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के कुछ विशेष लोगों का स्वभाव होता है. अनेक लोगों को स्वयं की अवनति नहीं खलती, बल्कि औरों की उन्नति से वे जलते-कुढ़ते हैं.
लेकिन किसी के जलने या विरोध करने से आगे बढ़ने के इरादे बदल नहीं दिये जाते. विरोध और संघर्ष तो सतत आगे बढ़ते रहने का सन्देश देते है. मुनि पद्मसागरजी ने विरोध के तूफान में मौन रहना श्रेष्ठ समझा, कान अनसुने कर दिये, आँखों को गन्दगी से हटा लिया और निरन्तर आगे से आगे बढ़ते रहे.
वर्षों पहले महान ध्येय को सामने रखकर जो कारवां सफ़र पर निकला था, वह आज भी जारी है. अनेक विरोधी अब थक चुके हैं. कुछ-एक का सुर अब भी जारी है. लगता है शायद आगे भी रहेगा. इतना सब - कुछ हो जाने और होते रहते भी सच्चाई,साहस और सद्भाग्य के साथ ने आखिरकार मुनि पद्मसागरजी को आगे बढ़ा ही दिया.
बौध्दिक प्रतिभा, व्यावहारिक कुशलता और जिनशासन के प्रति अपार आस्था को देखकर मुनि पद्मसागरजी को २८ जनवरी १९७४ को गणि पद से तथा ८ मार्च १९७६ को पंन्यास पद से विभूषित किया गया. तत्पश्चात् योग्यता को देखकर ९ दिसम्बर १९७६ के ऐतिहासिक दिन महेसाणा की पावन धरा पर एक विशाल व शानदार समारोह में आपको आचार्य पद प्रदान किया गया. आचार्य बन जाने के बाद पद्मसागरसूरिजी महाराज की ख्याति में भारी वृद्धि हुई.
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