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लोकोपयोगी साहित्य का सृजन कर आचार्यों ने दूर-सुदूर के देशों तक जैन धर्म की यशोगाथा को फैलाने का महान पुरुषार्थ किया है. साथ ही विशाल राष्ट्र के प्रत्येक भाग व हर कोने में धर्मभावना को जीवन्त रखने का श्रेय भी उन जैनाचार्यों को ही जाता है, जिन्होंने लम्बी व कठिन पदयात्राओं के द्वारा इस कार्य का सुचारू रूप से संचालन किया.
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पूर्व निर्दिष्ट पाँच आचारों की नैष्ठिक परिपालना से पवित्रित आचार्यों को आगमिक साहित्य में तीर्थंकर के तुल्य होने का महत्तम सम्मान दिया गया है. उन्हें 'तित्थयरसमोसूरी' अर्थात् 'तीर्थंकर की अनुपस्थिति में आचार्य तीर्थंकर के तुल्य है' यूं कहकर उनका बहुत भारी बहुमान किया गया है.
जैन शासन की प्रगति और कुशलता की कामना के लिए जैनाचार्य समकालीन राजा महाराजाओं और अन्य पदाधिकारियों के सम्पर्क में भी रहे भद्रबाहुस्वामी, सिद्धसेन दिवाकरसूरि, बप्पभट्टीसूरि, हेमचन्द्रसूरि, हीरविजयसूरि इत्यादि अनेक सुविख्यात जैनाचार्यों का राज - सम्पर्क इस बात का प्रबल साक्ष्य है. इन युगप्रभावक जैनाचार्यों ने तत्कालीन नरेशों को प्रतिबोधितप्रभावित कर, उनके माध्यम से जैन शासन की यशोगाथा को दिग्गदिगन्त तक पहुँचाने का अभूतपूर्व कार्य किया था, जिसकी दिव्य आभा आज भी हमारे यात्रा - पथ को आलोकित करती है.
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