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भूमि पर शैशव में हुए अध्यात्म के इस बीज - वपन से ही प्रेमचन्द के जीवन में प्रव्रज्या के अंकुर फूटे.
संत - समागम तेरह वर्ष तक मातृभूमि की पूत - पवित्र धूल में पलते - बढ़ते प्रेमचन्द छट्टी कक्षा तक की पढ़ाई सम्पन्न कर आगे के अध्ययन के लिए शिवपुरी के सुविख्यात 'श्री वीर तत्त्व प्रकाशक मण्डल ' द्वारा संयोजित 'जैन संस्कृत विद्यालय' में प्रविष्ट हुए. शास्त्र विशारद आचार्य प्रवर श्री विजय धर्मसूरीश्वरजी महाराज साहेब के अथक प्रयत्नों से निर्मित/स्थापित और उन्हीं के विद्वान शिष्यरत्न मुनिराज श्री विद्याविजयजी महाराज के कुशल निर्देशन में संचालित इस ऐतिहासिक शिक्षण - संस्थान में प्रेमचन्द ने आठवीं कक्षा उत्तीर्ण की. अध्ययन के इस महत्त्वपूर्ण दौर में उन्हें मुनिराज श्री विद्याविजयजी महाराज का पावन सान्निध्य व समागम मिला. मुनिश्री के विशेष प्रयत्नों की बदौलत ही इस संस्थान में प्रेमचन्द की बौद्धिक प्रतिभा का अभूतपूर्व विकास हुआ. केवल दो वर्षों के इस छोटे - से अध्ययन - काल में प्रेमचन्द ने अनेक सफलताएँ अर्जित की. धार्मिक अध्ययन के रूप में 'पंच प्रतिक्रमण' व 'जीव विचार प्रकरण' भी आपने यहीं पर कंठस्थ किये. मुनिश्री की अनूठी व आकर्षक प्रवचन - शैली से प्रेरित होकर आपने छोटे - छोटे भाषण देने भी यहीं पर सीखे. भाषणों की क्रमिक
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