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आचार्य पद्मसागरसूरिजी
एक परिचय मुनि विमलसागर
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आचार्य पद्मसागरसूरिजीः एक परिचय
मुनि विमलसागर
अष्टमंगल फाउण्डेशन
अहमदाबाद जीवन निर्माण केन्द्र
अहमदाबाद
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३८ वें दीक्षा - दिवस समारोह के उपलक्ष्य में नि: शुल्क वितरण के लिए प्रकाशित.
- आचार्य पद्मसागरसूरिजी : एक परिचय - मुनि विमलसागर प्रेरक : मुनि श्री देवेन्द्रसागरजी म. प्रकाशक : अष्टमंगल फाउण्डेशन, एन/५, मेघालय फ्लेट्स, सरदार पटेल कोलोनी के पास, नारणपुरा, अहमदाबाद : ३८००१४. फोन : ४४६६३४
4.अहना
काम
१.सर
"ASHTAMA
NEDABAD
NOAL F
FOUNDATU
TION-AH
जीवन निर्माण केन्द्र, ए/५, सम्भवनाथ एपार्टमेन्ट, उस्मानपुरा उद्यान के पास,
अहमदाबाद : ३८००१३. जीवन निर्माण केन्द्र फोन : ४४८७४०
- प्रथम प्रकाशन : नवम्बर, १९९१ - प्रतियाँ : तीन हजार - मुद्रक : अशोक प्रिंटिंग प्रेस, बम्बई
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हृदय के उद्गार
जैनाचार्यों की गरिमापूर्ण अर्वाचीन परम्परा में एक यशस्वी नाम है: आचार्य पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज का. व्यवहार - कौशल्य, वाक्पटुता, स्वाभाविक सहजता, निर्भीक अभिव्यक्ति, कर्तव्य .. परायणता, अनुशासनप्रियता, अद्भुत साहसिकता, नेतृत्व -- सक्षमता इत्यादि अनेकानेक सद्गुणों से निखरता आपका जीवन जन-सामान्य के लिए आदर्श और वरदान हैं तो मानवता व साधुता के लिए सुखद संवाद. महान आदर्शों के ठोस धरातल पर निर्मित हुआ आपका प्रतिभासम्पन्न व बहुमुखी व्यक्तित्व प्रारम्भ से ही संघर्षशील रहा है. ध्येय के प्रति अपार निष्ठा और सद्विचारों व सदाचारों के लिए समर्पित आपका जीवन अपने आप में एक उपलब्धि है.
अभी-अभी आचार्य श्री अपने संयमी जीवन के ३८ वें वर्ष में मंगल प्रवेश कर रहे हैं. इस अवसर पर आपकी संक्षिप्त जीवनी का प्रकाशित होना आनन्द का विषय है. विशेष खुशी इस बात की है कि इसके आलेखन का सुअवसर मुझे मिला.
आभारी हूँ सहृदयी मुनि प्रवर श्री देवेन्द्रसागरजी म.का, जिनकी प्रेरणा इस प्रकाशन की बुनियाद रही है. आशा रखता हूँ कि यह जीवनी लोक-जीवन को आलोकित व सन्मार्गदर्शित करेगी.
कार्तिक पूर्णिमा
- विमलसागर
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अनुक्रम
- जैनाचार्य : एक परिशीलन - जन्म और बाल्यकाल । शिक्षा और संस्कार ] संत - समागम - भारत - भ्रमण [] जीवन - शिल्पी की खोज - घर को अलविदा 0 वीतराग के पथ पर - अध्ययन ही एक लगन - सहन की साधना - उन्नति के शिखर - ओजस्वी प्रवक्ता - यशस्वी काम : भारी बहुमान । दक्षिण की यात्रा पर - सम्मेत - शिखर का विवाद - अमर कृतित्व । एक ही कामना
armo wa voor moog voor
- आचार्य प्रवर : संक्षिप्त परिचय ३०/ यात्रा - संघ ३१/ चातुर्मास - तालिका ३२/ अंजनशलाका - प्रतिष्ठा महोत्सव ३४/ शिष्य - प्रशिष्य परिवार ३६/ साहित्य - प्रकाशन ३८
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आचार्य पद्मसागरसूरिजी : एक परिचय
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जैनाचार्य : एक अनुशीलन
हर धर्म-परम्परा में हमेशा ही आचार्यों की विशिष्ट महत्ता रही है. आचार्य धर्म-परम्परा को जीवन्त व शालीन बनाए रखने का दायित्व निभाते हैं
जैन विचारधारा में 'आचार्य' की परिभाषा व्यवहार में प्रचलित अर्थों से कुछ भिन्न होती है. यहाँ आचार्य का अर्थ ’आचार' अर्थात् आचरण से सम्बद्ध होता है. जैनेतर परम्पराओं में आचार्य के लिए केवल बौद्धिक प्रतिभा और वैचारिक विद्वत्ता पर्याप्त होती है. जब कि जैन विचारधारा में प्रतिभा और विद्वत्ता के साथ-साथ दक्षता / पात्रता और सदाचारी जीवन भी परम आवश्यक होता है. जैन परम्परा
में सदाचरण के अभाव में आचार्य की कोई महत्ता नहीं है. यहाँ आचार्य केवल विचारात्मक ही नहीं, रचनात्मक भी होते हैं. इसीलिए तो आगमों में आचार्यों को 'पंचायारपवित्ते' कहकर पुकारा गया है. 'पंचायारपवित्ते' का तात्पर्य है : ज्ञानाचरण, दर्शनाचरण, चारित्राचरण, तपाचरण तथा वीर्याचरण की समुज्ज्वल साधना के द्वारा स्वयं के व दूसरों के जीवन को पवित्रित/परिष्कृत करते हुए जैन संघ के योग व क्षेम की निरन्तर रखवाली करने वाले.
जैनाचार्य समग्र जैन शास्त्रों के पारगामी तो होते ही हैं, अन्य दर्शनों व शास्त्रों का ज्ञान भी उनकी अद्भुत बौद्धिक उपलब्धि होती है. समय-समय पर विविध
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लोकोपयोगी साहित्य का सृजन कर आचार्यों ने दूर-सुदूर के देशों तक जैन धर्म की यशोगाथा को फैलाने का महान पुरुषार्थ किया है. साथ ही विशाल राष्ट्र के प्रत्येक भाग व हर कोने में धर्मभावना को जीवन्त रखने का श्रेय भी उन जैनाचार्यों को ही जाता है, जिन्होंने लम्बी व कठिन पदयात्राओं के द्वारा इस कार्य का सुचारू रूप से संचालन किया.
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पूर्व निर्दिष्ट पाँच आचारों की नैष्ठिक परिपालना से पवित्रित आचार्यों को आगमिक साहित्य में तीर्थंकर के तुल्य होने का महत्तम सम्मान दिया गया है. उन्हें 'तित्थयरसमोसूरी' अर्थात् 'तीर्थंकर की अनुपस्थिति में आचार्य तीर्थंकर के तुल्य है' यूं कहकर उनका बहुत भारी बहुमान किया गया है.
जैन शासन की प्रगति और कुशलता की कामना के लिए जैनाचार्य समकालीन राजा महाराजाओं और अन्य पदाधिकारियों के सम्पर्क में भी रहे भद्रबाहुस्वामी, सिद्धसेन दिवाकरसूरि, बप्पभट्टीसूरि, हेमचन्द्रसूरि, हीरविजयसूरि इत्यादि अनेक सुविख्यात जैनाचार्यों का राज - सम्पर्क इस बात का प्रबल साक्ष्य है. इन युगप्रभावक जैनाचार्यों ने तत्कालीन नरेशों को प्रतिबोधितप्रभावित कर, उनके माध्यम से जैन शासन की यशोगाथा को दिग्गदिगन्त तक पहुँचाने का अभूतपूर्व कार्य किया था, जिसकी दिव्य आभा आज भी हमारे यात्रा - पथ को आलोकित करती है.
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आचार्य केवल उपाश्रय की चार दीवारी में ही बन्धे नहीं रहते, आवश्यकता पड़ने पर लोककल्याण के लिये भी प्रवृत्त हो जाते हैं. यह एक बहुत ही विरल ऐतिहासिक घटना है कि युगप्रधान आचार्य कालकसूरि ने तो अन्याय, अत्याचार व दुराचार से व्याप्त राजा के खिलाफ आवाज उठाई थी. इतना ही नहीं, विवश होकर उन्हें युद्ध के मैदान में भी उतरना पड़ा था और अन्तत: वे अनीति, अन्याय को नष्ट कर तथा अपनी सहोदरा साध्वी सरस्वती को सुरक्षित लेकर प्रायश्चित पूर्वक गरिमा के साथ श्रमण-जीवन में पुनः लौटे थे. लोक एवं धर्म की रक्षा के लिए जैनाचार्य के योगदान का इससे बड़ा व प्रभावशाली उदाहरण और क्या हो सकता है? सचमुच समाज व राष्ट्र पर रहे जैनाचार्यों के उपकारों को कभी भुलाया नहीं जा सकता.
आत्मसाधना और धर्म-प्रभावना से पूत-पवित्र जैनाचार्यों की यह गरिमापूर्ण आध्यात्मिक परम्परा श्रमण भगवान महावीर के पूर्व और उनके बाद भी निरन्तर गतिशील रही है. हर जैनाचार्य ने विविध सात्त्विक क्रियाकलापों के द्वारा इसे उष्मा प्रदान करने का यथाशक्य प्रयास किया है. जैनाचार्यों की इस अटूट श्रृंखला में शासन प्रभावक के रूप में एक अर्वाचीन नाम है: ओजस्वी प्रवक्ता आचार्य प्रवर श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब का. आचार्यश्री का बहुमुखी विराट व्यक्तित्व और प्रभावशाली कृतित्व समय के शाश्वत हस्ताक्षर हैं.
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सचमुच ही आने वाला वक्त आपको साहित्य-संरक्षक, संस्कार-निर्माता और एक महान युगपुरुष के रूप में अमर करेगा
जन्म और बाल्यकाल अनेक महापुरुषों के जन्म और कर्म की अमर घटनाओं के साक्षी बंगाल प्रान्त का एक ऐतिहासिक नगर है : अजीमगंज बंगलादेश की सीमा पर स्थित तत्कालीन मुर्शिदाबाद स्टेट का यह सुप्रसिद्ध नगर अपने में जैनों की अपार वैभव - सम्पन्नता और अद्भुत धर्म - भावना को समेटे हुए है. उत्तुंग शिखरों से सुशोभित और सम्पत्ति के सदुपयोग के प्रतीक के रूप में विनिर्मित सात भव्य व्यक्तिगत जिन -प्रासादों के इस नगर में १० सितम्बर १९३५ के मंगल दिन प्रेमचन्द' के नाम से एक ऐसी विरल आत्मा ने जन्म लिया था, जिसने सावधानी पूर्वक समय के साथ-साथ कदम बढ़ा कर ‘राष्ट्रसंत महान जैनाचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज' के मशहूर नाम से अपने जीवन को आशातीत सार्थकता व अभूतपूर्व सफलता प्रदान की.
जन्म से तीन माह पूर्व ही पिता श्री रामस्वरूपसिंहजी की छाया को खो चुके बालक प्रेमचन्द की सम्पूर्ण परवरिश श्रद्धेय माँ भवानीदेवी ने कुशलता के साथ सम्पन्न की. बालक की तेजस्वी मुखमुद्रा, सौम्य प्रकृति, चमक भरी आँखे इत्यादि से उसके उज्ज्वल भावी का
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अहसास तो प्रारम्भ से ही सभी को हो आया था. लब्धिचन्द' के लुभावने नाम से परिचितों में प्रिय बने प्रेमचन्द ने शुरू से ही माता के बतलाए आदर्श जीवन - सूत्रों को बराबर थाम लिया. रामस्वरूपसिंहजी के जाने के बाद कमर कसकर जीने तथा हर परिस्थिति को सहजता से झेलने की मानसिकता तो भवानीदेवी ने बना ही डाली थी. माता भवानीदेवी की इस विचारधारा ने बालक प्रेमचन्द को गहराई से प्रभावित किया. शैशव से ही प्रेमचन्द के कोमल कदम जीवन की कठोर डगर पर चलने के आदी हो गये. निर्भीकता और सन्मार्ग पर निरन्तर संघर्ष जीवन के ये दोनों बहुमूल्य सूत्र, जो
जन्म के साथ ही प्रेमचन्द को माता से विरासत में मिले थे, आज तक की आचार्य पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज की सफल जीवन यात्रा में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए हैं.
शिक्षा और संस्कार
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माँ के दिशा- निर्देशन में आगे बढ़े होनहार प्रेमचन्द छ: वर्ष की उम्र में ज्ञानार्जन के लिए अजीमगंज के 'श्री रायबहादूरबुधसिंह प्राथमिक विद्यालय में दाखिल किये गये. छट्ठी कक्षा तक की प्राथमिक शिक्षा प्रेमचन्द ने यहीं पर अर्जित की. विद्याभ्यास के क्षेत्र में प्रेमचन्द कभी सन्तुष्ट नहीं हुए. अध्ययन के प्रति अपार लगन, अथक परिश्रम और अद्भुत स्मरण शक्ति ने प्रेमचन्द का नाम
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विद्यालय के होनहार विद्यार्थियों में दर्ज करा दिया.
तन्दुरुस्त काया, निरन्तर निखरती प्रतिभा, सतत उद्यमशीलता इत्यादि ने प्रेमचन्द की विकास - यात्रा को अनोखा रूप दिया. आपके पिता अजीमगंज के लब्धप्रतिष्ठ ज़मीन्दार राजा श्री निर्मलकुमारसिंहजी नवलखा की आलीशान कोठी में पारिवारिक स्वजन की भाँति कार्यरत थे. माता भी उन्हीं के यहाँ घरेलू प्रभाग की प्रभारी थीं. नतीजन प्रेमचन्द की जीवन - शैली प्रारम्भ से ही एक महान घराने की उच्च परम्पराओं के अनुरूप निर्मित हुई. शान से जीना, बन - ठन कर चलना, अदब से व्यवहार करना, सभ्यता से खाना, सौम्यता से बोलना,स्वच्छता पूर्वक रहना इत्यादि सभी - कुछ नवलखा खानदान में सहज था, जो कि प्रेमचन्द के जीवन - व्यवहार में भलीभाँति उतरा.
अजीमगंज उस ज़माने में यतियों का केन्द्र था. अजीमगंज के करीब - करीब सभी जमीन्दारों के यहाँ बालकों के अध्यापन तथा धार्मिक - शिक्षण के लिए यतिजी महाराज आया करते थे. नवलखा परिवार में यति श्री मोतीचन्दजी का नियमित रूप से आना - जाना रहता था. फलतः शुरु से ही प्रेमचन्द में सुसंस्कारों का सिंचन हुआ, जैन इतिहास और अध्यात्म की बातें सुनने को मिली. निर्मल - निर्दोष बाल - मन आध्यात्मिक जीवन - धारा का अनुरागी बन गया. फिर यह प्रवाह अबाधित जारी ही रहा. आख़िरकार एक दिन अन्तःकरण की उर्वर
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भूमि पर शैशव में हुए अध्यात्म के इस बीज - वपन से ही प्रेमचन्द के जीवन में प्रव्रज्या के अंकुर फूटे.
संत - समागम तेरह वर्ष तक मातृभूमि की पूत - पवित्र धूल में पलते - बढ़ते प्रेमचन्द छट्टी कक्षा तक की पढ़ाई सम्पन्न कर आगे के अध्ययन के लिए शिवपुरी के सुविख्यात 'श्री वीर तत्त्व प्रकाशक मण्डल ' द्वारा संयोजित 'जैन संस्कृत विद्यालय' में प्रविष्ट हुए. शास्त्र विशारद आचार्य प्रवर श्री विजय धर्मसूरीश्वरजी महाराज साहेब के अथक प्रयत्नों से निर्मित/स्थापित और उन्हीं के विद्वान शिष्यरत्न मुनिराज श्री विद्याविजयजी महाराज के कुशल निर्देशन में संचालित इस ऐतिहासिक शिक्षण - संस्थान में प्रेमचन्द ने आठवीं कक्षा उत्तीर्ण की. अध्ययन के इस महत्त्वपूर्ण दौर में उन्हें मुनिराज श्री विद्याविजयजी महाराज का पावन सान्निध्य व समागम मिला. मुनिश्री के विशेष प्रयत्नों की बदौलत ही इस संस्थान में प्रेमचन्द की बौद्धिक प्रतिभा का अभूतपूर्व विकास हुआ. केवल दो वर्षों के इस छोटे - से अध्ययन - काल में प्रेमचन्द ने अनेक सफलताएँ अर्जित की. धार्मिक अध्ययन के रूप में 'पंच प्रतिक्रमण' व 'जीव विचार प्रकरण' भी आपने यहीं पर कंठस्थ किये. मुनिश्री की अनूठी व आकर्षक प्रवचन - शैली से प्रेरित होकर आपने छोटे - छोटे भाषण देने भी यहीं पर सीखे. भाषणों की क्रमिक
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इस प्रगतिशील प्रक्रिया ने ही एक दिन प्रेमचन्द को जैन शासन का ओजस्वी प्रवक्ता बनाया.
आज मध्यप्रदेश के खरगोन जिले में कलेक्टर के रूप में कार्यरत श्री शरदचन्द्र पण्ड्या शिवपुरी के अध्ययन - काल में आपके सन्निकट मित्र व सहपाठी थे. जयभिक्खु, रतिलाल दीपचन्द देसाई और कुछ समय के लिए श्री लालबहादूर शास्त्री को विद्या - दान देनेवाली इस शिक्षण - संस्था में ईसवी - सन् १९५० तक रहने के बाद प्रेमचन्द कलकत्ता चले आए. यहाँ एक रिश्तेदार के घर में रहते हुए आपने श्री विशुद्धानन्द सरस्वती उच्च माध्यमिक विद्यालय' में नौवीं व दसवीं कक्षा की शिक्षा पूरी की. इसके बाद अध्यात्मिक गतिविधियों की ओर निरन्तर प्रेरित करते मन ने आपको व्यावहारिक अध्ययन में आगे बढ़ने नहीं दिया.
भारत - भ्रमण ईसवी - सन् १९५२ के अन्त में प्रेमचन्द कलकत्ता से पुनः अजीमगंज चले आए. यहाँ आकर आपने स्वामी विवेकानन्द के साहित्य को काफी पढ़ा. अध्यात्म और जीवन- आदर्शों की दिशा में आगे बढ़ने के लिए स्वामी विवेकानन्द के विचारों ने भी प्रेमचन्द को उत्साहित किया. फिर शीघ्र ही प्रेमचन्द भारत के प्रमुख ऐतिहासिक नगरों की यात्रा पर निकल पड़े. आपने पाण्डिचेरी, देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश, मथुरा, दिल्ली, आगरा, कोटा,
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ग्वालियर इत्यादि नगरों के अनेक ऐतिहासिक स्थलों, आश्रमों, धार्मिक - आध्यात्मिक संस्थानों को निकट से देखा - परखा
जीवन - शिल्पी की खोज
परिभ्रमण के दौरान प्रेमचन्द पालीताणा महातीर्थ के यात्रार्थ अहमदाबाद भी आए. यहाँ आप अपने शिवपुरी के अध्ययन - काल के एक सहपाठी मित्र के घर मेहमान बनें. बाद में उन्हीं के साथ पालीताणा महातीर्थ की यात्रा कर आपने जीवन को धन्यता प्रदान की.
पालीताणा से अहमदाबाद लौट आने के बाद अपने उक्त मित्र के साथ ही प्रेमचन्द निकटवर्ती ग्राम साणंद में बिराजित परम श्रद्धेय, शासन - प्रभावक, सिद्धान्त - वेत्ता, युगदृष्टा, महान संयमी, अजात - शत्रु आचार्य देव श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब के दर्शनार्थ रवाना हुए. प्रेमचन्द के जीवन - इतिहास में यह दिन स्वर्णिम अध्याय के रूप में अंकित हुआ. आचार्यश्री के दर्शन कर प्रेमचन्द आनन्द -विभोर हो उठे. आचार्यश्री को पाकर जीवन में पहली बार आपको अपनी जिज्ञासाओं और समस्याओं का सम्यक् समाधान मिला. आचार्यश्री की दिव्यवाणी ने प्रेमचन्द की मनोभूमि पर वैराग्य का सिंचन किया. नयनों ने देखा, कानों ने सुना और अन्तर हृदय ने स्वीकार कर लिया. आचार्यश्री का परम सान्निध्य और वात्सल्यपूर्ण मार्गदर्शन आपके यात्रा
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- पथ का महत्त्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ. प्रेमचन्द वीतराग के बतलाए अमर प्रव्रज्या - पथ पर चलने को तत्पर हो उठे. सचमुच आचार्य प्रवर का पावन सान्निध्य प्रेमचन्द की अभूतपूर्व उपलब्धि थी. मन - ही मन आचार्यश्री के समक्ष प्रव्रज्या ग्रहण करने का शुभ संकल्प कर प्रेमचन्द अपने सहपाठी मित्र के साथ ही अहमदाबाद चले आए. इस प्रकार प्रेमचन्द के इहलौकिक जीवन - शिल्पी की महान खोज पूरी हुई.
घर को अलविदा वीतराग का पथ वीरों का पथ है. बुज़दिलों का यहाँ काम नहीं. बंगाली खून प्रेमचन्द को निरन्तर चुनौती दे रहा था और प्रेरित कर रहा था साहस व सद्भावना के साथ इस अमर पथ पर चल पड़ने के लिये. आचार्य भगवन्त के असरकारक शब्द कानों में गूंज रहे थे : "संसार में आसक्त व्यक्ति के लिए संयम काँटों की डगर है. साधक तो कांटों को फूल समझते हैं. बिना कष्ट के इष्ट की प्राप्ति नहीं होगी. सहन करने वाला ही अन्ततः सिद्ध बनेगा."
प्रेमचन्द मित्र से अनुमति लेकर अजीमगंज के लिए चल पड़े. रेल - यात्रा प्रारम्भ हुई. सफ़र में अकेले एक कोने में बैठे प्रेमचन्द की पैनी आँखें रेल की खिड़की से प्रकृति का परिदर्शन कर रही थीं. मनोमंथन प्रारम्भ हुआ : 'जीवन का क्या अर्थ है?'
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तीन दिन की अविराम यात्रा के बाद अजीमगंज आया. घर आकर भी प्रेमचन्द अपने में ही खोये हुए थे. कुछ आवश्यक व्यावहारिक कार्यों को निपटाकर प्रेमचन्द ने संयम ग्रहण करने की अपनी तमन्ना अजीमगंज के अपने एक निकटतम मित्र के सामने अभिव्यक्त की. साथ ही इस तथ्य को सर्वथा गुप्त रखने का विनम्र सुझाव भी आपने मित्र को दिया माता भवानीदेवी प्रेमचन्द की इस अन्तर - भावना से पूरी तरह अनभिज्ञ थी.
यकायक एक दिन प्रातः माँ को प्रणाम कर किसी को बिना कुछ बताए प्रेमचन्द घर से निकल पड़े. जेब में कुछ रुपयों के अलावा हाथ खाली थे पर जीवन को संयम की सुरभि से महकाने की अहोभावना थी. बस, इस दिन के बाद प्रेमचन्द कभी घर नहीं आए. प्रेमचन्द अलविदा.
वीतराग के पथ पर
गृहत्याग के बाद दिल्ली - बरोड़ा होते हुए प्रेमचन्द दिपावली के दिन अहमदाबाद पहुँचे. उस दिन अपने सहपाठी मित्र के यहाँ रहकर नूतन वर्ष की सुप्रभात होते - होते आप साणंद पहुँच गये. अपने जीवन निर्माता आचार्य देव श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य में पहुँचकर आपको अपार सन्तोष हुआ. बाती को घी मिला. वैराग्य की भावना में तीव्रता आयी. नूतन
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वर्ष के मांगलिक - श्रवण के बाद प्रेमचन्द ने आचार्यश्री के समक्ष अपनी अभिलाषा सविनय व्यक्त की प्रेमचन्द की भावनाओं का आदर करते हुए आचार्यश्री ने उनको कुछ दिन अपने साथ रहने का सुझाव दिया. आचार्यश्री के सान्निध्य में प्रेमचन्द श्रमण जीवन के आचार - विचारों का लगन से अभ्यास करने लगे. आगे का धार्मिक - तात्त्विक अध्ययन भी आपने प्रारम्भ कर दिया. प्रेमचन्द का वैराग्यवासित जीवन देखकर आचार्यश्री ने एक दिन संघ के पदाधिकारियों के समक्ष दीक्षा - महोत्सव के आयोजन का प्रस्ताव रखा. साणंद का संघ, जैसे इस महोत्सव की प्रतीक्षा में ही था, आचार्य प्रवर के प्रस्ताव को शिरोधार्य कर तत्काल महोत्सव की तैयारियों में जुट गया.
ईसवी - सन् १९५५ के १३ नवम्बर की सुप्रभात हुई.साणंद आज एक महान ऐतिहासिक घटना का साक्षी बनने को तत्पर था. जनमेदिनी उमड़ी. संयम के गीत गाये जाने लगे. शहनाइयों के सुर बजे. प्रेमचन्द राजकुमार की भाँति सजे. जहाँ देखों वहाँ मात्र वीतराग के बतलाए अनूठे संयम - मार्ग की भावभीनी अनुमोदना के सुहावने स्वर थे. शुभ घड़ी आयी. प्रेमचन्द के संकल्प की दृढ़ता ने विचारों को वास्तविकता का ठोस परिणाम दिया. आचार्यश्री ने मुमुक्षु प्रेमचन्द को रजोहरण अर्पित किया. मुण्डन के बाद उज्जवल - धवल वस्त्रों में संयम
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की भव्यता को समेटे मुमुक्षु प्रेमचन्द 'मुनि पद्मसागरजी महाराज' के रूप में श्रद्धासम्पन्न लोगों के दिल -ओ - दिमाग पर छा गये. श्रमण - जीवन में आपको आचार्य देव श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. के विद्वान शिष्य आचार्य प्रवर श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी महाराज का महान शिष्यत्व मिला.
अध्ययन ही एक लगन दीक्षा अंगीकार करने के बाद मुनि पद्मसागरजी श्रमण - जीवन को भीतर व बाहर से संवारने तथा आखिरकार उसे सार्थक बनाने के लिए समग्रता से लग गये. आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी के कुशल व सफल सान्निध्य में मुनि पद्मसागरजी ने सुन्दर अध्ययन के साथ - साथ साधु जीवन की आचार - मर्यादाओं को देखा, समझा और भलीभाँति उनकी परिपालना की मुनिजीवन के स्वल्प समय में ही पद्मसागरजी ने अपनी विरल प्रतिभा का परिचय दिया. कुशाग्र बुद्धि, तीव्र स्मरण - शक्ति और प्रखर प्रतिभा के धनी मुनि पद्मसागरजी केवल विद्या के क्षेत्र में ही नहीं, आध्यात्मिक जगत में भी तेजी से आगे बढ़े. धैर्य, समन्वय, मैत्री, करुणा, समता इत्यादि जीवन उन्नायक गुणों को भी आपने आत्मसात् कर लिया. विशेष कर अपने श्रद्धेय दादागुरु व गुरुदेव के प्रति आपका अद्भुत समर्पण - भाव रहा.
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सहन की साधना
महानता यूँ ही उपलब्ध नहीं हो जाती. उसके लिए तो हर संघर्ष को झेलना पड़ता है, कठिनाइयों में भी दृढ़ रहना पड़ता है. मुनि पद्मसागरजी को भी अपने प्रारम्भिक श्रमण-जीवन में एक नहीं, अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, किन्तु हर संघर्ष में आप अडिग रहे. दुःखों को क्षणिक समझकर जीने की आपकी मानसिकता गजब की रही.
एक वे भी दिन थे जब बिना किसी के सहारे आपको जीना पड़ा, विचरण करना पड़ा, कभी गहरी बीमारियों की दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों से आप गुज़रे. कभी रक्तवमन की व्याधि के दौरान भी पदयात्राएँ करनी पड़ी. अपने प्रथम व द्वितीय शिष्य के दीक्षा-प्रसंग को लेकर भी आपको काफी परेशान होना पड़ा. उन दिनों सड़कों को छोडकर आपको ढाणियों और खेतों के बीच की पगडंडियों में विहार करने पड़े. कहा जाता है कि मारने वाले से बचाने वाले के हाथ बहुत लम्बे होते हैं. मुनि पद्मसागरजी का प्रारब्ध भी अतीव प्रबल था. नागौर व पाली के कुछ श्रध्दालु सज्जनों ने आपको तन-मन-धन से सुन्दर सहयोग दिया. निःसंदेह आज आचार्य प्रवर जीवन की महानतम ऊँचाइयों को छू चुके हैं, हजारोंलाखों के पूजनीय हैं परन्तु वे दिन भुलाए नहीं जा सकते.
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अतीत की उन भली-बुरी घटनाओं से वर्तमान भिन्न नहीं हो सकता. आपका वर्तमान अतीत की सहनशीलता पर ही निर्मित हुआ है. अतीत के संघर्ष ने ही वस्तुतः आपके वर्तमान को स्वर्णिम बनाया है.
उन्नति के शिखर
किसी ने कहा भी है :
"संघर्षों में जो व्यंग्य-बाण सहते हैं, आजीवन पथ पर दृढ़ता से रहते हैं; जब फलितार्थ होता है अथक परिश्रम, तो वे ही विरोधी बुध्दिमान कहते हैं."
मुनि पद्मसागरजी के जीवन पर यह मुक्तक ठीकठीक चरितार्थ होता है. यह संसार शक्ति का पूजक है. शक्तिहीन की यहाँ कोई गिनती नहीं होती. उदीयमान सूर्य को हर-कोई नमस्कार करता है. कहीं आगे बढ़ जाने के बाद कुछ विरोधियों ने मुनि पद्मसागरजी को बुध्दिमान और महान कहा कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिनके हालात देखकर अपार दया आती है. वे बेचारे खुद की प्रगति के ध्येय को एक ओर छोड़कर आज तक मात्र पद्मसागरजी के प्रति विरोध और ईर्ष्या की ज्वाला में जलते रहे हैं. जो लोग चलने में असमर्थ होते हैं, वे राह के किनारे खड़े रहकर अन्य राहगीरों पर पत्थर मारा करते हैं. वस्तुतः यह उन दुर्भाग्यपूर्ण लोगों का मुर्खतापूर्ण कृत्य होता है. औरों की खुशियों को न देख पाना जगत
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के कुछ विशेष लोगों का स्वभाव होता है. अनेक लोगों को स्वयं की अवनति नहीं खलती, बल्कि औरों की उन्नति से वे जलते-कुढ़ते हैं.
लेकिन किसी के जलने या विरोध करने से आगे बढ़ने के इरादे बदल नहीं दिये जाते. विरोध और संघर्ष तो सतत आगे बढ़ते रहने का सन्देश देते है. मुनि पद्मसागरजी ने विरोध के तूफान में मौन रहना श्रेष्ठ समझा, कान अनसुने कर दिये, आँखों को गन्दगी से हटा लिया और निरन्तर आगे से आगे बढ़ते रहे.
वर्षों पहले महान ध्येय को सामने रखकर जो कारवां सफ़र पर निकला था, वह आज भी जारी है. अनेक विरोधी अब थक चुके हैं. कुछ-एक का सुर अब भी जारी है. लगता है शायद आगे भी रहेगा. इतना सब - कुछ हो जाने और होते रहते भी सच्चाई,साहस और सद्भाग्य के साथ ने आखिरकार मुनि पद्मसागरजी को आगे बढ़ा ही दिया.
बौध्दिक प्रतिभा, व्यावहारिक कुशलता और जिनशासन के प्रति अपार आस्था को देखकर मुनि पद्मसागरजी को २८ जनवरी १९७४ को गणि पद से तथा ८ मार्च १९७६ को पंन्यास पद से विभूषित किया गया. तत्पश्चात् योग्यता को देखकर ९ दिसम्बर १९७६ के ऐतिहासिक दिन महेसाणा की पावन धरा पर एक विशाल व शानदार समारोह में आपको आचार्य पद प्रदान किया गया. आचार्य बन जाने के बाद पद्मसागरसूरिजी महाराज की ख्याति में भारी वृद्धि हुई.
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ओजस्वी प्रवक्ता आचार्यश्री के प्रवचनों के सन्दर्भ में लोग कहते हैं कि आप जादूगर हैं. प्रवचन में लोगों को बांधे रखने के आपके सामर्थ्य की होड़ नहीं हो सकती. आप प्रभावशाली प्रवचनकार व बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं. भाषा की सरलता, कथयितव्य की स्पष्टता, अभिप्राय की गम्भीरता, विचारों की व्यापकता, प्रस्तुति की मौलिकता आचार्य पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज के प्रवचनों की विशेषता है. नाभि से निकले आपके सचोट शब्द श्रोताओं के हृदय को गहराई तक आंदोलित करते हैं. आपके प्रवचनों ने जनता में अद्भुत लोकप्रियता प्राप्त की है. जैन शासन के महान प्रवक्ता के रूप मे तो आज समग्र जैन समाज को आप पर नाज़ है. आपके ओजस्वी प्रवचनों से व्यक्ति और समाज में आए परिवर्तन तो बेहिसाब हैं
यशस्वी काम : भारी बहुमान
आचार्य बनने के बाद भावनगर (गुजरात) के अपने पहले चातुर्मास में दादागुरु व गुरुदेव के सान्निध्य में पद्मसागरसूरिजी महाराज ने दो महत्त्वपूर्ण काम किये थे. बाल - दीक्षा पर प्रतिबन्ध के भावनगर संघ के ठराव को अपनी अपार लोकप्रियता के आधार पर परिवर्तित करवाकर आचार्यश्री ने भव्य समारोह में एक बाल मुमुक्षु
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को समग्र संघ की सहमति पर दीक्षा प्रदान करवाई थी. इतना ही नहीं, सात दशक की अवधि में भावनगर - संघ में कोई उपधान तप भी नहीं हुआ था. आचार्य प्रवर ने अपने दादागुरुदेव की निश्रा में उपधान तप की आराधना का ऐतिहासिक आयोजन करवाकर उक्त परम्परा को भी वाहियात सिद्ध किया था.
अपने अनन्य एवं गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री बाबुभाई जसभाई पटेल को कहकर आपने जुंजय महातीर्थ के बाँध में होती जीव - हिंसा पर भी प्रतिबन्ध लगवाया था.
बम्बई की महानगरपालिका के विद्यालयों में पढ़ते बालक - बालिकाओं को 'फुड - टॉनिक' के रूप में अण्डे दिये जाने के सर्वप्रथम बार आए प्रस्ताव को आचार्यश्री ने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री शंकरराव चव्हाण को कहकर खारिज करवाया था. इस तथ्य की विधिवत् घोषणा स्वयं मुख्यमंत्री ने लेमिंगटन रोड़ पर स्थित 'नवजीवन सोसायटी' में आयोजित आचार्य प्रवर के एक ज़ाहिर प्रवचन में आकर की थी.
अपने सामर्थ्य के आधार पर ऐसे छोटे - बड़े सैकड़ों सत्कार्य करवाकर आचार्य पद्मसागरसूरिजी ने एक ओर जैन शासन की महान प्रभावना की तो दूसरी ओर लोक - कल्याण का मार्ग भी प्रशस्त किया.
आचार्यश्री से प्रभावित होकर आपके संयम-पर्याय
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की रजतजयन्ती के अवसर पर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति माननीय श्री संजीव रेड्डी ने बम्बई के राजभवन के विशाल 'दरबार हॉल' में आपका शाही अभिनन्दन किया था.उल्लेखनीय है कि स्वयं राष्ट्रपति महोदय ने सेठ कस्तुरभाई लालभाई से मिलकर इस विराट समारोह के लिए जैन साधुओं की आचार-मर्यादाओं के अनुरूप समग्र व्यवस्था करवाई थी.वाकई आचार्यश्री का बहुमान आपकी महानता और जिनशासन की साधुता का बहुमान था.
दक्षिण की यात्रा पर __ आचार्यश्री की दक्षिण भारत की यात्रा ने तो सचमुच ही आपको राष्ट्रसंत बना दिया. दक्षिण की अपनी ऐतिहासिक यात्रा के दौरान आपने लोक - कल्याण, धर्म - जागरण और स्थानीय जनता की आध्यात्मिक चेतना के विकास व पोषण के लिए अभूतपूर्व कार्य किये. दक्षिण भारत ने अनेक महान साधुओं का पावन सान्निध्य पाया है. आगे भी उसे अनेक विरल प्रतिभाओं का संयोग मिलेगा, परन्तु पद्मसागरसरिजी और उनके कार्य अपने आप में विशिष्टताओं से भरे हैं.
आचार्य पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज के आगमन ने दक्षिण भारत को नई दिशा दी. उसे परम आलोक की अनुभूति करायी. दक्षिण भारत का आपका प्रवास जैन संघ की चेतना में प्राणों का संचार करता ऐतिहासिक
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घटनाक्रम है. आपके मधुरतापूर्ण व्यवहार से अनेक जैन संघों में अनुशासनप्रियता का जन्म हुआ. आपके सौजन्यशील व शालीन उपदेशों से वर्षों से चले आ रहे अनेक विवाद सरलता से हल हो गए. संघ एक जुट हुआ. बरसों बाद दक्षिण भारत के जैन संघों व धर्मजिज्ञासु जनता को एक सफल - कुशल नेतृत्व का अनुभव हुआ. दक्षिण भारत में ज्ञान की विलुप्त धारा एक बार फिर तेज गति से बहने लगी. निःसंदेह दक्षिण भारत आपको कभी विस्मृत नहीं कर सकेगा. समय - समय पर वहाँ की श्रद्धालु जनता को एक महान सान्निध्य की अनुपस्थिति खलेगी.
सम्मेत - शिखर का विवाद
जैन समाज की श्रद्धा का प्रतीक और बीस तीर्थंकरों की निर्वाण - भूमि ' श्री सम्मेत - शिखर महातीर्थ ' का वर्षों तक चला विवाद भी आचार्य देव के अथक प्रयासों की बदौलत निपट सका. करीब - करीब पूरी तरह विवाद में उलझ चुके इस महातीर्थ को भलीभाँति बचा लेने में सेठ श्रेणिकभाई कस्तुरभाई के विशेष अनुरोध पर आचार्यश्री ने अहम् भूमिका निभायी थी.
दो वर्ष की कड़ी मेहनत और अनेक बैठकों के बाद पटना हाईकोर्ट के माध्यम से अपना ‘एवोर्ड' देकर परस्पर न्यायालय में दाख़िल ८४ मुकदमों की वजह से
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बेशुमार कानूनी उलझनों में फंसे इस विवाद का आचार्य प्रवर ने ऐतिहासिक स्थायी समाधान किया. यूँ आचार्य पद्मसागरसूरीश्वरजी 'सम्मेत शिखर तीर्थोद्धारक' के रूप में अमर हो गये.
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अमर कृतित्व
आचार्यश्री का व्यक्तित्व जितना प्रभावपूर्ण है, उतना ही गोरवपूर्ण है आपका कृतित्व भी सम्यग्ज्ञान और आध्यात्मिक साधना के संगम के रूप में अहमदाबाद के समीप कोबा ग्राम में विनिर्मित 'श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र जैन शासन को समर्पित आचार्य देव का अमर सृजन है. संस्थान में सुरक्षित लाखों हस्तप्रतें, स्वर्णलिखित ग्रन्थ, बेशक़ीमती प्रत चित्र, अनेक मूर्तियाँ, सैकड़ों ताड़पत्रीय ग्रन्थ इत्यादि बहुमूल्य पुरातन सामग्री जैन शासन की अमूल्य धरोहर है. आचार्य श्री के इस परिश्रम का वास्तविक मूल्यांकन तो भविष्य करेगा.
एक ही कामना
अन्त में अन्त:करण के अनन्त उर्मिभावों के साथ यही मंगल कामना कि आचार्य प्रवर का देह सदैव स्वस्थ रहे. आप दीर्घायु बनें. ताकि आपके कर कमलों से हो रहे जन कल्याण के महान कार्य और जिनशासन की अपूर्व प्रभावना का यह सिलसिला लम्बे अरसे तक जारी
रहे.
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नाम
पिता का नाम
माता का नाम
जन्म
प्रारम्भिक शिक्षा
धार्मिक शिक्षा
भाषा ज्ञान
दीक्षा
आचार्य प्रवर : संक्षिप्त परिचय
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दीक्षा-प्रदाता
गुरु
गणि-पद
पंन्यास - पद
आचार्य पद
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प्रेमचन्द / लब्धिचन्द
: श्री रामस्वरूपसिंहजी
: श्रीमती भवानीदेवी
: १० सितम्बर १९३५, मंगलवार को
अजीमगंज (बंगाल) में
: अजीमगंज में
: शिवपुरी संस्थान में
बंगाली, हिन्दी, गुजराती, संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी व अंग्रेजी
: १३ नवम्बर १९५४, शनिवार को साणंद (गुजरात) में
: आ. श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा : आ. श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म.सा.
: २८ जनवरी १९७४, सोमवार को जैन नगर, अहमदाबाद में
: ८ मार्च १९७६, सोमवार को जामनगर (गुजरात) में
: ९ दिसम्बर १९७६, गुरुवार को महेसाणा
(गुजरात) में
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तीर्थ-यात्राएँ
: तक़रीबन भारत के छोटे-बड़े सभी तीर्थों
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भ्रमण
: राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक,
आन्ध्रप्रदेश, तामिलनाडु तथा गोआ पद-यात्रा ': कोई ४३००० किलोमीटर से अधिक प्रतिष्ठाएँ : सैंतीस उपधान तप : ग्यारह यात्रा - संघ : पाँच दीक्षाएँ : सैंतीस भाई-बहनों की शिष्य-प्रशिष्य : बारह-बारह साहित्य प्रकाशन : हिन्दी-गुजराती व अंग्रेजी में छोटी-बड़ी
कुल तेईस पुस्तकें
यात्रा - संघ ईसवी-सन्
कहाँ से कहाँ
क्रम
१९६० १९८४ १९८५ १९८५ १९८९
नागौर से मेड़तारोड़ तीर्थ नागौर से गोगेलाव तीर्थ बालोतरा से नाकोड़ा तीर्थ कोबा से पालीताणा महातीर्थ साहुकार पेठ से केसरवाड़ी तीर्थ
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चातुर्मास - तालिका ईसवी-सन्
स्थल
- r m03
१९५५* १९५६. १९५७. १९५८ १९५९* १९६० १९६१ १९६२ १९६३ * १९६४ १९६५
१०
सादड़ी, राजस्थान पाली, राजस्थान जोधपुर, राजस्थान साणंद, गुजरात. भावनगर, गुजरात नागौर, राजस्थान फलौदी,राजस्थान नागौर, राजस्थान भावनगर, गुजरात नागौर, राजस्थान पाली, राजस्थान पिण्डवाड़ा, राजस्थान साणंद, गुजरात अरुणसोसायटी, अहमदाबाद मलाड़ (पश्चिम), बम्बई सायन (पश्चिम), बम्बई गोडीजी, पायधूनी, बम्बई नवरंगपुरा, अहमदाबाद जैन नगर, अहमदाबाद गोवालियाटेंक, बम्बई
११
१२
१९६६
१3
१९६७
१४
१५
१६
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१९६८ १९६९ १९७० १९७१ १९७२ १९७३ १९७४
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१९७५ १९७६ १९७७* १९७८ १९७९ १९८० १९८१ १९८२ १९८३ १९८४* १९८५ १९८६ १९८७ १९८८ १९८९ १९९० १९९१
चौपाटी, बम्बई उस्मानपुरा, अहमदाबाद भावनगर, गुजरात वालकेश्वर, बम्बई निपाणी, कर्नाटक चिकपेट, बेंगलोर साहुकार पेठ, मद्रास चिकपेट, बेंगलोर वालकेश्वर, बम्बई पाली, राजस्थान उस्मानपुरा, अहमदाबाद साबरमती, अहमदाबाद चौपाटी, बम्बई साहुकार पेठ, मद्रास चिकपेट, बेंगलोर भायखला, बम्बई वालकेश्वर, बम्बई
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२
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३५ ३६ ३७
* ये चातुर्मास पूज्य आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. के
पावन सान्निध्य में सम्पन्न हुए. • इन दोनों चातुर्मासों में आचार्य श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म.सा. का सान्निध्य था. ये दो चातुर्मास आचार्य श्री भद्रबाहुसागरसूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य में किये गये.
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अंजनशलाका-प्रतिष्ठा महोत्सव ईसवी-सन्
स्थल
: r rm » r
9 vr
१९७५ १९७८ १९७८ १९७९ १९८० १९८१ १९८१ १९८१ १९८२ १९८२ १९८२ १९८२ १९८२ १९८३ १९८३ १९८४ १९८४ १९८४ १९८५
अतुल प्लांट, गुजरात तड़केश्वर, गुजरात वालकेश्वर, बम्बई साहुपुरी, कोल्हापूर यलगुण्डपालियम्, बेंगलोर दावणगेरे, कर्नाटक दावणगेरे, कर्नाटक तिरुवन्नमल्लइ, तामिलनाडु सुलेपट्टालम्, मद्रास नेल्लुर, आन्ध्रप्रदेश अरिहन्त एपार्टमेन्ट, मद्रास गांधीनगर, बेंगलोर जयनगर, बेंगलोर मुरगुड़, कर्नाटक शिवाजी नगर, पूना निमाज, राजस्थान बिराठीया, राजस्थान पाली, राजस्थान * सिरोही, राजस्थान
: " +
+
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१९८५
१९८५ १९८५ १९८५ १९८६ १९८७ १९८८ १९८८ १९८८ १९८९ १९८९ १९८९ १९८९ १९९० १९९० १९९० १९९१
सिरोही, राजस्थान कोलरगढ़ तीर्थ, राजस्थान राखी, राजस्थान लावण्य सोसायटी, अहमदाबाद गांधीनगर, गुजरात कोबा, गुजरात गोरेगाम (पश्चिम), बम्बई . कड़प्पा, आन्ध्रप्रदेश महावीर कोलोनी, मद्रास पोरूर, मद्रास गुजराती वाड़ी, मद्रास अमर कोइल स्ट्रीट, मद्रास हिरियुर, कर्नाटक मण्डिया, कर्नाटक कणगले, कर्नाटक महावीर नगर,कांदीवली(प.),बम्बई शंकर लेन,कांदीवली (प.), बम्बई देवकी नगर, बोरीवली(प.),बम्बई
१९९१
* इस महोत्सव में मुख्य सान्निध्य पूजनीय आचार्य प्रवर . श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. का था. • इसमें मुख्य निश्रा पूज्य आचार्य देव
श्री सुबोधसागरसूरीश्वरजी म.सा. की थी.
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शिष्य-प्रशिष्य परिवार पंन्यास प्रवर श्री धरणेन्द्रसागरजी म. सा. * गणिवर्य श्री वर्धमानसागरजी म. सा. * मुनि श्री अमृतसागरजी म. सा. * मुनि श्री अरुणोदयसागरजी म. सा. * मुनि श्री विनयसागरजी म. सा. . मुनि श्री देवेन्द्रसागरजी म. सा.. मुनि श्री निर्मलसागरजी म. सा. * मुनि श्री प्रेमसागरजी म. सा. * मुनि श्री निर्वाणसागरजी म. सा.. मुनि श्री विवेकसागरजी म. सा. मुनि श्री अजयसागरजी म. सा. * मुनि श्री विमलसागरजी म. सा. *
श्री अरिहन्तसागरजी म. सा.. मुनि श्री अरविन्दसागरजी म. सा..
श्री महेन्द्रसागरजी म. सा. मुनि श्री नयपद्मसागरजी म. सा..
मुनि श्री पद्मोदयसागरजी म. सा. * __ मुनि श्री प्रशान्तसागरजी म. सा. *
मुनि श्री उदयसागरजी म. सा. * मुनि श्री पद्मरत्नसागरजी म. सा. * मुनि श्री अमरपद्मसागरजी म. सा. मुनि श्री अममसागरजी म. सा.
११
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मुनि श्री गुणरत्नसागरजी म. सा.
मुनि श्री पद्मविमलसागरजी म. सा.. सभी शिष्य सभी प्रशिष्य शेष प्र-प्रशिष्य
उपधान तपाराधना-सूची क्रम ईसवी-सन्
स्थल
or my 30 gw guono
१ १९६९ मामलतदार वाड़ी, मलाड़ (प.) बम्बई
१९७४ पृथ्वी एपार्टमेन्ट, गोवालियाटेंक, बम्बई ३ १९७६ म्यूनिशिपल मार्केट, उस्मानपुरा, अहमदाबाद
१९७७ जैन बालाश्रम, उम्मेदपुर, राजस्थान ५ १९७७ दादावाड़ी, भावनगर, गुजरात *
१९८० मुरगन मठ, धारवाड़, कर्नाटक ७ १९८० जयनगर, बेंगलोर, कर्नाटक ८ १९८२ रासेट कोलोनी, आदोनी, आन्ध्रप्रदेश
१९८७ शेठ मोतीशा जैन मन्दिर, भायखला, बम्बई १० १९८८ केसरवाड़ी तीर्थ, रेडहिल्स, मद्रास ११ १९९० शेठ मोतीशा जैन मन्दिर, भायखला, बम्बई
इस तपाराधना में मुख्य सान्निध्य पूजनीय आचार्य देव श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. का था.
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क्रम
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पुस्तक का नाम
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साहित्य - प्रकाशन
देवनार कतलखाना
मन का धन
प्रेरणा
पाथेय
चिन्तननी केडी
जीवननो अरुणोदय, भाग १ - २
पद्म पराग
पद्म परिमल
प्रवचन पराग
प्रतिबोध
मोक्ष मार्ग में बीस कदम
अवेक्निंग
मित्ति मे सव्व भूएसु जीवन दृष्टि हे नवकार महान
प्रवचन पराग
गोल्डन स्टेप्स टु साल्वेसन
संशय सब दूर भये
आतम पाम्यो अजवालुं
बियोण्ड डाउट
दि लाईट ऑफ लाईफ संवाद की खोज संसारनी सेन्ट्रल जेलनो हुंपण एक केदी छं
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भाषा
हिन्दी
हिन्दी
गुजराती
गुजराती
गुजराती
गुजराती
हिन्दी
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हिन्दी
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हिन्दी
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अंग्रेजी
हिन्दी
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अंग्रेजी
अंग्रेजी
हिन्दी
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शीघ्र ही प्रकाशित हो रहा है।
मुनि श्री देवेन्द्रसागरजी म. द्वारा संकलित-सम्पादित __ अष्टमंगल फाउण्डेशन का गौरवपूर्ण प्रकाशन
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नया सन्देश
- हिन्दी/गुजराती/अंग्रेजी-तीन भाषाओं में कुल ६९
लेखकों की शाकाहार, पर्यावरण, आयुर्वेद, ध्यान-योग, प्राणायाम, एक्यूप्रेसर इत्यादि विविध विषयों पर प्रेरणाप्रद
व मननीय रचनाओं का यशस्वी संकलन. - ८१/," x ११" की साईज, २७५ से अधिक
पृष्ठ, सम्पूर्ण दो रंगी आकर्षक ऑफसेट मुद्रण, सभी रचनाओं के सचित्र शीर्षक, मूल्य केवल १५०/- रुपये.
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अपनी प्रति आज ही सुरक्षित कीजिये
- संपर्क-सूत्रः जे. एम. शाह, १२, कल्याण निकेतन, पुरानी देना बैंक के पास, एस. वी. रोड़, बोरीवली (पश्चिम), बम्बई: ४०० ९२. फोनः ६०५२७६३.
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मुनिश्री द्वारा लिखित/सम्पादित/अनुदित साहित्य
आलोक के आंगन में
आ. कैलाससागरसूरिजी म.,
जीवन-यात्रा : एक परिचय सुवास अने सौन्दर्य
० स्वाध्याय - सूत्र
० स्वाध्याय सूत्र
o आचार्य पद्मसागरसूरिजी
एक परिचय
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O सपना यह संसार
(हिन्दी)
० चिन्ता : प्राची, चिन्तन : सूरज (हिन्दी)
मनस् - क्रान्ति
0
जूठी जगनी माया
० चिन्ता : प्राची, चिन्तन : सूरज (गुज.)
O मानसिक क्रान्ति
(गुज.)
(हिन्दी) प्रेस में
(गुज.) प्रेस में
प्राप्ति - स्थान कीर्तिकुमार एम. शाह,
एफ /१०१, विजापुर ज्ञाती नगर, दामोदर वाड़ी के पास, अशोक चक्रवर्ती रोड़, कांदीवली (पूर्व), बम्बई ४००१०१.
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