________________
२१२] संक्षिप्त जैन इतिहास ।।
और वह इनका गोत्र प्राचीन वतलाते हैं; नो बिलकुल अश्रुतपूर्व है और उसका स्वयं उनके ग्रन्थों में मन्यत्र कहीं पता नहीं चलता है। वराहमिहिरका अस्तित्व ई०सके प्रारम्भसे प्रमाणित है। इस अवस्थामें श्वेतांबरों की मान्यताके अनुसार भद्रबाहुका समय भी ज्यादासे ज्यादा ईस्वीके प्रारम्भमें ठहरता है। जो सर्वथा असंभव है। मालम ऐसा होता है कि प्रथम भद्रबाहु और द्वितीय भद्रबाहु दोनोंको एक व्यक्ति मानकर द्वितीय भद्रबाहकी जीवन घटनाओं को प्रथम महुबाहुके जीवन में जा घुसेड़नेकी भारी भूल करते है। कल्पसूत्र' इन्हीं भद्रबाहुका रचा यहा जाता है। भावश्यकसूत्र, उत्तराध्ययनसुत्र, मादिकी निरुक्तियां भी इन्हींकी लिखी मानी जाती हैं; किंतु वह भी ई०के प्रारम्भमें हुए भद्रबाहुकी रचनायें प्रगट होती हैं, जैसे कि महामहोपाध्याय डा. सतीशचंद्र विद्याभूषण मानते है। मालूम यह होता है कि श्वेताम्बरोंको या तो भद्रगाह श्रुतकेवलीका विशेष परिचय ज्ञात नहीं था अथवा वह जानबूझकर उनका वर्णन नहीं करना चाहते हैं। क्योंकि श्रुतकेवली भद्रबाहुने उस संघमें भाग और फिर उपदेशक रूपमें रहे होने । श्वे. मान्यताले उनकी आयु १२६ वर्ष प्रगट है । यदि उन्हें ४० वर्षकी उसमें भाचार्य पद मिला मानें तो ६५ वर्षकी आयुमें वे आचार्य पदसे अलग हुये प्रगट होते हैं। शेप भायु उनने मुनिवत विताई थी और इस कालमें वे चंद्रगुप्तकी सेवाको पा सके :
१-जैसा० मा०१ वीर पं० पृ० ५ व परि० पृ० ५८ ॥ २-उसू० भूमिका पृ० १३ । ३-डॉ. सतीशचंद्र विद्याभूषणने हावी प्रारम्भमें बराहमिहिरका मस्तील माना है (जैहि० भा०८ १० ५:२) किन्तु कनै मादी छठी शताब्दीका मानते है । ४-हिष्टी माफ मेडिपिल इण्डीयन लाजिक, जैहि• भा० ८ पृ० ५३२ ।