यस्मिन् छन्दसि चम्पकमाला (छन्दः) अन्त्यविहीना अन्त्य न अक्षरेण विहीना रहिना भवेत् जायेन, अर्थात् प्रथमं चतुर्थ पञ्चमं षष्टं नवमं च अक्षरं गुरु दीर्घ स्यात , तथा इन्द्रियवे दैः पञ्चभिः चतुर्भिरक्षरैः विरतिर्विरामश्चेत् यदि स्यात् तदा तत् वृत्तं मणिबन्धं नाम संकथितं संप्रोक्तम् विद्वद्भिरिति शेषः । उदाहरणं यथा
कालियभोगाभोगगतस्तन्मणिमध्यस्फीतरुचा ।
चित्रपदाभो नन्दसुतश्चारु ननर्त स्मेरमुखः ॥ भाषा-जिसके सभी पादों में प्रथम, चतुर्थ, पञ्चम, पष्ठ और नवम अक्षर गुरु हों और पाँच पाँच तथा चार चार अक्षरों पर विश्राम हो, उस छन्द को छन्दशास्त्र के पण्डितों ने मणिबन्ध नाम से कहा है ॥ १६ ॥
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अश्लीलांशवर्जित।
(१४) शालिनीच्छन्दः हस्वो वर्णों जायते यत्र षष्ठो हे जिज्ञासो! तद्वदेवाष्टमान्त्यः । विश्रामः स्याच्छिष्य ! वेदैस्तुरङ्गस्तां भाषन्ते शालिनी छान्दसीयाः ।।
अन्वयः-हे जिज्ञासो ! हे शिष्य ! यत्र पष्ठः वर्णः हस्वः लायते, तहदेव अष्टमान्त्यः ( अपि हस्थो जायते ), वेदैः तुरङ्गैश्च विश्रामः स्यात् ; छान्दसीयाः तां शालिनी भाषन्ते ।
व्याख्या हे जिज्ञासो ! ज्ञानाभिलाषिन् ! हे शिष्य ! छात्र ! यत्र यस्मिन् छन्दसि षष्ठः षष्ठसंख्यकः वर्णोऽक्षरं ह्रस्वो लघुर्जायते भवति, तादेव तथैव अष्टमान्त्यः नवमोऽपि हस्वो लघुर्जायते छान्दसीयाः छन्दरशात्रतत्वविदः तां शालिनी तमानी वृत्ति भाषन्ते कथयन्ति । उदाहरणं यथा
अंहो हन्ति ज्ञानवृद्धिं विधत्ते धर्म धत्ते काममथं च सूते ।
मुक्तिं दत्ते सर्वदोपास्यमाना पुंसां श्रद्धाशालिनी विष्णुभक्तिः ॥ भाषा-जिस छन्द में षष्ठ और नवम अपर हस्व हो और चार-चार तथा सात सात अक्षरों पर विश्राम हो, उसको छन्द के जानने काले शालिनी छन्द कहते हैं।
(१५) मन्दाक्रान्ताच्छन्दः चत्वारः प्राग यदि हि गुरवो द्वौ दशैकादशौ चेच्छन्दोज्ञान-प्रसित धिषणाऽनारतं द्वादशान्त्यौ । तद्वाश्चान्त्यौ युगरसहयैर्वत्र वृत्ते विरामो
मन्दाक्रान्तां प्रवरकवयः साधु तां सङ्गिरन्ते ।। १८ ।। अन्वयः-हे छान्दोज्ञानप्रसितधिषण ! यत्र वृत्ते यदि हि प्राक् चत्वारः (वर्णाः ) गुरवः ( स्युः ) दशैकादशौ च द्वादशानन्यौ तद्वदेव अन्त्यावपि च द्वौ ( वर्णी गुरू स्यानाम् ), युगरसहयैः विरामश्च (स्यात् )। प्रवरकवयः अनारतं तां मन्दाक्रान्तां साधु सङ्गिरन्ते ।
व्याख्या-हे छन्दोज्ञानप्रसितधिषण ! हे छन्दोज्ञानतत्परबुद्ध ! यत्र यस्मिन वृत्ते छन्दसि यदि हि चेन्ननु प्राक् प्रथमं चत्वारः चतुःसंख्यकाः वर्णा अक्षराणि गुरवः दोर्घाः स्युः। दशैकादशौ दशसंख्यकैकादशसंख्यकौ च तथा द्वादशानन्यौ त्रयोदशचतुर्दशी तद्वदेव तथैव अन्त्यौ षोडश-सप्तदशौ च द्वौ (वौँ अक्षरे गुरू दी/ स्याताम् ), युगरसहयैः चतुर्भिः षड्भिः सप्तभिश्च अक्षरैः विरामः विश्रामो
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श्रुतबोधः
भवेत् ; प्रवरकवयः श्रेष्ठकाव्यविदः अनारतं सदा तां पर्वोत्तलक्षणलक्षितां मन्दाक्रान्तां तन्नामकं छन्दः साधु सुष्ठु सनिरन्ते कथयन्ति ।
उदाहरणं यथाशान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं-विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवणं शुभाङ्गम् । लक्ष्मोकान्त कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं-वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥
भाषा-जिसके सब चरणों में प्रथम से चार वर्ण, उसके बाद दशम, एकादश, त्रयोदश, चतुर्दश, षोडश और सप्तदश अक्षर गुरु हों और चार चार छः छः तथा सात सात वर्णों वर विश्राम हो, वह मन्दक्रान्ता नामक छन्द कहा गया है॥१८॥
(१६) हंसीच्छन्दः मन्दाक्रान्ताऽन्त्ययतिरहिता सद्योग्राहिन् ! भवति यदि सा । तद्विद्भिधुवमभिहिता ज्ञेया हंसी शुचितममते ! ॥१६॥
अन्वयः-हे सद्योग्राहिन् ! यदि सा मन्दाक्रान्ता अन्त्ययतिरहिता भवति, ( तदा ) हे शुचितममते ! तद्विद्वद्भिः ध्रवम् अभिहिता हंसी ज्ञेया। _ व्याख्या-हे सद्योग्राहिन् ! झटिस्युपदेशग्रहणकारिन् ! यदि सा पूर्वोक्ता मन्दाक्रान्ता तन्नाम्नी वृत्तिः अन्त्ययतिरहिता अन्तिमसप्ताक्षरविरामशून्या भवति जायते तदा हे शुचितममते ! उज्ज्वलतमबुद्धे ! तद्विद्वद्भिः छन्दोविद्भिः ध्रुवं निश्चयेन अभिहिता कथिता हंसी तन्नाम्नी वृत्तिः ज्ञेया बोध्या । भवतीति शेषः । उदाहरणम्
हिंसाद्वेषौ प्रकृतिसुलभौ दुर्वृत्तानामनुदिनमतः ।
तैः संसारो घृणितनरको रम्योऽप्येवं सदयहृदयः ॥ _भाषा-मन्दाक्रान्ता यदि अन्त्ययति (अन्त के सात अक्षर) से रहित हो, तब विद्वान् लोग उसे हंसी कहते हैं अर्थात जिस छन्द के सब चरणों में प्रथम चार अक्षर दीर्घ हों और बाद पांच अक्षर हस्व हों फिर दशम अक्षर दीर्घ हो और चार चार तथा छः छः अक्षरों पर विश्राम हो; उसको हंसी छन्द जानना चाहिए ॥ १९ ॥
(१७) दोधकवृत्तम् आद्यचतुर्थमहीनमते हे ! सप्तमकं दशमं च तथाऽन्त्यम् । यत्र गुरु प्रकटस्मृतिशक्ते! तत्कथितं ननु दोधकवृत्तम् ॥ २० ॥
अन्वयः-हे अहीनमते ! यत्र आद्यचतुर्थ सप्तमकं दशमं च तथा अन्त्यं गुरु ( स्यात् ), हे प्रकटस्मृतिशक्ते ! तत् ननु दोधकवृत्तं कथितम् ।
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अश्लीलशिवर्जितः
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व्याख्या-हे अहीनमते ! हे विपुलबुद्धे ! यत्र यस्मिन् छन्दसि आधचतुर्थ प्रथमतुरीयम् सप्तमकं सप्तमं दशमं दशमसंख्याकं च तथा अन्त्यम् एकादशम् अक्षरं गुरु दाई स्यात् । हे प्रकटस्मृतिशक्ते ! सजातस्मरणसामर्थ्य ! तत् उक्तलक्षणलक्षितं ननु बलु दोधकवृत्तं तनामक छन्दः कथितम् अभिहितम् पण्डितरिति शेषः । उदाहरणं यथा
देव ! सदो कदम्बतलस्थ ! श्रीधर ! तावक नामपदं मे ।
कण्ठनलेऽसुमिनिर्गमकाले स्वल्पमपि क्षणमेप्यति योगम् ॥ भाषा-जिसके प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, दशम और एकादश अक्षर गुरु हों वह दोधक नाम का छन्द कहा गया है ॥ २० ॥
(१८) इन्द्रवज्राछन्दः यत्र त्रिषट्सप्तममक्षरं स्याद्धस्यं तु वृत्ते नवमं च तद्वत् । मत्या विलजीकृतवाक्पते हे ! तामिन्द्रवां ब्रुवते कवीन्द्राः ।। २१ ।।
अन्वयः-हे मत्या विलजोकृतवाक्पते ! यत्र वृत्ते तु विषट्सप्तमं तद्वत् नवम अक्षरं हस्वं स्यात् . कवीन्द्राः ताम् इन्द्रवज्रां अवते ।,
व्याख्या-हे मत्या बुद्धया विलजीकृतवाक्पते ! वोडीकृत वृहस्पते ! यत्र यस्मिन् वृत्ते छन्दसि तु त्रिषट्सप्तमं तृतीय-पष्ट-सप्तमसंख्यकं तद्वत् तथैव नवमं च अक्षरं वर्णः हस्वं लघु स्यात् भवेत् , कवीन्द्राः कविश्रेष्ठाः ताम् उक्तलक्षण. लक्षिताम् इन्द्रवज्रां तसानों वृत्तिं बुवते कथयन्ति । उदाहरणं यथा
गोष्टे गिरि सम्यकरेण धृत्वा रुष्टेन्द्रवज्राहतिमुकवृष्टी।
यो गोकुलं गोपकुलञ्च सुस्थं चक्रे स नो रक्षतु चक्रपाणिः ॥ भाषा-जिसके तृतीय, षष्ट, सप्तम और नवम अक्षर हस्व हों, उसे कवीन्द्रों ने इन्द्रवज्रा छन्द कहा है ॥ २१ ॥
(१९) उपेन्द्रवज्राच्छन्दः यदीन्द्रवज्राचरणेषु पूर्वे भवन्ति वर्णा लघवः कदाचित् । कुशाग्रवत् तीक्ष्णमते ! तदानीमुपेन्द्रवज्रा कथिता कवीन्द्रः ।। २२ ॥
अन्वयः-हे कुशाग्रवत् तीक्ष्णमते ! यदि कदाचित् इन्द्रवज्राचरणेषु पूर्वे वर्णाः लघवः भवन्ति, तदानीं कवीन्द्रैः उपेन्द्रवज्रा कथिता ।
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श्रुतबोधः
व्याख्या-हे कुशाग्रवत् तीक्ष्णमते ! हे अतितोचबुद्धे ! यदि चेत् कदाचित् जातुचित् इन्द्रवज्राचरणेषु इन्द्रवज्रासकलपादेषु पूर्व प्रथमे वर्णाः अक्षराणि लघवः हस्वाः भवन्ति वर्तन्ते, तदानीं तदा कवीन्द्रैः कविश्रेष्टैः सा उपेन्द्रवज्रा कथिता उक्ता। उदाहरणं यथा
उपेन्द्र ! वज्रादिमणिच्छटाभिविभूषणानां छुरितं वपुस्ते ।
स्मरामि गोपीभिरुपास्यमानं सुरद्रुमूले मणिमण्डपस्थम् ॥ भाषा-यदि इन्द्रवज्रा के सब चरणों में प्रथम अक्षर हस्व हो तो वह उपेन्द्रवज्रा छन्द कहा गया है ॥ २२ ॥
(२०) उपजातिच्छन्दः यत्र द्वयोरप्यनयोस्तु पादा भवन्ति सवृत्ततयाऽतिकान्त !। विद्वद्भिराद्यैः परिकीतिता सा प्रयुज्यतामित्युपजातिरेषा ।। २३ ॥
अन्वयः-हे सद्वृत्ततया अतिकान्त ! यत्र अनयोः द्वयोः अपि तु पादाः भवन्ति । आद्यैः विद्वद्भिः परिकीर्तिता सा एषा उपजातिः इति प्रयुज्यताम् ।
व्याख्या-हे सवृत्ततयाऽतिकान्त ! हे सद्यवहारतयाऽतिसुन्दर ! यत्र यस्मिन् छन्दसि अनयोः इन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रयोः द्वयोः उभयोः अपि पादाश्चरणाः (प्रथमतृतीयाविन्द्रवज्रायाः द्वितीयचतुर्थावुपेन्द्रवज्रायाः) स्युस्तदा आद्यैः प्राचीनः विद्वद्भिः पण्डितैः परिकीर्तिता प्रतिपादिता सा असौ एषा इयमुपजातिः तन्नामकं वृत्तं प्रयुज्यता कथ्यताम् । उदाहरणं यथा
अत्रानुगोदं मृगयानिवृत्तस्तरङ्गवातेन विनीतखेदः ।
रहस्त्वदुरसङ्गनिषण्णमूर्धा स्मरामि वानीरगृहेषु सुप्तः ॥ भाषा-जिस छन्द के प्रथम और तृतीय पाद इवत्रा के हो और द्वितीय तथा चतुर्थ पाद ठपेन्द्रवज्रा* के हों वह उपजाति छन्द कहा गया है ॥ २३ ॥
* वस्तुतः इन्द्रवज्रा के प्रथम और तृतीय तथा उपेन्द्रवज्रा के द्वितीय चतुर्थ पाद ही के रहने से उपजाति छन्द नहीं होता, किन्तु इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के न्यूनाधिक रूप में किसी पाद के होने पर भी उपजाति छन्द होता है। इस प्रकार उपजाति के १४ भेद होते हैं। सविस्तर वृत्तरत्नाकर की नारायणी टीका में देखिये।
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अश्लीलांशवर्जितः
१३
(२१) आख्यानकी छन्दः आख्यानकी स्याद् बुधमार्गयायिन् ! यन्दीन्द्रवज्राचरणः पुरस्तात् । उपेन्द्रवज्राचरणास्त्रयोऽन्ये मनीषिणोक्ता विपरीतपूर्वा ॥२४ ।। __ अन्वयः-हे बुद्धमार्गयायिन् ! यदि पुरस्तात् इन्द्रवज्राचरणः स्यात् अन्ये च त्रयः उपेन्द्रवन्नाचरणाः (स्युः, तदा) मनीषिणा विपरीतपूर्वा आख्यानकी उक्ता ।
व्याख्या-हे बुधमार्गयायिन् ! हे पण्डितपथगामिन् । यदि पुरस्तात् प्रथमम् , इन्द्रवज्राचरणः इन्द्रवज्रापादः, स्यात् भवेत् , भन्ये च अवशिष्टाश्च त्रयः त्रिसंख्यकाः उपेन्द्रवज्राचरणाः उपेन्द्रवज्रासहशपादाः ( स्युः ), तदा मनीषिणा विदुषा विपरीतपूर्वा आख्यानकी तमाम्नी वृत्तिः उक्ता कथिता । उदाहणं यथा
अंशे हिण्यातरिपोः स जाते हिरण्यनामे तनये नयज्ञः ।
द्विषामसाः सुतरां तरूणां हिरण्यरेता इव सानिलोऽभत् ॥ भाषा-जिसमें पहचा चरण इन्द्रवज्रा का हो और तीन पाद उपेन्द्रवज्रा के हों वह आख्यानकी छन्द है ॥ २४ ॥
(२२) रथोद्धताछन्दः आद्यमक्षरमतस्तृतीयकं सप्तमं च नवमं तथाऽन्तिमम् । दीर्घमस्तु ननु यत्र सन्मते! तां वदन्ति कवयो रथोद्धताम् ॥ २५ ।।
अन्वयः-ननु-सन्मते ! यत्र आद्यम् अतः तृतीयकं सप्तमं नवमं तथा अन्तिमं च अक्षरम् दीर्घम् अस्तु कवयः तां रथोद्धतां वदन्ति ।
व्याख्या-ननु सन्मते ! हे प्रशस्तबुद्धे ! यत्र यस्मिन् वृत्ते आद्यं प्रथमम् अतः अस्मात परं तृतीयकं तृतीयं सप्तम सप्तमसंख्यकम् नवमं तथा अन्तिमम् एकादशम् च अक्षरम् दीर्घ गुरु अस्तु भवतु, कवयः काव्यतत्त्वज्ञाः ताम् उक्तलक्षणलक्षितां रथोद्धतामेतन्नामकं वृत्तं वदन्ति कथयन्ति । उदाहरणं यथा
राधिका दधिविलोडनस्थिता कृष्णवेणुनि नदेरथोद्धता ।
यामुनं तटनिकुञ्जमञ्जसा सा जगाम सलिलाहृतिच्छलात् ॥ भाषा-जिसके सब चरणों में प्रथम, तृतीय, सप्तम नवम और एकादश अक्षर दीर्घ हो, उसको कविजन रथोद्धता छन्द कहते हैं ॥ २५ ॥
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श्रुतबोधः
(२३) स्वागताछन्दः अक्षरं च न नवमं दशमं चेद् व्यत्ययाद्भवति प्राक्तनवृत्ते । प्रोक्तमुत्तममते ! यदि सैव स्वागतेति कविभिः कथिताऽसौ ।।६।।
अन्वयः-हे उत्तममते ! प्राक्तनवृत्ते प्रोक्तं नवमं दशकम् अक्षरं चेद् यदि व्यत्ययाद्भवति, (तदा), सैव अमौ कविभिः न्वागना इति कथिता।
व्याख्या- हे उत्तममते ! उत्तमबुद्ध ! प्राक्तनवृत्ते पूर्वोक्तरथोद्धताछन्दसि प्रोक्तं कथितं नवमं नवमसंख्यकं दशमं दशमसंख्यकं च अक्षरं वणः व्यत्ययात् वैपरीस्यात् चेत् यदि भवति जायते, (तदा) सैव रथोद्धतैव असौ एपा कविभिः काव्यज्ञैः स्वागना एतन्नामिका वृत्तिः कथिता प्रतिपादिता ।। उदाहरणं यथा
यस्य चेतसि सदा मुरवैरी भक्तिशालिजनपालनलोलः ।
तस्य नूनममरालयभाजः स्वागतादरकरः सुरराजः ॥ भाषा-जिसमें रथोद्धता के नवम और दशम अक्षर विपरीत हो उसे कवियों ने स्वागता छन्द कहा है। (अर्थात् रथोद्धता में नवम अक्षर गुरु और दशम लघु होता है, इसमें नवम अक्षर लघु और दशम गुरु होगा )॥ २६ ॥
(२४) वैश्वदेवीचन्दः ह्रस्वो वर्णः स्यात्सप्तमो यत्र तद्वच्छन्दोज्ञानाथिन् ! न्यस्त एकादशाद्यः । बाणविश्रामस्तत्र चेद्वा तुरङ्गै ना निर्दिष्टा वत्स ! सा वैश्वदेवी ।। २७ ।।
अन्वयः-हे छन्दोज्ञानार्थिन् ! यत्र सप्तमः वर्णः हस्वः स्यात् तद्वत् एकादशाद्यः (हस्वः) न्यस्तः ( तथा) तत्र बाणैः वा तुरङ्गैः विश्रामश्चेत् (तदा) हे वत्स ! सा नाम्ना वैश्वदेवी निर्दिष्टा ।
व्याख्या-हे छन्दोज्ञानार्थिन् छन्दःशास्त्रजिज्ञासो ! यत्र यस्यां वृत्ती सप्तमः सप्तमसंख्यको वर्णः अक्षरं हस्वो लघुः स्यात् भवेत् , तद्वत् तथैव एकादशाद्यो दशम वर्णः ह्रस्वो न्यस्तः स्थापितः । तत्र तस्मिन् बाणेः पञ्चभिरक्षरैः नुरङ्गैः सप्तभिरक्षरैर्वा विश्रामो विरामो भवेत् ; चेद् यदि तदा हे वत्स ! हे छन्दःशास्त्रवालक ! सा वृत्तिः नाम्ना वैश्वदेवी निर्दिष्टा उक्ता विद्वद्भिरिति शेषः ।
उदाहरणं यथापद्मव्याकोशं भास्करं बालचन्द्रं वापीविस्तीर्ण स्वस्तिकं पूर्णकुम्भम् । तत्कस्मिन् देशे दर्शयाभ्यात्मशिल्पं दृष्ट्वा श्वो यद्विस्मयं यान्ति पौराः ॥
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अश्लीलांशवर्जितः भाषा-जिसके सब चरणों में सप्तम और दशम अक्षर हस्व हो और पांचपांच सात-सात अक्षरों पर विश्राम हो वह वैश्वदेवी छन्द कहा गया है ॥ २७ ॥
(२५) तोटकच्छन्दः सतृतीयकषष्ठमुदात्तमते ! नवमं विरतिप्रभवं गुरु चेत् । अधिपिङ्गलशास्त्रमुपात्तरते ! ननु तोटकवृत्तमिदं कथितम् ॥ २८ ॥
अन्वयः-हे उदात्तमते ! सतृतीयकपष्टं नवमं विरतिप्रभवं (च)गुरु (स्यात्) चेत् ननु ( तदा) हे अधिपिङ्गलशास्त्रसुपात्तरते ! इदं तोटकवृत्तं कथितम् ।
व्याख्या-हे उदात्तमते ! हे उज्ज्वलबुद्धे ! सतृतीयकषष्ठं तृतीय-षष्ठातरमहितं नवमं नवमसंख्यकं विरतिप्रभवं द्वादशं च अक्षरं गुरु दीर्घ स्यात् चेत् यदि ननु निश्चयने तदा हे अधिपिङ्गलशास्रमुपात्तरते ! इदम् एनत् तोटकवृत्तं तोटकनामच्छन्दः कथितं प्रतिपादितम् । उदाहरणं यथा
यमुनातटमच्युतबाल्यकला-लसदध्रि परोरुहसनरूचिम् ।
मुदितोऽट कलेरपनेतुमघं यदि चेच्छसि जन्म निजं सफलम् ॥ भाषा-जिसके सब चरणों में तृतीय, षष्ट, नवम और द्वादश अक्षर दीर्घ हों वह नोटकवृत्त कहा गया है ॥ २५ ॥
(२६) भुजङ्गप्रयानच्छन्दः यदाद्यं चतुर्थ तथा सप्तमं चेत्तथैवाक्षरं ह्रस्वमेकादशाद्यम् । दधद्भक्तिमाचार्यपादारविन्दे ! तदुक्तं कवीन्द्रर्भुजङ्गप्रयातम् ।। २६ ।।
अन्वयः-हे आचार्यपादारविन्दे भक्तिं दधद् ! यदा आद्यं चतुर्थ तथा सप्तमं नथैव एकादशाद्यम् अक्षरं हस्वं ( चेत् ) तदा कवीन्द्रः तत् भुजङ्गप्रयातम् उक्तन् ।
व्याख्या हे आचार्यपादारविन्दे गुरुचरणकमले भक्तिं श्रद्धां दधद् बिभ्रत् । यदा आधं प्रथमं चतुर्थ तुरीयं तथा सप्तमं सप्तमसंख्यकं तथैव एकादशाद्यं दशमम् अक्षरं वर्णः ह्रस्वं लधु चेत् , तदा कवीन्द्रैः कविवर्यैः तत् उक्तलक्षणघटितं मुजङ्गप्रयातम् उक्तं कथितम् ।
उदाहरणं यथासदारात्मजज्ञातिभृत्यो विहाय स्वमेतं हृदं जीवनं लिप्समानः । मया क्लेशितः कालियेत्थं कुरु वं भुजङ्ग ! प्रयातं द्रुतं सागराय ॥
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श्रुनबोधः .भाषा-जिसमें हर एक चरण के प्रथम, चतुर्थ, सप्तम और दशम अक्षर हुम्ब हों, उसे कवियों ने भुजङ्गप्रयात कहा है ॥ २२ ॥
(२७) द्रुतविलम्बितच्छन्दः अयि वशंवद ! यत्र चतुर्थकं गुरु च सप्तमकं दशमं तथा। विरतिजं च तथैव विचक्षणैद्र्तविलम्बितमित्युपदिश्यते ।। ३०॥
अन्वयः-अयि वशंवद ! यत्र चतुर्थकं सप्तमकं च तथा दशमं तथैव विरतिज च ( अक्षरं गुरु भवति )। विचक्षणः (तत्) दुतविलम्बितम् इति उपदिश्यते ।
व्याख्या-अयि वशंवद ! हे आज्ञावशवर्तिन् ! यत्र यस्मिन् वृत्ते चतुर्थक तुरीयं सप्तमकं च सप्तमं तथा तेन प्रकारेण दशमं दशमसंख्यकतथैव तेनैव प्रकारेण विरतिजं विश्रामप्रभवं च अक्षरं गुरु दीर्घ भवति, विचक्षणैः पण्डितैः तत् प्रसिद्धम् उक्तलक्षणलक्षितं द्रुतविलम्बितं तन्नामकं वृत्तम् इति एतन्नाम्ना उपदिश्यते कथ्यते।
उदाहरणं यथाविपदि धैर्य मथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः । यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ॥
भाषा-जिसके सब चरणों में चतुर्थ, सप्तम, दशम और द्वादश अक्षर गुरु हों वह पण्डितों से द्रुतविलम्बित छन्द कहा गया है ।। ३० ॥
(२८) प्रमिनाक्षराच्छन्दः यदि तोटकस्य गुरु पञ्चमकं विहितं शुभोदय ! तदक्षरकम् । रससङ्खचकं गुरु न चेन्नियतं प्रमिताक्षरेति कविभिः कथिता ।। ३१ ॥
अन्वयः-हे शुभोदय ! यदि तोटकस्य पञ्चमकं ( यद् ) तद् अक्षरकं गुरु विहितं ( तथा ) रससंख्यकं गुरु न चेत् ( नदा सा) कविभिः प्रमिताक्षरा इति नियतं कथिता।
व्याख्या-हे शुभोदय ! यदि यदा तोटकस्य तोटकनामवृत्तस्य पञ्चमकं पञ्चमं (यद्) तद् प्रसिद्धम् अक्षरकं वर्णः गुरु दीर्घ विहितं कृतं तथा रससंख्यक षष्ठमक्षरं गुरु न चेत् न स्यात् , तदा सा वृत्तिः कविभिः काव्यज्ञैः प्रमिताक्षरा इति नियतं निश्चितं कथिता प्रतिपादिता । उदाहरणं यथा
अमृतस्य शीकरमिवोद्विरती रदमौक्तिकांशुलहरीच्छुरिता । प्रमिताक्षरा मुररिपोर्भणितिर्बजसुभ्रुवामभिजहार मनः ॥
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अश्लीलांशवर्जितः
भाषा - तोटक वृक्ष के प्रत्येक चरण का पञ्चम अक्षर दीर्घ हो और पष्ठ अक्षर हस्व हो तो वह प्रमिताक्षरा छन्द कहा गया है ।। ३१ ।।
१७
(२९) हरिणोप्लुता छन्
प्रथमाक्षरमाद्यतृतीययोर्द्रतविलम्बितकस्य
च पाठयो । यदि चेन्न तदा भवतीह सा सकलवृत्तचये हरिणीप्लुता ॥ ३२ ॥ अन्वयः - इह द्रुतविलम्बितकस्य आद्यतृतीययोः पादयोः प्रथमाक्षरं च यदि न चेत् तदा सा सकलवृत्तचये हरिणीप्लुता भवति ।
व्याख्या – इह छन्दःशास्त्रे द्रुतविलम्बितकस्य दुतविलम्बितनामवृत्तस्य आद्यतृतीययोः प्रथम-तृतीययोः पादयोः चरणयोः प्रथमाचरम् आद्यवर्णश्च यदि न चेत् स्यात् तदा सा पूर्वोक्ता सकलवृत्तचये निखिलच्छन्दोवृन्दे हरिणीप्लुता तन्नामच्छन्दः भवति जायते ।
उदाहरणं यथा—
अयि शिष्यजन ! स्वयमादराद्यदि गुरूक्तिरतो भुवने भवेः । ननु तर्हि गुणाकरतातितस्तव यशो दशदिग्-विततं भवेत् ॥ भाषा - जिस में द्रुतविलम्बित छन्द के पहिले और तीसरे पाद का पहला अक्षर न हो, वह हरिणीप्लुता नामक छन्द है I
(३०) वंशस्थं वृत्तम्
उपेन्द्रवज्ञाचरणेषु सन्ति चे-दुपान्त्यवर्णा लघवः कृता यदा । सदानतिभ्राजितभारतीरते ! वदन्ति वंशस्थमिदं बुधास्तदा || ३३ || अन्वयः - हे सदानतिभ्राजितभारतीरते ! चेद् उपेन्द्रवज्राचरणेषु उपान्त्ययर्णाः यदा लघवः कृताः सन्ति तदा बुधाः इदं वंशस्थं वदन्ति ।
व्याख्या - हे सदानतिभ्राजितभारतीरते ! हे पण्डितप्रणतिशोभितसरस्वत्यनुराग ! चेत् यदि उपेन्द्रवज्राचरणेषु उपेन्द्रवज्रापादेषु उपान्त्यवर्णाः एकादशसंख्यकाक्षराणि यदा लघवो हस्वाः कृताः न्यस्ताः सन्ति वर्तन्ते, तदा बुधाः पण्डिताः इदम् एतद् वंशस्थं तन्नामकं छन्दो वदन्ति कथयन्ति ।
उदाहरणं यथा
विलासवंशस्थविलं मुखानिलैः प्रपूर्य यः पञ्चमरागमुद्गिरन् । वजाङ्गनानामपि सक्तचेतसां जहार मानं स हरिः पुनातु नः ॥
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१८
श्रुतबोधः
भाषा-उपेन्द्रवज्रा के सब पादों में यदि ग्यारहवाँ अक्षर लघु हो तो उसको वंशस्थ छन्द कहते हैं ॥ ३३ ॥
(३१) इन्द्रवंशा छन्दः छन्दोविदामुक्तिकृतात्मसङ्गते ! वंशस्थपादा गुरुपूर्ववर्णकाः । विद्याविलासप्रिय ! यत्र नूनं तामिन्द्रवंशां कवयः प्रचक्षते ॥ ३४ ॥
अन्वयः-हे छन्दोविदामुक्तिकृतारमसङ्गते ! हे विद्याविलासप्रिय ! यत्र वंशस्थ रादाः गुरुपूर्ववर्णकाः ( भवन्ति ), कवयः ताम् इन्द्रवंशां नूनं प्रचक्षते ।
व्याख्या-हे छन्दोविदामुक्तिकृतात्मसङ्गते ! ' हे छन्दोऽभिज्ञवचनकृतमनोयोग ! हे विद्याविलासप्रिय ! हे विद्यावैभवप्रेमिन् ! यत्र वृत्तौ वंशस्थपादाः वंशस्थचरणाः गुरुपूर्ववर्णकाः आदिदीर्घवर्णाः भवन्ति, कवयः काव्यज्ञाः तामिन्द्रवंशामिन्द्रवंशानामवृत्तिं नूनं निश्चयं प्रचक्षते कथयन्ति । उदहरणं यथा
दैत्येन्द्रवंशाग्निरुदोर्णदीधितिः पीताम्बरोऽसौ जगतां तमोऽपहः ।
यस्मिन् ममज्जुः शलभा इव स्वयं ते कंसचाणूरमुखा मखद्विषः ।। भाषा–यदि वंशस्थ छन्द के सब पादों में प्रथम अक्षर दीर्घ हो तो उसे कवि लोग इन्द्रवंशा छन्द कहते हैं ॥ ३४ ॥
(३२) प्रभावती छन्दः यस्यां प्रिय ! प्रथमकमक्षरद्वयं तुयें तथा गुरु नवमं दशान्ति कम् । सान्त्यं भवेद्यदि विरतियुगग्रहः सा लक्षिता विपुलमते ! प्रभावती ॥
अन्वयः-हे प्रिय ! विपुलगते ! यस्यां प्रथमकम् अक्षरद्वयम् तथा तुर्य नवमं सान्त्यं दशान्तिकं (च ) गुरु भवेत् यदि युगग्रहः विरतिः (भवेत् ) सा प्रभावती लक्षिता।
व्याख्या हे प्रिय! हे प्रेमास्पद ! हे विपुलमते ! हे विशालबुद्धे ! यस्यां वृत्ती प्रथमकं पूर्वम् अक्षरद्वयं वर्णद्वयं तथा तुयं चतुर्थं नवमं नवमसंख्यकं सान्न्यमन्त्यवर्णसहितं त्रयोदमिति यावत् , दशान्तिकमेकादशं च गुरु दीर्घ भवेत स्यात् यदि चेत युगग्रहैः चतुर्थिः नवभिश्च वर्णैः विरतिर्विरामो भवेत् तदा सा एषा प्रभावती तन्नाम्नी वृत्तिः लक्षिता कथिता विद्वद्भिरिति शेषः ।
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अश्लीलांश वर्जितः
देवाः सदा पशुपतिरिन्दुशेखरो - गङ्गाधरो हिमगिरिकन्यकापतिः । वाराणसी- पुरपतिर्त्तभीति-हृत् पायापरं विषमशरारिराशु माम् ॥ भाषा - जिस वृत्त के चारों चरणों में प्रथम दो अक्षर और चतुर्थ, नवम, एकादश और त्रयोदश दीर्घ हों और चार चार तथा नव नव अक्षरों पर विश्राम हो, वह प्रभावती नाम वृत्ति कही गई है ॥ ३५ ॥ ( ३३ ) प्रहर्षिणी छन्दः
आद्यं चेत्त्रितयमथाष्टमं नवान्त्यं चोपान्त्यं गुरु विरतौ सदुक्तिमन् ! स्यात् । विश्रामो भवति महेशनेत्र दिग्भिर्विज्ञेया ननु सुमते ! प्रहर्षिणी सा || ३६ ||
अन्वयः - हे सदुतिमन् ! ननु सुमते ! चेत् आद्यं त्रितयम् अथ अष्टमं नवानयम् उपान्त्यं विरतौ च ( एकम् अक्षरं ) गुरु स्यात्, महेशने दिग्भिः विश्रामः भवति ( तदा ) सा प्रहर्षिणी विज्ञेया ।
१९
व्याख्या - हे सदुक्तिमन् ! हे मधुरवचनभाषिन् ! ननु सुमते ! हे सुबुद्धे ! चेत् यदि आद्यं प्रथमं, त्रितयं वर्णत्रिकम् अथ अनन्तरम् अष्टमं नवान्श्यं दशमम्, उपान्त्यं द्वादशं विरतौ विश्रामे च एकमक्षरं त्रयोदशमिति यावत् गुरु दीर्घ स्थात् भवेत् तथा महेशने त्रदिग्भिः महेशनेत्रैः त्रिभिरखरैः दिग्भिर्दशभिर तरं विश्रामो विरतिर्भवति, तदा सा प्रसिद्धा प्रहर्षिणी विज्ञेया बोध्या ।
"
4
उदाहरणं यथा
श्रीनाथे सुरवरपूजितापि कामारेः प्रियतम आर्सलोकबन्धौ । सर्वस्वे विषय वितृष्णमानसानां संसारे मतिरभवत् प्रहर्षिणीह ||
भाषा - जिसमें प्रतिपाद के प्रथम से तीन अक्षर और अष्टम, दशम, द्वादश और त्रयोदश अक्षर दीर्घ हों और तीन तीन तथा दश दश अक्षर पर विश्राम हो उसे प्रहर्षिणी छन्द जानना ॥ ३४ ॥
( ३४ ) वसन्ततिलका छन्दः
आद्यं द्वितीयमपि चेद् गुरु तचतुर्थ
यत्राष्टमं च दशमान्त्यमुपान्त्यमन्त्यम् । अष्टाभिरुज्ज्वलमते ! विरतिश्च षडभि
विज्ञा वसन्ततिलकां किल तां वदन्ति ॥ ३७ ॥
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श्रुतबोधः अन्वयः-हे उज्ज्वलमते ! यत्र चेद् आद्यं द्वितीयम् अपि चतुर्थम् अष्टमं दशमान्त्यम् उपान्त्यं अन्त्यं च ( यद् अक्षरं ) तद् गुरु ( स्यात् ) अष्टाभिः षडभिः च विरतिः ( स्यात् तदा ) किल विज्ञाः तां वसन्ततिलकां वदन्ति ।
व्याख्या-हे उज्ज्वलमते ! हे विमलमते ! यत्र यस्यां वृत्तौ चेत् यदि आy प्रथम द्वितीयम् अपि चतुर्थम्, अष्टम, दशमानत्यम् एकादशम उपान्त्य त्रयोदशम, अन्त्यं चतुर्दशं च यद् अक्षरं तद् गुरु स्यात् अष्टाभिः षड्भिश्च विरतिः विश्रामः स्यात् तदा तां विज्ञा बुधाः वसन्ततिल कां वदन्ति कथयन्ति । उदाहरणं यथानिन्दतु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लचमीः समाविशतु गच्छतु वा यथेच्छम् । अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
___न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥ भाषा-जिसमें पाद के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, अष्टम, एकादश, त्रयोदश और चतुर्दश अक्षर गुरु हो और आठ आठ तथा छ छ अक्षरों पर विश्राम हो उसको वसन्ततिलका नामक छन्द कहते हैं ॥ ३७ ॥
(३५) मालिनी छन्दः प्रथममगुरु षट्कं विद्यते यत्र वृत्ते
तदनु च दशमं चेदक्षरं द्वादशान्त्यम् । गिरिभिरथ तुरङ्गैः स्याच्च ननं विरामः
सुकविजनमनोज्ञा मालिनी सा प्रसिद्धा । ३८ ।। अन्वयः-यत्र वृत्ते चेत् प्रथमं षट्कं, तदनु दशमं, द्वादशान्त्यं च अक्षरम् अगुरु विद्यते अथ गिरिभिः तुरङ्गैः च विरामः स्यात् सा नूनं सुकविजनमनोज्ञा मालिनी प्रसिद्धा (भवति)।
व्याख्या-यत्र यस्मिन् वृत्ते छन्दसि चेद् यदि प्रथमं षटकम् आदितः षडक्षरवृन्दं तदनु तदनन्तरं दशमं द्वादशान्त्यं त्रयोदशं च अक्षरम् वर्णः अगुरु हस्वं विद्यते वर्तते, अथ अनन्तरं गिरिभिरष्टभिः तुरङ्गैः सप्तभिवाक्षरैः विरामो विरतिः स्यात् भवेत् । सा एषा नूनं निश्चयेन सुकविजनमनोज्ञा काव्यज्ञमनोरञ्जिनी मालिनी तमाम्नी वृत्तिः प्रसिद्धा ख्याता भवतीति शेषः ।
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अश्लीलांशवर्जितः
२१
उदाहरणं यथा
असित गिरिसमं स्यात्कजलं सिन्धुपात्रे सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी । लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश ! पारं न याति ॥ भाषा-जिसमें पाद के प्रथम से ६ अतर पर्यन्त, दशम और त्रयोदश अक्षर हस्व हों और आठ आठ तथा सात सात अक्षरों पर विश्राम हो, वह मालिनी नाम से प्रसिद्ध होता है ॥ ३८ ॥
(३६) हरिणी छन्दः स्युरिह लघवः पञ्च प्राच्यास्ततो दशमान्तिक.
म्तदनु लघुतायुक्तौ वर्णी यदि चित्रतुर्दशौ । प्रभवति पुनर्योपान्त्योऽधिभारति सद्रते !
यतिरपि रसैर्वेदैरश्वैः स्मृता हरिणीति सा ॥ ३६॥ अन्वयः-हे अधिभारति सदते ! इह यत्र प्राच्याः पञ्च (वर्णाः) लघवः स्युः, ततः दशमान्तिकः (वर्णः लघुः स्यात् ), तदनु यदि त्रिचतुर्दशौ वौँ लघुतायुक्तौ (स्याताम् ) पुनः उपान्त्यः (वर्णः लघुः) प्रभवति रसैः वेदैः अरवैश्च यतिरपि ( स्यात् तदा) सा हरिणी इति स्मृता।
व्याख्या हे अधिभारति सद्रते! हे सरस्वत्यां विद्यमानानुराग ! इह छन्दःशास्त्रे यत्र यस्यां वृत्तौ प्राध्याः पञ्च वर्णाः प्रथमतः पञ्चाक्षराणि लघवः हस्वाः स्युः भवेयुः ततः तदनन्तरं दशमान्तिकः एकादशो वर्णो (लघुः स्य त् ), तदनु तत्पश्चात् यदि चेत् त्रिचतुर्दशौ त्रयोदश-चतुर्दशसंख्यकौ वर्णी अक्षरे लघुतायुक्ती लघू ( स्याताम् ), पुनः उपास्यः षोडशो वर्णों ( लघुः) प्रभवति विद्यते रसैः षभिः वेदैश्चतुर्भिः अश्वैः सप्तभिश्च वर्णैः यतिः विरामोऽपि ( स्यात् ) तदा सा पूर्वोक्तलक्षणलपिता 'हरिणी' इतिनाम्नी स्मृता कथिता बुधैरिति शेषः । उदाहरणं यथा
विरमत बुधा ! योषिरसङ्गात् सुखात् क्षणभङ्गुरात् कुरुत करुणामैत्रीः प्रज्ञावधूजनसङ्गमम् ।
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२२
श्रुतबोधः
में खलु' नरक हारक्रास्त घनस्तनमण्डलं.
पायचा छाधाच रणन्मणिमेखलम् ॥ भाषा-जिसमें प्रतिपाद के आदि से पांच अक्षर हस्व हों और एकादश, त्रयोदश, चतुर्दश, षोडश-संख्यक अक्षर हस्व हो और छः, चार तथा सात अक्षरों पर विराम हो, वह हरिणी छन्द है ॥ ३९ ॥
(३७) शिखरिणी छन्दः यदा पूर्वो हस्वो भवति मतिमन् ! षष्ठकपरा
स्ततो वर्णाः पञ्च प्रकृतिसरल ! स्युस्तु लघवः । त्रयोऽन्ये चोपान्त्याः सुकविजनतासौख्यकरणी
रस रुद्रेयस्यां भवति विरतिः सा शिखरिणी ।। ४०॥ अन्वयः-हे मतिमन् ! यदा पूर्वः ( वर्णः ) हस्वः भवति, हे प्रकृतिसरल ! ततः षष्ठकपराः पञ्च वर्णाः तु लघवः स्युः अन्ये च उपान्त्याः त्रयः (वर्णाः लघवः स्युः ), यस्यां रसैः रुदैः विरतिः भवति सा सुकविजनताप्तौल्यकरणी शिखरिणी (बोध्येति शेषः),
व्याख्या-हे मतिमन् ! बुद्धिमन् ! यदा पूर्वः प्रथमः (वर्णः) हस्त्रो लघुः भवति वर्त्तते, हे प्रकृतिसरल ! हे स्वभावकोमल ! ततस्तदनन्तरं षष्ठकपराः षष्ठतः पञ्चसंख्यका वर्णा अक्षराणि तु लघवः हस्वाः स्युः भवेयुः अन्ये च उपान्त्या अन्त्यसमीपवर्तिनः त्रयः त्रिसंख्यका वर्णाः चतुर्दश-पञ्चदश-षोडशाः लघवः स्युः, यस्यां वृत्तौ रसैः षडभिः रुदैः एकादशभिश्चाधरैः विरतिर्विश्रामो भवति वर्तते सा सुकविजनतासौख्यकरणी कवीन्द्रमण्डलीविनोदजननी शिखरिणी नाम वृत्तिर्योध्येति शेषः । उदाहरणं यथामुदा विद्याभ्यासं विदधदभिमानेन रहितो
गुरोः पादाम्भोजं शिरसि निदधत् पुष्पसदृशम् नहि व्ययं कालं निजमपि नयनीशदयया
चिरं जीव छात्र ! स्वमनिशमसंशयमिह सुखी ॥ भाषा-जिसके चारों चरणों में प्रथम, सप्तम, अष्टम, नवम, दशम, एकादश, चतुर्दश, पञ्चदश और षोडश अक्षर हस्व हो और छ-छ तथा ग्यारह-ग्यारह अक्षर पर विश्राम हो, वह शिखरिणी छन्द है ॥ ४० ॥
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अश्लीलांशवर्जितः
(३८) पृथ्वी छन्दः द्वितीयमयि धीमतां प्रिय ! षडष्टमं द्वादशं
चतुर्दशमथालघु प्रकृतिधीर ! विद्यार्थिनाम् । सपञ्चदशमन्तिमं तदनु यत्र नूनं यति
गिरीन्द्रफणिभृत्कुलैर्भवति तत्र ! पृथ्वी हि सा ॥४१ ।। अन्वयः-अयि धीमतां प्रिय ! यत्र द्वितीयं षडष्टमं द्वादशं चतुर्दशम अथ सपञ्चदशम् अन्तिमम् अलघु ( भवेत् )। हे विद्यार्थिनां प्रकृतिधीर ! तदनु गिरीन्द्र फणिभृत्कुलैः यतिः भवति, तत्र नूनं ! सा पृथ्वी (वृत्तिः) हि निश्चयेन बोध्येति शेषः ।
व्याख्या-अयि हे धीमतां बुद्धिमतां प्रिय ! प्रेमिन् ! यत्र वृत्तौ षडष्टमं षष्ठम् अष्टमं द्वादशम् अथ चतुर्दशं सपञ्चदशं पञ्चदशेन सहितम् अन्तिमं सप्तदशम् अक्षरं अलघु गुरु दीर्घ (भवेत् ), हे विद्यार्थिनां छात्राणां प्रकृतिधीर ! स्वभावधैर्यधर ! तदनु तत्पश्चात् गिरीन्द्रफणिभृत्कुलैः अष्टभिः नवभिश्वाक्षरैर्यतिर्विश्रामो भवति जायते तत्र नूनं निश्चयेन सा पृथ्वी एतन्नाम्नी वृत्तिः हि निश्चयेन बोध्येति शेषः । उदाहरणं यथा
इतः स्वपिति केशवः कुलमितस्तदीयद्विषामितश्च शरणार्थिनां शिखरिणां गणाः शेरते । इतोऽपि वडवानलः सह समस्तसंवर्तके
रहो विततमूर्जितं भरसहज सिन्धोर्वपुः ॥ भाषा-जिसके प्रतिचरण में द्वितीय, षष्ठ, अष्टम, द्वादश, चतुर्दश, पञ्चदश और सप्तदश अक्षर दीर्घ हों और आठ तथा नव अक्षर पर विश्राम हो वह पृथ्वी छन्द है ॥४१॥
(३९) शार्दूलविक्रीडितं छन्दः आद्याश्चेद् गुरवख्यो यदि ततः षष्ठस्तथा चाष्टमः
स्यादेकादशतस्त्रयस्तदनु नन्वष्टादशाद्यान्तिमाः। मार्तण्डैर्मुनिभिश्च यत्र विरतिश्छन्दोऽनुसन्धानकृत
तवृत्तं प्रवदन्ति काव्यरसिकाःशार्दूलविक्रीडितम् ॥४२॥ अन्वयः-हे छन्दोऽनुसंधानकृत् ! यदि आद्याः त्रयः गुरवः ( स्युः ) ततः षष्ठः तथा अष्टमश्च गुरुः ( स्यात् ), ननु एकादशतः त्रयः (गुरवः), तदनु अष्टा.
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२४
श्रुतबोधः दशाद्यान्तिमाः (गुरवः स्युः), मार्तण्डैः मुनिभिश्च यत्र विरतिः ( स्यात् ), काव्यर• सिकाः तत् शार्दूलविक्रीडितं वृत्तं प्रवदन्ति । ___ व्याख्या-हे छन्दोऽनुसन्धानकृत् ! हे छन्दोज्ञाननिरत ! यदि चेत आद्याः प्रथमाः त्रयः त्रिसंख्यका वर्णाः गुरवो दीर्घाः स्युः ततस्तदनन्तरं षष्ठः तथा भष्टमश्च वर्णो गुरुः स्यात् भवेत् , ननु निश्चयेन एकादशतः त्रयः द्वादश-त्रयोदशचतुर्दशाः वर्णा गुरवः, तदनु तदनन्तरं भष्टादशाधान्तिमाः षोडश-सप्तदशी अनस्यश्च एकोनविंशश्च गुरवः स्युः मार्तण्डैः सूर्यैः द्वादशभिः मुनिभिः सप्तभिश्चाक्षरैः विरतिविरामः स्यात् , काव्यरसिकाः काव्यविदः तत् शार्दूलविक्रीडितं वृत्तं छन्दः प्रवदन्ति कथयन्ति । उदाहरणं यथा
नान्योद्योगवता न चाप्रवसता नास्मानमुस्कर्षता नालस्योपहतेन नान्यमनसा नाचार्यविद्वेषिणा । लज्जाशीलविलास-सुन्दरमुखी सीमन्तिनीं नेच्छता
लोके ख्यातिकरः सतामभिमतो विद्यागुणः प्राप्यते ॥ भाषा-जिसके चरणों में प्रथम से तीन अक्षर और षष्ठ, अष्टम, द्वादश, त्रयोदश, चतुर्दश, षोडश, सप्तदश और अन्तिम अक्षर दीर्घ हों तथा बारह २ सात-सात अक्षरों पर विश्राम हो, उसको काव्य के रसिक शार्दूलविक्रीडित छन्द कहते हैं ॥ ४२ ॥
(४०) स्नग्धरा वृत्तम् चत्वारो यत्र वर्णाः प्रथममलघवः पष्ठकः सप्तमोऽपि द्वौ तद्वत्षोडशाद्यौ श्रुतिधरपथभृत ! षोडशान्त्यौ तथाऽन्त्यौ । छन्दःशास्त्राभिलाषिन् ! मुनिमुनिमुनिभिदृश्यते चेद्विरामः शिष्य ! स्तुत्यैः कवीन्द्रैः सततनिगदिता स्रग्धरा सा प्रसिद्धा ।। ४३॥
अन्वयः-हे श्रुतिधरपथभृत् ! यत्र प्रथमं चत्वारो वर्णा अलघवः ( स्युस्तथा) षष्ठकः सप्तमः अपि ( अलघुः स्यात् ), हे छन्दःशास्त्राभिलापिन् ! तद्वत् षोडशाधौ द्वौ षोडशान्त्यौ तथा अन्त्यौ (गुरू स्याताम् ), हे शिष्य ! मुनि-मुनिमुनिभिः विरामश्चेत् दृश्यते, (तदा) स्तुत्यैः कवीन्द्रः सततनिगदिता प्रसिद्धा सा स्रग्धरा ( स्यात् )।
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अश्लीलांशवर्जितः
२५
व्याख्या-हे श्रुतिधरपथभृत् ! श्रुतिधरमार्गानुसारिन् ! यत्र यस्यां वृत्तौ प्रथमं प्राक् चस्वारः वर्णाः प्रथमतो वर्णचतुष्टयम् अलघवः दीर्घाः (स्युस्तथा ) षष्ठकः सप्तमोऽपि वर्णः अलघुः दीर्घः स्यात् । हे छन्दःशास्त्राभिलापिन् ! छन्दो. ज्ञानेच्छुक ! तद्वत् तथैव पोडशाद्यौ षोडशा क्षरस्यादिभूतौ द्वौ चतुर्दश-पञ्चदशी ( तथा ) षोडशान्स्यौ पोडशाक्षरस्यान्त्यभूतौ सप्तदशाष्टादशौ तथा अन्त्यो पादान्तभूतौ विंशत्येकविंशती (तद्वत् गुरू स्याताम् )। शिष्य ! हे छात्र ! मुनि-मुनि-मुनिभिः सप्तभिः सप्तभिः सप्तभिश्च वर्णविरामो विरतिश्चेद्यदि दृश्यते विलोक्यते, तदा स्तुत्यैः प्रशंसनीयैः कवीन्द्रैः कविवर्यः सततनिगदिता संतत. कथिता प्रसिद्धा विख्याता सा स्रग्धरा तन्नाम्नी वृत्तिः ( स्यात् )। उदाहरणं यथा
आयुः कलोललोलं कतिपयदिवसस्थायिनी यौवनश्रीराः संकल्पकल्पाः घनसमयतडिद्वासनाभोगपूराः । कण्ठाश्लेपोऽपि गृहं तदपि च न चिरं यस्प्रियाभिः प्रणीतं
ब्रह्मण्यासक्तचित्ता ! भवत भवभयाम्भोधिपार तरीतुम् ॥ भाषा-जिसके चरण में प्रथम चार अक्षर तथा षष्ठ, सप्तम, चतुर्दश, पञ्चदश, सप्तदश, अष्टादश, विंशति और एकविंशति अक्षर दीर्घ हों और सातसात अक्षरों पर विराम हो, वह स्रग्धरा नाम वृत्ति कही गई है ॥ ४३ ॥
इति महाकविकालिदासविरचितः सपरिष्कृतः श्रुतबोधः समाप्तः ।
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श्लोकानामनुक्रमणिका
श्लोक
U
U
अगुरु चतुष्कं अक्षरं च नव अयि वशंवद आदिमध्यावसानेषु आर्यापूर्वाद्धसमं आर्योत्तरार्द्धतुल्यं आद्यचतुर्थ पञ्चमकं आदिगतं तुर्यगतं आद्यचतुर्थमहीन आख्यानकी स्याद अ धमक्षरमतः आद्यं चेत्रितयम आद्यं द्वितीयमपि आद्याः स्युर्गुरवः उपेन्द्रवजाचरणेषु चम्पकमाला यत्र चत्वारः प्राग यदिह चत्वारो यत्र वर्णाः छन्दसां लक्षणं छन्दोविदामुक्ति तुर्य पन्चमकं द्वितुर्यषष्ठमष्टमं
८ | द्वितीयमयि धीमतां
पञ्चमं लघु सर्वत्र प्रथमाक्षरमाद्यत प्रथममगुरुषट्कं मन्दाक्रान्ताऽन्त्ययति यस्याः प्रथमे पादे यत्र त्रिषट् सप्त० यदीन्द्रवज्राचरणे यत्र द्वयोरप्यनयोः यदाद्यं चतुर्थ तथा यदि तोटकस्य गुरु यस्यां प्रिय ! यदा पूर्वो ह्रस्वः श्लोके षष्ठं गुरु शिष्य गुरु स्यादाद्य संयुक्ताद्यं दीर्घ सर्व वर्णा दीर्घा सतृतीयकषष्ठ स्युरिह लघवः
ह्रस्वो वर्णो जायते १३ | ह्रस्वो वर्णः स्यात्
३५
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________________ પૂ. આ. શ્રી વિન્ય જાતિસૂરિ ઉગે નમઃ આ.શ્રી વિજય પ્રેમસૃરિ જૈન જ્ઞાન ભંડાર, बाराणसी तथा दरभंगा उमय संस्कृत विश्वविद्यालयस्वीकृत संस्कृत-व्याकरणम् (संस्कृत-हिन्दी निबन्ध सहित परिवर्द्धित द्वितीय संस्करण ) सरल सुबोध हिन्दी की सहायता से संस्कृत माध्यम द्वारा बालकों को संस्कृत व्याकरण का ज्ञान कराने के हेतु यह मौलिक रचना की गई है / संस्कृतानुवाद के लिए यह सर्वोपरि पुस्तक है / इसमें मनो-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से रखा गया एक-एक शब्द अपने स्थान पर बालकों के बौद्धिक स्तर के सर्वथा अनुकूल है। प्रसङ्गानुसार विमर्श, टिप्पणी, उदाहरणमाला, अभ्यासायं प्रश्न, कारिकाबद्ध सूत्र एवं परिशिष्ट आदि सामग्री उपादेय एवं द्रष्टव्य है। केवल इस लघूत्तम पुस्तक के ही अभ्यास से संस्कृतव्याकरण के सब अङ्गो. का यथेष्ट ज्ञान प्राप्त हो जायगा। परीक्षोपयोगी अत्यन्त सरल 2-3 पृष्ठों का संस्कृत-हिन्दी निबन्ध परीक्षार्थियों के लिए अधिक उपयोगी है। 3-.. संस्कृतरचनानुबादशिक्षका (वाराणसी तथा बिहार की प्रथमा परीक्षा पाठ्य स्वीकृत) इसमें प्रथमा के छात्रों को अनुवाद करने के नियम अत्यन्त सरक रूप में समझाए गये हैं और तदनुसार अनुबाहार्य अभ्यास भी दिए गये हैं। अभ्यासायं वाक्यों में आए हुए प्रत्येक कठिन शब्द के संस्कृत से हिन्दी तथा हिन्दी से संस्कृत पर्याय भी पुस्तक के अन्त में 90 प्रकरणों में दे दिये गए हैं और संधि आदि का शान कराने का सुगम पथ भी प्रदर्शित कर दिया गया है। 2-00 राष्ट्रभाषा सरल हिन्दी व्याकरण (वाराणसी तथा बिहार की प्रथमा परीक्षा पाठ्य स्वीकृत)हिन्दी राष्ट्रभाषा हो जाने से शुद्ध हिन्दी में बोलना और लिखना छात्रों के लिये दुरूह हो गया था क्योंकि प्राचीन हिन्दी की पाठ्य पुस्तकों में 50 प्रतिशत उर्दू शब्दों का ही संमिश्रण है। अतएव यह पुस्तक राष्ट्रभाषा के प्रतीक तथा 'आज' पत्र के प्रधान सम्पादक बाबूराव विष्णुपराड़कर, डा० सम्पूर्णानन्दजी प्रादि धुरन्धर हिन्दी-वेत्ताओं के मतो से अलंकृत तथा हिन्दी के महारथी पं० रामनारायण मिश्र, विश्वनाथप्रसाद मिश्र आदि विद्वानों को सम्मतियों से सुसज्जित होकर नवीन रूप में प्रकाशित हुई है। 1-15 प्राप्तिस्थानम्-चौखम्बा विद्याभवन, चौक, वाराणसी-१