________________
१०६]
संक्षिप्त जैन इतिहास ।
सन्यास जीवन में भी यदि वासना-तृप्तिके साधन जुटाये रक्खे जाये और केवलजानकी आराधनासे अविनागी सुख पालेका प्रयत्न किया जाय तो उसमें असफलता मिलना ही सभव है । त्यागी हुये घर छोडा स्त्री पुत्रसे नाता तोडा और फिर भी निर्लिप्तभावकी माड़ लेकर वासना वढन सामग्रोको इकट्ठा कर लिया, वासनाको तृप्त करनेका सामान जुटालिया, तो फिर वास्तविक सत्यमें विश्वास ही कहां रहा ? यह निश्चय ही शिथिल होगया कि भोगसे नहीं, योगसे पूर्ण और अक्षय सुख मिलता है। और यह हरकोई जानता है कि किसी कार्यको सफल बनाने के लिये तहत विश्वास ही मूल कारण है। दृढ़ निश्चय अथवा षटल विश्वात फलका देनेवाला है।
भगवान महावीरने इन आवश्यक्ताओंको देखकर ही और उनका प्रत्यक्ष अनुभव पाकर 'सम्यग्दर्शन' अथवा यथार्थ श्रद्धाको सच्चे सुखके मार्गमें प्रमुख स्थान दिया था। किन्तु वह यह भी जानते थे कि जिस प्रकार कोरा कर्मकांड और निरा ज्ञान इच्छित फल पानेके लिये कार्यकारी नहीं है, उसी प्रकार मात्र श्रद्धानसे भी काम नहीं चल सका। इसीलिये इन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकूचारित्रका युगपत होना भक्षय और पूर्ण सुख पाने के लिये आवश्यक बतलाया था।
सम्यग्दर्शनको पाकर मनुष्योको निवृत्ति मार्गमें दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। वह जान गये थे कि यह जगत अनादि निधन है। जीव और मनीवका लीला-क्षेत्र है। यह दोनों द्रव्य अक्रत्रिम मनंत और अविनाशी हैं। अनीवने जीवको अपने प्रभावमें दवा रखा है। नीव शरीर बन्धनमें पड़ा हुभा है। वह इच्छाओं और