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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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पितानी! ५ भापके अनुग्रहसे जो ज्ञान प्राप्त किया है उसके फल-स्वरूप यह भेंट भापके करकमलोंमें। सादर सविनय समर्पित है। आपका पुत्र
कामताप्रसाद ।
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1 विषय-सूची मसि पुस्तकालय १-माक्कथन-जैनधर्मका पोलत रूप, जैनधर्मको प्राचीनता,
प्राचीन भारतका स्वरूप, तत्कालीन मुख्य राज्यात २-शिशुनाग वंश-उत्पत्ति, उपश्रेणिक, श्रेणिक
बिम्बसार, अभयकुमार, अजातशत्रु, कुणिक, दर्शक,
उदयन, नन्दिवर्धन, महानन्दिन आदि ३.किच्छिविमादिगणराज-प्राचीन भारतमै प्रजातन्त्र,
लिच्छिवि, ‘राना चेटक, शतानिक, दशरथ, उदयन, . चेलनी, वैशाली,ज्येष्ठा, चन्दना, शाक्य, मह, गणराज्य २९ १-ज्ञानिक क्षत्री और.प्र. महावीर-कोल्लाग, वजियन, सिद्धार्थराजा, त्रिशला, कुण्डग्राम, भ० महावीरका जीवनकाल, निर्ग्रन्थ जैनी, भवरुद्र, माख लगोशालं, पूर्णकाश्यप, आनीवक, गौतमबुद्ध, कौशलदेश, मिथिला, वैशाली, चंपा, धर्मघोष, सुदर्शन सेठ, मगध, पांचाल, कलिंग, वंग, मथुरा, दक्षिण भारत, राजपूताना,
गुजरात, पंजाब, काश्मीर आदिमें धर्मप्रचार, ज्ञनृवंश ४१ ५-वीर संघ और अन्य राजा-वीर संघके गणधर, गौतम, .. अग्निमृति, वायुभूति, सुधर्माचार्य, यमराजा, मण्डिा
पुत्र, मौर्यपुत्र, अपित, अचलवृत्त, प्रभास, वारिषग, ।
चंदना मादि .... .. .... ११९ ६-तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति-तत्कालीन
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मग
.....
(६) रान अवस्था, सामाजिक दशा, महिला महिमा, पार्मिक
स्थिति, मुनिव मार्यिकाओंका धर्म, श्रावकाचार आदि १३८ ७-भ० महावीरका निर्वाणकाल-वीर संवत, शक
शालिवाहन, नहपान, विक्रम संवत .... .... १५७ -अन्तिम केवली श्रीजम्बूस्वामी-बाल्यकाल, वीरता, वैराग्य, विवाह, मुनिजीवन, सर्वज्ञ दशा व धर्मप्रचार, श्वेताम्बर कथन
.... .... १७१ ९-नन्द वंश-नवनन्द, नंदिवर्धन आदि.... .... १८. १०-सिकन्दर महानका आक्रमण और तत्कालीन जैन साधु
भारतीय तत्ववेत्ता, दि० जैन साधु जिम्नोसोफिस्ट,
मुनि मन्दनीस और कलोनस आदि .... .... १८६. ११-श्रुतकेवली मद्रबाहु और अन्य आचार्य-जैन संघका
दक्षिणमें प्रस्थान, श्वेतांबर पहावली, जैन संघमें भेद,
श्रुतज्ञानकी विक्षिप्ति, श्वे. स्थूलभद्र, मादि .... २०१ १२-मौर्य साम्राज्य-चन्द्रगुप्त मौर्य, सैल्यूकस, शासन
प्रबंध, सामाजिक दशा, धार्मिक स्थिति, चन्द्रगुप्त जैन
थे, चाणक्य, अशोक, कलिंग विजय, अशोककी • शिक्षायें, अशोके जैन धर्मानुसार पारिभाषिक शब्द
और उनके दार्शनिक सिद्धांत, अशोकका जैनधर्म प्रचार, शिलालेख व शिल्प कार्य, अंतिम जीवन, अशोकके उत्तराधिकारी, रामा साम्प्रति और जनसंघ, /सेठ सुकुमाल, मौर्य साम्राज्यका अन्त, उपरांतकालके मौर्यवंशन, शुगवंश ... ... .. २१८
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संकेताक्ष' सूची। armeniam Raasaram. प्रस्तुत प्रथक संकलनमें निम्न प्रयोंसे सधन्यवाद सहायता प्रहण की गई है, जिनका उल्लेख निम्न संकेतरूपमें यथास्थान किया गया है:____ अध= अशोकके धर्मलेख'-लेखक श्री० जनार्दन भर एम० ए. (काशी, सं० १९८०)।
महिह भी हिस्ट्री ऑफ इन्डिया'-ले० पर विन्सेन्ट स्मिथ एम० ए० (बौथो आवृत्ति)।
अशोक 'अशोक'-ले. सर विन्सेन्ट स्मिथ एम० ए० ।
आक० माराधनाकथाकोष'-ले. व. नेमिदत्त (जनमित्र ऑफिस, बैबई २४४० वी० स०)।
ऑजी ऑजीविक्स'-भाग १-डा. वेनीमाधव बारुआ० डी० लिट् (कलकत्ता १९२०)।
भासू०- आचाराङ्ग सूत्र मूल (वेताम्बर भागमप्रथ)।
हिइ० ऑक्सफर्ड हिस्ट्री ऑफ इन्डिया-विन्सेन्ट स्मिय एम० ए०॥ इंऐ०-इंडियन ऐन्टीक्वेरी' (त्रैमासिक पत्रिका)। हरिई० इन्सायक्लोपेडिया ऑफ रिलीजन एण्ड इविक्स' हैस्टिनास। इसजे- इंडियन सेक ऑफ दी जैन्'-दुल्हर ।
इंहिवा०'इडियन हिसटॉरीकल क्वार्टली-सं० डॉ. नरेन्द्रनाय लॉकलकत्ता ।
उद०='उवासगदसाओ मुत'-हॉ० हाणल (Biblo. Indica) | उपु० व उ. पु०उत्तापुगण'-श्री गुणभद्राचार्य व प० लालारामजी।
उसू०-'उत्तराध्ययन सूत्र-श्वेताम्बरीय आगमप्रय) जाल कान्टियर (उपसला)
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( ) एपिप्रेफिमा इन्हिका।
एइसे. या 'भैएशियेन्ट इन्डिया एज डिस्कान चाई मेगस्थनीज एण्ड ऐरियन'-(१८७७)। एक एन इपीटोम ऑफ जैनीम-श्री पूर्णचन्द्र नाहर एम. ए० ।
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ऐइ० एन्धियेन्ट इन्डिया एज डिस्काइन्ड बाइ स्ट्रैवो, मैकक्रिन्डिल (१९०१)।
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कसूइल्यसूत्र' मूल (श्वेताम्बरीय भागम प्रय)। काले-कारमाइकल लेक्चर्स-डॉ० डी० आर० भाण्डारकर ।
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गुसापरिक-गुजराती साहित्य परिषद रिपोर्ट-सातवीं । (भाषनगर सं. १९८२)।
गौवुन गौतम बुद्ध' के० जे० सॉन्डर्स (E. I. S) चभम चंद्रराज भंडारी कृत भगवान महावीर । जविमोसो जर्नल ऑफ दी विहार एण्ड ओडीसा रिसर्च सोसाइटी ।' जम्बू-जम्बूकुमारचरित (सूरत वीरान्द २४४०) । अमीसो० जनल ऑफ दी मीषिक सोसाइटी-बैंगलोर ।
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(१)
भरायो जरवल भॉफ छी रॉयल ऐसियाटिक सोसाइटीदन। जैका जैन कानून-श्री. चम्पतराय जन विधावा (मनार १४२) बैग - जैनगैजेट'-अंग्रेजी ( मद्रास )। जैम जैनधर्म प्रकाश-ब्र० शीतलप्रसादजी (विजनीर १९१५)। जस्तू -'जनस्तूप एण्ड अदर एण्टीकटीज ऑफ मथुग-सिसय । जैसास = जैन साहित्य संशोधक-मु० जिनविजयजी (पूना)। सिमा०='नैनसिद्धान्त भास्कर'-श्री पद्मराज जैन (कलकत्ता)।
जैशिसं० चैन शिलालेख संग्रह-प्रॉ० हीरालाल जैन (माणिकचन्द्र अन्यमाला )।
हि०- जैनहितैषी' सं० पन्नाधूरामजी व पशुगर किशोरजी (बंबई)
जैसू० (Js. )जैन सूत्राज़ (S. B.E. Series, Vols. XXII & XLV.
टॉस-टॉडसा० कृत राजस्थानका इतिहास विङ्कटेश्वर प्रेस) ।
डिजेषाए दिक्शनरी ऑफ जन वायोप्रैफी'-श्री उमरावखिंड -टॉक (भारा)।
तक्ष='ए गाइड टू तक्षशिला-सुर गॉन मारशल (१९१८)। वस्वार्थ='तत्वार्याधिगम सूत्र-श्री उमास्वाति (SBI.Vol.I) तिप०तिलोयपत्ति'-श्री यतिवृषभाचार्य (जनहितैषी मा०१३शंका२)
दिन दिगम्बर जैन '-मासिकपन-स० श्री मूलचन्द किसनदास कापड़िया (सूरत)।
दीनि दीघनिकाय' (PT.S.) परि०= परिशिष्ट पर्व-श्री हेमचन्द्राचार्य । प्राजैले प्राचीन जैन लेखसपा-कामताप्रसाद जैन (वर्धा)
बविओजस्मा गाल, बिहार, ओडीसा जैन स्मारक-श्रीमान : -शीतलप्रसादजी।
वजैस्मा०बम्बई प्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक- शीतलप्रसादधी। बुदबुदिष्ट इन्डिया-प्रो० हीस डेविड्स ।
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(१.) भपा०-भगवान पार्श्वनाय-ले० कामनाप्रसाद जैन (सरत) भमः भगवान महावीर-, , , (सूरत) भम० भगवान महावीर और म० बुद्ध-कामवाप्रसाद जैन (सरव) भमी०-मारक मीमांसा (गुजराती )-सुरत । भाइo=भारतवर्षका इतिहास-डॉ०ईश्वरीप्रसाद डी०लिट् (प्रयाग १९५०) भाभयो भशोक' डॉ० भाण्डारकर (कलकत्ता) । माप्रारा भारतके प्राचीन राजवंश-श्री विश्वेश्वरनाथ रेउ (नई) । भाप्रासह भारतकी प्राचीन सभ्यताका इतिहास पर रमेश्ववन्द्र रत। मह-मराठी जैन इतिहास । मनिमनिमम मज्झिम निकाय P. T.s. ममैप्राजैस्मा०मदास मैसुरके प्राचीन जैन स्मारक-प्रशीतलप्रसादुखी महा०=महावरण ( S. B. E, Vol. XVII) मिलिन्द० मिलिन्द पन्ह (S. BE, Vol. XXXV) मुरा-मुद्राराक्षस नाटक-इन दी हिन्दू डामेटिक वर्कस, विलसन । मूला मूलाचार-वरकरस्वामी ( हिंदी भाषा सहित-वैई)। मेमो०अशोक-मैकफैल छत (H.I. S.) मैपु०-मैन्युल ऑफ बुद्धिज्म-स्पेन हार्डी । राकरलकरण्ड श्रावकाचार-सं० ५० जुगलकिशोरजी (वंबई) ।
राइ० राजपूतानेका इतिहास, भाग :-10 व. पं. गौरीधकार हीराचद मोझा ।
रिह०=रिसौजन्म ऑफ दी इम्पायर-लन्दन)। लामॉम० लाइफ भऑफ महावीर-ला. माणिकचंदजी (इलाहाबाद) । लामाइo=भारतवर्षका इतिहास-ला० लाजपतरायकृत (लाहौर)।
लाम० लार्ड महावीर एण्ड अदर टीचर्स ऑफ हिम टाइम कामवाप्रसाद (दिल्ली)।
लावबुक लाइफ एण्ड बस ऑफ वुद्धघोष-डॉ. विमलाचरण में (कलकत्ता)।
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(११)
वृजेशक वृहद् बन शब्दार्णव-पं० बिहारीलालजी चैतन्य । विर० विद्वद्गलगाला-पं० नायूरामजी प्रेमी (बंबई)। भव० अप्लणवेलगोला, रा० ब० प्रो० नरसिंहाचार एम०ए० (मद्रास). श्रेच० श्रेणिकचरित्र (सूरत)। सकौ सम्भक्त्व कौमुदी-(वम्बई)। सजै० प्रनातन जैनधर्म-अनु० कामताप्रसाद (कलकत्ता)। मजह सक्षिप्त जैन इतिहास-प्रथम भाग-कामताप्रसाद (सूरत)। सडिौ० धम डिस्टिन्गुइड जैन्न-उमरावसिंह टाक (भागरा) । संप्राजैस्मा० संयुक्त प्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक-प्र० शीतलप्रसादजी।
स्साइजै० स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनीज्म-मो. रामास्वामी भायंगर ।
सतू० सम्राट अकवर और सूरीश्वर-मुनि विद्याविजयजी (आगरा)।
सक्षदाएइ०प्रम क्षत्री ट्राइप इन एशियन्ट इन्डिया डॉ. विमलावरण ली।
सास-साम्स ऑफ दी ब्रदरेन । मुनि सुत्तनिपात (S. B.E.)। हरित-दरिवंशपुराण-श्री जिनसेनाचार्य (कलकत्ता)। हॉज-हॉर्ट ऑफ जैनीज्म-मिसेज स्टीवेन्डन (लंदन) ।
-हिस्ट्री ऑफ दी आर्यन रूल इन इन्डिया-हैवेल । हिग्ली०=हिस्टॉरीकल ग्लीनिगम-डॉ. विमलाचरण लॉ० (लता) हिटे-हिन्दू टेल्स-जे० जे० मेयर्स । हिाव० हिन्दू ड्रमेटिक वम-विलसन् ।
हिप्रीइफि० हिस्ट्री ऑफ दी प्री-बुद्धिस्टिक इंडियन फिलॉसफीबारमा ( कलकत्ता)
हिलिजै०८ हिस्ट्री एण्ड लिट्रेचर ऑफ जैनीम-बारोदिया (१९०१)। हिवि० हिन्दी विश्वकोष-नगेन्द्रनाथ वसु (कलकत्ता)। क्षत्रीलेन्स० क्षत्रीक्लैन्स इन बुविस्ट इंडिया-डॉ०विमलाचरण लॉ० ।
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शुद्धाशुद्धिपत्र।
१७
.... सक्षदाए इ. उपदेशका
पहला खण्ड (६००-१८४ई. पूर्व)
सक्षदाए इ. उस देशका
इस्पादि
इत्यादि
असन्ती अस्सके कारमहकल १०१८ शताब्दिक प्रसेनजी घसंव मजिसम० स०
भवन्ती भरसक कारमाइकिल १९१८ शातानीक प्रसेनजीत
संबध मज्झिम ७०२ २१ पृ. २१ पाटलि स्वप्रवासवदत्ता
3-ऑदि . रखनेवाले थे।
थी । संख्या
१५
१४
२११-११
पाटील स्वमवासदत्ता ३-अहिद रखनेवाली थी
थी। १ संस्था २० मम० ५ परिधि में फैला बतलाया
कोल्लाग ८ द्वादशाङ्क
२३ ,
मम०
परिधिमें फैला बतलाता कोलाग द्वादशाक्ष
४.
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पंकि १३
४४
अशुद्ध गयगॉम महापुरुष सक्षदाए इ. उ०६० कोलिग्राम स्वस
२
५३
.
दशाज
सक्षपदाए ४ आईत
निगडो महादीर
थी। - नग्न हुये थे। २२ मविज्ञानने २३ Js. T. P. 193
महावीर २२
बतलाई
रामगाम यह महापुरुष सक्षटाएह.
उद. कोटिमाम
स्वर्ण भगवानने 'ऐन्द्र
दशा सूत्र सक्षदाए. आहेत - निठो महावीर
थी। नम नहीं हुये थे।
मतिज्ञानके Js. I. P. 193 महावीर और
१८ जो बतलाई पृ० ३५
Anti. Tirthakas roformer
,
,
Antri.
Tirthakar . २६ roformer
, 0x
३ २२ 30
श्रावणी
६-७ से। Appendins
भावस्ती
देखो। उद. Appendix
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संक्षिप्त जैन इतिहास । मटल नियमसे अपने नेससिंग स्वभाव-सदा विनयी रहनेकी भावनासे वंचित नहीं है। अतएव विजयी होनेचा धर्म प्रारुज-मना. दिनिधन और पूर्ण सत्य है।
किन्तु प्रश्न यह है कि मनुष्यको किस प्रकार विजय पाना है? क्या निम वस्तुको वह अपने भाधीन करना चाहे, उसके लिये युद्ध ठान दे ? नहीं, मनुप्येतर प्राणियोंसे मनुन्यमें कुछ विशेषता है। उसके पास विवे बुद्धि है। जिसमे वह सत्यासत्यका निर्णय कर सक्ता है । यह विपना मन्य जीवोंको नसीब नहीं है। इस विवेबुद्धिके अनुमार उसे विनय-मार्गमें अग्रसर होना समुचित है। और विवेक बतलाता है कि जो अन्याय है, दुगुंग है, बुरी वासना है, उप्तको परास्त करनेके लिये कर्मक्षेत्रमें माना मनुष्यमात्रा कर्तव्य है। ठीक, यही दात जैनधर्म सिखाता है । वह विनयीदोरोंगा धर्म है। उसके चौबीस तीर्थकर वीरशिरोमणि क्षत्रीकुलके रत्न थे। उनने परमोत्कृष्ट ज्ञानको पार विनय-मार्ग निर्दिष्ट किया था-मनुष्योंको बतला दिया था कि अनादिकालसे जीव भनीवके फंदेमें पड़ा हुआ है। प्रकृतेने चेतन पदार्थको अपने आधीन बना लिया है। इस प्रकृतिको यदि पराम्त कर दिया जाय तो पूर्ण विन
का परमानन्द प्राप्त हो । उसके लिये किसीका आश्रय लेना और पाया मुंह ताकना वृथा है। मनुष्य अपने पैरों खड़ा होवे और बुरी वासनाओ एव पायों को तबाह करके विनयी वीर बन जावे ! फिर वह स्वाधीन है। उसके लिये मानन्द ही मानन्द है। यह प्राकृत शिक्षा जैनधर्मको अभेद्य प्राचीनताच पार न मिलने का प्रयाप्त । उत्तर है।
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पाकथन। 'संक्षिप्त जैन इतिहास के प्रथमभागमें जनधर्मके सैद्धान्तिक जैनधर्मकी प्राचीनता उल्लेखों एव अन्य श्रोतोंसे उसकी अज्ञात
और बहु प्राचीनताका दिग्दर्शन कराया जाचुन २४ तीर्थंकर । है। मतः उनका यहापर दुहराना वृथा है। मैनधर्म जिस समय कर्मभूमिले इस कालके प्रारंभमें पुनः श्री ऋपभदेव द्वारा प्रतिपादित हुमा था, उस समय सभ्यताका अरुणोदय होरहा था। यह अपम्देव इश्वारवंशी क्षत्री राजकुमार थे और हिन्दू पुराणोंके अनुमार वे स्वयंम् मनुसे पांचवीं पीढोमें हुये बतलाये गये हैं। उन्हें हिन्दू एवं बौद्ध शास्त्रकार मी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी
और इस युगके प्रारम्भमें जैनधर्मका प्ररूपण करनेवाला लिखते हैं। हिन्द्र अवतारों में वह आठवें गने गये हैं और सभवत. वेदोंमें भी उन्हींका उल्लेख मिलता है । चौदहवें वामन अवतारमा उल्लेख निस्सन्देह वेदोंमें है । अतः वामन अवतारसे पहले हुये अठ. अवतार ऋपमदेवज्ञा उल्लेख इन अनेन वेदों में होना युक्तियुक्त प्रतीत होता है। कुछ भी हो उनका इन वेदोंसे प्राचीन होना मिद्ध है। इन ऋपभदेवकी मूर्तियां आजसे हाईहनार वर्ष पहले भी सम्मान और पूज्य दृष्टिसे इस भारतमहीपर मान्यता पाती थी। इन्हीं ऋषभदेके ज्येष्ठ पुत्र सम्राट् भरतके नामसे यह देश भारतवर्ष कहलाता है।
ऋषभदेवके उपरान्त दीर्घकालके मन्तरसे क्रमवार तेईस तीर्थकर भगवान और हुये थे। उन्होंने परिवर्तित द्रव्य, क्षेत्र, काल
१-पक्षित जन इतिहास प्रथम भागका प्रस्तावना पृष्ट २६-३०। २-भागवत ५४, ५, ६।३-न्यायविन्द अ. ३ व सतशाख-'वीर' वर्ष ४ पृ. ३५३ । ४-हमाग, भगवान महावीर पृ. ३८ । ५-जदिश्रोमो० मा० ३ पृ. ४. ।
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४]
संक्षिप्त जैन इतिहास । भावके अनुसार पुनः वही सत्य, वही निरापद विजयमार्ग तात्का. लीन जनताको दर्शाया था। इन तीर्थंकरों से वीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथजीके तीर्थकालमें श्री रामचन्द्रनी और लक्ष्मणनी हुये थे। वाईप ती कर नेमिनाथनीके समकालीन श्री कृष्णजी थे; जिनके साथ श्री नेमिनाथनीकी ऐतिहासिकताको विद्वान स्वीकार करने लगे हैं, क्योंकि भगवान पार्श्वनाथनीसे पहले हुये तीर्थङ्करोके अस्तित्वको प्रमाणित करनेके लिये स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाण उपलता नहीं हैं। किन्तु तो भी जैन पुराणोंके कथनसे एवं आजसे करीब ढाई तीन हजार वर्ष पहले बने हुये पाषाण अवशेषों अथच शिलालेखो व बौद्धग्रन्थोंके उल्लेखोंमे शेष जैन तीर्थङ्कगेंकी प्राचीन मान्यता और फलतः उनके अस्तित्वका पता चलता है । तेईसवें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथजीको अब हरकोई एक ऐतिहासिक महापुरुष मानता है और अन्तिम तीर्थङ्का भगवान महावीरजीके जीवनहालसे जैनधर्मका एक प्रामाणिक इतिहास हमें मिल जाता है। यह मानी हुई बात है कि धर्मात्मा चिना धर्मका अस्तित्व
_ नही रह सका है। अतएव किसी धर्म का इतिजैन इतिहास।
- हास उमके माननेवालोंका पूर्व-परिचय मात्र कहा जा सक्ता है । जैनधर्मके प्रातिपालक लोग जैन कहलाते है।
१-इपीओफिया इन्डिका भा० १ पृ. ३८९ प सक्षट्राए हु० भूमिका पृ० ४ । २-मथुग कंकाली टीलेका प्राचीन जैन स्तूप आदि । ३-हाथीगुफाका शिलालेख-जविओसो. भा० ३ पृ. ४२६-४९० । ४-भ. महावीर और म० बुद्ध पृ. ५१ व ला० म० पृ. ३० । ५-हमारा भगवान पार्श्वनाथ की भूमिका ।
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पाकथन।
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जिनमें ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र आदि सब हीका समावेश हुआ समझिये अर्थात जैन होते हुये भी प्रत्येक व्यक्तिकी जाति ज्योंकी त्यों रहती है, इसमें संशय नहीं है; यद्यपि किसी अजैनके जैनधर्ममें दीक्षित होते समय उसकी आजीविका-वृत्ति और रहनसहनके अनुसार उसको उपयुक्त जातिमें सम्मिलित किया जाप्तकता है।
अतः जैनधर्म विषयक इस संक्षिप्त इतिहासमें जैन महापुरूषोंका और जैनधर्म सम्बन्धी विशेष घटनाओं का परिचय एवं उसन प्रभाव भिन्नर कालोंमें उस समयकी परिस्थितिपर कैसा पड़ा था, यह बतलाना इष्ट है। इसके प्रथम भागमें भगवान पार्श्वनाथभी तकमा सामान्य परिचय प्रकट किया नाचुका है। इस भागमें भगवान महावीरजीके समयसे उपरान्त मध्यकालतकके नैन इतिहासको संक्षेपमें प्रकट किया जाता है। प्रथम भागमें जैन भूगोलमें भारतवर्षका स्थान और उसका प्रारूतरूप आदिका परिचय कराया जाचुका है।
सचमुच किसी देशकी प्राकृतिक स्थितिका प्रभाव अपनी भारतकी का खास विशेषता रखता है। उसदेशका इतिहास दशाका प्रभाव । ही उस प्रभावके ढंगपर ढल जाता है। भारत के विषयमें कहा गया है कि उसकी प्राकृतिक स्थितिका सामाजिक संस्थाओं और मनुष्योंकी रहनसहन पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। धीरेर बड़ी बड़ी नदियों के किनारे सुरम्य नगर बस गये जो कालान्तरमें व्यापारके प्रसिद्ध केन्द्र होगये । भूमिके उर्बरा होनेसे देशमें धन
१-आदिपुराण पर्व ३९।
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६] संक्षिप्त जैन इतिहास ।। धान्यकी सदैव प्रचुरता रही * इससे सम्यताके विकास में बड़ी सहायता मिली | जब मनुष्यका चित्त शान्त रहता है और जब किसी प्रकार उनका मन डोवाडोल नहीं होता तभी ललितकला, विज्ञान और उच्च कोटिक साहित्यका प्रादुर्भाव होता है। प्राचीन भारतवासियोंके जीवनको सुखमय बनानेवाले पदार्थ सुलभ थे ।* इसीलिए उसकी सम्यता सदैव अग्रगण्य रही। चारों ओरसे सुरक्षित होनेके कारण भारतका अन्य देशोसे विशेष सम्पर्क नहीं हुआ। फलतः यहां सामाजिक संस्थाएँ ऐसी दृढ़ होगई कि उनके बन्धनोंका ढीला करना अब भी कठिन प्रतीत होता है। यहाके मूल निवासियोपर बाहरी माक्रमणकारियों का कभी अधिक प्रभाव नहीं पड़ा । जो अन्य देशोंसे भी आये वे यहांकी जनतामें मिल गये और उन्होंने तत्कालीन प्रचलित धर्म और रीतिरिवाजोंको अपना
* पत्राट् चन्द्रगुप्तके समयमें भारतमें आए हुए यूनानी लेखकोंक निम्न वाक्य इस खुवियों को अच्छी तरह प्रकट कर देते है। मेगस्थनीज लिखता है:-"भारतमें बहुतसे बड़े पर्वत है, जिनपर हर प्रकारके फल-फूल देनेवाले वृक्ष बहुतायतसे है और कई लम्बे चौड़े उपजाऊ मैदान है, जिनमें नदिया वहती है। प्रथिवीका बहुमाग जलसे सींचा हुआ मिलता है. जिससे फसल भी खूब होती है।...भारतवासियोंके जीवनको सुखनय बनानेवाली सामग्री मुलभ है, इस कारण उनका शरीर गठन भी उत्कृष्ट है और वह अपनी सम्मानयुक्त शिक्षा-दीक्षाके कारण सवमें सलग नजर पड़ते है। बस्ति कलानोंमें भी वे विशेष पटु है । फलोंके अतिरिक्त मृगर्भसे उन्हें सोना, चादी, ताम्बा, लोहा, इत्यादि धातुऐं भी बाहुल्यतासे प्राप्त है। इसीलिये कहते है कि भारतमें कभी अकाल नहीं पड़ा और न पहा खाद्य पदार्थकी कठिनाई कभी अगाड़ी आई।"
-मैक्रिन्डल, एन्शियेन्ट इन्डिया, ० ३०-३२.
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प्राकथन । लिया। अपने देशमें सब प्रकारकी सुविधा होने के कारण भारत. वासियोंने सांसारिक विषयों को छोड़कर परमार्थकी ओर अधिक ध्यान दिया । यही कारण है कि प्राचीन कालमें माध्यात्मिक उन्नति मधिक हुई और हिन्दु समाजमें अद्भुत तत्वज्ञानी हुए I+
इस स्थितिसे कतिपय विद्वान् भारतकी कुछ हानि हुई खयाल करते हैं । उनका अनुमान है कि देशकी प्रचुर सम्पत्तिसे आकर्षित होकर भनेकवार विदेशियोंके भारतपर आक्रमण हुए और उसमें उनने खूब अंधाधुंधी मचाई । उपरोक्त स्थितिके कारण भारतवासी उनका मुकाबिला करने के लिये पर्याप्त बलवान न रहे; किन्तु उनके इस कथनमें, ऐतिहासिक दृष्टिसे, बहुत ही कम तथ्य है। तत्त्वज्ञानकी अद्भुत उन्नति भगवान महावीर और म० बुद्धके समयमें खुब हुई थी। उससमय देशके एक छोरसे दुसरे छोरता माध्यात्मिक भावोंकी लहर दौड़ रही थी; किन्तु उससे लोगोंमें भीरताका समावेश नहीं हुआ था। वह जीवके अमरपनेमें दृढ़ विश्वास रखते थे और यही कारण था कि अन्तिम नन्दराजाके समयमें हुए सिकंदर महानके आक्रमणका भारतीयोंने बड़ी वीरताके साथ मुकाबला किया था। यहांतक कि भारतीय सेनाकी दृढ़ता और तत्परता देखकर युनानी सेनाके आसन पहलेसे भी और ढीले होगये थे।
फलतः सिकन्दर अपने निश्चयको सफल नहीं बना सका था। इसके उपरान्त चन्द्रगुप्त मौर्यने उस ही माध्यात्मिक स्थितिके मध्य जिस सत्साहसका परिचय दिया था, वह विद्वानों के उपरोक्त कथनको सर्वथा निर्मूल कर देता है। सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्यने यूनानि
* भारतवर्ष इतिहास पृ० १०.
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८] संक्षिप्त न इतिहास। योंको भारतवर्षकी सीमाओंमे बाहर निकाल दिया था और यूनानियोंसे अफगानिस्तान वर्ती परियाना प्रदेश भी ले लिया था। यूनानी राना सेल्यूकसने विनम्र हो अपनी कन्या भी चन्द्रगुप्तशे भेंटकर दी थी। इस प्रकार जबतक तत्त्वज्ञानकी लहर विवेक भावये भारत. वसुंधरा पर बहती रही, तबतक दम देशकी कुछ भी हानि नहीं हुई, किन्तु ज्योंही तत्त्वनानका स्थान साम्प्रदायिक मोह और विद्वे. पको मिलगया, त्योंही इस देशका सर्वनाश होना प्रारंभ होगया । हूण अथवा शकलोगोंकि भाक्रमण, जो उपरान्त भारतपर हुये: उनमें उन विदेशियोंको सफलता परस्परमें फैले हुये इस साम्प्रदायिक विद्वेषके कारण ही मिली। और फिर पिरले जमाने में मुमलमान, माक्रमणकारी राजपूतोंपर पारस्परिक एकता और सगठनके अभावमें विनयी हुये । वान् कोई नहीं कह सक्ता है कि राजपूतोंमें वीरता नहीं थी। अतएव माध्यात्मिक तत्व बहुपचार होनेसे इस देशकी हानि हुई ख्याल करना निरीह भूल है।
आजसे करीब ढाईहनार वर्ष पहिले भी भारतकी आकृति प्राचीन भारतका और विस्तार प्रायः मानकलके समान था।
स्वरूप । सौभाग्यसे उससमय सिकन्दर महान के साथ आये हुये यूनानी लेखकोंकी साक्षीसे उस समयके भारतका माकारविस्तार विदित होजाता है। मेगास्थनीज कहता है कि उस समयका भारत समचतुराकार (Quadrilateral) था। पूर्वीय और दक्षिणीय सीमायें समुद्रसे वेष्टित थीं; किन्तु उत्तरीयभाग हिमालय पर्वत (Mount Homodos) द्वारा शाक्यदेश (Skythia) से प्रथक कर दिया गया था। पश्चिममें भारतकी सीमाको सिंधुनदी
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प्राकथन।
'प्रन्ट करती थी, जो उस समय संसारभरमें नीलनदीके अतिरिक्त सबसे बड़ी मानी जाती थी।
सारे देशका विस्तार अर्थात् पूर्वसे पश्चिमतक ११४९ मील और उत्तरसे दक्षिणतक १८३८ मील था। यह वर्णन भारतकी वर्तमान आकतिसे प्रायः ठीक बैठता है। जिस प्रकार भारत भाग एक महाद्वीप है, उसी प्रकार तब था । भान 'इस देशको उत्तरी स्थलसीमा १६०० मील, पूर्वपश्चिमकी सीमा लगभग १२०० और पूर्वोत्तर सीमा लगभग ५०० मील है। समुद्रतटका विस्तार लगभग ३५०० मील है। कुल क्षेत्रफल १८,०२,६६७ वर्गमील है। हां, एक बात उस समय अवश्य विशेष थी और वह यह थी कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने यूनानी राजा सेल्यूकसको परास्त करके अफगानिस्तान, कांधार मादि पश्चिम सीमावर्ती देश भी भारतमें सम्मूिलित कर लिये थे। भारतके विविध प्रान्तोंमें परस्पर एक दूसरेसे विभिन्नता पाई
जाती है और यहां के निवासी मनुष्य भी सब भारतकी एकता।
एक नसलके नहीं हैं। मेगस्थनीज भी बतलाना है कि भारतकी वृहत् माकतिको एक ही देश लेते हुये, उसमें अनेक और भिन्न जातियोंक मनुष्य रहते मिलते हैं; किन्तु उनमेसे एक भी किसी विदेशी नसलके वंशज नहीं थे। उनके आचारविचार प्रायः एक दूसरेसे बहुत मिलते जुलते थे। इसी कारण “यूनानी भी सारे देशको एक ही मानते थे और सिकन्दर महानकी
अभिलाषा भी समग्र देशपर अपना सिका जमानेकी थी। भारतीय : -मए ६० पृ०.३० १२-पूर्व पृ० ३५ ।
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संक्षिप्त जैन इतिहास। राजा-महाराजा भी सारे देशपर अपना माधिपत्य फैलाना मावश्यक समझते थे। साराशतः प्राचीनकालसे ही भौगोलिक दृष्टिसे सारा देश एक ही समझा जाता रहा है। अब भी यह बात ज्योंकी त्यों है। भारत एक देश है और उसकी मौलिक एकताका भाव यहाँक निवासियोंमें सदा रहा है। किन्तु इस मौलिक एकताके होते हुये भी, जिस प्रकार वर्तमानमें भारत भनेक प्रान्तोंमें विभक्त है, उसी प्रकार भगवान महावीरजीक समयमें भी बंटा हुआ था। इस समय
और उस समयके भारतकी राजनैतिक परिस्थितिमें बड़ा भारी अंतर यह था कि भाज समूचा भारत एक साम्राज्यके अन्तर्गत शासित है, किन्तु उस समय यह देश मिन्नर राजाभोंके माधीन अथवा प्रजातंत्र संघोंकी छत्रछाया था। हां, अशोक मौर्यके समय अवश्य ही प्रायः सारा भारत उसके आधीन होगया था।
म. गौतमबुद्धके जन्मके पहिलेसे भारत सोलह राज्यों में तत्कालीन मुख्य विभक्त था किन्तु जैनशास्त्र बतलाते हैं कि
राज्य। इन सोलह राज्योके मस्तित्वमें आनेके नरा ही पहिले सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट् ब्रह्मदत्तके समयमें भारत साम्राज्य एक था और उसकी राज्य व्यवस्था सम्राट ब्रह्मदत्तके आधीन थी। सम्राट् ब्रह्मदत्तका घोर पतन उसके अत्याचारों के कारण हुमा और उसकी मृत्यु के साथ ही भारत साम्राज्य तितर-वितर होकर निनलिखित सोलह राज्योंमें बंटगया:--
(१) अङ्ग-राजधानी चम्पा; (२) मगध-राजधानी रानगृह; (३) काशी-11. पा० बनारस (8) कौशल (माधुनिक नेपाल)रा. श्रावस्ती (5) वजियन-रा. वैशाली () मड-रा० पावा
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१८] संक्षिप्त जैन इतिहास । हुमा था; किन्तु उसका अन्त परस्परमें सन्धि होकर होगया था।' कहते हैं कि इसी सन्धिके उपरान्त श्रेणिका विवाह कुमारी चेलनौके साथ हुआ था। सम्राट श्रेणिक विम्बसारने अपने बढ़ते हुए राज्यवनको देखकर ही शायद एक नई रानपानी-नवीन रानगृहकी नींव डाली थी। उनने अपने पड़ोसके दो महाशक्तिशाली राज्योंकौशल और वैशालीसे सम्बन्ध स्थापित करके अपनी राजनीति कुशलताका परिचय दिया था-इन सम्बन्धों से उनकी शक्ति और प्रतिष्ठा अधिक बढ़ गई थी। ____ आधुनिक विद्वानों का मत है कि सम्राट विम्बसारने सन् ई०, से पूर्व ५८२ से १५४ वर्ष तक कुल २८ वर्ष राज्य किया था। किन्तु बौद्ध ग्रन्थोंमें उन्हें पन्द्रह वर्षकी अवस्था सिंहासनारूढ़ होकर १२ वर्ष तक राज्य करते लिखा है। (दीपवंश ३-१६-१०) वह म० बुद्धसे पांच वर्ष छोटे थे ।* फारस (Persis) का वादशाह दारा (Dalias) इन्हींका समकालीन था और उसने सिंधुनदीवर्ती प्रदेशको अपने राज्यमें मिला लिया था। किन्तु दाराके उपरांत चौथी शताब्दि ई० ५०के भारम्भमें नर फारसका साम्राज्य दुर्वल होगया, तर यह सब पुनः स्वाधीन होगये थे। इतनेपर भी इस विजयका प्रभाव भारतपर स्थायी रहा । यहा एक नई लिपि
-कारमाकिल छेवच, १६१८, पृ० ७॥ २-अहिड०, पृ. ३३। ३- अध०, पु० ॥ ४-ऑहिइ०, पृ. ४५ ॥
* मि. काशीप्रसाद जायस्वालने श्रेणिकका राज्य काल ५१ वर्ष १६.१-५५२ ई. पूर्व) लिखा है। कौशायोके परन्तप शतासिक व श्रावस्तीके प्रसेनजीतसमकालीन राजा थे। जीव मोसो भा० १.१४॥
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शिशुनाग वंश।
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जिसे खरोष्ठी लिपि कहते हैं, प्रचलित होगई और यहां के शिल्प पर भी फारसकी कलाका प्रभाव पड़ा था।
सम्राट् श्रेणिकके राज्य वसंबने जैनों का कहना है कि उनके राज्य करते समय न तो राज्यमें किसी प्रकारकी मनीति थी और न किसी प्रकारका भय ही था, किन्तु प्रना अच्छी तरह सुखानुभव करती थी। जैनधर्मके इतिहासमें श्रेणिक बिम्बमारको प्रमुखस्थान प्राप्त है।
र भगवान महावीरके समोशरण (समागृह) में वह जैनथे और उनका मुख्य श्रोता थे। जैनोंकी मान्यता है कि यदि
धार्मिक जीवन । श्रेणिक महाराज भगवान महावीरजीसे साठ हनार प्रश्न नहीं करते, तो आज जैनधर्मका नाम भी सुनाई नहीं पड़ता! किंतु अभाग्यवश इन इतने प्रश्नोंमेंसे आज हमें अति मल्प संख्यक प्रश्नों का उत्तर मिलता है । प्रायः जितने भी पुराण प्रन्थ मिलते हैं, वह सब भगवान महावीरके समोशरणमें श्रेणिक महाराज द्वारा किये गये प्रश्न उत्तरमें प्रतिपादित हुये मिलते हैं। जैनाचार्योंकी इस परिपाटीसे महाराज श्रेणिककी जनधर्ममें जो प्रधानता है, वह स्पष्ट होनाती है । श्रेणिक महारानको बौद्ध अपने धर्मका अनुयायी बतलाते हैं; किंतु बौद्धोका यह दावा उनके प्रार"म्भिक जीवनके सम्बन्धमें ठीक है। अवशेष जीवनमें वह पक्के जैनधर्मानुयायी थे। यही कारण है कि बौद्ध ग्रंथों में उनके अंतिम जीवनके विषयमें घृणित और कटु वर्णन मिलता है, जैसे कि हम मगाड़ी देखेंगे।
जब श्रेणिक महारानको जैनधर्ममें दृढ़ श्रदान होगया था, -भाइ० पृ. ५४ । २-भ० म०, पृ. १३८-16 |
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२६]
संक्षिप्त जैन इतिहास। जैन राजा था। उसके राज्यमें जैनधर्मका खूब विस्तार हुआ था।'x
कुणिककी एक मूर्ति भी मिली है और विद्वानों का अनुमान है कि उसकी एक बांह टूटी थी। यही कारण है कि वह 'कुणिक कहलाता था (जविओसो० भा० १ पृष्ठ ८४ ) कुणिकके राज्यकालमे सबसे मुख्य घटना भगवान महावीरजीक निर्वाण लामकी घटित हुई थी। इसी समय अर्थात् १४५ ई० पूर्वमें अवन्तीम पालक नामक राजा सिहासनपर आसीन हुमा था । म० बुद्धका स्वर्गवास भी लगभग इसी समय हुमा था। (जविमोसो० भाग १५ष्ठ ११५)
कुणिक अजातशत्रुके पश्चात मगषके राज्य सिंहासनपर उसका वर्शक और पुत्र दर्शक अथवा लोकपाल अधिकारी हुआ था।
उदयन। किन्तु इसके विषयमें बहुत कम परिचय मिलता है। 'स्वप्नवासूदत्ता' नामक नाटकसे यह वत्सराज उदयन और उज्जैनीपति प्रद्योतनके समकालीन प्रगट होते हैं । प्रद्योतन्ने इनकी कन्याका पाणिग्रहण अपने पुत्रसे करना चाहा था'। दर्शकके बाद ई० पू० सन् ६०३में अजातशत्रुका पोता उदय मथवा उदयन् मगषका राजा हुमा था। उसके विषयमें कहा जाता है कि उसने पाटलिपुत्र मथवा कुसुमपुर नामक नगर बसाया था। इस नगरमें उसने एक सुंदर जैनमंदिर भी बनवाया था, क्योंकि उदयन भी अपने पितामहकी भांति भैनधर्मानुयायी था। कहते हैं कि जैनधर्मक
१४-कैहिद० पृ. १६१ अजातशत्रुने अपने शीलवत नामक भाईको भी बौद्धधर्मविमुख बनानेके प्रयत्न किये थे । ( साम्स. २६९) २- अहिह, पृ.३७ । ३-महिह पृ० १८१४-हिलि जै० पृ.४३॥
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३४] संक्षिप्त जैन इतिहास . कारण ही उसका नामकरण 'विशाला' हुमा था। चीनी यात्री ह्यन्तमांग वैशालीको २० मीलकी लम्बाई-चौड़ाईमें बसा बता गया था । उपने उसके तीन कोटों और भागों का भी उल्लेख किया है। वह सारे वृजि देशको ५००० ली (करीब १६०० मील) की परिधि फैला बतलाता है और कहता है कि यह देश बड़ा सरसन था। माम, केले आदि मेदोंके वृक्षोंसे भरपूर था। मनुष्य ईमानदार, शुभ कार्योंके प्रेमी, विद्याके पारिखी और विश्वासमें कमी कट्टर और कभी उदार थे। वर्तमानके मुजफ्फरपुर जिलेका बसाद ग्राम ही प्राचीन वैशाली है।
उपरान्त के नैनग्रथोंमें विशाला अथवा वैशालीको सिंधु देशम
THE बनपाण्ड
जिससे भगवानका वैशाली के नागरिक होना प्रकट है। अभयदेवने भगवतीसूत्रको टीकाम 'विशाला' को महावीर जननी लिखा है। दिगम्बर मम्प्रदापके अन्योंमें यद्यपि ऐसा कोई प्रक्ट उल्लेख नहीं है, जिससे भग वानका सम्बन्ध वैशालीसे प्रष्ट होसके, परंतु उनमें जिन स्थानोद जस कुण्डग्राम, कुन्नाम, वनपण्ड आदिके नाम आए हैं. वे मव वैशालीके निकट ही मिलने है। वनपण्ड श्वेताम्बरोंका 'इपलाश उज्जान अपा 'नायपण्डपन नजान' या नायपण्ड' है। कुन्नामसे भाव अपने कुछ प्रामके होसक्ते है अथवा कोलागके होंगे, जिसमें नायवंशी क्षत्री भाषिक थे और जिसके पास ही वनपद उद्यान था, जहा भगवान महावीरन दीक्षा ग्रहण की यो। भत. दिगम्बर सम्प्रदायके उहखोंसे भगवान जन्मस्थान कुल्हयाम वैशाली निकट प्रमाणित होता है और चूंकि राजा सिद्धार्थ ( भगवान महावीरके पिता) शालीके गजधमें शामित थे, जसे कि हम प्रगट कोगे, तब वैशालीको उनका जन्मस्थान काना अत्युक्ति नहीं रखता। कुण्ठप्रामवशालीका एक भाग अधवा सग्निवेश ही था।
१-क्ष्त्री 8० ० ४२ व ५४.
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संक्षिप्त जैन इतिहास |
राजा चेटकका यह पारवारिक परिचय बड़े महत्वका है । उपरान्त में लिच्छिवि इससे प्रगट होता है कि उससमय प्रायः वंश | मुख्य राज्यों से उनका सम्पर्क विशेष था । जैनधर्मका विस्तार भी उस समय खूब होरहा था । लिच्छिवि प्रजातंत्र राज्य भी उनकी प्रमुखतामें खूब उन्नति कर रहा था | किन्तु उनकी यह उन्नति मगध नरेश अजातशत्रुको असह्य हुई थी और उसने इनपर आक्रमण किया था, यह लिखा जाचुका है । किन्हीं विद्वानोका कहना है कि अभयकुमार, जिसका सम्बन्ध लिच्छिवियोंसे था, उससे डरकर अजातशत्रुने वैशालीसे युद्ध छेड़ दिया था; किंतु जैन शास्त्रोंके अनुसार यह संभव नहीं है; क्योंकि अभयकुमार के मुनिदीक्षा ले लेनेके पश्चात् अजातशत्रुको मगधका राजसिंहासन मिला था । अतः अभयकुमारसे उसे डरनेके लिये कोई कारण शेष नहीं था ।
४२
यह संभव है कि अजातशत्रुके बौद्धधर्म की ओर आकर्षित होकर अपने पिता श्रेणिक महाराजको कष्ट देनेके कारण, लिच्छिचियोंने कुछ रुष्टता धारण की हो और उसीसे चौकन्ना होकर अजातशत्रुने उनको अपने आधीन कर लेना उचित समझा हो । कुछ भी हो, इस युद्ध के साथ ही लिच्छिवियोंकी स्वाधीनता नाती रही थी और वे मगष साम्राज्यके आधीन रहे थे। सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में भी वह प्रजातंत्रात्मक रूपमें राज्य कर रहे थे जिसका अनुकरण करनेकी सलाह कौटिल्यने दी थी । किन्तु जो स्वतंत्रता उनको चन्द्रगुप्तके राज्यमें प्राप्त थी, वह अशोक के समय १- क्षत्री लेन्स०, पृ० १३१
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लिच्छिवि आदि गणराज्य । [४३ नहीं रही और उनने अशोककी आधीनता स्वीकार कर ली थी। गुप्तकाल तक इनके अस्तित्वका पता चलता है।
वजियन प्रजातंत्रके उपरान्त दूसरा स्थान शाक्यवंशी क्षत्रिशाक्य और मल क्षत्रियोंके प्रजातंत्रको प्राप्त था। उनकी राजधानी
योंके गणराज्य । कपिलवस्तु थी, जो वर्तमानके गोरखपुर जिलेमें स्थित है । नूप शुद्धोदन उस समय इस राज्य के प्रमुख थे। म गौतमबुद्धका जन्म इन्हीके गृहमें हुआ था। शाक्योंकी भी सत्ता उस समय मच्छी थी; किन्तु उपरान्त कुणिक मजातशत्रुके समयमै विट्ठदाम द्वारा उनका सर्व नाश हुमा था। शाक्योके बाद मल्ल गणराज्य प्रसिद्ध था, जिसमें मल्लवंशी क्षत्रियों की प्रधानता थी। बौद्ध ग्रन्थोंसे यह राज्य दो भागोंमें विभक्त प्रगट होता है। कुसीनारा जिस भागकी राजधानी थी, उससे म० बुद्ध संबंध विशेष रहा था। दूसरे भागकी राजधानी पावा थी। उससमय राजा हस्तिपाक इस राज्यके प्रमुख थे । 'भगवान महावीर निस समय यहां पहुंचे थे, तब इस राजाने उनकी खूब विनय
और भक्ति की थी। भगवानने निर्वाण-लाम भी यहीसे किया था। उस समय अन्य राजाओंके साथ यहाँके नौ राजाओंने दीपोत्सव मनाया था। जनधर्मकी मान्यता इन लोगों में विशेष रही थी। शाक्य प्रजातंत्र भी जैनधर्मके संसर्गसे अछूता नहीं बचा था। ऐसा मालम होता है कि राजा शुद्धोदनकी श्रद्धा प्राचीन जैनधर्ममें थी।' लिच्छिवियों की तरह मल्लोंको भी मजातशत्रुने अपने भाधीन कर किया था।
१-पूर्व, पृ० १३६ । २-अहि इ० पृ० ३७-३८ । ३-क्षत्रीलेन्स, पृ. १६३ व १७५ । ४-भमबु० पृ. ३७ ।
.
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१४] संक्षिप्त जेन इतिहास।
विदेह देशवासी क्षत्रियोंका गणराज्य भी उस समय रछेखनीय था। यह लिच्छिवियोंके साथ वृनि प्रमातंत्र-राज्यसंघमें सम्मिलित थे, यह लिखा नाचुका है । दिगम्बर जैनशास्त्रों में भगवान महावीरकी जन्मनगरीको विदेह देशमें स्थित बतलाया है।'
और श्वेताम्बरी शास्त्र महावीरनीको विदेहना निवासी अथवा विदेहके राजकुमार लिखते हैं। इन उल्लेखोंसे भी विदेह गणराज्यका वृनि-रान-संघमें सम्मिलित होना सिद्ध है। यदि विदेहका सम्पर्क इस राजसंघसे न होता तो बंगालीके निकट स्थित कुण्डग्रामको विदेह देशमें न लिखा जाता। अस्तु, विदेहमें जैनधर्मकी गति विशेष थी। भगवान महावीरने तीस वर्ष इसी देशम मिताये थे। विदेहकी राजधानी मिथिला पेशालीसे उत्तर पश्चिमकी भोर ३५ मील थी और वह व्यापारके लिये बहु प्रख्यात थी।
इनके अतिरिक रायगामा कोल्पिगणराज्य, सुन्समार पर्वतका भगा राजसंघ, मल्लकप्पका बुलि प्रजातंत्र राज्य, पिप्पलिवनका मोरीयगणराज्य आदि अन्य कई छोटे मोटे प्रजातंत्रात्मक राज्य थे; जिनका कछ विशेष-हाल मालम नहीं होता है।
' १० पु०, ४० ६०५ । २-J. I, 256. ३-क्षत्री कैन्स, .
पृ०
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [४५ ज्ञानिक क्षत्री और भगवान महाकार।
ई० पूर्व० ६२० ई० पूर्व ५४५ ॥ लिच्छिवियों के साथ पनि प्रदेशके प्रजातंत्रात्मक राजसंघमें
. जात्रिक वयो क्षत्री भी सम्मिलित थे । इन मात्रिक क्षत्री।
'क्षत्रियोको 'नाय' अथवा 'नाथ' वंशी भी कहते हैं। दिगम्बर जैन शास्त्रों में इनका 'हरिवशी' रूपमें भी उल्लेख हुआ है। मनुने मल्ल, भल्ल, लिच्छिवि, करण, खस व द्राविड़ क्षत्रियोंके माथ नाट अथवा नात (जात्रिक) क्षत्रियोको व्रात्य लिखा है। (मनु० १० १०२२) यह इसी कारण है कि इन लोगोंमें : अनधर्मकी प्रधानता थी। व्रात्य अथवा प्रतिन् नामसे भैनियों का उल्लेख पहले हुआ मिलता है। (म० पा० प्रस्तावना, पृ० ३२) भार.' तके धार्मिक इतिहासमै नाथ अथवा ज्ञात्रिक क्षत्रियों का नाम भमर है। इनका महत्व इम से प्रक्ट है कि यही वह महत्वशाली जाति है जिसने भारतको एक बडे भारी सुधारक और महापुरुषको समर्पित किया था। महापुरुष जैनियोके अतिम तीर्थकर भगवान महावीर थे।
माधुनिक साहित्यान्वेपणसे प्रगट हुआ है कि ज्ञात्रिक क्षत्रि-' छात्रिक क्षत्रियोंका योहा निवासस्थान मुख्यतः वैशाली (बसाद), निवासस्थान। कुण्डग्राम और वणिय ग्राममें था। कुण्डग्रामसे उत्तर-पूर्वीय दिशामें सन्निवेश कोलाग था। कहते हैं कि
यहां ज्ञात्रिक अथवा नाथवंशी क्षत्री सबसे अधिक संख्या में रहते . थे। वैशाली के बाहिर पाप्त ही में कुण्डग्राम स्थित था; जो संभ
१-सक्षदाए ३०, पृ० ११५-११६ । २-वृजैश०, पृ० ७ ३-३० ६०, २-२ फुटनोट । ४-उद० २४ फुरः ।
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५० ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
I
था, इसलिये बड़ा वैभवशाली थे । जैनशास्त्रों में इसकी शोभाका अपूर्व वर्णन मिलता है । फिर जिस समय भगवान महावीर का जन्म होने को हुआ था, उम समय तो, वह कहते हैं, कि स्वयं कुबेरने आकर इम नगरका ऐमा दिव्यरूप बना दिया था कि उसे देखकर मलकापुरी भी लज्जित होती थी । भगवान के जन्म पर्यंत वहां स्वर्मा और रत्नों की वर्षा हुई बतलाई गई है । राजा सिद्धार्थका राजमहल सात मजिलका था और उसे 'सुनंदावत्त' प्रासाद कहते थे । स्वर्गलोकके पुष्पोत्तर विमानसे चयकर वहां देवका जीव भगवान महावीर- आषाढ़ शुक्ला पष्ठी के उत्तराफाल्गुणी नक्षत्र में का जन्म और रानी त्रिशकाके गर्भ में आया था । उस समय वाल्पजीवन । उनको १६ शुभ स्वप्न दृष्टि पड़े थे* और देवने पाकर मानन्द उत्सव मनाया था। जैन शास्त्रोके अनुमार प्रत्येक तीर्थंकरके गर्म, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष अवमरपर देव
·
गण आकर आनन्दोत्सव मनाते हैं । यह उत्सव भगवान के 'पच
५
' कल्याणक' उत्सव कहलाते है | योग्य समयपर चैत्र शुद्ध त्रयोदशीको, जब चन्द्रमा उत्तराफल्गुणी पर था, रानी त्रिशलादेवीने जिनेन्द्र भगवान महावीरका प्रसव किया था । उस समय समस्त लोक में
कालके लिये एक आनन्द लहर दौड़ गई थी । भगवानका लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार और होशियारीसे होता था । गैशवालसे ही वे बडे पराक्रमी थे ।
१- हि० पृ० १०७ । २- उ० पु० पृ० ६०५ । पृ० ६०४ * वेताम्बर में १४ स्वप्न बनाए हैं । ४-उ० पु० पृ० ६०५ वJs L206.
३- उ० पु०
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर |
[ ५१
एक दफे उनने एक मत्त हाथीको देखते ही देखने वश कर लिया था और दूसरी बार जब वे राज्योद्यान में बाल सहचरों समेत खेल रहे थे, तब उनने एक विकराल सर्पको वातकी बात में कोल दिया था । वह महापुरुष थे । उन्होंने अपने पूर्वभवोंमें इतना विशिष्ट पुण्य संचय कर लिया था कि उनके जन्मसे ही अनेक असाधारण लक्षण और गुण विद्यमान थे । वे जन्म से ही मति, श्रुति और अवधिज्ञान से विभूषित थे । इसलिये उनका ज्ञान अनायास बड़ा चढ़ा था । राजमहलमें वे काव्य, पुरापा आदि ग्रन्थोक खुब पठन पाठन करते थे । इस छोटी उमरसे ही उनका स्वभाव त्यागवृत्तिको लिये हुये था । जब वह अ'ठ वर्ष के थे, तब उनने श्रावक व्रतोंको ग्रहण कर लिया था । अहिंसा, सत्य, गील, अचौर्य और परिग्रह प्रमाण नियमोंका वह समुचित पालन करते ये। मंजयविजय नामक चारण मुनि उनके दर्शन पाकर सन्मतिको प्राप्त हुये थे |x
५-भम० पृ० ६९-८२ । श्वतावरोंके अर्वाचीन यो लिखा है कि 'ऐन्ड' नामका एक व्याकरण ग्रंथ वनाचा था, किन्तु यह ठीक प्रतीत नहीं होता । ( जैन हि० भा० १४ पृ० ३४५) ।
x म० बुद्धके समकालीन मतप्रर्वतकों में एक सृजय अथवा अजयreal पुत्र नामक मी था । बौद्ध कहते है कि इनके शिष्प मौलयन और सारीपुत्र थे; जो बौद्ध होगये थे । जैन शास्त्रों में मौहलायनको पहले जैन मुनि लिखा है | अतः संजय वैरत्योपुत्र का भी जैन होना सुसंगत है। हम समझते हैं, संजय चारण मुनि और यह एक ही व्यक्ति थे 1 विशेषके लिये देखो 'भगवान महावीर और म० बुद्ध' पृ० २२-२३ |
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५८]
संक्षिप्त जैन इतिहास। 'देवदुण्य वस्त्र' से क्या भाव है, यह श्वेताम्बर शास्त्रोमें नहीं बतलाया गया है। वह कहते है कि देवदृष्य वस्त्र पहिने हुये भी भगवान नग्न दिखते थे । इसका साफ अर्थ यही है कि वे नग्न थे । एक निष्पक्ष व्यक्ति उनके कथनसे इसके अतिरिक्त और कोई मतलब निकाल ही नहीं सका है। । फलतः श्वेताम्बरीय शास्त्रों में भी भगवानका नग्न दिगम्बर मुनि होना प्रगट है। अचेलक अथवा नग्न दशाको उनके 'आचारांग सूत्र में सर्वोत्कृष्ट अवस्था वतलाई । अचेलासे भाव यथानात नग्न स्वरूपो मतिरिक यहांपर और कुछ नहीं होसक्ते यह बात बौद्ध शास्त्रोंके कथनसे स्पष्ट है।
बौद्ध शास्त्रों में नैन मुनियों अथवा निग्रन्थ अमणोंको सर्वत्र नग्न साधु लिखा है और यह साधु केवल भगवान महावीरके तीर्थके ही नहीं है, प्रत्युत उनसे पहले भगवान पार्श्वनाथनीके तीर्थके भी है। अतएव भगवान पार्श्वनाथ एवं अन्य तीर्थकरोंका पूर्ण नग्न दशाको साधु अवस्थामें धारण करना प्रमाणित है। श्वेताम्बरीय आचारांग सुत्रमें भी शायद इसी अपेक्षा लिखा है कि 'तीर्थकरोने भी इस नग्न वेशको धारण किया था। इससे प्रत्यक्ष प्रगट है कि भगवान महावीरजीके अतिरिक्त अवशेष तीर्थङ्करोंने
१-कसू. स्टीवेन्धन, पृ० ८५ फुटनोट । २-Js, Ph. I. pp 55-56. ३-दीनि० पाटिकमुक्त, वीर वर्ष ४० ३५३ । ४-ममबु० पृ. ६०-६१ और २४९-२५५, जैसे दिव्यावदान पृ० १८५, जातकमाला (S. B. B. Vol. L) पृ० १४५, महावग्ण ८,१५, ३,१, ३८, १६, डायोलॉग्स ऑफ दी बुद्ध भा० ३ पृ० १४ इत्यादि । ५-ममबु० पृ० २३६-२४०। ६-J.S.L pp. 57-58.
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६६] संक्षिप्त जैन इतिहास । संसारमें भ्रमण करते हुये समान रीतिसे दुःखका अन्त करते हैं।' (संघावित्वा संसरित्वा दुःखस्सान्तम् करिस्मन्ति), पातंजलिने भी मपने पाणनिसूत्रके भाष्यमें गोशालके सम्बधमें कुछ ऐसा ही सिद्धांत निर्दिष्ट किया है। उसने लिखा है कि वह 'मस्करि केवल वांसको' छडी हाथमें लेने के कारण नहीं कहलाता था; प्रत्युत इमलिये कि वह कहता था-"मर्म मत करो, कर्म मत करो, केवल शाति ही वाछनीय है।" (मा छत कर्माणि, मा रुन धर्माःणे इत्यादि)।
मतएव दिगम्बर जैनाचार्यने मक्खलिगोशालको मो अज्ञान मतमा प्रचारक लिखा है, वह ठोक प्रतीत होता है। और अन्य श्रोतोंसे यह भी प्रगट है कि वह विधिकी रेखको ममिट मानता था। कहता था कि जो बात होनी है, वह अवश्य होगी; और उममें पाप-पुण्य कुछ नहीं है । इस अवस्थामें उसके निकट ईश्वरका मस्तित्व न होना स्वाभाविक है। इस प्रकार दि. शास्त्रों उपरोक्त कथन ठीक नचता है । और यह मानना पडता है कि मक्खलि गोशाल भगवान पार्श्वनाथनी के तीर्थका एक मुनि था और बहुश्रुनी होते हुये भी ना उसे श्री वीर भगवानके समवशरणमें प्रमुख स्थान न मिला, तो वह उनसे रुष्ट होकर स्वतंत्र रीतिसे मज्ञानमतका प्रचार करने लगा।
न्तुि देवसेनाचार्यनीने मक्खलि गोशालका नामोल्लेख 'मस्कमक्खलि गोशाल और रिपुरण' रूपमें किया है। संभव है, इससे पूरण कस्तप । पूरण उप्तका भाव गोशालसे न समझा जाय और
जैन मुनि था। उपरोक्त कथनको असंगत माना माय; किंतु १-दीनि मा०२०५३-५४॥२-आजी.पृ. १२॥३-भावसंप्रहगा. १७६॥
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७४ संक्षिप्त जैन इतिहास । प्राप्त करने के समयसे दो वर्ष पहिले गोशालने स्वधर्म प्रचार प्रारम्भ किया, बतलाते हैं।
भगवान महावीर उज्जैनीसे विहार करके कौशाची पहुचे थे। महावीरको केवल- यहांपर उनका आहार दलित अवस्थामें ही
शानकी प्राप्ति। रहती हुई राजकुमारी चन्दनाके यहां हुमा था, जिससे भगवानका पतितोद्धारक स्वरूप स्पष्ट होकर मन मोह लेता है। कौशांबीसे भगवान पुन एकांतवासमें निश्चल ध्यानारूढ़ रहे थे। उन्होंने एक टक बारह वर्ष तक दुडर तपश्चरण करनेका कठिन परन्तु दृढ़तम आत्मबल प्रगट करनेवाला नियम ग्रहण किया था। इस बारह वर्षके तपश्चरणके उपरांत उनको पूर्णज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। दिगम्बर और श्वेतांबर दोनों ही संप्रदायोंके शास्त्र जीवनकी इस मुख्य घटनाके समय महावीरनीकी अवस्था व्यालीस वर्षकी बतलाते हैं। श्वेतांबर शास्त्र कहते हैं कि उपरोक बारह वर्षकी घोर तपस्याका अभ्यास उनने काढ़ देशके दो भागों-वनमृमि और मुन्मभूमिके मध्य नाकर किया था और उनको वहीं केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। महावीरकी महान् विजयके ही कारण लादका उक्त प्रदेश 'विनयभूमि' के नामसे प्रख्यात हुआ था। भगवानने 'विजय मुहूर्त में ही सर्वज्ञपद पाया था।
उस समय यह लाढ़ देश बड़ा दुश्वर था और भगवानको यहॉपर बड़ी गहन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। किन्तु
1-Appendiss. २-हरि० पृ० ५७५ 4 Js. I. p 269. ३-Js. I, P, 263. ४-इहिक्का० मा० ४ पृ. ४४ । ५-केहिह. पृ. १५८॥
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [७६ वे उन सबपर विजयी हुये थे और उन्होंने सर्वज्ञ होकर 'विजयधर्म' प्रतिपोषित करने का उच्च निनाद किया था। केवलज्ञान प्राप्तिकी महत्वपूर्ण घटनाके विषयमें सहा गया है कि एक 'सुव्रत' नामक दिनको अजुकूला मथवा ऋजुपालिका नदीके वामतटपर जम्भक नामक ग्रामके निकट पहुंच कर, अपराहक समझ अच्छी तरहसे षष्ठोपवामको धारण करके सालवृक्षके नीचे एक चट्टानपर आसन जमाकर महावीरजीने वैशाष शुक्ला दशमीके तिथिमें सर्वज्ञपदको प्राप्त किया था। इस समय उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र और विजयमुहूर्त थी। जिस स्थानपर भगवानने केवलज्ञानकी विभूति पाई थी, वह स्थान सामाग नामक रुषकके खेतमें था और एक प्राचीन मंदिरसे उत्तर पूर्वकी ओर था। वहां महावीरजी सर्वज्ञ हुये और परम वंदनीय परमात्मा होगये थे। वह शुद्ध बुद्ध चतन्य स्वरूप सशरीर ईश्वर अथवा पूज्य अहंत या तीर्थकर हुये थे। समस्त लोकमें आनंदछागया और देवोंने भाकर उस समय आनंदोत्सव मनाया था।
आज स्पष्टरूपमें यह विदित नहीं है कि भगवान महावीरका भगवान महावीरको केवलज्ञान स्थान कहांपर है? भगवान के केवलज्ञान-स्थान। जन्म व निर्वाणस्थानोंके समान जैन समानमें किसी भी ऐसे स्थानकी मान्यता नहीं है कि वह केवलज्ञान प्राप्तिका पवित्र स्थान कहा जासके । जयपुर रियासतके चांदनगांवमें एक नदीके निकटसे भगवान महावीरनीकी एक बहुमाचीन मूर्वि भूगर्भसे उपलब्ध हुई थी। वह मूर्ति वहींपर एक विशाल मंदिर
१-उपु० पृ. ६४ व Js. I, 201, २-आचाराr Js. I, pp. 20/57.
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७] संक्षिप्त जैन इतिहास । दनवार विराजमान करदी गई थी और यही निट में भगवान चरणचिद भी है।'पप्रकार नाहिग माम पनाये हुये फेरस्नान स्थानके वर्णनन म मानी भारत की कमी बैठती है और उसमे यह भ्रम होगा कि यही भान भगवान महावीरनीके विनमान प्राप्त स्नेहा दिवान स्नुि मेन नमाजमें यह स्थान ऐयन एक अतिशय नीर्थरूपमें 'महावीरमी के नामसे मान्य है । तिसपर पासोमें वाया दमा फेव शान मान कौसाम्बीसे अगाडी की टोना उचित है. गोछि उचपनीमे कौसाम्धीको जाते हुये उपरोक्त मतिरायक्षेत्र पीछे मानद नाना है । और श्वेतावर शास्त्र जगह आग सादिको बाट देशमें स्थित बतलाते हैं। ___ मत यह केवल ज्ञान स्थान मगधदेगमें की होना युक्तिसंगत है । किन्हीं दिगम्बर मन शास्त्रों में उमे मगरदेशमें बतलाया भी है। लादेशका विनयभूमि प्रान्त मानाके बिहार ओड़ीसा प्रातस्थ छोटा नागपुर डिवीजन के मानमृम और सिंहभूम मिलों इतना माना गया है । स्व० नंदुलाल डे महाशयने सम्मेदशिखर पर्वतसे २५-३० मीलकी दुरीपर स्थित मरियाको गम्भक प्राम प्रगट किया है जो अपनी कोयलोकी खानोंके लिये प्रसिद्ध है और बराकर नदीको ऋजुकूला नदी सिद्ध की है।
१-चीर मा० ३ पृ. ३१७ पर हमने उमसे उसी स्थानको केवलज्ञान स्यान अनुमान किया था। २-३. Ja. I, p. 968. - जैश-पृ०-1-1--दहिया-मा० ४.१०.४५-४६ व वीर
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर ।
[ ७७ यह स्थान मानभूम जिलेमें है और प्राचीन मगधका राज्याधिकार यहां था | अतएव यह बहुत संभव है कि उक्त स्थान ही महावीरजीका केवलज्ञान स्थान हो। इसके लिये झिरिया के निकटवर्ती ध्वशावशेषोकी जांच पड़ताल होना जरूरी है । इतना तो विदित ही है कि इन जिलोंमे 'सराक' नामक प्राचीन जैनी बहुत मिलते हैं और इनमें एक समय जैनों का राज्य भी थी । किंतु कालदोष एवं अन्य संप्रदायोंके उपद्रवोसे यहा के जैनियो का ह्रास इतना वेढव हुमा कि वे अपने धर्म और सांप्रदायिक संस्थाओं के बारेमें कुछ भी याद न रख सके । यही कारण है कि इस प्रांत में स्थित भगवान महावीरजीके केवलज्ञान स्थानका पता आज नहीं चलता है । डॉ० स्टीन सा० ने पंजान प्रांतसे रावलपिंडी जिलेमें कोटेरा नामक ग्रामके सन्निक्ट ' मूर्ति ' नामक पहाड़ीपर एक प्राचीन जीर्ण जैन मंदिर के विषय में लिखा है कि यहाँपर भगवान महावीरजीने ज्ञान लाभ किया था। किंतु कौशाम्बीसे इतनी दूरीपर और सो भी नदीके सन्निक्ट न होकर पहाड़ीके ऊपर भगवानका केवलज्ञान स्थान होना ठीक नहीं जंचता । केवलज्ञान स्थान तो मगवदेशमें ही कहीं और बहुत करके झिरिया के सन्निकट ही था । उपरोक्त स्थान भगवानके समोशरणको वहा आया हुआ व्यक्त करनेवाला अतिशयक्षेत्र होगा, क्योकि यह तो विदित है कि भगवान महावीर विहार करते हुये तक्षशिला आये थे और मूर्तिपर्वत उसके निकट था । /
१ - बविमोजमा० पृ० ४२-७७ । २ - कजाइ० पृ० ६८३ । ३-हॉजै० पृ० ८० फु० नो०
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७८] संक्षिप्त जैन इतिहास।
भगवान महावीरने जिम अपूर्व त्यागवृत्ति और अमोघ मात्मभगवान महावीर शक्तिका अवलंचन किया था, उसीका फल था सर्वज्ञ थे। अजैन कि वह एक सामान्य मनुष्यसे मात्मोन्नति
प्रथाको साक्षा! करते२ परमात्मपद जैसे परमोत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त हुये थे । वह सर्वज्ञ हो गये थे। जैन शास्त्र कहते हैं कि ज्ञात्रिक महावीर भी अनंतज्ञान और अनंतदर्शनके पारी थे। प्रत्येक पदार्थको उनने प्रत्यक्ष देख लिया था और वे सर्व प्रकारके पापमलसे निर्मुल थे | वह ममस्त विश्वमै सर्वोच्च और महाविद्वान थे। उन्हें सर्वोत्कृष्ट, प्रमावशाली, दर्शन, ज्ञान और चारित्रसे परिपूर्ण
और निर्वाण सिद्धान्त प्रचारकों में सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया है। यह मान्यता केवल जैनोंकी ही नहीं है। ब्राह्मण और बौद्ध ग्रन्थ भी भगवान महावीरजीकी सर्वज्ञताको स्वीकार करते हैं। बौकि अंगुत्तरनिकायमें लिखा है कि भगवान महावीरजी सर्वज्ञाता और सर्वदर्शी थे। उनकी सर्वज्ञता अनंत थी। वह इमारे चलते, बैठते, सोने, जागते हर समय सर्वज्ञ थे। वह जानते थे कि किसने किस प्रकारका पाप किया है और किसने नहीं दिया है। बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि महावीर संघके आचार्य, दर्शन शास्त्रके प्रणेता, बहुप्रख्यात, तत्ववेत्ता रूपमें प्रसिद्ध, जनता द्वारा सम्मानित, अनुभवशील वय प्राप्त साधु और आयुमें अधिक थे। (डायोलॉग्स
१-उपु० पृ. ११४ । २-Js. II, pp. 187-270. ३-मझिमनिकाय १।२३८ व ९२-९३, अंगुत्तरनिकाय ३७४, न्यायविन्दु १० ३, चुटवग्ग SBE. Xx 78, Ind, Anti. VIII. 313. पचतत्र (Keilhorn, V I) इत्यादि । ४-अं. नि. भाग १ पृ. २२० । ५-ममि० भाग २ पृ. २१४-१२८ ।
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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [ ७९
आफ दी बुद्ध ० ६६) वे चातुर्याम संवरसे स्वरक्षित, देखी और सुनी बातों को ज्यों त्यो प्रगट करनेवाले साधु थे (संयुक्त० भा० १४० ९१ ) जनता में उनकी विशेष मान्यता थी । (पूर्व ४० ९४ ) |
प्रभाव ।
सचमुच तीर्थंकर भगवान के दिव्य जीवन में केवलज्ञानप्राप्तिकी भगवानका दिव्य एक ऐसी बड़ी और मुख्य घटना है कि उसका महत्व लगाना सामान्य व्यक्तिके लिये जरा टेड़ी खीर है | दां' जिसको आत्मा के अनन्तज्ञान और ननन्त शक्ति में विश्वास है, वह सहजमें ही इस घटनाका मूल्य समझ सक्ता हैं । केवलज्ञान प्राप्त करना अथवा सर्वज्ञ होजाना, मनुष्य जीवन में एक अनुपम और अद्वितीय अवसर है | भगवान महावीर जब सर्वज्ञ होगये, तो उनकी मान्यता जनसाधारणमें विशेष होगई । उस समय के प्रख्यात राजाओंने भक्तिपूर्वक उनका स्वागत किया । प्रत्येक प्राणी तीर्थंकर भगवानको पाकर परमानन्दमें मग्न होगया । बौद्ध शास्त्र भी महावीरजीके इस विशेष प्रभावको स्पष्ट स्वीकार करते हैं' | मालूम तो ऐसा होता है कि भगवान महावीरके कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होनेसे उस समयके प्राय सब ही मतप्रवर्तकोंक मासन ढीले होगये थे और भगवानकी प्राणी मात्रके लिये हितकर - शिक्षाको प्रमुखस्थान मिल गया था ।
उस समय के प्रख्यात मतपत्र के म० गौतम बुद्ध के विषयमें म० गौतम बुद्धके तो स्पष्ट है कि उनके जीवनपर भगवान जीवनपर भगवान महावीरकी सर्वज्ञ अवस्थाका ऐसा प्रबल महावीरका प्रभाव । प्रभाव पड़ा था कि भगवान महावीरके धर्म
१ - संयुक्त निकाय भा० १ पृ० ९४ |
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८०] संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रचारके अन्तराल काल तक उनके दर्शन ही मुश्किलसे होते हैं। म० बुद्धके ६० से ७० वर्षके मध्यवर्ती जीवन घटनाओंचा उल्लेख नहींके वरावर मिलता है। रेवरेन्ड विशप विगन्डेट सा. तो कहते हैं कि यह काल प्रायः घटनाओके उल्लेखसे कोरा है। (An almost blank) म० बुद्ध के उपरोक्त जीवनकालकी घटनाओं के न मिलनेका कारण सचमुच भगवान महावीरके धर्मप्रचारका प्रभाव है क्योकि यह अन्यत्र प्रमाणित किया जाचुका है कि जिप्ससमय भगवान महावीरजीने अपना धर्मप्रचार प्रारम्भ किया था, उस समय म० बुद्ध अपने 'मध्य मार्ग' का प्रचार प्रारम्भ कर चुके थे और मनुमानसे ४६ या १८ वर्षकी अवस्था में थे । अतः यह बिलकुल सम्भव है कि महाबीरनीका उपदेश इस अन्तराल कालमें इतना प्रभावशाली अवश्य होगया था कि म. बुद्धके जीवन के ६० वर्षसे उनकी जीवन घटनायें प्राय नहीं मिलती है। ___सामगाम सुतन्त' में भगवान महावीरनी के निर्वाण प्राप्तिकी खबर पाकर म० बुद्धके प्रमुख शिप्य आनन्द बड़े हर्षित हुये थे और बडी उत्सुकतासे यह समाचार म०. बुद्धको सुनानेके लिये दौड़े गये थे, इससे भी साफ प्रगट है कि म. गौतमवुद्धको महावीरजीके धर्मप्रचारके समक्ष अवश्य ही हानि उठानी पड़ी थी। क्योंकि यदि ऐसा न होता तो महावीरनीके निर्वाण पालेनेकी घटनाको बौड बड़ी उत्कण्ठा और हर्षभावसे नहीं देखते । भगवान महावीरके समक्ष म० बुद्धका प्रभाव क्षीण पडेनेमें एक और कारण
२-भमबु० पृ० १००-११० । २-सॉन्डर्स, गौतमबुद्ध पु. ५४ । ३-ममबु• पृ० १०१ । ४-डायोलॉग्स ऑफ बुद्ध मा०३ पृ० ११२ ।
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ज्ञानिक क्षत्री और भगवान महावीर। [८१ दोनों मत प्रवर्तकोंका विभिन्न मात्राका ज्ञान भी था। महावीरनी पूर्ण सर्वज्ञ और त्रिकालदर्शी थे, यह बात स्वयं बौद्ध शास्त्र प्रगट करते हैं; जैसे कि ऊपर व्यक्त किया गया है। किन्तु म० बुद्धको यद्यपि बौद्ध शास्त्र सर्वज्ञ बतलाते हैं। परन्तु यह बात वह स्पष्ट स्वीकार करते हैं कि म० बुद्धकी सर्वज्ञता हरसमय उनके निकट नहीं रहती थी। वह जब जिप्त बातको जानना चाहते थे, उस बातको ध्यानसे जान लेते थे। अत: म० बुद्धका ज्ञान पूर्ण सर्वज्ञता न होकर एक प्रकारका अवविज्ञान प्रगट होता है। ज्ञानके इम तारमम्यको समझकर ही शायद म बुद्धने कभी
भी जैन तीर्थकरसे मिलने का प्रयाप्त नहीं गौतम बुद्धका ज्ञान
किया था और न उनने महावीरजीकी वैसी तीव्र आलोचना की है, जैसे कि उन्होंने उस समयके अन्य मतप्रवर्तकोंकी की थी। किन्तु इस कथनसे यहां हमारा भाव म० बुद्ध के गौरवपूर्ण व्यक्तित्वकी अवज्ञा करनेका नहीं है। हमारा उद्देश्य मात्र भगवान महावीरके दिव्य प्रभावको प्रगट करनेका है; जिता विशिष्ट रूप स्वयं बौद्ध शास्त्र प्रगट करते हैं । बौडोके कथनसे यह भी प्रगट होता है कि उस समयके विदेशी लोगो-यवनो (Inde-Greeks) में भी भगवान महावीरनीकी मान्यता विशेष होगई थी । सर्वज्ञ प्रमुका महत्व किसको अछूता छोड़ सकता है ?
भगवान के केवली होते ही जनता उनके अनुपम महान व्यकित्वपर एकदम मोहित होगई प्रगट होती है। इस दिव्य घटनाके
१-मिलिन्दपन्ह (SBE.) मा० ३५ पृ० १५४ । २-ममवु० पृ. ७२-७५ । ३-हिग्ली० पृ० ७८ ।
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संक्षिप्त जैन इतिहास। उपलक्षमें ही उन स्थानोंके नाम भगवान महावीरजीकी अपेक्षा उल्लिखित हुये जिनका सम्पई महावीरजीसे था। कहते है मानभूमि जिला, मान्यमूमि रूपमें भगवानके अपरनाम "मान्य श्रमण" की अपेक्षा कहलाया था। सिंघभूम निलाका शुद्ध नाम 'सिंहभूमि' बताया गया है और कहा गया है कि वीर प्रभुकी सिहवृत्ति थी
और उनका चिन्ह 'सिह' था; इसलिये यह जिला उन्हीं की अपेक्षा इम नामसे प्रख्यात हुआ था। इनके अतिरिक्त विनयभूमि, वर्द्धमान (वर्दवान), वीरभूमि आदि स्थान भी भगवान महावीरनीके पवित्र नाम और उनके सम्बन्धको प्रगट करनेवाले है । सचमुच बंगाल व विहारमें उपसमय जैनधर्मकी गति विशेष थी और जनता भगवान महावीरको पाकर फूडे अंग नहीं समाई थी।
म. गौतम बुद्ध बौद्धधर्मके प्रणेता थे और वह भगवान म. वुद्ध एक समय महावीरके समकालीन थे। जैन शास्त्रों में
जैन मुान थे। उनको भगवान पार्श्वनाथजीके तीर्थक मुनि पिहिताश्रवका शिष्य बतलाया है। लिखा है कि दिगम्बर जैन मुनिपदसे भ्रष्ट होकर रक्ताम्बर पहिनकर बुद्धने क्षणिकवादका प्रचार किया और मृत माम ग्रहण करनेमे कुछ संकोच नहीं किया था। जैन शास्त्र के इस कथनकी पुष्टि स्वयं बौद्ध ग्रन्थोंसे होती है। उनमें एक स्थानपर स्वय गौतम बुद्ध इम वातको स्वीकार करते हैं
१-दाहा मा० ४ पृ. ४५। २-पूर्व प्रमाण । ३-वर मा० ३ पृ. ३७० प पविओ जैस्मा पृ. १०९१४-ममबु०पृ. ४८-४९० दुखको भनात्मवाद सहमा मान्य नहीं था । उनने स्पष्टतः आत्माके अस्तित्वसे इन्कार नहीं किया. या । यह उनकी, जैन दशाका प्रभाव कहा जासकता है।
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९.]
संक्षिप्त जैन इतिहास। प्रारम्भ कर दिया था। उनका उपदेश हितमित पूर्ण शब्दों में समस्त जगतके जीवोंके लिये कल्याणकारी था। उस आदर्श रूप उपदेशको सुनकर किसीका हृदय जरा भी मकिन या दुखित नहीं होता था। बल्कि उसका प्रभाव यह होता था कि प्रचत जाति विरोधी जीव भी अपने पारस्परिक वैरभावको छोड़ देते थे। सिंह और भेड़, कुत्ता और बिल्ली बड़े आनंदसे एक दुमरेके समीप बैठे हुये भगवान के दिव्य संदेशको ग्रहण करते थे। पशुओंपर भगवानका ऐसा प्रभाव पड़ा हो, इस वातको चुपचाप ग्रहण कर लेना इस जमाने में जरा कठिन कार्य है। किंतु जो पशु विज्ञानसे परिचित हैं और पशुओंके मनोबल एवं शिक्षाओंको ग्रहण करनेकी सुक्ष्म शक्तिकी ओर निनका ध्यान गया है, वह उक्त प्रकार भगवान महावीरके उपदेशका प्रभाव उन पर पड़ा मानने में कुछ अचरन नहीं करेंगे।
सचमुच वीतराग सर्व हितैषी अथवा सत्य एवं प्रेमको साक्षात जीती भागती प्रतिमा निट विश्वप्रेमका आश्चर्यकारी किंतु अपूर्व वातावरण उपस्थित होना, कुछ भी अप्राकृत दृष्टि नहीं पड़ता ! विश्वका उत्कृष्ट कल्याण करनेके निमित्त ही भगवानके तीर्थकर पदका निर्माण हुआ था । लेकिन उन्होंने अपना निर्माण सिद्ध करनेके निमित्त कभी किसी प्रकारका अनुचित प्रभाव डालनेकी कोशिश नहीं की और न कभी उन्होंने किसीको भाचार विचार छोड़कर अपने दलमें मानेके लिए प्रलोमित ही किया। उनकी उपदेश पदति शांत, रुचिघर, दुश्मनोंक दिलों में भी अपना असर पैदा करनेवाली, मर्मस्पर्शी और सरल थी। 'सबसे पहिले उन्होंने
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९८]
संक्षिप्त जैन इतिहास। प्रख्यात था । उसीके संसर्गसे राजाको भी जैनधर्ममें प्रतीत हुई थी। महदास सेठने भगवान महावीरजीके निकटसे व्रत नियम ग्रहण किये थे। उत्तर मथुराके समान ही दक्षिण मथुराम भी जैनधर्मका मस्तित्व उस समय विद्यमान था । भगवान के निर्वाणोपरात यहाँपर गुप्ताचार्य के आधीन एक बड़ा जैनसघ होनेशा उल्लेख मिलता है।
भगवान महावीरजीका विहार दक्षिण भारतमें भी हुआ था। A कांचीपुरका राना वसुपाल था और वह सभवतः चीर प्रभू। भगवान का भक्त था। (माझ० मा० ३४० १८१) जिप्त समय भगवान हेनागदेशमें पहुंचे थे, उस समय राजा सत्यधरके पुत्र जीवघर राज्याधिकारी थे। हेमांगदेश आनलका महीसूर (Mysone) प्रातवर्ती देश अनुमान किया गया है, क्योंकि यहींपर सोनेकी खाने हैं, मलय पर्वतवर्ती वन है और समुद्र निकट है। हेमांगदेशके विषयमें यह सब बातें विशेषण रूपमें लिखीं हैं। हेमांग देशकी राजधानी रामपुर थी, जिसके निकट 'सुरमलय' नामक उद्यान था। भगवानका समोशरण इसी उद्यान में अवतरित हुमा था। राजा जीवघर भगवान महावीरको अपनी राजधानी में पाकर वडा प्रसन्न हुआ था। अन्त में वह अपने पुत्रको राजा बनाघर मुनि होगया था। मुनि होकर वह वीर संघके साथ रहा था। जब वीरसघ विहार करता हुमा उत्तरापथकी ओर पहुंचा था, तब जीवधर मुनिरानने अग्रह केचलीरूप गनगृहके विपुलाचल पर्वतसे
१-प्रो० पृ. ६ । -वीर वर्ष ३ पृ. ३५४ । ३-आफ० मा० १ पृ० ९३ ।
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१०६]
संक्षिप्त जैन इतिहास ।
सन्यास जीवन में भी यदि वासना-तृप्तिके साधन जुटाये रक्खे जाये और केवलजानकी आराधनासे अविनागी सुख पालेका प्रयत्न किया जाय तो उसमें असफलता मिलना ही सभव है । त्यागी हुये घर छोडा स्त्री पुत्रसे नाता तोडा और फिर भी निर्लिप्तभावकी माड़ लेकर वासना वढन सामग्रोको इकट्ठा कर लिया, वासनाको तृप्त करनेका सामान जुटालिया, तो फिर वास्तविक सत्यमें विश्वास ही कहां रहा ? यह निश्चय ही शिथिल होगया कि भोगसे नहीं, योगसे पूर्ण और अक्षय सुख मिलता है। और यह हरकोई जानता है कि किसी कार्यको सफल बनाने के लिये तहत विश्वास ही मूल कारण है। दृढ़ निश्चय अथवा षटल विश्वात फलका देनेवाला है।
भगवान महावीरने इन आवश्यक्ताओंको देखकर ही और उनका प्रत्यक्ष अनुभव पाकर 'सम्यग्दर्शन' अथवा यथार्थ श्रद्धाको सच्चे सुखके मार्गमें प्रमुख स्थान दिया था। किन्तु वह यह भी जानते थे कि जिस प्रकार कोरा कर्मकांड और निरा ज्ञान इच्छित फल पानेके लिये कार्यकारी नहीं है, उसी प्रकार मात्र श्रद्धानसे भी काम नहीं चल सका। इसीलिये इन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकूचारित्रका युगपत होना भक्षय और पूर्ण सुख पाने के लिये आवश्यक बतलाया था।
सम्यग्दर्शनको पाकर मनुष्योको निवृत्ति मार्गमें दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। वह जान गये थे कि यह जगत अनादि निधन है। जीव और मनीवका लीला-क्षेत्र है। यह दोनों द्रव्य अक्रत्रिम मनंत और अविनाशी हैं। अनीवने जीवको अपने प्रभावमें दवा रखा है। नीव शरीर बन्धनमें पड़ा हुभा है। वह इच्छाओं और
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११४] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
और सिद्धांत थे, जैसे कि अन्य तीर्थंकरों के धर्मोमें थे और जैनोंकी इस मान्यतानो मन कई विद्वान् सत्य स्वीज्ञार कर चुके हैं।
किन्ही विद्वानों का यह मत है कि भगवान महावीरजी जैन श्री महावीर नजैनधर्मके धमक सस्थापक है आप उन्हान हा संस्थापक थे और न जैन जैनधर्मका नीवारोपण वैदिक धर्मके धर्म हिन्दू धर्मको विरोधमें किया था, किंतु उनका यह मत
शाखा है। निर्मल है। मानसे करीब दो हजार वर्ष पहलेले लोग भी भगवान ऋषभनाथनीकी विनय करते थे। और उन लोगोंने अन्य तेईन तीर्थकरोको मूर्तियां निर्मित की थी। अब यदि जैनधर्मरे म्यापक भगवान महावीरनी माने जावें, तो कोई कारण नहीं दिखता कि इतने प्राचीन जमानेमें लोग भगवान ऋषभनाथको जैनधर्मा प्रमुख समझने और उनकी एवं उनके बाद हुये तीर्थकरोकी मूर्तियां बनाते और उपासना करते । विसपर स्वयं वैदिक एव बौद्धग्रन्थों में इस युगमें जैनधर्म के प्रथम प्रचारक श्री ऋषभदेव ही बताये गये हैं। ___ अथच जैनोंके सुक्ष्म सिद्धान्त, जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि मादिमें जीव बतलाना, मणु और परमाणु मोका अति प्राचीन पर मौलिक एवं पूर्ण वर्णन करना, आदर्श पूना आदि ऐसे नियम हैं जो जैनधर्मका मस्तित्व एक बहुत ही प्राचीनकाल तकमें मिद्ध कर
१-पा० पृ० ३८५-३८८ । -डॉ० ग्लैनेनाथ (Dev Jarnusmus). और डॉ. जालेकोन्टियर यह स्वीकार करते है (केहिह. पृ० १५४के उसू० भूमिका पृ. २१) ३-जैविभओसो मा० ३ पृ. ४४७ व जस्तू० पृ० २४...... -विओजैस्मा० पृ० ८८-10.। ५-भागवत ४-५ व भपा० भूमिका । ६-प्रतशाच पोर वर्ष ४ पृ० ३५३ ।
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१२२] संक्षिप्त जैन इतिहास। वानके संघर्म गण मेदका पता चलता है। वीर संघमें कुल ग्यारह गणधर थे जिनमें प्रमुख इन्द्रमूति गौतम थे। श्वेतांबर शास्त्रों के अनुसार यद्यपि गणधर ग्यारह थे; परन्तु गण कुल नौ थे। यह नौ वृन्द अथवा गण इस प्रकार बताये गये है:
(१) प्रथम मुख्य गणधर इन्द्रमृति गौतम, गौतम गोत्रके ये और उनके गणमें ६०० श्रमण थे।
(२) दुसरे गणधर मग्निमृति भी गौतम गोत्रके थे। इनके गणमें भी ५०० मुनि थे।
(३) तीसरे गणधर वायुभूति, इन्द्रभूति और अग्निमृतिक माई थे और गौतम गोत्रके थे। इनके आधीन गणमें भी ५०० मुनि थे।
(8) आर्यव्यक्त चौथे गणधर भारद्वाज गोत्रके थे। इनके गणमें भी ५०० श्रमण थे।
(१) अग्नि वैश्यायन गोत्रके पांचवें गणधर सुधर्माचार्य ये, जिनके माधीन १०० श्रमण थे।
(६) मण्डिपुत्र अथवा मण्डितपुत्र वशिष्ट गोत्रके थे और २५० श्रमणोंको धर्म शिक्षा देते थे।
(७) मौर्यपुत्र काश्यप गोत्री मी २५० मुनियों के गणधर थे।
(८) मकंपित गौतम गोत्री और हरितायन गोत्रके अचल ब्रत दोनों ही सायर तीनसौ श्रमणों को धर्मज्ञान मर्पण करते थे।
(९) मैत्रेय और प्रभास कौंडिन्य गोत्रके थे। दोनोंक संयुक्त गणमें ३०० मुनि थे।
-ठामाम० पृ० ५६ व कर. Js. 1265.
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श्री वीर-संघ और अन्य राजा।
[१२३
'इसप्रकार महावीरजीके ग्यारह गणधर, नौ वृन्द और ४२०० वीरसंघके मनि- श्रमण मुख्य थे। इसके सिवाय और बहुतसे
योंकी संख्या । श्रमण और आनिकाए थीं, जिनकी संख्या क्रमसे चौदहहजार और छत्तीसहजार थी। श्रावकोंकी संख्या १५००० थीं और श्राविकाओं की संख्या ३१८००० थी।"
दिगम्बर आम्नायके ग्रंथो में भगवान के इन्द्रभूति, भग्निमृति वायुभूति, शुचिदत्त, सुधर्म, मांडव्य, मौर्यपुत्र, भकपन, अचल, मेदार्य और प्रभास, ये ग्यारह गणधर बताये गए हैं। ये समस्त ही सात प्रकारकी ऋद्धियोसे सपन्न और द्वादशाके वेत्ता थे। गौतम आदि पांच गणघरोंके मिलकर सब शिष्य दशहनार छैतो पचास और प्रत्येकके दोहजार एकसौ तीस २ थे। छठे और सातवें गणघरोंके मिलकर सब शिष्य माठसौ पचास और प्रत्येकके चारसौ पच्चीस २ थे। शेष चार गणघरोंमसे प्रत्येकके छैसो पच्चीस २ और सब मिलकर ढाईहनार थे। सब मिलकर चौदहहनार थे।
गणों के अतिरिक्त आत्मोन्नतिके लिहानसे यह गणना इसप्रकार थी, अर्थात ९९०० साधारण मुनिः ३०० अंगपूर्वधारी मुनिः १३०० भवधिज्ञानधारी मुनि, ९०० ऋद्धिविक्रिया युक्त श्रमण, ५०० चार ज्ञानके धारी; ७०० केवलज्ञानी; ९०० अनुत्तरवादी । इस तरह भी सब मिलकर १४०००
मुनि थे।
० ४०
१-मम० पृ० १८१ । २-हरि० पृ० २. (सर्ग ३ ४६) ३-हरि० पृ. २० ।
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१३२ ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
शास्त्रोंसे भी प्रकट है । किन्तु इन दोनों मुनियोंके सम्बन्धमें कहा गया है कि वह बौद्ध होगये थे, सो ठीक नहीं है । यह जैन मान्यता के विरुद्ध है । सचमुच भगवान महावीरजीका प्रभाव म० बुद्ध और उनके शिप्योपर वेढब पड़ा था। यहांतक कि वह जैन मुनियोंकी देखादेखो अपनी प्रतिष्ठा के लिये नन भी रहने लगे थे; ' क्योंकि उस समय नन्नता ( दिगम्बर भेष ) श्री मान्यता विशेष थी।
वीरसंघका दूसरा अंग साध्वियों अथवा आर्यिकाओंका था । चन्दना आदि दिगम्बर जैन शास्त्रो में इनकी संख्या छत्तीसहजार आर्थिका । बसाई गई है । यह विदुषी महिलायें केवल एक सफेद साड़ीको ग्रहण किये गर्मी और जाडेको घोर परीषह सहन करती हुई अपना आत्मकल्याण करतीं थीं और लोगोको सन्मार्गपर लगाती थीं । वह भी मुनियोंके समान ही कठिन व्रत, संयम और आत्मसमाधिका अभ्यास करती थी। सांसारिक प्रलोभन उनके लिये तुच्छ थे । उनके ससर्गसे वे अलग रहती थीं । इन 1 मार्यिकाओंमें सर्वेप्रमुख राजा चेटककी पुत्री राजकुमारी चंदना थी; जिसका परिचय पहिले लिखा जाचुका है। चन्दनाकी मामी यशस्वती मार्यिका भी विशेष प्रख्यात् थी । चंदनाकी बहिन ज्येष्ठ ने इन्हींसे जिन दीक्षा ग्रहण की थी । इन मार्यिकाओका त्यागमई जीवन पूर्ण पवित्रताका आदर्श था। वे बड़ी ज्ञानवान और शास्त्रोंकी
१ - इसे जे० पृ० ३६ । २-३० भा० ९ पृ० १६२ । ३-मम० पृ० १२० व हरि० पृ० ५७९ में २४००० बताई है । उपु० पृ० ६१६ में ३६००० है ।
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२४०] संक्षिप्त जैन इतिहास । महावीरजीके नन्म होनेके पहिले दी बालग वर्गकी प्रधानता थी। उसने शेप वर्णो के सब ही अधिधार हथिया लिये थे । अपनेको पुजवाना और अपना बर्थमापन करना उसका मुख्य ध्येय था। यही कारण था कि उस समय बामणोडे मतिरिक्त किसीको भी धर्मकार्य और वेदपाठ करनेकी माजा नहीं थी। वाह्मणेतर वर्णोके लोग नीचे समझे जाते थे। शूद्र और सियोको मनुष्य ही नहीं समझा जाता था। किन्तु इस दशासे लोग ऊब चले-उन्हें मनुप्योंमें पारस्परिक ऊच नीचा भेद अखर उठा । उधर इतने में ही भगवान पार्श्वनाथका धर्मोपदेश हुमा और उपसे जनता अच्छी तरह समझ गई कि मनुष्य मनुप्पमें प्राकृत कोई भेद नहीं है। प्रत्येक मनुष्यको आत्म स्वातत्र्य प्राप्त है। कितने ही मत प्रर्वतक इन्हीं बातोंका प्रचार करने के लिये अगाडी आगये। मैनी लोग इस आन्दोलनमें अग्रसर थे।
साधुओंकी बात नाने दीजिये, श्रावक तक लोगोसे जातिमूदता अथवा जाति या कुलमदको दूर करने के साधु प्रयत्न करते थे। रास्ता चलते एक श्रावका समागम एक ब्राह्मणसे होगया । ब्राह्मण अपने जातिमदमें मत्त थे; किन्तु श्रावकके युक्तिपूर्ण वच• नोंसे उनका यह नशा काफूर होगया। वह जान गये कि "मनुष्यके
शरीरमें वर्ण आकृतिके भेद देखनेमें नहीं पाते हैं, जिससे वर्णभेद हो; क्योंकि ब्राह्मण आदिका शूदादिके साथ भी गर्भाधान देखने में माता है। असे गौ. घोड़े आदिकी जातिका मेद पशुओंमें है, ऐसा जातिभेद मनुष्योमें नहीं है, क्योंकि यदि भाकारमेद होता तो
१-मम० पृ. ४७-५६ । २-ममबु० पृ० १५-१७ ।
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१४८ संक्षिप्त जैन इतिहास । भगवान महावीरके समयमें भारतके पुरुष ऐसे ही कला कुशल और विद्वान थे। वह लोग बालको, जहां वह पांच वर्षका हुमा, विद्याध्ययन करने में जुटा देते थे किन्तु उप्त समयकी पठन पाठन प्रणाली आजसे बिल्कुल निराली थी। तब किसी एक निर्णीत ढांचे के पढ़े-लिखे लोग विद्यालयोंसे नहीं निकाले जातेथे और न
आमलकी तरह 'स्कुल' अथवा 'कालेज' ही थे। उस समयके विद्वान् ऋषि ही वालकों की शिक्षा दीक्षाका भार अपने ऊपर लेते थे। सर्व शास्त्रों और कलाओमें निपुण इन ऋषियोंके आश्रममें नाकर विद्यार्थी युवावस्थातक शास्त्र और शस्त्रविद्या निष्णात हो वापिम अपने घर आते थे। तक्षशिला और नालंटाके विद्या आश्रम प्रसिद्ध थे। जैन मुनियों के आश्रम भी देशभरमें फैले हुए थे। विदेहमें धान्यपुरके समीप शिखर भूधर पर्वतपरके जैन आश्रममें प्रोतकर कुमार विद्याध्ययन करने गये थे। मगध देशमें ऋषि गिरिपर भी जैन मुनियोंकी तपोभूमि थी।
ऐसे ही अनेक स्थानोंपर माश्रमोमें उपाध्याय गुरु बालकबालिकाओंको समुचित शिक्षा दिया करते थे । विद्यार्थी पूर्ण ब्रह्मचर्यसे रहते थे जिसके कारण उनका शरीर गठन भी खूब अच्छी वाह होता था। विद्याध्ययन कर चुकनेपर युवावस्था में योग्य कन्याके साथ विवाह होता था। किन्तु विवाहले पहिले ही युवक अर्थोपाजनके कार्य में लगा दिये जाते थे। इसके साथ यह भी था कि कई युवक आत्मकल्याण और परोपकारके भावसे गृहस्थाश्रममें जाते ही
१-अप्र० पृ. २३१ ॥२-उपु० पृ. ७२०-७३५५ ३-मनि. भा. १ पृ. ९१-९३ | ४-० पृ० २२६-२२७ ।
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१५६ । साक्षप्त जन हातहास । अनेन तपस्वीको जैनधर्मका उपदेश देकर जनी बनाया था। इसी तरह उन्होंने एक अन्य गरीव शूद्र वर्णके मनुष्यको मनधर्मका श्रद्धानी बनाकर उसे अपने माभूषण आदि दिये थे।
गृहस्थ धर्मका पालन करनेका अधिकार प्रत्येक प्राणीको था। श्रावक लोग नवदीक्षित जैनी के साथ प्रेममई व्यवहार करके वात्स. त्यधर्मकी पूर्ति करते थे। उसके साथ जातीय व्यवहार स्थापित करने थे। जिनदत्त सेठने बौद्धधर्मी समुद्रदत्त सेठके जैन होजानेपर उसके साथ अपनी कन्या नीली का विवाह किया था। खानपानमें शुद्धिका ध्यान रखा जाता था, किन्तु यह बात न थी कि किसी इतर वर्णी पुरुपके यहाके शुद्ध भोजनको ग्रहण कानेसे किसीका धर्म चरा जाता हो । राजा उपश्रेणिकने मील न्यासे शुद्ध भोजन बनवाकर ग्रहण किया था। (माझ. मा. २४० ३३) जैन मदिरोंका द्वार प्रत्येक मनुष्य के लिये खुला रहता था। चम्पाके बुद्धदास और बुद्धसिंह मैन मंदिरके दर्शन करने गये थे और अंतमें वह जेनी होगये थे। पशु तक भगवानका पूजन कर सक्त थे। कुमारी कन्याको पत्नीवत ग्रहण करके उसके साथ रहनेवाले पुरुषके यहा मुनिराजने आहार लिया था। मानल ऐसे व्यक्तियोंको 'दमा' कहकर धर्माराधन करनेसे रोक दिया जाता है। किंतु उस समय 'दस्सा' शव्दका नामतक नहीं सुनाई पड़ता था। किसी भी व्यक्तिके धर्मकार्यों में बाधा डालना उस समय अधर्मका कार्य समझा जाता था। और न उस समय अग्नि पूना, तर्पण भादिको धर्मका अंग
१-क्षत्रचूडामणि लम्ब ६ श्लो० ७-९वलम्ब ७० २३-३० । २-आक० मा० २ पृ० २०१३-सको० पृ० १०५।।४-उपु० पृ० ६४२ ।।
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२६४] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
उधर विबुध श्रीघरकी कथासे नरवाहन रानाका जैन सम्बंध प्रगट है जिसके अनुसार दिगम्बर जैन सिद्धांत ग्रन्थोंके उद्धारक मुनि भूतबलि नामक माचार्य वही हुए थे। नहपानका एक विरुद्ध 'भट्टारक' था और यह शब्द जैनोंमें रूढ़ है । तथापि नहपानके उत्तराधिकारियोंमें क्षत्रप रुद्रसिंहका जैनधर्मानुयायी होना प्रगट है।' मतएव नरवाहना नहपान होना और उन्हें जैनधर्मानुयायो मानना उचित प्रतीत होता है । इस अवस्थामें पूर्वोक्त पहले दो मौके अनुप्तार वीर निर्वाण शकाव्दसे ४६१ वर्ष अथवा ६०५ वर्ष ९ मास पूर्व मानना ठीक प्रमाणित नहीं होता; क्योंकि जैन शास्त्रोंका शकराजा शक संवतका प्रवर्तक नही था, वह नहपान था।
तीसरा मत प्रो० मॉल चारपेन्टियरका है, जिसका स्थापन निर्वाणकाल ई० पू० उन्होने 'इन्डियन एन्टीक्वेरी' भा० ४३
४६८ नही होसका। में किया है। उनके मतसे वीर-निर्वाण ई०पू० ४६८में हुमा था। उनने अपने इस मतकी पुष्टि में पहले ही दिगम्बर और श्वेताम्बरोके उप्त मतके निरापद होनेमें शङ्का की है, जिसके अनुसार सन् ५२७ ई० पूर्व वीरनिर्वाण माना जाता "है। किन्तु इसमें नो वह दिगम्बरोके अनुसार विक्रमसे ६०५ वर्ष पूर्व वीरनिर्वाण बतलाते हैं, वह गलत है। किसी भी प्राचीन दिगम्वरग्रंथम विक्रमसे ६०५ वर्ष पहले वीर निर्वाण होना नहीं
-सिद्धावसारादि संग्रह, पृ. ३१६-३१८ 10-15०, पृ० १०३ । ३-ऐ०, भा० २० पृ० ३६३ | ४-त्रिलोकसार गा० ८५०-त्रिलो. कसारके टीकाकार एव उनके वादके लोगोको शकराजासे मतलय विक्रमादित्यसे भ्रमवश था। अप्रलमें वह नहपानका द्योतक है।
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भगवान महावीरका निर्वाणकाल । [ १६५
लिखा है; बल्कि विक्रमके जन्मसे ४७० वर्ष पहले महावीरका : मोक्षगमन बताया गया है । शायद प्रो० सा० को यह भ्रम, उपरान्तके कतिपय जैन लेखकोंके अनुरूप, 'त्रिलोकसार' की ८५०वीं गाथाकी निम्न टीकासे होगया है; जिसमें शक राजाको 'विक्रमाङ्क' कहा है। " श्री वीरनाथनिवृते सकाशात पंचोत्तरपट्शतवर्षाणि पंचमासयुतेन गत्वा पश्चात् विक्रमाङ्कशकरानो जायते । " यहांपर विक्रमाक शक राजाका विशेषण है। वह विक्रमादित्य राजाका खास नामसूचक नहीं है । इस कारण त्रिलोकसारके मतानुसार विक्रमसे ६०५ वर्ष ५ मास पहले वीर निर्वाण नहीं माना जासक्ता और वह शकाब्दसे भी इतने पहले हुआ नही स्वीकार किया जासक्ता; यह पहले ही लिखा जाचुका है। श्वेताम्बरोंके ग्रन्थ 'विचारश्रेणि' की विक्रमसे ४७० वर्ष पूर्व वीर निर्वाण हुआ प्रगट करनेवाली गाथाओंका समर्थन उससे प्राचीनग्रंथ ' त्रिलोकप्रज्ञप्ति ' से होता ही हैं और उधर बौद्ध सं० ई० पूर्व ५४३ से प्रारम्भ हुमा खारवेल के शिलालेखसे प्रमाणित है। इसलिये वह ई० पू०४७७ में नहीं माना जासक्ता । तथापि उसके साथ वीर निर्वाण संवत् ई० पू० ४६८ से मानना भी बाधित है; क्योंकि यह बात बौद्धशास्त्रोंसे स्पष्ट है कि म० बुद्धके जीवनकालमें ही म० महावीरका निर्वाण होगया था। उक्त प्रो० सा० इस असम्बद्धताको स्वयं स्वीकार करते है । मि० काशीप्रसाद जायसवालने प्रो० सा०के इस मलका निरसन अच्छी तरह कर दिया है। अतएव इस मतको मान्यता देने में भी हम असमर्थ हैं !
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१ - जविओोसो ०, मा० १ ० ९९-१०५ । २- मज्झिम० २१२४३ व दीनि० भा० ३ पृ० १ । ३-ईऐ० भा० ४९ पृ० ४३०००
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१६६] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
चौथा मत श्रीयुत पं० नाथरामनी प्रेमीका है और उसके विक्रमासे ५५० पूर्व अनुसार विक्रमान्दसे १५० वर्ष पहले वीर मी निर्वाणकाल प्रभू मोक्ष गये प्रगट होते हैं। इस मतका
नहीं होसक्ती। आधार श्री देवसेनाचार्य और श्री ममि. तगतिमाचार्यका उल्लेख है जिनमें समयको निर्दिष्ट करते हुए 'विक्रमनृपकी मृत्युसे' ऐसा उल्लेख किया गया है। होसक्ता है कि इन आचार्योंको विक्रमसंवतको उनकी मृत्युसे चला मानने में कोई गलती हुई हो, क्योंकि विक्रमकी मृत्युके बाद प्रना द्वारा इस संवतका चलाया जाना कुछ जीको नहीं लगता। 'त्रिलोकमज्ञप्ति' आदि प्राचीन ग्रन्थों में इस मतका उल्लेख नहीं मिलता है। यदि इस मतको मान्यता दीजाय तो सम्राट् मनातशत्रुके राज्यकालमें भगवान महावीरका निर्वाण हुआ प्रगट नहीं होता और यह बाधा पूर्वोक्त तीन मतोंके सम्बन्ध भी है। दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन अन्थों एवं चौद्धोंके शास्त्रोंसे यह विल्कुल स्पष्ट ही है कि महावीरजीके निर्वाण समय मनातशत्रुका राज्य था। उसके राज्यके अंतिम भागमें यह घटना घटित हुई थी। अजातशत्रुका राज्यकाल सन् ९५२ से ११८ ई० पू० अथवा सन् १५४ से ५२७ ई० पू० प्रगट है। विक्रमाव्दसे ५५० वर्ष पूर्व भगवानका मोक्षलाभ माननेसे वह सम्राट् श्रेणिकके राज्यकालमें हुभा घटित होता है और यह प्रत्यक्षा बाधित है। अतः इस मतको स्वीकार कर लेना भी कठिन है।
१-दर्शनसार पृ० ३६-३७।२-जविभोसो०, भा०१पृ०५-११५ व उपु० । -जविभोसो०, भा० १ पृ९९-११५ ५ महिहं०, पृ. ३४-३
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भगवान महावीरका निर्माणकाल। [१६७
पांचवें मतके अनुमार शकाव्दसे ७४१ वर्ष पहले वीर भगशकन्दिसे ७४१ वर्ष वानका निर्वाण हुआ प्रगट होता है। उस पूर्व भी भ्रांतमय है। मतका प्रतिपादन दक्षिण भारतके १८ वीं शताकि शिलालेखोमें हुआ है । जैसे दीपनगुड़ीके मंदिरवाले बड़े शिलालेखमें इसका उल्लेख यू है,' " वद्धमानमोक्षगताब्दे मटत्रिशदधिपंचशतोत्तरद्विसहस्रपरिंगते शालिवाहनशककाले सप्तनवतिसप्तशतोत्तरसहत्तवर्षसमिते भवनाम सवत्सरे" इसमें शाका ११९७में वीर सं० २५५८ होना लिखा है। वर्तमान प्रचलित स से इसमें १३७ वर्षा मन्तर है। इस अन्तरका कारण त्रिलोकसारके ८५०वें नं०की गाथाकी टीका है, जैसे कि हम ऊपर बता चुके हैं। दक्षिण भारतके दिगम्बर जैन इतिहास ग्रन्थ 'रामा वलीकथे से भी इसका समर्थन होता है। उसमें लिखा है कि 'महावीरनी मुक्त हुये तब कलियुगडे २४३८ वर्ष बीते थे और विक्रमसे ६०५ वर्ष पूर्व वह मुक्त हुये थे।२ उपरोक्त टीकाके कथनसे भ्रममें पड़कर ऐसा उल्लेख किया गया है और इस भ्रमात्मक मतको भला कैसे स्वीकार किया जासक्ता है ?
मंतिम मत है कि विक्रम जन्मसे ४७० वर्ष पहले महावीरअन्तिम मत स्वामीका निर्वाण हुमा था। और इस मतके अनुमान्य है। सार ही आजकल जैनोंमें वीरनिर्वाण संवत प्रचलित है। यह संवत् ताना ही चला हुमा नहीं है बल्कि प्राचीन साहि- त्यमें भी इसका उल्लेख मिलता है। किन्तु इसकी गणनामें पहलेसे
१-ममैप्राजैस्मा०, पृ० ९८-९९ । २-जनमित्र, वर्ष ५ अंक 1 पृ. ११-१२। ३-डाकाके लिखे हुएके गुटके में इसका उल्लेख है।
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१९८] संक्षिप्त जैन इतिहास । ही मुल हुई है। उसको देखने के लिये यहाँपर उन प्रमाणोंको उपस्थित करना उचित है, जिनके आधारसे यह गणना हुई है:(१) सत्तरि चदुसदजुत्तो तिणकाला विकमो हवइ जग्मी। अठवरस सोडसवासेहि भम्मिए देखे ॥ १८ ॥
नदिसंघ पटावली (जसिमा०, कि०४ पृ० ७५) (२) सत्चरि चदुसदजुत्तो तिणकाले विको हवइ जम्मा।
अठवरस वाललीला, साडसबासेहि भम्मये देखो। रसपण वीसा रज्जो कुणति मिच्छोपदेश संजुत्तो। चालीस वरस जिनवर धम्मे पालेय सुरपयं लहियं ॥
॥विक्रम प्रबंध ॥ (३) सरस्वती गच्छकी पट्टावलीकी भूमिका स्पष्टरूपसे वीर निर्वाणसे ४७० वर्ष बाद विक्रमका जन्म होना लिखा है; यथा-- "बहुरि श्री वीरस्वामीकू मुक्ति गये पोछे च्यारसौ सत्तर ४७० वर्ष गये पीछे श्रीमन्महाराज विक्रम राजाका जन्म भया।" (४) रणि कालगो अरिहा तित्थंकरी महावीरी।
तं रणि अति वई अभिसित्तो पालयो रायो । सट्टी पालग रन्ने पण पण्णसं यतु होई नंदाणं । अट्ठसयं मुरियाणं तीसचिम पुस्समिसस्स । चलमित्त-मानुमित्तो सट्ठी वरिसाणि चत्तं नरवाहणे । तह गहमिल्ल रन्तो तेरसवरिसा सगस्स च ॥
-तीर्थोवार प्रकीर्ण । (१) वसुनदि श्रावकाचाग्में विक्रम शकसे ४८८ वर्ष पूर्व महावीर निर्वाण होना लिखा है। (देखो जैनमित्र, वर्ष ५ अंक १११० ११-१२)।
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भगवान महावीरका निर्वाणकाल । [१६९ उपरोक्त सबही उल्लेखोंमें प्रायः भगवान महावीरसे ४७० वर्ष वाद विक्रमराजाका जन्म होना लिखा है और वर्तमान विक्रम संवत उनके राज्यकालसे चला हुभा मिलता है। यही कारण है कि वसुनंदि श्रावकाचारमें विक्रमसंवतसे ४८८ वर्षपूर्व वीरनिर्वाण हुमा निर्दिष्ट किया गया है, क्योंकि विक्रमके जन्मसें राज्याभिपेकको कालान्तर १८ वर्षका माना जाता है। इस अवस्था में प्रचलित वीरनिर्वाण संवत्का संशोधन होना आवश्यक प्रतीत होता है। शायद उपरोक्त प्रमाणोंमें नं० ४ पर आपत्ति की नाय, जिसमें चीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष बाद शकरानाका राज्यान्त होना लिखा है। किन्तु यह बात ठीक नहीं है। यहांपर शकरानासे भाव शकारिराजा विक्रमादित्यसे प्रगट होता है। डॉ. जैकोबी भी यही बात प्रगट करते हैं। यदि ऐसा न माना जाय और शकराजा भाव शक संवत प्रवर्तकके लिये जाय, तो उक्त गणनाके अनुसार चंद्रगुप्त मौर्यका मभिषेक काल ई० पूर्व १७७ वर्ष माता है और यह प्रत्यक्ष वाधित है। साथ ही उपरोक्त गाथाओंका गणनाक्रम आपत्तिजनक है, जैसे हमने भन्यत्र प्रगट किया है। मालूम होता है कि विक्रमसे ४७० वर्ष पूर्व वीर निर्वाण बतलानेके लिए श्वेतांवराचार्योने अपने मनोनुकूल उक्त गाथाओका निरूपण कर दिया है। इस दशामें यह नहीं कहा जासका कि उनको विक्रमके जन्म राज्य अथवा मृत्युसे ४७० वर्ष पूर्व बीर निर्वाण मान्य था। किन्तु अवशेष मौके समक्ष विक्रमके जन्मसे ४७० वर्ष पूर्व वीरनिर्वाण' हुआ मानना ठीक है।
१-मदनकोष व भामाए० । २-जैसा सं० । ३-वीर, वर्ष ६५ ,
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१७० ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
इस गणना के अनुसार अर्थात् विक्रमके जन्मसे १७० वर्ष निर्वाणकाल ई० पू० पूर्व (५४५ ई० पू० ) वीर निर्वाण मान५४५ मे था। नेसे, उसका अजातशत्रुके राज्य कालमें ही होना ठीक बैठता है और म० बुद्धका तब जीवित होना भी प्रगट है | अतः यह गणना तथ्यपूर्ण प्रगट होती है। गायद यहापर यह मापत्ति की जाय कि चूंकि अजातशत्रुका राज्यकालका अतिम वर्प ई० पूर्व ५२७ है और म० बुन्द्रकी देहात तिथिका शुद्धरूप ई०
० पृ० ४८२ विद्वानोंने प्रगट किया है; इसलिये वीर निर्वाण कोई ई० पूर्व ५२७ वर्षमें हुआ मानना ठीक है । किन्तु पहिले तो यह आपत्ति उपरोक्त शास्त्रलेखोंसे बाधित है । दूसरे जातशत्रु वीर निर्वाणके कई वर्ष उपरांत तक जीवित रहा था, यह बात जैन एवं बौद्ध ग्रन्थोंसे प्रगट है । इसलिये उनके अंतिम राज्यवर्ष ई० पूर्व ५२७ में वीर निर्वाण होना ठीक नहीं जंचता । साथ ही यदि म० बुद्धकी निधन तिथि १८० वर्ष ई० पू० थोड़ी देरके लिये मान भी ली जाय तो भगवान महावीरके उपरांत इतने लम्बे समय तक उनका जीवित रहना प्रगट नहीं होता । अन्यत्र हमने भगवान महावीर और म० बुद्धकी अंतिम तिथियों में केवल दो वर्षोका अन्तर होना प्रमाणित किया है । डॉ० हाणले सा• इस अन्तरको अधिक से अधिक पांच वर्ष बताते हैं; परन्तु म बुद्ध और भ० महावीरके जीवन सम्बंधको देखते हुये, यह अन्तर कुछ अधिक प्रतीत होता है । म० महावीर के जीवनमें केवलज्ञान
१ - जयिओोस्रो ०, मा० १ १० ९९-११५ व उपु० । २-वीर, वर्ष ६ । ३-आजीविक इरिह० |
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भगवान महावीरका निवणकाल । [१७१ प्राप्त करनेकी घटना मुख्य थी, इस हमारी गणनाके अनुसार उस समय म० बुद्धकी अवस्था ४८ वर्षकी प्रगट होती है और इसका समर्थन उस कारणसे भी होता है, जिसकी वजह से मबुद्धक ५० से ७० वर्षके मध्यवर्ती जीवन घटनाओं का उल्लेख ही नहीं बराबर मिलता है।
बात यह है कि भगवान महावीरके सर्वज्ञ होने और धर्मप्रचार प्रारम्भ करनेके पहलेसे ही म० बुद्ध अपने मध्यमार्गका प्रचार करने लगे थे, जैसे कि बौद्ध ग्रंथोसे भी प्रगट है।' मतएव दो वर्षके भीतर २ भगवान महावीरके वस्तु स्वरूप उपदेशका दिगन्तव्यापी होना प्राकृत सुमंगत है । और भगवान महावीरके प्रभावके समक्ष उनका महत्व क्षीण होनाय तो कोई आश्चर्य नहीं है । यह बात हम पहले ही प्रगट कर चुके हैं और इसका समर्थन स्वयं बौद्ध ग्रन्थोंसे होता है। अतएव उपरोक्त गणना एवं म० महावीर
और म० बुद्धके परस्पर जीवन सम्बन्धका ध्यान रखते हुये म० बुद्धको निधन-तिथि ई० पूर्व ४८२ या ४७७ स्वीकार नहीं की नासक्ती ! बल्कि हमारी गणनासे प्रगट यह है कि म. महावीरसे छ वर्ष पहले म० बुद्धका जन्म हुमा था और उनके निर्वाणसे दो वर्ष बाद म. बुद्धकी जीवनलीला समाप्त हुई थी। वेशक बौद्ध शास्त्रोमें म० बुद्धको उप्त समयके मत-प्रवर्तकोंमें सर्वलघु लिखा है; किन्तु उनका यह कथन निर्वाष नहीं है, क्योंकि उन्हींक एक अन्य शास्त्रों में म० बुद्ध इस बातका कोई स्पष्ट उत्तर देते नहीं
१-मनि० मा० १ पृ. २२५, सनि० भा० ११ पृ० ६६ "वीर" . वर्ष ६ । २-भमबु. पृ० १०३-११० ।
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१७२] संक्षिप्त जैन इतिहास । मिलते कि वे सर्वलघु हैं । इससे यह ठीक जंचता है कि मायुमें भ० महावीरसे म० बुद्ध अवश्य बड़े थे; परन्तु एक मतप्रवर्तककी भांति वह सर्वरघु थे, क्योंकि अन्य सब मत म० बुद्धसे पहलेके थे ! इसप्रकार भ० महावीरका निर्वाण म. बुद्धके शरीरान्तसे दों वर्ष पहले मानना ठीक है और चूंकि चौद्धोंमें म० दुद्धका परिनिव्वान ई० पूर्व ६४३ वर्षमें माना जाता है, इसलिये भ० महावीरका निर्वाण ई० पूर्व ५४६में मानना मावश्यक और उचित है । जैसे पहिले भी यही अन्यथा प्रगट किया जाचुका है।।
दिगम्बर जैनशास्त्रोंके कथनसे भी भ. महावीरकी जीवन दि. जैन शालोले घटनाओछा उक्त प्रकार होना प्रमाणित है। ___ उक्त मतका यह लिखा जाचुका है कि अणिक विम्वप्तारकी समर्थन होता है। मत्य भ० महावीरके जीवन में ही होगई थी और उनके बाद कुणिक अजातशत्रु विधर्मी होगया था, जिसे भ. महावीरके निर्वाणोपरान्त श्री इन्द्रमृति गौतमने जैनधर्मानुयायी बनाया था। इतिहाससे श्रेणिका मृत्युकाल ई० पू० ५१२ प्रकट है । तथापि सं० १८२७की रची हुई 'श्रेणिकचरित्र' की भाषा वचनिकामें है कि:" श्रेणिक नीति सम्भालकर, करे राज अविकार। वारह वर्ष जु वौद्धमत, रहा फर्मवश धार ॥५२॥ चारह वर्ष तने चित धरो, नन्दप्राम यह मारग करो। तह थी लेठि साथि चालियो, तब वेणक नगर आयियो ॥५३॥ नन्दनी परणी सुफुमाल, वर्ष दूसरे रह सुवाल । सात वर्ष ब्रमण धर रहे, पाछे आप राजसंग्रहे ॥५॥ १-मुस्तनिपात (S. B.E,X) पृ० ८७ व भमबु• पृ० ११०॥
बचनिकास नीति सम्भाला हा के
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भगवान महावीरका निर्वाणकाल। [१७३ नन्दधोने विसरी राय, तीन वर्ष जु पिता घर थाय । आठ वर्षना अमयकुमार, राजगृही आयो चितधार ॥१५॥ चार वर्षमे न्याय जु किया, बारह वर्षतणां युव भया। श्रेणिक वर्ष छवीस मंझार, महावीर केवलपद धार ॥५६॥
___ अधिकार १५ ।' इससे प्रकट है कि श्रेणिकको १२ वर्षकी उम्र में देशनिकाला हा और रास्तेमें वह बौद्ध हुये । दो वर्ष तक नन्दश्रीके यहां रहे। बादमें ७ वर्ष उनने भ्रमणमें बिताये और २२ वर्षको उनमें उन्हें राज्य मिला | तथापि उनकी २६ वर्षकी अवस्थामें भगवान महावीरको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। इससे प्रत्यक्ष है कि भ० महावीरके सर्वज्ञ होने और धर्मप्रचार भारम्भ करने के पहले ही म बुद्ध द्वारा बौद्धधर्मका प्रचार होगया था। यही कारण है कि देशसे निर्वासित होनेपर श्रेणिक बौद्ध होसके थे। इस दशामें न शास्त्रानुसार भी हमारी उपरोक जीवन-संबंध व्याख्या ठीक प्रगट होती है। साथ वीर निर्वाणकाल ई० पूर्व ५४५ माननेसे म०का केवलज्ञान प्राप्ति समय ई०पू० ५७५ ठहरता है । इस समय श्रेणि. ककी अवस्था २६ वर्षकी थी अर्थात् श्रेणिकका जन्म ई०पू० ६८० में प्रगट होता है। राज्यारोहण कालसे २८ वर्ष उपरान्त राज्यसे मलग होकर उनकी मृत्यु हुई माननेपर ई० पू० ६९२ उनका मरणकाल सिद्ध होता है । इतिहाससे इस तिथिका ठीक सामञ्जस्य बैठता है। अतएव भगवान महावीरका निर्वाणकाल ई. पु० ५४६ मानना उचित है। वर्तमान प्रचलित वीरनिर्वाण संवतका शुद्ध रूप २४७० होना उचित है।
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१८०] संक्षिप्त जैन इतिहास।
(६) नन्द कशा
( ई० पूर्व ४५९-१२६) शिशुनागवंशके अंतिम दो रानाओं-नन्दवर्द्धन और महान
न्दिका उल्लेख पहिले किया जाचुका है किन्तु इनके नव-नन्द।
नामके साथ 'नन्द' शब्द होनेके कारण, यह नन्द. वंशके राजा अनुमान किये जाते है। नंदवंशमें कुल नौ राजा अनुमान किये जाते है। किन्तु मि० जायसवाल 'नव-नन्द' का अर्थ 'नवीन-नन्द' करते हैं। इस प्रकार नन्दवर्द्धन और महानंदि तथा महादेवनन्द व नन्द चतुर्थ प्राचीन नंदराजा ठहरते है । क्षेमेन्द्रके 'पूर्वनन्दाः ' उल्लेखसे भी इनका प्राचीन नन्द होना सिद्ध है। नवीन नंद राजाओं में कुल दोका पता चलता है। इस प्रकार कुल छै राना नंदवंशमें हुये प्रगट होते है । कवि चन्दबरदाई (१२ वी श० ई.) ने 'नव' का अर्थ नौ किया था, किन्तु वह भ्रम मात्र है। हिन्दुपुराणों के अनुसार नंदवंशने १०० वर्ष राज्य किया था। किन्तु जैनग्रन्थों में उनका राज्यकाल १५५ वर्ष लिखा मिलता है।
१-जविओसो, भा० १ पृ ८७-सिकन्दर महानको वृपल नन्द सिंहासन पर मिला था (३२६ ई० पू०) और चन्द्रगुप्तने दिसम्बर ई. पू. ३२६ में अतिम नन्दको परास्त किया था। इस कारण मि० जायसवाल एक महीनेमें माठ राजाओंका होना उचित नहीं समझते । २-अहिह पृ. ४५ । -जविओसो, भा० १ पृ. ८९...व भाप्रारा० भा० २ पृ. ४३ | ४-हरि० भूमिका पृ० १२ व त्रिलोक्प्रज्ञप्ति गाथा ९६-(पालकरज्ज सहि इगिसय पणण्ण विजयवसंमत्रा।) जैन ग्रंथोंमें इस वशका नाम 'विजयवश' लिखा है।
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१८८] संक्षिप्त जैन इतिहास । यूनानी सभ्यताको ग्रहण नहीं किया था। सिकन्दरका भारतमाक्रमण एक तेज आंधी थी; जो चटसे मारतके उत्तर पश्चिमीय देशसे होती हुई निकल गई । उससे भारतका विशेष अहित भी नहीं हुआ था। यही कारण है कि भारतवासी सिकन्दरको शीघ्र ही भूल गये थे। किसी भी ब्राह्मण, जैन या चौद्धग्रंथमे इस माक्रमणका वर्णन नहीं मिलता है। किंतु इम आक्रमणका फल इतना
अवश्य मानना पड़ेगा कि इसके द्वारा संसारकी दो सम्य और । प्राचीन जातियोका सम्पर्क हुआ था। यूनानियोंने भारतवर्षके विद्वा. नोंसे बहुतसी बातें सीखी थीं और यहांके तत्त्वज्ञानका यूनानी दार्शनिकोंके विचारोंपर गहरा प्रभाव पड़ा था। सिकन्दर और उसके साथियों का विशेष संसर्ग दिगम्बर जैन मुनियोंसे हुमा था। परिणामतः यूनानियों में अनेक विद्वान "अहिंसा परमो धर्मः" सिद्धांत पर जोर देनेको तुल पड़े थे । इन लोगोंने जो भारत एवं जैन मुनियो ( Gymnosophists ) के सम्बन्धमें जो बातें लिखी है। उनका सामान्य दिग्दर्शन कर लेना समुचित है। भारतवर्षके विषयमें यूनानियोंने बहुत कुछ लिखा है, मगर खास
... मानने योग्य बातें यह हैं कि वह उस समय भारतकी भारत-वर्णन।
वना जनसंख्या तमाम देशोंसे अधिक बताते हैं, जो अनेक संप्रदायोंमें विभक्त था और यहां विभिन्न भाषायें बोली जाती थीं। एक संपदाय ऐसा भी है कि न उसके अनुयायी किसी जीवित प्राणीको
-पंथागोरस ऐसा ही उपदेश देता था (देसो ऐ० पृ०६५) 'और पोरफेरियस ( Porphyrious) ने मांस निषेध पर एक अन्न लिसा था । (ऐइ० पृ० १६९) । २-ऐइ० पृ० १ ।
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१९६] संक्षिप्त जैन इतिहास ।
यूनानियोने इन नग्नसाधुओंमें मन्दनीस और कलोनस नामक दिगम्बर जैन साध दो साधुओंकी बड़ी प्रशंसा की है। इनको मन्दनीस और उन्होंने ब्राह्मण लिखा है और इस अपेक्षा
फलोनस । किन्हीं लेखकोंने उनका चरित्र वैदिक ब्राह्मगोंकी मान्यताओके अनफल चित्रित किया है। किंत उनको सबने नग्न बतलाया है । तथापि कलोनसको नो देशलोंच भादि करते लिखा है, उससे स्पष्ट है कि ये साधु जैन श्रमण थे। एक यूनानी देखकने फलोनसको ब्राह्मण पुरोहित न लिखकर 'श्रमण' बतलाया भी है। अतः मालम ऐसा होता है कि जन्मसे ये ब्राह्मण होते हुये भी जैन धर्मानुयायी थे। इनका मूल निवास तिहूतमें थी। सिकन्दर जब तक्षशिलामें पहुंचा तो उसने इन दिगम्बर साधुओंकी बड़ी तारीफ सुनी। उसे यह भी मालूम हुमा कि वह निमंत्रण स्वीकार नहीं करते । इसपर वह खुद तो उनसे मिलने नहीं गया; किंतु अपने एक अफसर ओनेसिक्रिटस (Onesikritos)को उनका हालचाल लेने के लिये भेना | तक्षशिलाके वाहर थोड़ी दूरपर उस अफसरको पन्द्रह दिगम्बर साधु असह्य धूपमें कठिन तपस्या करते मिले थे। फलोनस नामक साधुसे उसकी वार्तालाप हुई थी। यही साधु यूनान जाने के लिये सिकन्दरके साथ हो लिया था। मालूम होता है कि 'कलोनस' नाम संस्कृत शब्द 'कल्याण का अपभ्रंश है।
-विशेषके लिये देखो वीर, वर्ष ६। २-ऐइ०, पृ. ७२॥ ३-ऐरि० भा० ९ पृ. ७०। ४-ऐइ०, पृ० ६९। ५-यूनानी लेखक प्लूटाईका कथन है कि यह मुनि आशीर्वादमें 'कल्याण' शन्दका प्रयोग करते थे। इस कारण कलानस कहलाते थे। इनका यथार्थ नाम 'स्फाइन्न' (Sphines) या। मेऐ१० १० १०६ ।
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सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालिन जैन साधु [१९७ अतः इन साधुका शुद्ध नाम ठीक है, जो जैन साधुओं के नामके समान है।
मुनि कल्याणने इस विदेशीके प्रचण्ड लोभ और तृष्णाके वश हो घोर कष्ट सहते हुये वहां माया देखकर जरा उपहासभाव धारण किया और कहा कि पूर्वकालमें संसार सुखी था-यह देश अनाजसे भरपुर था। वहां दूध और अमृत आदिके झरने वहते थे, किन्तु मानव समाज विषयभोगोंके माधीन हो घमण्डी और उद्दण्ड होगया। विधिने यह सब सामग्री लुप्त करदी और मनुष्यके लिये परिश्रमपूर्वक जीवन विताना (A life of toil) नियत कर दिया । संसारमें पुनः संयम मादि सद् गुणोंकी वृद्धि हुई और अच्छी चीजों को बाहुल्यता भी होगई । किन्तु अब फिर मनुष्यों में असन्तोष और उच्छहलता आने लगी है और वर्तमान अवस्थाका नष्ट होनाना भी आवश्यक है। सचमुच इस वक्तव्य द्वारा मुनि कल्याणने भोगभूमि और कर्मभूमिके चौथे काल और फिर पंचमकालके प्रारंभका उल्लेख किया प्रतीत होता है।
उनने यूनानी अफसरसे यह भी कहा था कि 'तुम हमारे समान कपड़े उतारकर नग्न होजाओ और वहीं शिलापर भासन जमाकर हमारे उपदेशको श्रवण करो। वेचारा यूनानी अफसर इस प्रस्तावको सुनकर बड़े असमंजसमें पड़ गया था; किन्तु एक जैन मुनिके लिये यह सर्वथा उचित था कि वह संसारमें बुरी तरह फंसे हुये प्राणीका उद्धार करनेके भावसे उसे दिगम्बर मुनि होना
-ऐइ०, पृ. ७० । २-ऐइ० पृ० ७० ।
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१९८ ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
नेकी शिक्षा दें । प्रायः प्रत्येक जैन मुनि अपने वक्तव्य के अन्त में ऐसा ही उपदेश देते हैं और यदि कोई व्यक्ति सुनि न होसके तो उसे श्रावक के व्रत ग्रहण करनेका परामर्श देते हैं। मुनि कल्याणने भी यही किया था । किन्तु एक विदेशीके लिये इनमें से किसी भी प्रस्तावको स्वीकार कर लेना सहसा सुगम नहीं था । मुनि मन्दनीस, जो संभवतः संघाचार्य थे, यूनानी अफसरकी इस विकट उल्झनमें सहायक बन गये । उन्होंने मुनि कल्याणको रोक दिया और यूनानी अफसर से कहा कि 'सिकन्दर की प्रशंसा योग्य है । वह विशद् साम्राज्यका स्वामी है, परन्तु तो भी वह ज्ञान पानेकी लालसा रखता है । एक ऐसे रणवीरको उनने ज्ञानेच्छु रूपमें नहीं देखा ! सचमुच ऐसे पुरुषोंसे बड़ा लाभ हो, कि जिनके हाथोंमें बल है, यदि वह संयमाचारका प्रचार मानवसमाजमें करें। और संतोषमई जीवन वितानेके लिये प्रत्येकको बाध्य करे ।
महात्मा मन्दनीसने दुभाषियों द्वारा इस यूनानी अफसर से वार्तालाप किया था । इसी कारण उन्हें भय था कि उनके भाव ठीक प्रकट न होसकें । किन्तु तो भी उनने जो उपदेश दिया था उसका निष्कर्ष यह था कि विषय सुख और शोकसे पीछा कैसे छूटे । उनने कहा कि शोक और शारीरिक श्रममें भिन्नता है । शोक मनुष्यका शत्रु है और श्रम उसका मित्र है । मनुष्य श्रम इसलिये करते हैं कि उनकी मानसिक शक्तियां उन्नत हों, जिससे कि वे भ्रमका अन्त कर सकें और सबको अच्छा परामर्श देसकें । चे तक्षशिला वासियोंसे सिकन्दरका स्वागत मित्ररूपमें करने के लिये
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सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालीन जैन साधु। [१९९ कहेंगे क्योंकि अपनेसे अच्छा पुरुष यदि कोई चाहे तो उसे भलाई करना चाहिये।
इसके बाद उनने यूनानके तत्ववेत्ताओं में जो सिद्धान्त प्रच. लिते थे उनकी बाबत पूछा और उत्तर सुनकर कहा कि 'अन्य विषयोंमें यूनानियोंकी मान्यताएं पुष्ट प्रतीत होती हैं, जैसे अहिंसा मादि, किन्तु वे प्रकृति के स्थानपर प्रवृत्तिको सम्मान देने में एक बड़ी गलती करते हैं। यदि यह बात न होती तो वे उनकी तरह नग्न रहने में और संयमी जीवन बिताने में संकोच न करते क्योंकि वही सर्वोत्तम गृह है, निसकी मरम्मतकी बहुत कम जरूरत पड़ती है । उनने यह भी कहा कि वे (दिगम्बर मुनि) प्रारुतवाद, ज्योतिष, वर्षा, दुष्काल, रोग आदिके सम्बन्ध भी अन्वेषण करते हैं। जब वे नगरमें जाते हैं तो चौराहे पर पहुंचकर सब तितरवितर होजाते हैं। यदि उन्हें कोई व्यक्ति अंगुर मादि फल लिये मिल जाता है, तो वह देता है उसे ग्रहण कर लेते हैं। उसके बदलेमें वह उसे कुछ नहीं देते। प्रत्येक धनी गृहमें वह मन्तः
ऐ० पृ. ७०-७१ सन्तोषी और संयमी जीवन वितानेकी शिक्षा देना, दूसरों के साथ भलाई करनेका उपदेश देना और प्रवृत्तिको प्रधानता देना, जैन मान्यताका द्योतक है। २-इस उल्लेखसे उस समयके मुनियों का प्रत्येक विषयमें पूर्ण निष्णात होना सिद्ध है। ३-यहा आहार क्रियाका वर्णन किया गया है। नियत समयपर संघ आहारके लिये नगरमें जाता होगा और वहा चौराहेपर पहुंचकर सवका अलग २ प्रस्थान कर जाना ठीक ही है। ४-कैसे और कौनसा माहार वे प्रहण करते है । इस प्रश्न . उत्तरमें महात्मा मन्दनीमने यह वाक्य कहे प्रगट होते हैं । जैन साधुको एक पक्ति भक्तिपूर्वक जो भी शुद निरामिष भोजन देता है, उसे ही वह
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२००] संक्षिप्त जैन इतिहास । पुर तक बिना रोकटोके जासक्त हैं। भाचार्य मन्दनीसने सिकन्दरके लिये यह भी उपदेश दिया था कि वह इन सांसारिक सुखोंकी आशामें पड़कर चारों तरफ क्यों परिभ्रमण कर रहा है ? उसके इस परिभ्रमणका कभी अन्त होनेवाला नहीं। वह इस पृथ्वीपर अपना कितना ही अधिकार जमाले, किन्तु मरती बार उसके शरीरके लिये साडेतीन हाथ जमीन ही बात होगी।"
इन महात्माके मार्मिक उपदेश और जैन श्रमणोंकी विद्याध प्रभाव सिकन्दर पर वेढब पड़ा था। उसने अपने साथ एक साधुको मेननेकी प्रार्थना संघनायकसे की थी; किन्तु संघनायकने यह बात अस्वीकार की थी। उन्होंने इन जैनाचार हीन विदेशियों के साथ रहकर मुनिधर्मका पालन अक्षुण्ण रीतिसे होना अशक्य समझा था। यही कारण है कि उनने किसी भी साधुको यूनानियों के साथ जानेकी आज्ञा नहीं दी। किन्तु इमपर भी मुनि ल्याण (फलौनस) धर्मपचारकी अपनी उलट लगनको न रोक सके और वह सिकन्दरके साथ हो लिये थे। उनकी यह क्रिया संघनायकको पसंद न आई और मुनि कल्याणकको उनने तिरस्कार दृष्टिसे देखा था।
भारतसे लौटते हुये जिसप्तमय सिकन्दर पारस्यदेशमें पहुंचा; कलोनसको विदेशमें तो वहाक सुप्ता (Susa) नामक स्थानमें
समाधिमरण'। इन महात्मा फलानसको एक प्रकारकी व्याधि जो अपने देशमें कभी नहीं होती थी होगई। इस समय ग्रहण करते है। उसके बदलेमें वह उसे कुछ भी नहीं देते । भोजनके नियममें वे भक्तजनका कोई भी उपकार नहीं करते।
१-ऐइ० पृ. ७३ । २-जैसि भा०, भा० कि० ४ पृ० ५ ।
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सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालीन जैन साधु। [२०१ वह तेहत्तर वर्षके वृद्ध थे। और फिर रूणदशामें उनके लिये 'जैनधर्मकी प्रथानुसार प्रवृत्ति करना और धर्मानुकूल इन्द्रियदमनकारी भोजनों द्वारा रोगी शरीरका निर्वाह करना असाध्य होगया था। इसलिये उन्होंने सल्लेखना व्रतको ग्रहण कर लेना उचित समझा। यह व्रत उसी मसाध्य अवस्थामें ग्रहण किया जाता है, जबकि -व्यक्तिको अपना जीवन संकटापन्न दृष्टि पड़ता है। मुनि कल्याणकी शारीरिक स्थिति इसी प्रकारकी थी। उनने सिकन्दर पर अपना अभिपाय प्रकट कर दिया। पहिले तो सिकंदर रानी न हुआ; परंतु महात्माको भात्मविर्सन करने पर तुला देखकर उसने समुचित सामग्री प्रस्तुत करनेकी आज्ञा दे दी। पहिले एक काठकी कोठरी बनाई गई थी और उसमें वृक्षोंकी पत्तियां बिछा दीगई थीं। इसीकी छतपर एक चिता बनाई गई थी। सिकन्दर उनके सम्मानार्थ अपनी सारी सेनाको सुसज्जित कर तैयार होगया। बीमारीके कारण महात्मा फलॉनस बड़े दुर्बल होगये थे। उनको काने के लिये एक घोड़ा भेजा गया; किन्तु जीवदयाके प्रतिपालक वे मुनिराज उस घोड़े पर नहीं चढ़े और भारतीय ढंगसे पालकी में बैठकर वहां मा गये। वह उस कोठड़ीमें उनकी व्यवस्थानुसार बन्द कर दिये गये थे। अन्तमें वह चितापर विराजमान हो गये । चितारोहण करती बार उनने मेन नियमानुसार सबसे-क्षमा प्रार्थनाकी भेंट की। तथा धामिक उपदेश देते हुये केशलोंच भी किया।
१-ऐइ०, पृ. ७३॥ २-केशलोच करना, जैन मुनियोका खास नियम है। यूनानियोंने मुनि कल्याणके अंतिम समयका वर्णन एक निश्चित रूपमें नहीं दिया है । चितापर बैठकर समाधि लेना जैन दृष्टिसे ठीक नहीं है। सम्भवतः अपने शवको जलवानेकी नियतसे मुनि कल्याणने ऐसा किया हो।
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२०२] संक्षिप्त जैन इतिहास ।।
उससमय सिकन्दरको यह दृश्य मर्ममेदी प्रतीत हुआ तो भी उसने अपनी भक्ति दिखानेके लिए अपने सभी रणवाद्य बनवाये और सभी सैनिकों के साथ शोसुचक शब्द किया तथा हाथियोंसे भी चिंघाड करवाई | सिकन्दर उनके निकट मिलने के लिये भी आया; किंतु उन्होंने कहा कि "मैं भभी मापसे मुलाकात करना नहीं चाहता; अब शीघ्र ही आपसे मुझे भेंट होगी। इस कथनका भावार्थ उस समय कोई भी न समझ सका। परन्तु कुछ समयके बाद जब सिकन्दर कालकवलित होने के सम्मुख हुमा तो म० कलॉनसके इस भविष्यद्वक्तुत्व शक्तिकी याद सबको होमाई। उस चिताकी धधकती हुई विकराल ज्यालामें महात्मा फलोनसका शरीरान्त होगयाथा। इन जैनमुनिने विदेशियोंके हृदयोंपर कितना गहरा प्रभाव जमा लिया था, यह प्रकट है। सचमुच यदि वह युनान पहुंच जाते तो वहांपर एकवार जैन सिद्धांतोंकी शीतक और विमल जान्हवी बहा देते !
(
१-म० फलॉनसके भविष्यद्वक्स के इस उदाहरणसे उनको अपने "अंतिम समयका ज्ञान हुमा मानना कुछ अनुचित नहीं जचता और वह' चितापर ठीक उसी समय बैठे होंगे; जिस समय उनके प्राण पखेक इस नश्वर शरीरको छोडने लगे होंगे । २-जैसि मा०, मा० १ कि.
पृ. ७.
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श्रुतकेवली भद्रवाहु और अन्य आचार्य। [२०३
० (११)
LA
श्रुताकेवली भगवाहुनी और
अन्य आचार्य
(ई० पू० ४७३-३८३) जम्बूस्वामी अंतिम केवली थे। इनके बाद केवलज्ञान-सूर्य श्री भदवाहजीको इस उपदेशमै मस्त होगया था; परन्तु पांच
समय। मुनिराज श्रुतज्ञानके पारगामी विद्यमान रहे थे। यह नंदि, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु नामकथे।' नंदिके स्थानपर दूसरा नाम विष्णु भी मिकता है। यह पांचों मुनिराज चौदह पूर्व और बारह अंगके ज्ञाता श्री जम्बूस्वामी के बाद सौ वर्षमें हुए बताये गये हैं और इस अपेक्षा अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी ई० पू० ३८३ अथवा ३६५ तक संघाधीश रहे प्रगट होते हैं। किन्तु भनेक शास्त्रों और शिलालेखोंसे यह भद्रबाहुस्वामी मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त के समकालीन प्रगट होते हैं
और चन्द्रगुप्तका समय ई० पृ. ३२६-३०२ माना जाता है। अब यदि श्री भद्रबाहुस्वामीका मस्तित्व ई० पू० ३८३ या ३६५ के बाद न माना जाय तो वह चन्द्रगुप्त मौर्यके समकालीन नहीं होसके हैं।
'उधर तिलोयपण्णति' जैसे प्राचीन ग्रन्थोंसे प्रमाणित है कि भगवान महावीरजीके निर्वाण कालसे २१५ वर्षे ( पालकवंश ६०
१-तिल्लोयपण्णति गा० ७२-७४ । २-श्रुतावतार कथा पृ० १३ व अंगपणति गा० ४३-४४। 3-सि मा०, भा० १ कि. १-४ १ श्रवण बे० पृ. १५-४०।४-जविमोस्रो० भा० १ पृ. ११६।
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२०४] संक्षिप्त जैन इतिहास । वर्ष+नन्दवंश १५५) बाद मौर्यवंशका अभ्युदय हुआ था। श्वेतांपर पट्टावलियोंसे सम्राट चन्द्रगुप्तका वीर निर्वाणसे २१९ वर्ष बाद ई० पू० ३२६ या ३२५ के नवम्बर मासमें सिंहासनारूढ़ होना प्रगट है। इस प्रकार चन्द्रगुप्तका राज्यारोहण काल जो ३२६ ई० ५० अन्यथा माना जाता है, वह जैन शास्त्रोंके मनसार भी ठीक बैठता है । अतएव थी भद्रबाहु स्वामीका मस्तित्व ई० पू० ३८३ था ३६९ के बाद मानना समुचित प्रतीत होता है । मैन शास्त्रोसे प्रकट है कि भद्रबाहुस्वामीके ही जीवनकाल में विशाखाचार्य नामक प्रथम दशपूर्वी का भी अस्तित्व रहा था । इस श्लोकमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही संप्रदायके ग्रंथोंसे भद्रबाहु और चंद्रगुप्त प्रायः समसामयिक सिद्ध होते हैं।
पहिलेके चार श्रुतकेवलियोंके विषयमें दिगम्बर जैन शास्त्रोंमें भद्रबाहुका चरित्र।
.., कुछ भी विशेष वर्णन नहीं मिलता है। हां,
भद्रबाहुके विषयमें उनमें कई कथायें मिलती हैं। श्री हरिषेणके 'वृहत्कथाकोष (सन् ९३१ ) में लिखा
१-विप० गा० ९५-९६ । २-इऐ० भा० ११ पृ. २५१ । ३-दिगम्बर जैनप्रन्योसे प्रगट है कि भद्रबाहुस्वामी चन्द्रगुप्त सहित कटिपर्व नामक पर्वतपर रह गये थे और विशाखाचार्यके आधिपत्यमें जैनसंघ चोलदेशको चला गया था। उधर श्वेताम्बरोंकी भी मान्यता है कि मद्रवाहु अपने अन्तिम जीवनमें नेपालमें जाकर एकान्तवास करने लगे थे और स्थूलभद्र पाधीश थे। (परि०पृ० ८७-९०) अतः निस्संदेह भगवाहुजीके जीवनकालमें ही उनके उत्तराधिकारी होना और उनका ई. पू. ३८३ के वादतक जीवित रहना उचित जंचता है। १९ वर्ष तक वे पट्टपर रहे प्रतीत होते है और फिर मुनिशासक या उपदेशक -रूपमें शेष जीवन व्यतीत किया विदित होता है। ४-जैशिसं० पृ०.६६ ।
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२१२] संक्षिप्त जैन इतिहास ।।
और वह इनका गोत्र प्राचीन वतलाते हैं; नो बिलकुल अश्रुतपूर्व है और उसका स्वयं उनके ग्रन्थों में मन्यत्र कहीं पता नहीं चलता है। वराहमिहिरका अस्तित्व ई०सके प्रारम्भसे प्रमाणित है। इस अवस्थामें श्वेतांबरों की मान्यताके अनुसार भद्रबाहुका समय भी ज्यादासे ज्यादा ईस्वीके प्रारम्भमें ठहरता है। जो सर्वथा असंभव है। मालम ऐसा होता है कि प्रथम भद्रबाहु और द्वितीय भद्रबाहु दोनोंको एक व्यक्ति मानकर द्वितीय भद्रबाहकी जीवन घटनाओं को प्रथम महुबाहुके जीवन में जा घुसेड़नेकी भारी भूल करते है। कल्पसूत्र' इन्हीं भद्रबाहुका रचा यहा जाता है। भावश्यकसूत्र, उत्तराध्ययनसुत्र, मादिकी निरुक्तियां भी इन्हींकी लिखी मानी जाती हैं; किंतु वह भी ई०के प्रारम्भमें हुए भद्रबाहुकी रचनायें प्रगट होती हैं, जैसे कि महामहोपाध्याय डा. सतीशचंद्र विद्याभूषण मानते है। मालूम यह होता है कि श्वेताम्बरोंको या तो भद्रगाह श्रुतकेवलीका विशेष परिचय ज्ञात नहीं था अथवा वह जानबूझकर उनका वर्णन नहीं करना चाहते हैं। क्योंकि श्रुतकेवली भद्रबाहुने उस संघमें भाग और फिर उपदेशक रूपमें रहे होने । श्वे. मान्यताले उनकी आयु १२६ वर्ष प्रगट है । यदि उन्हें ४० वर्षकी उसमें भाचार्य पद मिला मानें तो ६५ वर्षकी आयुमें वे आचार्य पदसे अलग हुये प्रगट होते हैं। शेप भायु उनने मुनिवत विताई थी और इस कालमें वे चंद्रगुप्तकी सेवाको पा सके :
१-जैसा० मा०१ वीर पं० पृ० ५ व परि० पृ० ५८ ॥ २-उसू० भूमिका पृ० १३ । ३-डॉ. सतीशचंद्र विद्याभूषणने हावी प्रारम्भमें बराहमिहिरका मस्तील माना है (जैहि० भा०८ १० ५:२) किन्तु कनै मादी छठी शताब्दीका मानते है । ४-हिष्टी माफ मेडिपिल इण्डीयन लाजिक, जैहि• भा० ८ पृ० ५३२ ।
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२५०] संक्षिप्त जैन इतिहास।
इसी प्रकार वृषलका साधारण अर्थ ग्रहण करना अनुचित है। फिर यह मसंभव है कि चाणक्य के समान समझदार व्यक्ति, अपने उस कपामाजनके प्रति ऐसे क्षुद्र शब्दका प्रयोग कर उसे लजित करे, जो एक बड़े साम्राज्यका योग्य शासन था और जिसकी भ्रकुटि जरा टेढ़ी होनेपर किसीको अपने प्राण बचाना दुर्भर होजाता था। फिर चाणक्य तो स्वयं लिखता है कि दुर्बल राजाको भी न कुछ समझना भूल है। असल बात यह है कि चाणक्य 'वृषल शब्दका व्यवहार मादर रूपमें मगधके रानाके अर्थमें-इसलिये करता था कि इससे उसके उस प्रयत्नका महत्व प्रगट होता था जो उसने चन्द्रगुप्तको मगधका राजा बनाने में किया था और इसकी स्मृति उसके आनन्दका कारण होना प्राकृत ठीक है। मुद्राराक्षसके ब्राह्मण टीकाकारने साम्प्रदायिक द्वेषवश चन्द्रगुप्तको शूदनात लिख मारा है; वरन् स्वयं हिन्दु पुराणों में चंद्रगुप्तके शूद होनेका कोई पता नहीं चाता है।
'विष्णुपुराण में उनको नन्देन्दु अर्थात् 'नद-चंद्र' (गुप्त), भविष्यपुराणमें 'मौर्य-नंद' और बौद्धोंके 'दिव्यावदान' में केवल 'नन्द' लिखा है। इन उल्लेखोंसे चंद्रगुप्तका कुछ संबंध नंदवंशसे प्रगट होता है। कोई विद्वान् 'मुद्राराक्षस' से भी यह संबंध प्रगट होता लिखते हैं, किन्तु इन उल्लेखोंसे भी चन्द्रगुप्तका शूद्रानात
१-'दुर्वलोऽपि राजानावमन्तव्यः नास्त्यग्ने दौर्बल्यम् ।
२-अधः पृ. ६ ६ हिड्रायः परि० पृ० ७१...और राइ० भा० १ पृ० ६०-६१ भाद. पृ. ६२ । ३-जविओमो० मा० १ पृ०.१६ फुटनोट । ४-हिडाव०, भूमिका पृ० ११-18 व अघ० पृ।।
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मौर्य साम्राज्य। [२२१ होना सिद्ध नहीं है । जैन लेखक तो स्पष्ट रीतिसे चन्द्रगुप्तको क्षत्रिय कहते हैं। हेमचन्द्राचायने 'मयूरपोषक' प्रामके नेताकी पुत्रीको चन्द्रगुप्तकी माता लिखा है। किंतु इससे भाव 'मोर पालनेवाले' के लगाना अन्याय है। प्रत्युत इस उल्लेखसे पुराणों के उपरोक उल्लेखोंका स्पष्टीकरण हुआ दृष्टि पड़ता है। संभवतः नंद राजाकी एक रानी मयूरपोषक देशके नेताकी पुत्री थी और उसीसे चन्द्रगुप्तका जन्म हुआ था। जब शूद्रानात महापद्मने नंद राज्यपर आधिपत्य जमा लिया तो चन्द्रगुप्त अपनी ननसालमें जाकर रहने लगा हो तो असंगत ही क्या है ? वहींपर चाणक्यकी उससे मेट हुई होगी।
जैन शास्त्रों में एक मौर्याख्य देशका अस्तित्व महावीरस्वामीसे पहलेका मिलता है । वहाँके एक क्षत्रिय पुत्र-मौर्यपुत्र भगवानके
१-जैसिभा० भा० १ कि० ४ पृ० १९; भाइ.० ६२ व राइ० भाग १ पृ. ६.। २-'मयूरपोषकप्रामे तस्मिश्च चणिनन्दन. । प्राविशत्कणभिक्षार्थ परिव्राजकवेषभृत् ॥ २३ ॥ मयूरपोषकमहत्तरस्य दुहितुस्तदा ।
अमृदापनसत्त्वायाश्चन्द्रपानाय दोहद. ॥ २३१-८॥" इत्यादि । श्री हेमचन्द्रके इस कथनसे चन्द्रगुप्तको 'मोरोंको पालनेवालेकी कन्याका पुत्र' लिखना ठीक नहीं है; जब कि वह प्रामका नाम मयूर पोषक लिख रहे है । मि० बरोदिया (हिलिजै० पृ. ४४) और उनके अनुसार मि. हैवेल (हिआइ० पृ० ६६) ने 'मयूरपोषक' का शब्दार्थ ही प्रगट किया है।
३-डॉ. विमलाचरण लॉ. नन्दराजाका विवाह विप्पलिवनके मोरिय (मौर्य) क्षत्रियों की राजकुमारीसे हुमा समझते हैं। देखो क्षत्रीलेन्स० पृ० २०५१
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२२२] संक्षिप्त जैन इतिहास । गणघर भी थे। उधर 'महावंश' नामक बौद्ध ग्रंथसे प्रगट ही है कि 'चन्द्रगुप्त हिमालय पर्वतके आसपासके एक देशका, जो पिप्पलिवनमें था और मोर पक्षियोंकी अधिकताके कारण मौर्य राज्य कहलाता था, एक क्षत्रिय राजकुमार था। हेमचन्द्राचार्यका मयूरपोषक ग्राम, दिगम्बर जैनों मौर्याख्य देश और चौद्धोके मोरिय (मौर्य) क्षत्रियों का पिप्पलिवनवाला प्रदेश एक ही प्रतीत होते हैं
और इस प्रकार यह स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त इस देशकी अपेक्षा ही मौर्य कहलाता था । ऐमा ही मैकक्रिन्डलका लेख है।
चन्द्रगुप्तका वाल्यजीवन मौर्याख्यदेशकी अपेक्षा अधिकतर बन्द वाय. मगधदेशमें व्यतीत हुआ था । तब मोरिय
जीवन (मौर्य) क्षत्रियोंकी राजधानी पिप्पलीवन थी। इन लोगोंमें भी उस समय गणराज्य प्रणालीके ढंगपर राज्य प्रबंध होता था। यही कारण प्रतीत होता है कि हेमचंद्राचार्य ने मयूर- ' पोषक देशके एक नेताका उल्लेख किया है। उनके उसे वहांका राजा नहीं लिखा है। किन्तु महापद्म नन्दने इन्हें भी अपने माधीन बना लिया था और एक मौर्य क्षत्री उनका सेनापति भी रहा था, यद्यपि मन्तमें उन्होंने उसे और उसकी सन्तानको मरवा डाला था। महापद्मके आधीन रहने हुये मौर्य क्षत्री सुखी नहीं रहे थे। चन्द्रगुप्तके भी प्राण सदैव संकटमें रहते थे, क्योंकि नंद रानाको उससे स्वभावतः भय होना अनिवार्य था; किंतु चंद्रगुप्तकी विधवा माताने उनकी रक्षा बड़ी तत्परतासे' की
-वृजेश पृ०७। २-महावंश-टीका सिंहलीयावृत्ति) पृ० ११९...। ३-माइ०. पृ०६९। ' सिमी भा० १ कि० ४ पृ. २१॥
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मौर्य साम्राज्य । [२२३ थी। फलतः जिससमय चंद्रगुप्त युवावस्थामें पदार्पण कर रहे थे, उससमय उनका समागम चाणक्यसे हुमा, जो नंदराना द्वारा अपमानित होकर उससे अपना बदला चुकानेकी दृढ़ प्रतिज्ञा कर चुका था। चाणक्य के साथ रहकर चंद्रगुप्त शस्त्र-शास्त्र में पूर्ण दक्ष होगया और वह देश-विदेशोंमें भटकता फिरा था, इससे उसका अनुभव भी खूब वढ़ा था।जो हो, इससे यह प्रस्ट है कि चन्द्रगुप्ता प्रारंभीक जीवन बड़ा ही शोचनीय तथा विपत्तिपूर्ण था।
जिससमय चद्रगुप्त मगधक्के राज्य सिंहासनपर मारूढ़ हुये राज-तिलक और उस समय वह पच्चीस वर्षके एक युवक थे।
राज्यवृद्धि । उनकी इस युवावस्था वीरोचित और भारत हितका भनुपम झार्य यह था कि उन्होंने अपने देशको विदेशी यूनानियोंकी पराधीनतासे छुड़ा दिया। सचमुच चन्द्रगुप्त के ऐसे ही देशहित सम्बन्धी कार्य उसे भारतके राजनैतिक रंगमंचपर एक प्रतिष्ठित महावीर और संप्तारके सम्राटोंकी प्रथम श्रेणीका सम्राट प्रगट करते हैं । 'योग्यता, व्यवस्था, वीरता और सैन्य संचालनमें चन्द्रगुप्त न केवल अपने समय में अद्वितीय था, वरन् संसारके इतिहाप्समें बहुत थोड़े ऐसे शासक हुये हैं, जिनको उसके बरावर कहा नासका है। मगधके राज्य प्रात करनेके साथ ही नंद रानाकी विराट सेना उप्तके आधीन हुई थी। चन्द्रगुप्तने उस विपुलवाहिनीकी वृद्धि की थी। उसकी सेना में तीस हजार घुडसवार, नौ हनार हाथी, छै लाख पैदल और बहुसंख्यक रथ थे। ऐसी दुर्गय .
१-बौखोके 'अर्थ कथाकोष' में भी यह उल्लेख है । जैसि मा० पूर्व पृ० २१ । लामाइ०, मा० पृ. १४२ । ३-अहिं० पृ. २४ ।
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२२४] संक्षिप्त जैन इतिहास । सेनाकी सहायतासे उसने समस्त उत्तर भारतके राजामोंको जीत लिया था । उसके सिंहासनारूढ़ होने के पहले उत्तरी भारतमें ही छोटे २ बहुतसे राजा थे, जो आपतमें लड़ा करते थे। धीरे धीरे चन्द्रगुप्तने उन सबको अपने अधिकारमें कर लिया और उसके साम्राज्यका विस्तार वगालको खाडीसे मरव-समुद्र तक होगया। इस प्रकार " वह शृङ्खलावद्ध ऐतिहासिक युगका पहला राजा है, जिसे भारत सम्राट् कह सकते हैं । महीसूर प्रांतकी अर्वाचीन मान्यताओंसे प्रगट है कि उस
प्रांतपर नंदवंशका मी अधिकार था। यदि यह दक्षिण-विजय।
चात ठीक मानी जाय तो नंदवंशके उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त मौर्यका अधिकार भी इन देशोंमें होना युक्तिसंगत है। वामिल भाषाके प्राचीन साहित्यमें अनेकों उल्लेख हैं। जिनसे स्पष्ट है कि मौर्योने दक्षिण भारतपर माक्रमण किया था और उसमें वे सफल हुये थे। किन्तु इससे यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सक्ता कि दक्षिण भारतकी यह विजय चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा ही हुई थी अथवा उसके पुत्र और उत्तराधिकारी बिन्दुसारने दक्षिण प्रदेश अपने आधीन किया था। परन्तु यह विदित है कि चन्द्रगुप्तका पौत्र अशोक जब सिंहासनपर बैठा, तब यह दक्षिण देश उसके साम्राज्य में शामिल था। जैन मान्यताके अनुसार चन्द्रगुप्तका साम्राज्य दक्षिण भारत तक होना प्रमाणित है।
१-भाइ० पृ० ६२ १२-ऑहिइ० पृ० ४।३-श्रवण० पृ० ३८। । ४-मममा स्मा० पृ. २०५ व जराएसो; १९२८, पृ. १३५ ।
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मौर्य साम्राज्य
[२२५ जिससमय चन्द्रगुप्त भारतमें उक्त प्रकार एक शक्तिशाली सिल्यूकस नाइके- कान्द्रक शासन स्थापित करने में संलग्न था.
टरसे युद्ध। उसी समय पश्चिमीय मध्य ऐशियामें सिकंदर महान्का सिल्यूकस नाइकेटर नामक एक सेनापति अपना अधिकार जमानेका प्रयास कर रहा था। उसने बड़ी सफलतासे सिरिया, एशिया माइनर और पूर्वीय प्रदेशोंको हस्तगत कर लिया था। उसने भारतको भी फिरसे जीतना चाहा और ३०५ ई० पु० में सिन्धु नदी पार कर आया । चन्द्रगुप्तकी अजेय सेनाने उसका सामना किया। पहिली ही मुठभेड़में सिल्यूकसकी सेना पिछड़ गई
और उसे दबकर संधि कर लेनी पड़ी। इस संधिक अनुमार सिंधु , नदीके पश्चिमी सुबों-बिलोचिस्तान और अफगानिस्तानको चद्र
गुप्तने अपने राज्यमें मिला लिया। सिल्यूकस ५०० हाथी लेकर संतुष्ट होगया । उसने अपनी बेटी भी चन्द्रगुप्तको व्याह दी।
इस विजयसे चद्रगुप्त का गौरव और मान विदेशोंमें बढ़ गया। सिल्यूकसका दूत उसके राजदरबारमें आकर रहने लगा और उसके सम्पर्कसे भारतका महत्त्वशाली परिचय और तात्विक ज्ञान विदेशियोंको हुमा । परहो (Pyraho) नामक एक यूनानी तत्ववेत्ता जैन श्रमणोंसे शिक्षा ग्रहण करनेके लिये यहां चला आया और व्यापारकी भी खूब उन्नति हुई । चन्द्रगुप्त के इस साम्राज्य विस्तारके अपूर्व कार्य और फिर उसे व्यवस्थित भावसे एक सूत्र में बांध रखनेसे उसकी अदभुत तेजस्विता, तत्परता और बुद्धिमत्ताका परिचय मिलता है। साधारण अवस्थासे उठकर वह एक महान् सम्राट १-भाइ. पृ० ६२-६३ । २-हिग्ली० पृ०४२ व लाम० पृ० ३४ ॥
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२२६] संक्षिप्त जैन इतिहास । होगया, यह उसके अदम्य पुरुषार्थ और कर्मठताका प्रमाणपत्र है। सिल्यूकसकी ओरसे जो दूत मौर्य दरबार में आया था, वह
मेगास्थनीज नामसे विख्यात् था। वह कई शासन-प्रवन्ध । -
वर्षांतक चन्द्रगुप्तके दरबारमें रहा था और बड़ा विद्वान था । उसने उससमयका पूरा वृतान्त लिखा है । वह चन्द्रगुप्तको योग्य और तेजस्वी शासक बतलाता है। उसके वृत्तांत एवं कौटिल्यके अर्थशास्त्रसे चन्द्रगुप्तके शासन-प्रबन्ध और उस समयकी सामाजिक स्थितिका अच्छा पता चलता है। राज्यका शासन पंचायतों द्वारा होता था; यद्यपि प्रत्येक प्रान्त भिन्न २ गवर्नरोके माधीन था। इन प्रांतिक मधिचारियोको छ पंचायतों द्वारा राज्यमबन्ध करना पड़ता था। 'एक पंचायत प्रजाके जन्ममरणका हिसाब रखती थी। दूसरी टैक्स यानी चुंगी वसुल करती थी। तीसरी दस्तकारीका प्रबंध करती थी। चौथी विदेशीय लोगोंकी देखभाल करती थी। पांचवीं व्यापारका प्रबंध करती थी।
और छठी दस्तकारीकी चीजों के विक्रयका प्रबंध करती थी। कुछ विदेशीय लोग भी पाटलिपुत्र में रहते थे। उनकी सुविधाके लिये अलग नियम बना दिये गये थे।" पाटलिपुत्र उस समय एक बड़ा समृद्धिशाली नगर था। और
वह मौर्य सम्राटकी राजधानी थी। तब यह नगर
'सोन और गंगाके संगमपर ९ मीलकी लम्बाई और १३ मील चौड़ाई में बता था। इमप्रकार वह वर्तमान पटनाकी ताह लंचा, सकीर्ण और समातर-चतुर्भुनाकार था। उसके चारों ओर
१-माइ० पृ. ६३
राजधान ।
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मौर्य साम्राज्य । [२२७ एक लकड़ीकी दीवार थी। इसमें ६४ फाटक और ६७० मीनार थे। इसके बाहर २०० गज चौडी और १५ गन गहरी खाई थी, जो सोनके जलसे भरी रहती थी। वर्तमान पटना नगरके नीचे यह प्राचीन पाटलिपुत्र तुपा पड़ा है। बांकीपुरके निकटमें खुदाई करनेसे चंद्रगुप्त के राजप्रासादका कुछ अंश मिला है। यह रानभवन भी लकड़ीका बना हुमा था, परंतु सनधन और सुंदरतामें किसी राजमहलसे कम न था। राज्यके शासन-प्रबन्धक समान ही नगरका प्रवध एक म्युनिसिपल कमीशन द्वारा होता था। इसमें भी छै पंचायतें थीं और प्रत्येक पंचायतमें पांच सदस्य इनके द्वारा देश और नगरका सुचारु और आदर्श प्रबंध होता था।
चन्द्रगुप्तका शासन प्रवन्ध आनझलके प्रजातंत्र राज्यों के लिये शासन प्रबन्धकी एक अनुकरणीय मादर्श था। आजालकी
विशेषतायें। म्युनिसिपिल कमेटियोंसे यदि उसकी तुलना की जाय, तो वह प्राचीन प्रबन्ध कई बातो अच्छा मालम देगा। चन्द्रगुप्तके इस व्यवस्थित शासनमें प्रत्येक मनुष्य और पशुसकी रक्षाका पूरा ध्यान रखा जाता था। कौटिलपके अर्थशास्त्रमे पशु
ओके भोजन, गौओंके दुहने और दूध, मक्खन आदित्री स्वच्छता के सम्बंध, नियम दिये हुये मिलते हैं । पशुओंको निर्दयता और चोरीसे बचाने के नियम सविस्तर दिये गये हैं। एक जैन सम्राटके लिये ऐसा दयालु और उदार प्रबंध करना सर्वथा उचित है। मनुष्यों की रक्षाका भी पूरा प्रबंध था। व्यापारियो के लिये कई मड़कें वनवाई गई थीं, जिनपर मुसाफिरोकी रक्षाका पूरा प्रबन्ध था।
१-मेएइ० । २-लामाइ० पृ. १६७ ।
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२८] संक्षिप्त जैन इतिहास । भारतकी सीमासे पाटलिपुत्रतक राजमार्ग बना हुआ था। यह मार्ग शायद पुष्कलावती (गान्धारकी राजधानी) से तक्षशिला होकर झलम, व्यास, सतलज, जमनाको पार करता हुभा तथा हस्तिनापुर, कन्नौज और प्रयाग होता हुआ पाटलिपुत्र पहुंचता था। सड़कोंकी देखभालका विभाग अलग था x दुर्भिक्षकी व्यवस्था उच्च न्यायालय करते थे । जो अन्न सरकारी भण्डारोंमें माता था उसका आधा भाग दुर्भिक्षके दिनोंके लिये सुरक्षित रक्खा जाता था और मझार पड़नेपर इस भाण्डारमेंसे अन्न बांटा जाता था। अगली फसलके वीजके लिये भी यहींसे दिया जाता था।
चन्द्रगुप्त के राज्यके अंतिम कालमें एक भीषण दुर्भिक्ष पड़ा था । खेतोंकी सिचाईमा पुरा प्रवन्ध रक्खा जाता था; जिसके लिये एक विभाग अलग था। चन्द्रगुप्तके काठियावाड़के शासक पुष्यगुहने गिरनार पर्वतके समीप 'सुदर्शन' नामक झील बनवाई थी। छोटी बड़ी नहरों द्वारा सारे देशमे पानी पहुंचाया जाता था । नहरा मइकमा आवपाशी-कर वसूल करता था। इसके अतिरिक्त किसानोंसे पैदावारका चौथाई भाग वसूल किया जाता था । आयात निर्वात भादि और भी कर प्रजापर लागू थे।
राज्यमें किसी प्रकारकी अनीति न होने पाये, इसके लिये गुप्तचर विभाग 1
चन्द्रगुप्तने एक गुप्तचर विभाग स्थापित झ्यिा
' था। नगरों और प्रांतोंकी समस्त घटनाओंपर दृष्टि रखना और सम्राट अथवा अधिकारी वर्गको गुप्तरीतिसे सूचना ___x माप्रारा. भा० २ पृ. ७९ । १-लाभाइ० पृ० १६७ । २-माइ० पृ. ६४ । ३-जराएलो० सन् १८९१ पृ. ४७ ।
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२३८] संक्षिप्त जैन इतिहास । आधुनिक विद्वान भी मान्य ठहराते हैं।' भद्रबाहु श्रुतकेवलीसे चंद्रगुप्तने दीक्षा ग्रहण की थी और उनका दीक्षित नाम मुनि प्रमाचंद्र था। इन्होंने अपने गुरु भद्रबाहुके साथ दक्षिणको गमन किया था और श्रवणवेलगोलमें इनने समाधिपूर्वक स्वर्ग लाम किया था।
इस स्पष्ट और जोरदार मान्यता के समक्ष चंद्रगुप्तको जन न मानकर शैव मानना, सत्यका गला घोंटना है । हिन्दु शास्त्रोंमें अवश्य उनके जैन साधु होनेका प्रगट उल्लेख नहीं है; परन्तु हिंदू शास्त्र उन्हें एक शूदानात लिखनेका दुस्साहस करते हैं; वह किस वातका द्योतक है ? यदि चंद्रगुप्त जैन नहीं थे, तो उन्होंने एक क्षत्री रानाको अकारण वर्ण-शंकर क्यो लिखा? इस वर्णनमें सांपदायिक द्वेष साफ टपक रहा है जैसे कि विद्वान् मानते हैं और इस तरह भी चंद्रगुप्ता नेन होना प्रगट है। कोई विद्वान् उनके नृशंस दंड विधान आदिपर आपत्ति करते हैं और यह क्रिया एक जन सम्र के लिये उचित नहीं समझते। किन्तु उना दण्डविधान कठिन होते हुये भी बनीति पूर्ण और मनाआधीन एक हजार राजा हो। चन्द्रगत मौर्य ऐसे ही प्रतापी राजा थे। शिलालेखीय साक्षी ई० उनके प्रारम्भिक कालकी है । (देखो. श्रवण पृ० २५-४० व जैसिमा० भा० )।
१-अहिइ० पृ. १५४, मैसूर एण्ड कुर्ग-राइस, मा० १: हिवि० मा० ५ पृ० १५६; इरिइ०-चन्द्रगुतः कहिद० मा० १ पृ. ४८४ और पाइजे० पु० २०-२५, हिआइ. पृ० ५९ अनीजग और सी भी फेय . भाव अशोक पृ. २३ व जविओसो भा० ३ ०। २-जैसिमा० मा० १ कि०२-३-४ व कैहिइ. भा०१ पृ० ४८५। ३-राइ० मा० १ पृ० ६१ । ४-लामाह• पृ० १५३ ।
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२४६] संक्षिप्त जैन इतिहास । यद्यपि ई० पू० २७७ में भागया, परंतु उसका राज्याभिषेक इसके चार वर्ष बाद सन् २७३ ई० पू० में हुमा था। इन चार वर्षों तक वह युवराजके रूपमें राज्य शासन करता रहा था। इस मदधि तक रानतिलक न होनेका कारण कोई विद्वान् उसका बड़े माईसे झगड़ा होना अनुमान करते हैं; परंतु यह बात ठीक नहीं है।
मालम ऐसा होता है कि उस समय अर्थात सन् २७७ ई. पू० में अशोककी अवस्था करीब २१-२२ वर्षकी थी और प्राचीन प्रथा यह थी कि जबतक राज्यका उत्तराधिकारी २९ वर्षकी अवस्थाका न होजाय तबतक उसका राजतिलक नहीं होसका था यद्यपि वह राज्यशासन करनेका अधिकारी होता था। इसी प्रथाके अनुरूप जैनसम्राट् खारवेलका भी राज्य मभिषेक कुछ वर्षे राज्यशासन युवराजपदसे कर चुकने पर २५ वर्षको अवस्थामे हुमा ग। मशोकके संबंधमें भी यही कारण उचित प्रतीत होता है। जब वह २५ वर्षके होगये तब उनका अभिषेक सन् २७३ ई. पू० में हुआ। और उनका मदभुत राज्य शासन सन २३६ ई० पू० तक कुशलता पूर्वक चला था।
विन्दुसारके समयमें अशोक उत्तर पश्चिमीय सीमा प्रान्त और अशोफ तक्षशिला व पश्चिमी भारतका सुवेदार रह चुका था। . उज्जनीका सूवेदार। इन प्रदेशोंका उसने ऐसे अच्छे ढंगसे शासन-प्रबंध किया था कि इसके सुप्रबन्ध और योग्यताका सिका
१-कोई विद्वान विन्दुसारकी मृत्यु सन् २७३ ई० पू० और मशोकका राज्याभिषेक सन २६९ ई०पू० मानते है । (माइ० पृ० ६७-६८) २-लाभाइ०, पृ० १७०। -अविमोसो० भा०:३ पृ. ४३८ । ४-जविभोसो. भा० ! पृ० ११६ ।
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२५४] संक्षिप्त जैन इतिहास । नैन अहिंसा है जो हर हालतमें प्राणीवपकी विरोधी है और एक व्यक्तिको पूर्ण शाकाहारी बनाती है।
उस समय वैदिक मतावलंबियोमें मांसभोजनका बहुपचार था और बौद्धलोग भी उससे परहेन नहीं रखते थे। म० बुद्धने कई वार मांसभोजन किया था और वह मांस खास उनके लिये ही लाया गया था। अतएव अशोकका पूर्ण निरामिष भोजी होना ही उसको जैन बतलाने के लिए पर्याप्त है। इस अवस्थामें उसे जन्मसे ही जैनधर्मशा श्रद्धानी मानना अनुचित नहीं है। जैन ग्रन्थोंमें उसका उल्लेख है और जैनोकी यह भी मान्यता है कि श्रवणवेलगोलामें चन्द्रगिरिपर उसने अपने पितामहकी पवित्रस्मृतिमें चंद्रवस्ती मादि जैन मंदिर बनवाये थे। ___राजाबलीकथा में उसका नाम भास्कर लिखा है और उसे अपने पितामह व भद्रबाहु स्वामीके समाधिस्थानकी वंदनाके लिये श्रवणवेल्गोल आया बताया है। (जैशि सं०, भूमिका ट०६१) अपने उपरान्त जीवनमें मालूम पड़ता है कि अशोकने उदारवृत्ति ग्रहण करली थी और उसने अपनी स्वाधीन शिक्षाओंका प्रचार करना प्रारंभ किया था जो मुख्यतः जैन धमके अनुसार थी। यही कारण प्रतीत होता है कि जैन ग्रंथोंमें उसके शेष जीवनका हाल नहीं है। जैन दृष्टिसे वह वैनयिक-रूपमें मिथ्यात्व ग्रसित हुआ कहा जासका है; परन्तु उसकी शिक्षाओंमें मैनत्व कूटर कर भरा हुआ मिलता है। उसने पौडों, ब्राह्मणों और भाजीविकोंके साथ - १-भमवु० पृ० १७.। २-राजावलीकथा और परिशिष्ट पर्व. (पृ. ८७) ३-हिवि० भा० ७ पृ० १५० ।
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मौर्य साम्राज्य। [२५५ मनोंको भी भुलाया नहीं था, यह बात उसके शिलालेखोंसे स्पष्ट है।' प्रो० फनके समान बौद्ध धर्मके प्रखर विद्वान् अशोकका जैन
होना बहुत कुछ संभव मानते हैं और मि० अजैन साक्ष।
टॉमसने तो जोरोंके साथ उनको जैन धर्मानुयायी प्रगट किया है। मि० राइस और प्राच्य विद्या महार्णव पं० नागेन्द्रनाथ वसु भी अशोकको एक समय जैन प्रगट करते हैं। यह बात भी नहीं है कि केवल आधुनिक विद्वान ही अशोकको पहिले जैनधर्मका श्रद्धानी प्रगट करते हों; बल्कि मानसे बहुत पहिलेके भारतीय लेखक भी उनका जैनी होना सिद्ध करते हैं। 'राजतरिगणी में लिखा है कि अशोकने जिन शासनका उद्धार या प्रचार काश्मीरमें किया था। 'जिनशासन' स्पष्टतः जैनधर्मका द्योतक है; किन्तु विद्वान इसे बौद्ध धर्मके लिये प्रयुक्त हुआ बतलाते हैं। हमारी समझसे "बौद्धधर्म" में 'निन' शब्दका व्यवहार अवश्य मिलता है, किन्तु जैनधर्ममें जैसी प्रधानता इस शब्दको मिली हुई है, वैसी बौद्ध धर्ममें नहीं। इस शब्दकी अपेक्षा ही जब जैनधर्मका नामकरण हुआ है, तब वह शब्द इसी धर्मका द्योतक माना जा सक्ता है। 'राजतरिणी में मन्यत्र काशमीरके राजा मेघवाहनको
१-जमीसो० मा० १७ पृ० २७५। २-इऐ० मा०२० पृ. २४३ । 3-जराएसो. भा० ९ पृ० १५५-1९१ । ४-मैसूर एण्ड कुर्ग देखो।। ५-हिवि० भा० २ पृ. ३५० । ६-'यः शान्तवृजिनो राजा प्रपत्रो जिनशासनम् ।
शुष्कलेऽत्र वितस्तात्रौ तस्तार भूमण्डले ॥राजतरिंगणी ०१ ७-दहिक्वा० मा० ३ पृ. ४७५-४७६ ।
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२६२] संक्षिप्त जैन इतिहास। . समझाते हैं और खूब ज्ञान गुदड़ी लगती है। मालूम होता है कि अशोकने अपनी धर्मयात्रायोका ढांचा जनसंघके आदर्शपर निर्मित किया था।
(७) सर्व प्राणियोकी रक्षा, संयम, समाचारण और मार्दव ( सवभूतान अछति, संयम, समचरियं, मादवं च ) धर्मका पालन करनेकी शिक्षा अशोकने मनुष्योंको परभव सुखके लिये समुचित रीत्या दी थी। जैनधर्ममें इन नियमोंका विधान मिलता है। समाचरण वहां विशेष महत्व रखता है। जैन मुनियोंका आचरण 'समाचार रूप और धर्म साम्यभाव कहा गया है। सर्व प्राणियोंकी रक्षा, संयम और मार्दव मैनोंकि धर्मके दुश अगोंमें मिलते हैं।'
(4) मशोक कहते है कि 'एकान्त-धर्मानुराग, विशेष मात्मपरीक्षा, बड़ी सुश्रूषा, बड़े भय और महान उत्साहके बिना ऐहिक
और पारलौकिक दोनों उद्देश्य दुर्लभ हैं। नैनोको इस शिक्षासे कुछ भी विरोध नहीं होसका । श्रावकके लिये ,धर्मध्यानका अभ्यास करना उपादेय है और भात्मपरीक्षा करना-प्रतिक्रमणका नियमित
-अध० पृ० २५०-त्रयोदश शि। २-समदा सामाचारी सम्माचारी समो व आचारो।
सम्वेतिहि सम्माण सामानारो दु आचारो ॥२३॥४॥ मूला। अथवा.-"चारित खल घम्मो, धम्मो जो सो समोति णिहिटोग
मोहरखोह विहीणो, परिणामो मप्पणो हि वमो ॥ प्रवचनसार । ३-"संतीमइप मज्जव लापवातव अजमो मचिदा।
तह होइ बाचेर सच चामो य दख-धम्मा ७५२ ॥-मूटा। ४-अघ• पृ० १०-प्रथम स्तंभलेख । ५-अष्टपाहा पृ० १४ (९ २११ व ३
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२६८] संक्षिप्त जैन इतिहास । और टन्ही स्नुमार समती बढ़ती रूपमें संसारी नीति निविष मेद ही हुये हैं।'
(३) जीवन्दका व्यवहार प्रथम शिलालेख हुआ है। जैनधर्म में 'नीच' मान तत्वोंने प्रयम तत्व माना गया है।'
(१) श्रमण रद हनीय व पन्य शिलालेखोम मिलता है। मन मानोर मन धर्म कमशः श्रमण और श्रमणधर्म नागसे परिचित है।
(९) माण अनारम्भ गन तृतीय शिलालेख है। नाम यह पद पनिरोष रूपमें "पाणरम्मरूपमे मिलता है।
(६) भूत शब्द चतुर्थ शिशारेखमें प्रयुक्त हुआ है । भेन छालोंमें नीव माय इस दिशा भी ध्यवहार हुमा मिलता है। १-पचर पाना मनाचिया पनि यसमा ।
गनसमापो भगवान माना ॥५॥ प्रयचनमा । - धिगम मन ... । -मगार .11८मर का। NAL RI मानि भी ।
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२७६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । नहीं लेते हैं। इसी तरह जैन शास्त्रोंमें मोक्ष ही मनुष्यका अंतिम ध्येय बताया गया है, पर अशोक उसका भी उल्लेख नहीं करते हैं । किन्तु उनका मोक्षके विषयमें कुछ भी न कहना जन दृष्टिसे ठीक है; क्योंकि वह जानते थे कि इस जमाने में कोई भी यहाँसे उस परम पदको नहीं पाता है और वह यहाके लोगों के लिये धर्माराधन करनेका उपदेश देरहे हैं। वह कैसे उन बातों का उपदेश दे अथवा उल्लेख करें जिसको यहाके मनुष्य इम कालमें पाही नहीं सके हैं। जैन शास्त्र स्पष्ट कहते हैं कि पचमकालमें (वर्तमान समयम) कोई भी मनुष्य-चाहे वह श्रावक हो अथवा मुनि मोझ लाम नहीं कर सका । वह स्वर्गोंके सुखोंको पासका है। फिर एक यह बात भी विचारणीय है कि मशोक केवल धर्माराधना करने पर जोर देरहा है
और यह कार्य शुभरूप तथापि पुण्य पदायक है । जैन शास्त्रानुसार इस शुभ कार्यका फल स्वर्ग सुख है। इसी कारण अशोकने लोगोंको स्वर्ग-प्राप्ति करनेकी ओर आकृष्ट किया है। उसके बताये हुए धर्म कार्योंसे सिवाय स्वर्ग सुखके और कुछ मिल ही नही सक्ता था।
(९) कृत अपराधको अशोक क्षमा कर देते थे, केवल इस शर्तपर कि अपराधी स्वयं उपवास व दान करे अथवा उसके संबंधी वसा करे। हम देख चुके हैं कि जैन शास्त्रों में प्रायश्चित्तको विशेष महत्व दिया हुमा है। गहीं, निन्दा, मालोचना और प्रतिक्रमण
१-जमीयो० मा०१७ . २७१ । २-अज्जधि तिरवणसुद्धा अप्पा' झाएचि लहइ इदत्तं । लोयतियदेवत्त तस्य चुआणिबुदिति ॥४॥ अष्ट. पृ० ३३८ ३-धम्मेण परिणदप्पा, अप्पा अदि सुबसम्पयोग जुदो। पावदि णिव्याणसुह, सुहोवजुत्तो व सग्गसई ॥ ११ ॥-प्रवचनसार टीका मा० १ पृ. ३ | ४-स्तम्भ लेख ७ व जमेसो. मा० १५ पृ० २७० ॥
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संक्षिप्त जैन इतिहास |
हमारी मान्यता में कुछ बाधा नहीं आती; अशोकका नामोल्लेख तक जैन शास्त्रों में न होता तो भी कोई इने ही नहीं था। क्योंकि हम जानते है कि पहिलेके जैन लेखकोंने इतिहासकी ओर विशेष रीतिले व्यान नहीं दिया था। यही कारण है कि खारवेल महामेघवाहन जैसे धर्मप्रभावक जैन सम्राट्का नाम निशान तक जैन शास्त्रोंमें नहीं मिलता । यतः अशोकपर मैनवर्मा विशेष प्रभाव जन्मसे पडा मानना और वह एक समय श्रावक थे, यह प्रगट करना कुछ अनुचित नहीं है। उनके शासनलेखोके स्तम्भ आदिपर जैन चिह्न मिलते हैं । सिंह और हाथी के चिह्न जैनोंके निकट विशेष मान्य हैं ।' भशोकके स्तंभों पर सिंहकी मूर्ति बनी हुई मिलती है और यह उस ढंगपर है, जैसे कि अन्य जैन स्तम्भों में मिलती है। यह भी उनके जैनत्वका द्योतक है । किंतु हमारी यह मान्यता आनलके अधिकांश विद्वानोंके अशोकको बौद्ध मतके विरुद्ध है । आजकल प्रायः यह ठीक नहीं है। सर्वमान्य है कि अशोक अपने राज्यके नर्वे वर्षसे बौद्ध उपासक हो गया था। किंतु यह मत पहिलेसे
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१- ये दोनों क्रमशः अन्तिम और दूसरे तीर्थङ्करोंके चिन्ह हैं और इनकी मान्यता जैनोमें विशेष है । (वीर• मा० ३ पृ० ४६६-४६८ ) मि० टॉमॅसने भी जैन चिन्होका महत्व स्वीकार किया है और कुहाऊंके जैन स्तंभपर सिंहकी मूर्ति और उसकी बनावट अशोकके स्वम्भों जैसी बताई है । (जराएसो० भा० ९ पृ० १६१ व १८८ फुटनोट नं० २ ) तक्षशिलाके जैन स्तूपोके पाससे जो स्तंभ निकले है उनपर भी सिंह है । (तक्ष० पृ० ७३ ) श्रवणबेलगोल के एक शिलालेख के प्रारम्भमें हाथीका चिन्ह हैं । २ - ईऐ० मा० २० पृ० २३० ॥
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मौर्य साम्राज्य । [२८७ दर्शी राजा ऐसा कहते हैं:-मेरे राज्यमें सब जगह युक्त (छोटे कर्मचारी) रज्जुक (कमिश्नर) और प्रादेशिक (प्रांतीय अफमर) पांचर वर्षपर इस कामके लिये अर्थात् धर्मानुशासनके लिये तथा
और कामों के लिये यह कहते हुए दौरा करें कि-" माता-पिताकी सेवा करना तथा मित्र, परिचित, स्वजातीय, ब्राह्मण और श्रमणको दान देना अच्छा है । जीव हिंग न करना अच्छा है। कम खर्च करना और कम संचय करना अच्छा है।"
अपने राज्याभिषेकके १३ वर्ष बाद भगोकने 'धर्म महामात्र नये धर्मचारी नियुक्त किये । ये कर्मचारी समस्त राज्यमें तथा यवन, काम्बोज, गांधार इत्यादि पश्चिमी मीमापर रहनेवाली जातियोंके मध्य धर्मप्रचार करनेके लिये नियुक्त थे। यह पदवी बड़ी ऊँची थी और इस पदपर स्त्रियां भी नियत थो। धर्म महामात्रके नीचे 'धर्मयुक्त' नामक छोटे कर्मचारी भी थे जो उनको धर्मप्रचारमें सहायता देते थे।
मशोकके १३वें शिलालेखने पता चलता है कि उन्होंने इन देशोंमें अपने दून अथवा उपदेश: धर्मप्रचारार्थ भेजे थे । अर्थात (१) मौर्य साम्राज्यके अन्तर्गत भिन्न भिन्न प्रदेश, (२) सामाज्यके सीमान्त प्रदेश और सीमापर रहनबाली यवन, काम्बोज, गान्धार, राष्ट्रिक, पितनिक, भोज, आध्र, इलिन्द आदि जातियों के देश; (३) साम्राज्यकी जंगली जा'तयों प्रान्त, (४) दक्षिणी भारतके स्वाधीन राज्य जैसे केरलपुत्र, (चे ), मत्य पुत्र (तुलु-कोकण), चोड़ (कोरोमण्डल ), पांड्य (मदुग व तिनाम्ली निले), (६)
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________________ 298] संक्षिप्त जैन इतिहास / साम्राज्य छिन्नभिन्न होगया ! मध्य भारत, गंगाप्रदेश, आंध्र और कलिङ्गदेश पुनः अपनी स्वाधीनता प्राप्त करनेकी चेष्टा करने लगे थे। सीमांत प्रदेशोंका यथोचित प्रबन्ध न होने के कारण विदेशीय आक्रमणकारियोंको भी अपना मभीए सिद्ध करनेका अवसर मिला था। मौर्यवंशकी प्रधान शाखाका यद्यपि उपरोक्त प्रकार अत हो उपरांत कालके गया था, किन्तु इस शाखाके वंशज जो मन्त्र मौर्य वंशज / प्रांतोंमे शासनाधिकारी थे, वह सामन्तोंकी तरह मगध और उसके आसपास के प्रदेशोंमें ई० सानवीं शताब्दि तक विद्यमान थे। ई० ७वीं शताब्दिमें एक पुराणवर्मा नामक मौयवंशी राजाका उल्लेख मिलता है। किन्हीं अन्य लेखोंसे मौयोका राज्य इंसाकी छठी, सातवीं और आठवीं शताब्दितक कोकण और पश्चिमी भारतमें रहा प्रगट है। ई० सन 738 का एक शिलालेख कोय (राजपूताना )के कंसवा ग्राममें पवल नामक मौर्यवंशी राजाका भिम है। इससे ईसाकी माठवीं शताब्दिमें राजपूताने में मौर्यवंश के सामंत रानाओंका राज्य होना प्रगट है। चितौड़का किला मौर्य राजा चित्रांग (चित्रांगद) का बनाया हुमा है। चित्रांग तालाब मी इन्हींका बनाया हुमा वहां मौजूद है। कहते हैं कि मेवाड़ो गुहिल वंशीय राजा बापा (कालमोनने मानमोरीसे चित्तौड़गढ़ लिया था। मानकल राजपूतानेमें कोई भी मौर्यवंशी नहीं है। हा, वहीं खानदेशमें निन मौर्य रामाभोंका राज्य था, उनके वंशज भवतक दक्षिणमें पाये नाते हैं और मोरे कहलाते हैं। १-माह. पृ. 75 / २--मापारा, मा०२.१३६१-कुमार पास-प्रबन्ध, पर -trrrrrent