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________________ ६६] संक्षिप्त जैन इतिहास । संसारमें भ्रमण करते हुये समान रीतिसे दुःखका अन्त करते हैं।' (संघावित्वा संसरित्वा दुःखस्सान्तम् करिस्मन्ति), पातंजलिने भी मपने पाणनिसूत्रके भाष्यमें गोशालके सम्बधमें कुछ ऐसा ही सिद्धांत निर्दिष्ट किया है। उसने लिखा है कि वह 'मस्करि केवल वांसको' छडी हाथमें लेने के कारण नहीं कहलाता था; प्रत्युत इमलिये कि वह कहता था-"मर्म मत करो, कर्म मत करो, केवल शाति ही वाछनीय है।" (मा छत कर्माणि, मा रुन धर्माःणे इत्यादि)। मतएव दिगम्बर जैनाचार्यने मक्खलिगोशालको मो अज्ञान मतमा प्रचारक लिखा है, वह ठोक प्रतीत होता है। और अन्य श्रोतोंसे यह भी प्रगट है कि वह विधिकी रेखको ममिट मानता था। कहता था कि जो बात होनी है, वह अवश्य होगी; और उममें पाप-पुण्य कुछ नहीं है । इस अवस्थामें उसके निकट ईश्वरका मस्तित्व न होना स्वाभाविक है। इस प्रकार दि. शास्त्रों उपरोक्त कथन ठीक नचता है । और यह मानना पडता है कि मक्खलि गोशाल भगवान पार्श्वनाथनी के तीर्थका एक मुनि था और बहुश्रुनी होते हुये भी ना उसे श्री वीर भगवानके समवशरणमें प्रमुख स्थान न मिला, तो वह उनसे रुष्ट होकर स्वतंत्र रीतिसे मज्ञानमतका प्रचार करने लगा। न्तुि देवसेनाचार्यनीने मक्खलि गोशालका नामोल्लेख 'मस्कमक्खलि गोशाल और रिपुरण' रूपमें किया है। संभव है, इससे पूरण कस्तप । पूरण उप्तका भाव गोशालसे न समझा जाय और जैन मुनि था। उपरोक्त कथनको असंगत माना माय; किंतु १-दीनि मा०२०५३-५४॥२-आजी.पृ. १२॥३-भावसंप्रहगा. १७६॥
SR No.010473
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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