Book Title: Mahavira Vachanamruta
Author(s): Dhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर-वचनामृत सम्पादक और विवेचक पं० धीरजलाल शाह 'शतावधानी' अनुवादक पं० रुद्रदेव त्रिपाठी, एम० ए० साहित्य-सांख्य-योगाचार्य e) न साहित्य जैन साहित्य-प्रकाशन-मन्दिर : वम्बई Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : नरेन्द्रकुमार डी० शाह व्यवस्थापक : जैन साहित्य - प्रकाशन मन्दिर लाभाई गणपत वील्डिंग चींच बदर, वम्बई-2 गुजराती सस्करण प्रथम आवृत्ति - २००० त० २०१६ हिन्दी नम्करण प्रथम लामृति - ३३०० न०-२०१६ सर्व अधिकार सुरक्षित मूल्य : ६ रुपये मुद्रक . शोमाचन्द सुराणा रेफिल आर्ट प्रेम, ३१, वडनला स्ट्रीट, 777-3 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASHRAM भगवान् महावीर Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण मत्य और अहिंमा के सतत उपासक युग-पुरुष विनोबा को सादर -सम्पादक HREFRESHERSIERRESTERE Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विनोबाजी से प्राप्त +1c4 माल यात्रा १५-५-६३ श्री धीरजलाल शाह, श्री 'वीर-वचनामृत' जो गुजराती मे छपा है, असका हीदी अनुवाद पाठको के ली पेश कीया जा रहा है, यह खुशी की बात है। ___ महावीर स्वामी के वचनो का संग्रह करनेवाली दो कीतावे श्रीसके पहीले प्रकाशीत हो चुकी है। अक श्री सतबालजी की 'साधक सहचरी', दूसरी श्री ऋषभदास राका ने प्रकाशीत की हुओ (पं० बेचरदास दोशी सम्पादित) 'महावीर वाणी' । __ 'वीर-वचनामृत' अन दोनो से अधिक व्यापक है। मेरी तो सूचना है को भारत के चुने हो दस-वीस दर्शन-ज्ञान-चरीत्रसंपन्न जैन वीद्वानो की अक समीती महावीर स्वामी के वचनो का सर्वमान्य सग्रह पेश करने के लि वीठानी चाहिये। अगर वैसा हो सका तो जैन और जैनेतर दोनो के लिओ अंक प्रामाणीक आधारग्रथ मील जायगा। असे ग्रथो मै मूल के साथ उसका संस्कृत रूपातर भी पेग करने से पाठको को सहलियत होती है। वीनोवा का जय जगत् Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गल-भावना अतुलशान्तिकर सकलातिह, परपदाप्तिविची सुनिदेशकम् । जगति वीरमुखाम्बुधिनिःसृतं, पिवत रे मनुजा वचनामृतम् ।। -प० घनगिरि शास्त्री (सीतामऊ) विनोतु धैर्य विविनक्तु वाच, चिनोतु सत्य प्रभनक्तु भीतिम् चिरस्य लोकस्य निरस्य तान्ति ददातु शान्ति भुवि वीरवाणी ।। -म०म० परमेश्वरानन्द शास्त्री (जालंधर) मुदा वीरखाचोऽमृतं सारभूतं, प्रभूतं सुधैर्येण यत्संगृहीतम् । नितान्तंसुकान्तं प्रसारोऽस्य भूयात, जनानां मनोऽस्मिन् चिरं ररमीतु ॥ -डॉ० मढनमित्र मीमांसाचार्य (दिल्ली) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय भारत के ऋषि-महर्षि एव सन्त-समुदाय ने जो नैतिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक उपदेश दिया है, उसमे भगवान महावीर का उपदेश विशिष्ट स्थान रखता है। परन्तु यह उपदेश अर्धमागधी भाषा मे है और जैन सूत्रो मे यत्र तत्र विखरा हुआ होने से सर्वसामान्य जनता तक नही पहुँच पाता है। इस समस्या को हल करने के लिए हमारे पूज्य पिता श्री शतावधानी पडित श्री धीरजलाल शाह ने जैन सूत्रों का दोहन करके 'श्री वीर-वचनामृत' नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमे मूल वचन, उनका आधार-स्थान और सरल-स्पष्ट गुजराती अनुवाद के साथ आवश्यक विवेचन भी दिया। उक्त गुजराती सस्करण का प्रकाशन दिनाक १८-११-६२ को बम्बई मे भव्य समारोह के साथ सम्पन्न हुआ। जैन जनता ने उसका अभूतपूर्व सत्कार किया। ग्रन्थ की २००० प्रतियाँ हाथोहाथ बिक गई। उस समारोह के अवसर पर इस ग्रन्थ का हिन्दी संस्करण 'श्री महावीर-वचनामृत' नाम से प्रकाशित करने का निर्णय किया गया। किसी भी कार्य की प्रारम्भिक स्थिति मे कुछ न कुछ न्यूनताओ का रह जाना स्वाभाविक है, इसलिए गूजराती सस्करण का पर्याप्त संशोधन किया गया। तदनन्तर मन्दसौर-निवासी प० रुद्रदेव त्रिपाठी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [] एम० ए० साहित्य-साख्य-योगाचार्य ने बडे ही परिश्रम से केवल चार मास की अवधि मे उसका हिन्दी अनुवाद तैयार किया। उसका भो संशोधन हुमा और कलकता मे रेफिल आर्ट प्रेस के अधिपति श्री गोमाचन्द्रजी सुराणा का पूर्ण सहयोग प्राप्त होने से केवल तीन मास की अवधि मे यह ग्रन्थ सुन्दर ढग से छपकर तैयार हो गया। इसके पत्र-संगोधन मे पं० प्रभुदत्त शास्त्री साहित्य-रल, साहित्यप्रभाकर ने पूर्ण सहायता की। हम इन महानुभावो को हार्दिक धन्यवाद देते हैं। जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज के लोकप्रिय एव विद्वान् आचार्य श्री विजयवर्मभूरि जी महाराज ने, जैन श्वेताम्बर स्थानकवामी समाज के बहुश्रुत मान्य विद्वान् उपा० श्री अमर मुनिजी ने और दिगम्बर सम्प्रदाय के सुप्रसिद्ध विद्वान् प० कलासचन्द्र शास्त्री ने इम अन्य का प्राक्कयन लिखने की कृपा को तथा जैन श्वेताम्बर तेरापथी सम्प्रदाय के आचार्य श्री तुलसीजी के गिप्यरत मुनित्री न यमरजी ने विस्तृत और विगद प्रस्तावना मे इस ग्रन्य को अलकृत किया। ५० घनगिरि शास्त्रो, म० म० परमेश्वरानन्द शास्त्री और डॉ मटन मित्र मोमामाचार्य ने मङ्गल भावना प्रदान की। ये मर्व महानमार्यो के प्रति हम हार्दिक पृतनता प्रगट करते है। मयोदय-प्रवृत्ति के नचारक पज्य विनोबाजो ने पत्र द्वाग विगिट मुम्भव देकर और हमारा अति आबदमे म ग्रन्धका ममपंग स्वीकार भार हमे अनि सात दिया है। आयो पिजन अन्ननगेम्वरजी महागज, १०मा० श्री पिय Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) लक्ष्मणसूरीश्वरजी महाराज, पू० आ० श्री विजय समुद्रसूरीश्वरजी महाराज, पू० पन्यास श्री धुरन्धरविजयजी गणिवर्य, पू० पन्यास श्री भानुविजयजी गणिवर्य, पू० मुमुक्षु श्री भव्यानन्दविजयजी महाराज, बम्बई-निवासी श्री रमणिकचद मोतीचंद झवेरी और श्री अभयराज बलदोटा, लडन-निवासी श्री मेघजी पथराज शाह, श्री आत्मानन्द जैन 'महासभा पजाब के प्रधान मत्री प्रो० पृथ्वीराज जैन एम० ए०, कलकत्ता"निवासी श्री मोहनलाल झवेरी, श्री रजनीकान्त शाह, श्री छोटेलाल 'जैन, श्री ताजमलजी बोथरा, श्री भंवरलालजी नाहटा, श्री कुवरजी माणकेजी और कई मित्रो तथा प्रशसकों ने इस प्रकाशन मे हार्दिकता दिखलाई है, इन सभी के हम अत्यन्त आभारी है। कलकत्ता-जैन सभा ने तो इस प्रकाशन को अपना ही मान कर विशिष्ट प्रकाशन समारोह की योजना की, और वितरण आदि में भी सुन्दर सहयोग दिया। उसके प्रधान कार्यकर्ता श्री नवरतनमलजी सुराणा, श्री लाभचन्दजी रायसुराणा, श्री दीपचन्दजी नाहटा, श्री केवलचदजी नाहटा, श्री पन्नालालजी नाहटा आदि को हम कैसे भूले ? हम आशा रखते है कि हिन्दी भाषा-भाषी जनता इस सस्करण को अपना कर हमें प्रोत्साहित करेगी। ता० ६-७-६३ नरेन्द्रकुमार शाह प्रकाशक Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम सम्पादकीय प्राक्कथन : (१) आचार्य श्री विजयधर्मसूरि (२) उपाध्याय श्री अमरमुनि (३) पं० श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री प्रस्तावना : मुनि श्री नथमलजी भगवान् महावीर : प० धीरजलाल शाह शुद्धिपत्रक सकेत-सूची धारा به वचनामृत विषय विश्वतन्त्र सिद्ध जीवो का स्वरूप ... ससारी जीवों का स्वरूप कर्मवाद कर्म के प्रकार दुर्लभ संयोग س » مر ) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ । ग र आत्म-जय मोक्ष-मार्ग साधना-क्रम धर्माचरण अहिंसा is ū o arm सत्य अस्तेय १४६ १५१ १६७ ब्रह्मचर्य १७५ १६४ 9u... 22-RMEMAMAM italbohustu २१५ २३० अपरिग्रह सामान्य साधु-धर्म साधु का आचरण अष्ट-प्रवचन माता भिक्षाचरी भिक्षु की पहचान संयम की आराधना तपश्चर्या विनय (गुरुसेवा) २४७. २५८ २६५ २६८ २८४ कुशिष्य दुःशील २६० काम-भोग प्रमाद विषय २६४ ३०६ ३१६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] "२६ ३३३ ३४१ ३४७ ३५२ ३५६ कपाय ३० वाल और पडित ३१ ब्राह्मण किसे कहा जाय ? ३२ वीर्य और वीरता । ३३ सम्यक्त्व षडावश्यक १३५ भावना लेश्या मृत्यु ३८ परभव ३६ नरक की वेदना ४० शिक्षापद वचनों का अकारादि क्रम :: : : : ३६४ ३७० C /३६ ३७७ ३८६ ३६३ : :: :: ४०५ ४११ ४२१ DE - N -.. . Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भगवान् महावीर के वचनो के प्रति श्रद्धा, प्रेम और विश्वास की दृढता मेरे जीवन में किस प्रकार उद्भत हुई, इस सम्बन्ध में यदि यहां थोडा-सा उल्लेख किया जाय, तो अनुचित नही होगा। जैन कुटुम्ब में उत्पन्न होने के कारण भगवान् महावीर का नाम तो शैशवावस्था में ही श्रवण किया था तथा चौबीस तीर्थकरो के नाम कण्ठस्थ करते-करते वह हृदय-पटल पर अङ्कित हो गया था। तदनन्तर मेरी धर्म-परायण माता ने महावीर-जीवन के कतिपय प्रसङ्ग सुनाये उससे मै अत्यन्त प्रभावित हुआ था, किन्तु उस समय मेरी आयु बहुत छोटी थी, मेरा ज्ञान अति अल्प था। चौदह-पन्द्रह वर्ष की अवस्था में मेरी जन्मभूमि (सौराष्ट्र के 'दाणावाडा' गांव) में मेरे दाहिने पैर मे एक सर्प ने दंश दिया, तब 'महावीर-महावीर' नाम रटने से ही पुनर्जीवन प्राप्त किया था। फिर अहमदाबाद मे रहते हुए विद्याभ्यास के दिनो मे एक वार पयुषण-पर्व के समय गुरुमुख से भगवान् महावीर का चरित्र मैने आद्योपान्त सुना और मेरे मन मे उनकी एक मङ्गलमयी मूर्ति Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) अति हो गई । उसी दिन से भगवान् महावीर का स्मरण-चन्दनपूजन आदि अधिक रूप से करने लगा । विद्याभ्यास समाप्त होने के बाद भगवान् महावीर के सम्बन्ध मे कुछ लिखने की भावना मुखरित हुई और मैने गुजराती भाषा मे बालभोग्य शैली मे 'प्रभु महावीर' नामक एक लघु चरित्र लिखा । विद्यार्थिओं को वह प्रिय लगा तथा वम्बई के 'श्री जैन श्वेताम्वर एज्यूकेशन बोर्ड' ने उसे धार्मिक अभ्यासक्रम मे जोड लिया । इसी -के फलस्वरूप उसको आज तक नो आवृत्तियाँ हो चुकी हैं । इसके पश्चात् सर्वोपयोगी ढंग से गुजराती भाषा मे 'विश्ववन्धु प्रभु महावीर' नामक एक छोटी पुस्तिका लिखी तथा उसकी एक ही वर्ष मे १००००० एक लाख (प्रतियाँ) समाज के करकमलों मे प्रस्तुत की । उसकी द्वितीय आवृत्ति गत वर्ष मे प्रकाशित हुई और केवल एक ही दिन मे उसकी ११००० ग्यारह हजार प्रतियां हाथो हाथ बिक गई । विगत दश वारह वर्षों मे भगवान् महावीर के सम्बन्ध मे पढ़नेविचारने तथा लिखने के प्रसग अत्यधिक आये और उनकी उपासना तो कई वर्षो से अनवरत चल ही रही थी । इस हालत मे मेरे अन्तर मे भगवान् महावीर के वचनों के प्रति श्रद्धा, प्रेम और विश्वास की भावना अति दृढ वन गई । भगवान् महावीर के वचन वस्तुतः अमृततुल्य हैं, क्योंकि ये विषय और कषायरूपी विष का शीघ्र शमन करते हैं और इनकी पान करने वाले को अलौकिक आनन्द प्रदान करते हैं। साथ ही इन मे जीवन-शोधन की पर्याप्त सामग्री भरी हुई है, अतः सभी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुमुक्षुओ को इन वचनो का स्वाध्याय प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये। प्रस्तुत संकलन तैयार करते समय श्री उत्तराध्ययन सूत्र तथा श्री दावकालिक सूत्र का पूर्णरूप से उपयोग किया गया है। आजतक उपर्युक्त दोनो ग्रन्थ-रत्नो की कई आवृत्तियां प्रकाशित हो चुकी है और उनमे गाथाओ के क्रमांक मे एक-दो का अन्तर आता है। अतः प्रस्तुत सकलन को प्रचलित आवृतिओ के साथ मिलाने पर कही-कही एकाघ-दो गाथाओ का अन्तर होने की सम्भावना है, जिसे पाठकगण किसी प्रकार की त्रुटि न समझे। ठीक वैसे ही मूल गाथाओ मे भी कही-कही पाठान्तर हैं जो टीकाकारो के अभिप्राय एव अर्थ-सगति को परिलक्षित करते हुए योग्य रूप से रखे गये है। अतः उसमे भी प्रचलित आवृत्ति की अपेक्षा कुछ स्थानो पर अन्तर होना स्वाभाविक है। लेकिन जब तक इन दोनो ग्रन्थो की सर्वसामान्य आवृति तैयार न की जाय तबतक यह स्थिति बनी ही रहेगी। प्रस्तुत हिन्दी सस्करण मे भगवान् महावीर के १००८ वचनो का सग्रह ४० धाराओ मे सुव्यवस्थित ढग से उपस्थित किया गया है। अतः पाठकगण किसी भी विषय पर भगवान् का मंतव्य क्या था, वह आसानी से जान सकेगे। फिर प्रत्येक वचन के नीचे उसका मूल आधारस्थान संकेत द्वारा सूचित किया गया है और स्पष्ट-सरल अनुवाद साथ योग्य विवेचन भी दिया गया है। आखिर मे अति आवश्यक समझ कर प्रकाशित वचनो का अकारादि क्रम भी जोड़ दिया है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) ग्रन्थ के अग्रिम भाग मे भगवान् महावीर की तिरंगी तस्वीर, तीन विद्वानो के प्राक्कथन और विस्तृत प्रस्तावना एव भगवान् महावीर के जीवन की ऐतिहासिक रेखा भी दी गई है । अतः इस विषय मे अनुराग रखनेवालो के लिए यह ग्रन्थ अति उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसी मेरी धारणा है । विशेष क्या ? यह ग्रन्थ का पठन-पाठन सर्व के कल्याण का कारण हो । बम्बई दि० ६-७-१६३ धीरजलाल शाह Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राककथन [१] श्रमण भगवान महावीर कैवल्यावस्था प्राप्त होने के बाद तीस वर्ष तक असख्य जन-समुदाय को अपने विशिष्ट वचनामृत का पान कराते रहे । फलतः असख्य आत्माएं सदा-सर्वदा के लिए भवपाश से छूट गई । विशेष क्या ? यह महाप्रभु का वचन श्रवण करने के प्रताप से पशु-पक्षी भी अपनी आत्मा का उद्धार करने में समर्थ बने । विश्ववद्य भगवान महावीर के इस वचनामृत का सग्रह इनके पट्टशिष्य अर्थात् गणधर भगवन्तो ने आचाराग, सूयगडाग आदि सूत्रो के रूप मे व्यवस्थित किया और जैन शासन का चतुर्विध सघ आज तक गुणवन्त गीतार्थों के मुख से ये सूत्रो कोश्रवण कर आत्म-कल्याण की साधना मे रत रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादक शतावधानी पंडित श्री धीरज भाई ने भा भगवान् के इस वचनामृत को श्रमण-श्रेठो के मुख से कई बार सुन और श्रद्धापूर्ण भावना से अपने हृदय-मन्दिर मे स्थापित किए ऐसा मरा ख्याल है। फिर कई महानुभावो का ऐसा सुझाव रहा कि देवाघिदेव भगवान महावीर के वचनामृत के इस अनमोल सग्रह को यदि सुव्यवस्थित ढंग से गुजराती, हिन्दी, एव अग्रेजी भाषा मे सरल-स्पष्ट Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) अनुवाद के साथ प्रकाशित किया जाय तो जैन और जैनेतर जनता के लिये अति मननीय सुन्दर विचार सामग्री उपलब्ध हो जायगी, जो उन्हे जैन सिद्धान्त और धर्म के हार्द तक पहुँचने मे निःसन्देह सहायक सिद्ध होगी। ___ श्री धीरज भाई ने इस सुझाव को अपने पुरुषार्थी स्वभाव से अल्प समय मे ही कार्यरूप मे परिणत किया और जनता के सामने 'श्री वीर-वचनामृत' नामक गजराती सस्करण भव्य समारोह पूर्वक रख दिया। जनता ने इसका सुन्दर सत्कार किया। इस सत्कार से उत्साहित होकर श्री धीरजभाई ने अल्पावधि में ही उसका हिन्दी अनुवाद तैयार करवाकर मुद्रित भी करा लिया और अभी वगाल देश को महानगरी कलकत्ता में इसका प्रकाशन हो रहा है। क्या श्री धीरजभाई का यह पुरुषार्थ सराहनीय एव धन्यवाद के योग्य नही है ?। ___ यदि पाठक वर्ग प्रस्तुत ग्रन्थ का वाचन, मनन और निदिध्यासन करेंगे तो उनकी आत्मा परमात्मावस्था के पुनीत पथ पर सफलता पूर्वक प्रयाण करेगी, इसमें तनीक भी शंका नही है। बम्बई, २० जून १९६३ विजयधर्म सूरि [ २ ] श्रमण भगवान् महावीर देश-विशेष तथा काल-विशेष की विभूति नही है। उनका दिव्य ज्योतिर्मय व्यक्तित्व देश और काल की क्षुद्र सीमाओं को तोडकर सदा सर्वत्र प्रकाशमान रहनेवाला अजर-अमर व्यक्तित्व है । अनन्त सत्य का साक्षात्कार करने के लिए उन्होंने Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) भौतिक जीवन को समन सुख-सुविधाओ को ठुकराया। अन्तर्जीवन का विश्लेपण एवं मन्यन कर राग-द्वष की वैकारिक कालिमा को दूर हवाया और अन्तर मे शुद्ध, बुद्ध, निरजन, निर्विकार आत्म-सत्ता का नाक्षात्कार किया। __ भगवान महावीर की वाणी वह पतित-पावनी निर्मल धारा है, जिसमे निमज्जित होने से आत्मा अपने लोक-परलोक और लोकातीत तीनों प्रकार के जीवन को पावन एवं पवित्र कर लेता है। द्रव्य-गगा तन के ताप को कुछ क्षणो के लिए भले ही शान्त कर दे किन्तु उसमे मन के ताप को गीतल करने की क्षमता नही है। परन्तु भगवान की वाणी रूप निर्मलधारा मनुष्य के मनस्ताप को अखण्ड शान्ति और शीतलता प्रदान करती है। जग-जीवन के परिताप और पीडा को दूर करने ले लिए भगवान महावीर ने अकार-त्रयो की दिव्य देशना दी थी-अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह । मन के वैरभाव को दूर करने के लिए अहिंसा, बुद्धि को जडता और आग्रह को मिटाने के लिए अनेकान्त तथा समाज और राष्ट्र की विषमता को दूर करने के लिए अपरिग्रह परम आवश्यक तत्त्व है । इस अकार-त्रयी में भगवान की समग्र वाणी का सार आ जाता है। शेष जो भी कुछ है, वह सब इसी का विस्तार है। आगम-महासागर का मन्थन करके, उसमें से भगवान महावीर के दिव्य सन्देश रूप अमृत कण निकालना और उसे सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय प्रस्तुत करना, आज के साहित्यकार का सबसे बड़ा कर्तव्य है। साहित्यकार का कर्तव्य है कि वह अपनी प्रतिभा और Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) कला के अभिनव प्रयोग से पुरातन धार्मिक, सास्कृतिक तत्वों को अपने युगकी अभिनव शैली मे अभिव्यक्त कर के जनता-जनार्दन के हाथो मे समर्पित करे। __ शतावधानी पण्डित धीरजमाई द्वारा समलित और सम्मादित "श्रीमहावीर वचनामृत" इस दिशा मे एक सुन्दर और स्तुत्य प्रयास है। इसके पठन-पाठन से जन-जीवन को एक पावन प्रेरणा मिलेगी। हिन्दी मे ही नही, भारत की अन्य भाषाओं तथा अंग्रेजी मे भी इसका रूपान्तर होना चाहिए। अधिक से अधिक मनुष्यों के हायो मे श्रमण भगवान् महावीर का यह सार्वजनीन शाश्वत सन्देश पहुच सके, इस प्रकार के हर किसी प्रयल से मुझे परम प्रसन्नता होगी। जैन भवन उपाध्याय लोहामण्डी, आगरा अमर मुनि ता० २२-६-६३ भगवान महावीर जैन धर्म के अन्तिम तीर्थडर थे। उन्होंने वारह वर्षों की कठोर साधना के पश्चात् सर्वज्ञ सर्वदर्शी बनकर जिस सत्य का प्रतिपादन अपनी दिव्य वाणी के द्वारा किया, वह उनसे पूर्व के तीर्थ करो के द्वारा प्रतिपादित रूप से भिन्न नही था। इसका सबसे बडा प्रमाण यह है कि भगवान् महावीर के पश्चात् जैन संघ में भेद पड़ जाने पर भी तात्त्विक मन्तव्यो मे कोई भेद नही पडा । आज भी समस्त जन सघों के तात्त्विक मन्तव्य वे ही हैं जो भगवान् महावीर के समय मे अखण्ड जैन संघ के थे। यह कोई सामान्य वात Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) नही है । दोनो जैन सम्प्रदायों के दार्शनिको ने भी यदि परस्पर मे "एक दूसरे का खण्डन किया तो स्त्री-मुक्ति और केवलि-भुक्ति को लेकर ही किया । इसके सिवाय उन्हें कोई तीसरा मुद्दा नही मिला । इन दो विषयो से सबधित बातो को यदि छोड दिया जाये तो समस्त जैन सम्प्रदायो की वाणी मे आज भी वही एक रूपता मिल सकती है, जो भगवान् महावीर की वाणी मे थी । उदाहरण के लिये श्री धीरजलालजी शोह के द्वारा कुछ आगमो से सकलित इसी श्री महावीर वचनामृत को रख सकते है । इसमे विश्वतन्त्र, सिद्ध जीवो का स्वरूप, ससारी जीवो का स्वरूप, कर्म - वाद, कर्म के प्रकार, दुर्लभ सयोग, मोक्षमार्ग, साधनाक्रम, धर्माचरण, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सामान्य साधु-धर्म, साधु का आचरण, अष्ट-प्रवचनमाता, भिक्षाचरी, भिक्षु की पहचान, सयम की साधना, विनय, कुशिष्य, काम-भोग, प्रमाद, विषय, कषाय, सम्यकत्व, षडावश्यक आदि ४० विषयों का सग्रह है । इनको जैन मात्र ही नही, जैनेतर बन्धु भी बिना किसी संकोच के पढ सकते है । धर्म के सामान्य नियम तो प्रायः समान हुआ करते है । उन्ही - समान नियमो को जीवन मे अपनाने से मनुष्य मे देवत्व का विकास होता है | अहिंसा, सत्य, अस्तेय, बह्मचर्य, अपरिग्रह, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, संयम, तप, त्याग आदि ऐसे ही सामान्य नियम है । ये नियम किसी सम्प्रदाय से बद्ध न होकर धर्म सामान्य से सम्बद्ध है । जहाँ ये है वहाँ धर्म अवश्य है और जहाँ ये नही है वहाँ धर्म Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) नहीं है। किसी भी धर्म मे हिंसा, असत्य, चोरी, दुराचार, परिग्रह, क्रोध, मान, मायाचार, लोभ, असयम आदि को धर्म नहीं माना। फिर भी इनको लेकर कोई दंगा फसाद नही होता। इनको मिटाने के लिये किसी को किसी की जान लेते या अपनी जान देते नही देखा जाता। इनका निषेध तो गौन हो गया है और इनके चलते रहते भी जो कुछ चलता रह सकता है वही मुल्य हो गया है। धर्म करना भी न पड़े और धर्मात्माओं मे नाम लिखा जाये, ऐले हो धर्म की आज वोलबाला है। इसी से धर्म और धर्मात्माओं के प्रति गिक्षित समाज की आस्था उन्ती जाती है। इस आस्था को बनाये रखने मे 'श्री महावीर वचनामृत' जैसे संकलन बडे उपयोगी हो सकते है। _भगवान् महावीर कोई स्वयसिद्ध, शुद्ध, बुद्ध अनादि परमात्मा नही थे। वे भी कभी हमी मे से थे। इसलिये उनके वचनामृत उस अनुभव का निचोड है जो उन्होंने अपने एक नही अनेक जीवनों मे अर्जन किया। और उसके द्वारा स्वयं गुद्ध बुद्ध परमात्मा वनकर उस सत्यका साक्षात्कार किया जो इस चराचर विश्व का रहस्य बना हुआ है और फिर अपनी दिव्यवाणो के द्वारा उसे प्रकट क्यिा। भगवान् महावीर का युग देवताओं का युग था। देवताओं का ही डिडिमनाद सर्वत्र सुनाई पड़ता था। उन्हे प्रसन्न करने के लिये बड़े-बड़े यज्ञ क्येि जाते थे। उस समय का मानव देवताओ का गुलाम था । भगवान् महावीर ने उस दासता के बन्धन को काटकर मनुष्य को देवताओ का भी आराध्य बना दिया। और किती स्वयंसिद्ध सर्वशक्तिमान् कर्ता हर्ता-विधाता-ईश्वर की सत्ता से भी इन्कार कर Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) दिया। वह उनकी वैचारिक क्रान्ति थी। उनके धर्म का केन्द्र ईश्वर नही था और न वेद था, किन्तु आत्मा था, जिसे भुला दिया गया था। उसी भूली भटकी आत्मा को केन्द्र मे रखकर भगवान् महावीर ने अपनी तत्त्वज्ञान-मूलक साधना की या साधना-मूलक तत्त्वज्ञान का सागोपाग विवेचन किया। और सृष्टि के किसी रहस्य को 'अव्याकृत' कहकर उसे टाला नही। सत्य को जानने से भी अधिक कठिन है सत्य को यथार्थ रूप में प्रकाशित करना, क्योकि ज्ञान पूर्ण सत्य को एक साथ जान सकता है, किन्तु शब्द उसे एक साथ ज्यो का त्यो प्रकाशित नही कर सकता। शब्दोत्पत्ति क्रमिक तो है। फिर ज्ञाता अपने अभिप्राय के अनुसार वस्तु के धर्म को प्राधान्य देता है। इन कारणो से उत्पन्न हुए विवाद या मतिभेद को दूर करने के लिये भगवान् महावीर ने अनेकान्तवाद के साथ स्याद्वाद और नयवाद का समवतार दार्शनिक क्षेत्र मे किया, जिससे वैचारिक क्षेत्र में किसी के साथ अन्याय न हो। पूर्ण अहिंसक तो थे वे। इसीसे स्वामी समन्तभद्र ने अपने युत्तयनुशासन मे कहा है दया-दम-त्याग-समाघिनिष्ठ, नय-प्रमाणः प्रकृताञ्जसार्थम् । अधृष्यमन्यनिखिलप्रवादिभि जिन त्वदीय मतमद्वितीयम् ।। हे जिन ! तुम्हारा मत अद्वितीय है। एक ओर वह दया, दम, त्याग और समाधि को लिये हुए है, दूसरी ओर उसमें नय और Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) प्रमाणों के द्वारा प्रकृत वास्तविक अर्थ को ग्रहण करने की व्यवस्था है। इसी से कोई वादि उसे शास्त्रार्थ मे पराजित नही कर सकता । उन्ही जिनेन्द्र भगवान महावीर के वचनामृत के इस संकलन को श्री धीरजलालजी शाह ने सम्पादित किया है। मेरा उनसे प्रथम परिचय इसी सकलन के माध्यम से हुआ। और उनकी प्रेरणा से इस प्रथम परिचय के उपहार रूप में अपने दो शब्द पाठको को भेट. करता हूँ। इसके नये सस्करण मे इस सकलन को और भी परिमार्जित और विस्तृत किया जाये ऐसी मेरी भावना है। श्री स्याहाद महाविद्यालय वाराणसी दि० २२-६-६३ कैलाशचन्द्र शास्त्री Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना • आत्म-जिज्ञासा की सम्पूर्ति भगवान् महावीर आत्म-साक्षात्कार के महान् प्रवर्तक थे। आत्मसाक्षात्कार अर्थात् सत्य का साक्षात्कार । सत्य का उपदेश वही दे सकता है जो उसका साक्षात्कार कर पाता है। भगवान सत्य के अनन्त रूपो के द्रष्टा थे। पर जितना देखा जाता है, उतना कहा नही जा सकता। भगवान ने जिन सत्यो का निरूपण किया, वे भी हमे पूर्णतः ज्ञात नही है। मनुष्य जितना ज्ञात की ओर मुकता है, उतना अज्ञात की ओर नही। भगवान महावीर ने अहिंसा, सत्य आदि का उपदेश दिया, जातिवाद की तात्त्विकता का खण्डन किया, यज्ञ-हिंसा का विरोध किया आदि-आदि । जो ज्ञाततथ्य है, वे ही उनकी गुण-गाथा मे गाए जाते है। किन्तु भगवान ने जीवन के ऐसे अनेक ध्रुव-सत्यो पर प्रकाश डाला, जिन पर हमारा ध्यान सहज ही आकृष्ट नही होता, क्योकि वे हमारे लिए ज्ञात होकर भी अज्ञात है। अज्ञात को पकड़ने मे जो कठिनाई होती है, उससे कही अधिक कठिनाई होती है उसे पकड़ने मे, जो ज्ञात होकर भी अज्ञात होता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] [प्रस्तावना आत्मा देह से भिन्न है, आत्मा ही परमात्मा है यह हमे ज्ञात है, फिर भी हम इस सत्य को तव तक नही पकड पाते जब तक हम स्वय सत्य रूप नही बन जाते। भगवान महावीर का सबसे श्रेष्ठ उपदेश यही है कि तुम स्वय सत्य रूप वनकर सत्य को पकडो। वह तुम्हारी पकड मे आ जाएगा। तुम असत्यं रूप रहकर उसे नहीं पा सकोगे। दुःख कामना से उत्पन्न होता है-यह जानते हुए भी मनुष्य दुःख मिटाने के लिए कामना के जाल में फंसता है। वैर-वैर से वडता है-यह जानते हुए भी मनुष्य वैर को बढ़ावा देता है। शस्त्र अशान्ति को उत्तेजित करता है यह जानते हुए भी मनुष्य शान्ति के लिए शस्त्र का निर्माण करता है। भगवान ने कहादुःख का पार वही पा सकता है जो कामना को जानता है और उसे छोडना भी जानता है। वर का पार वही पा सकता है जो वैर के परिणाम को जानता है और उसे छोडना भी जानता है। शस का पार वही पा सकता है जो अगान्ति को जानता है और उसे छोडना भो जानता है। भगवान को भाषा मे वह ज्ञान ज्ञान नही जो त्याज्य को त्याग न सके। उनका ज्ञान भी आत्मा है, दर्शन भी आत्मा है और चारित्र भी आत्मा है। भगवान का सारा धर्म आत्ममय है। उनका सारा उपदेश आत्मा को परिधि मे है। इसलिए जो कोई आत्मवोर होता है, जिसमे आत्म-जिज्ञासा या आत्मोपलव्य की भावना प्रबल हो जाती है, उसके लिए भगवान महावीर की वाणी को पड़ना अनिवार्य या महज प्राप्त हो जाता है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिसा और धर्म ] • अहिंसा और धर्म भ० महावीर श्रमण परम्परा मे अवतीर्ण हुए। उन्होने निर्ग्रन्य दीक्षा स्वीकार की । भगवान् ऋषभ ने धर्म की स्थापना की । मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म की व्यवस्था की । भगवान् महावीर ने पुनः पचयाम धर्म की स्थापना की। इसका कारण यह बतलाया गया है कि प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु जड थे इसलिए पंचयाम की व्यवस्था की गई— ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पृथक्-पृथक् महाव्रतमाने गए। मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरो के साधु ऋजु प्राज्ञ थे इसलिए चातुर्याम से काम चल गया । ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को एक ही शब्द- 'वहिद्धादाण विरमण' मे संग्रहीत कर लिया गया । भगवान् --- महावीर के शिष्य वक्र-जड हुए इसलिए उन्हें पुन. भगवान् ऋषभ का अनुसरण करना पड़ा । यह युक्ति सुन्दर है, फिर भी इस व्यवस्थाभेद का मूल कारण यही है, यह समझने में कठिनाई है । यह बहुत हो मीमासनीय विषय है। जिस प्रकार अहिंसा धर्म के लिए नव तीर्थकरो की एकसूत्रता बतलाई है, उसी प्रकार अन्य धर्मों की नही बतलाई, इसका कारण क्या है ? या तो अहिना मे दोष सारे धर्मो को वे समाहित कर लेने थे अथवा कोई दूसरा कारण था - निरचय पूर्वक कुछ भी नही कहा जा सकता। जैन धर्म में जाचार का स्थान बहुत प्रमुख रहा है । एक दृष्टि से उसे आचार और नोि प्रवर्तक कहा जा सकता है । जीवन को सारी प्रतियो की व्याया एक अहिसा दाव्द के आधार पर की जाती है। संभव है एम हेष्टि हो हो सो समान माना गया हो। " [२७ • Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] [प्रस्तावना यह कहने मे कोई अत्युक्ति नहीं है कि जैन धर्म जो है, वह अहिंसा है और जो अहिंसा है, वह जैन धर्म है। • अहिंसा और सत्य कुछ विद्वान् ऐसा सोचते हैं कि जैनाचार्यों ने अहिंसा पर जितना बल दिया, उतना सत्य पर नहीं। यह उनका अपना दृष्टिकोण है इसलिए उसकी अवहेलना तो कैसे की जाय पर उनके सामने दूसरा दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जा सकता है। भगवान् महावीर की दृष्टि में अहिता और सत्य में कोईद्वत नहीं है। आत्मा की पूर्ण मुद्ध अपत्या -परमात्मल्प-जो है, वह अहिंसा है। सत्य उनसे भिन्न कहाँ है ? जहाँ सत्य है, वहां निश्चित रूपेण अहिंसा है और जहाँ सत्य नही है, वहाँ अहिला भी नही है। सत्य अहिंसा के परिकर में ही प्रकट होता है और हिता असत्य के साथ चली जाती है। तो हम नहीं कह सकते कि जहाँ अहिंसा है वहां सत्य है और जहाँ सत्य है वहाँ अहिंसा है? ये दोनों परस्पर इस प्रकार व्याप्त है कि इन्द्व त की दृष्टि ने नहीं देखा जा सकता। • जैन धर्म और सत्य कोई भी वस्तु प्राचीन होती है, इसलिए अच्छी नहीं होती और नई होती है इसलिये बुरी नहीं होती। जैन धर्म पुराना है इसलिए अच्छा है, यह कोई तन नहीं है, फिर भी इसमे कोई सन्देह नहीं कि वह बहुत पुराना है और इतना पुराना है कि इतिहास की व्हां तक पहुँच ही नही है। भगवान् महावीर और भगवान् पार्व इतिहास Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य की मीमांसा] [२६ की परिधि मे आते है। भगवान् अरिष्टनेमि और उनसे पूर्ववर्ती तीर्थकर ( भगवान् ऋषभ तक ) इतिहास की परिधि से अस्पृष्ट है। संभव है, आनेवाला युग उन्हे ऐतिहासिक-पुरुष प्रमाणित कर दे। वही धर्म आत्मा का सहज गुण होता है जो सत्य का सीधा स्पर्श करे। जैन धर्म बाह्य विस्तार की दृष्टि से बहुत व्यापक नहीं है, फिर भी वह महान् धर्म है और इसलिए है कि वह सत्य के अन्तस्तल का सीधा स्पर्श करता है। • सत्य की मीमांसा सत्य क्या है ? यह प्रश्न अनादिकाल से चर्चित रहा है। जो स्थित है, वह सत्य है पर वही सत्य नहीं है । परिवर्तन प्रत्यक्ष है । उसे असत्य नहीं कहा जा सकता। जो परिवर्तन है, वह सत्य है पर वही सत्य नही है। स्थिति के बिना परिवर्तन होता ही नही। जो दृश्य है वह सत्य है पर वह भी सत्य है जो दृश्य नही है। सत्य के अनेक रूप हैं। एक रूप अनेकरूपता का अश रहकर ही सत्य है। उससे निरपेक्ष होकर वह सत्य नही है। सत्य किसी धर्म-प्रवर्तक के द्वारा अज्ञात से ज्ञात और अनुद्घाटित से उद्घाटित होता है। भगवान् महावीर ने कहा- सत्य वही है जो वीतराग के द्वारा प्ररूपित है। सत्य एक और अविभाज्य है। जो सत् है, जिसका अस्तिस्व है, वह सत्य है। यह परम अभेद दृष्टि है। इस जगत् मे चेतन का भी अस्तित्व है और अचेतन का भी अस्तित्व है। इसलिए चेतन भी सत्य है और अचेतन भी सत्य है। मनुष्य चेतन है, स्वय सत्य है फिर भी उसका चेतन से सीधा सम्पर्क नही है और इस लिये Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० [प्रस्तावना नही है कि राग और प उसका सत्य से सीधा सम्पर्क होने मे वाचा डाले हुए हैं। राग-रजित मनुष्य आसक्ति की दृष्टि से देखता है इसलिए सत्य उसके सामने अनावृत्त नहीं होता। द्वेष-रजित मनुष्य घृणा की दृष्टि से देखता है इसलिए सत्य उसने भय खाता है। सत्य उसीके सामने अनावृत होता है जो तटस्थ दृष्टि से देखता है। तटस्थ दृष्टि से वही देख सकता है जिसके नेत्र आसक्ति और घृणा से रजित नहीं होते। ० सत्य के दो रूप-अस्तित्ववाद और उपयोगितावाद भगवान् महावीर वीतरागी थे। सत्य से उनका सीधा सम्पर्क था । उन्होने जो कहा वह सुना-सुनाया या पढ़ा-पनाया नहीं कहा। उन्होंने जो कहा, वह सत्य से सम्पर्क स्थापित कर कहा। इसलिए उनकी वाणी यथार्थ का रहस्योद्घाटन और आत्मानुभूति का ऋजु उद्बोधन है। जो सत्य है वह अनुपयोगी नहीं है पर उसके कुछ अग विशेप उपयोगी होते हैं। हम परिवर्तनशील ससार मे रहनेवाले है । अतः कोरे अस्तित्ववादी ही नहीं किन्तु उपयोगितावादी भी है। हम सत्य को कोरा यथार्थवादी दृष्टिकोण ही नहीं मानते किन्तु - यथार्थ की उपलब्धि को भी सत्य मानते है। आत्मा है और प्रत्येक आत्मा परमात्मा है-यह दोनों अस्तित्ववादी या यथार्थवादी दृष्टिकोण है। आत्मा को परमात्मा बनने की जो साधना है, वह हमारा उपयोगितावाद है। अस्तित्ववादी दृष्टिकोण से भगवान ने कहा-आत्मा भी सत्य है और अनात्मा भी सत्य है। उपयोगितावादी दृष्टिकोण से भगवान ने कहा-आत्मा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्ववादी दृष्किोण ] [ ३१ ही सत्य है, शेष सब मिथ्या है । पहला द्वैतवादी दृष्टिकोण है और दूसरा अतवादी । भगवान महावीर अखण्ड सत्य को अनन्त दृष्टिकोणो मे देखने का सदेश देते थे । अनेकान्त दृष्टि से अद्वैत भी उनके लिए उतना ही ग्राह्य था, जितना कि द्वैत, और एकान्त दृष्टि से द्वत भी उनके लिए उतना ही अग्राह्य था जितना कि अद्वैत । वे अद्वैत और द्वैत दोनो को एक ही सत्य के दो रूप मानते थे । • अस्तित्ववादी दृष्टिकोण यह विश्व अनादि और अनन्त है । इसमे जितना पहले था, उतना ही आज है और जितना आज है, उतना ही आगे होगा । उसमें एक भी परमाणु न घटता है और न बढता है । कुछ घटता-बढ़ता सा लगता है, वह सब परिवर्तन है । परिवर्तन की दृष्टि से यह विश्व सादि और सान्त है । यह विश्व शाश्वत है । इसमे जो मूलभूत तत्त्व है, वे सब अकृत है । सृष्टिकर्त्ता न कोई था, न है और न होगा। सब पदार्थ अपनेअपने भावो के कर्ता हैं । कुछ वस्तुएं जीव और पुद्गल के सयोग से कृत भी है । कृत्रिम वस्तुओ की दृष्टि से यह विश्व अशाश्वत भी है । मूलभूत तत्त्व की दृष्टि से विश्व शाश्वत है और तद्गत परिवर्तन की दृष्टि से वह अशाश्वत है । यह विश्व अनेक है । इसमे चेतन भी है। चेतन व्यक्तिशः' अनन्त है । अचेतन के पाच प्रकार है- धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल । प्रथम चार व्यक्तिशः एक है । पुद्गल व्यक्तिशः अनन्त हैं | अस्तित्व की दृष्टि से सब एक है इसलिए यह विश्व भी एक है । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रस्तावना ३२] • उपयोगितावादी दृष्टिकोण-आत्मा और परमात्मा आत्मा है। वह अपने प्रयल से परमात्मा बन सकता है। यह उपयोगितावादी दृष्टिकोण है। भगवान ने कहा-वन्वन भी है और मुक्ति भी है। जिस प्रवृत्ति से आत्मा और परमात्मा की दूरी बढनी है, वह वन्वन है और जिनसे उनकी दूरी कम होती है, अन्ततः नही रहती, वह मुक्ति है। मिय्या दृष्टिकोण, मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र-इनमे आत्मा बघता है। सम्यक दृष्टिकोण, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र-इनसे आत्मा मुक्त होता है-परमात्मा बनता है। परमात्मा पूर्ण सत्य है। आत्मा अपूर्ण सत्य है । आत्मा का अन्तिम विकास परमात्मा है। जब तक आत्मा अपने अन्तिम विकास तक नही पहुँचता, तब तक वह अपूर्ण रहता है। अन्तिम स्थिति तक पहुँचते ही वह पूर्ण हो जाता है। इसलिए यह सही है कि आत्मा अपूर्ण सत्य है, पूर्ण सत्य है परमात्मा। आत्मा परमात्मा का वीज है और परमात्मा आत्मा का पूर्ण विकास। बीज और विकास ये दो भिन्न स्थितियाँ हैं किन्तु भिन्न तत्व नही। आत्मा और परमात्मा ये दोनों एक ही तत्त्व के दो भिन्न रूप हैं किन्तु आत्मा के उत्तर रूप से भिन्न किसी परमात्मा और परमात्मा के पूर्व रूप से भिन्न किसी आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। उनके मौलिक एकत्व की दृष्टि से भगवान ने कहा-जो आत्मा है, वही परमात्मा है और जो परमात्मा है, वही आत्मा है। स्थिति-भेद की दृष्टि से Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रदाय और धर्म ] [ ३३ भगवान ने कहा -- चेतन का जो अविकसित या अपूर्ण रूप है, वह आत्मा है ओर जो विकसित या पूर्ण है, वह परमात्मा है । ये दोनो एक ही चेतन-व्यक्ति की दो भिन्न अवस्थाएँ है । ● अध्यात्म और धर्म भगवान महावीर ने आत्मा और परमात्मा की वास्तविक एकता की स्थापना की, उससे अनेक सत्यो का प्रकाशन हुआ । (१) आत्मा का स्वतन्त्र कर्तृत्व (२) आत्मा का स्वन्त्र भोक्तृत्व अध्यात्मवाद और पुरुषार्थवाद इन्ही के फल है और इन्ही के आधार पर भगवान ने धर्म को बाहरी कर्मकाण्डो से उबारकर अध्यात्म बना दिया । उनकी भाषा मे-आत्मा से परमात्मा बनने की जो प्रक्रिया है, वही धर्म है । सम्प्रदाय, वेष, बाह्य कर्मकाण्ड आदि धर्म के उपकरण हो सकते है, पर धर्म नही । धर्म आत्मा की ही एक परमात्मोन्मुख अवस्था है । उसे शुद्धावस्था भी कहा जा सकता है। भगवान ने कहा -धर्म शुद्ध आत्मा में स्थित होता है । इसका अर्थ है आत्मा की जो शुद्धि है, वही धर्म है । आत्मा और पुद्गल की मिश्रित अवस्था है, वह अशुद्धि है । जो शुद्धि है, वही धर्म है | • सम्प्रदाय और धर्म भगवान् महावीर ने तीर्थ की स्थापना की । साधना को सामुदायिक रूप दिया, फिर भी वे सम्प्रदाय और धर्म को भिन्न-भिन्न Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] [प्रस्तावना मानते थे। उन्होंने कहा-'एक व्यक्ति सम्प्रदाय को छोता है पर धर्म को नही छोडता। एक व्यक्ति धर्म छोड़ देता है पर सम्प्रदाय को नहीं छोड़ता। 'एक व्यक्ति दोनों को छोड़ देता है और एक व्यक्ति दोनों को नहीं छोडता । सम्प्रदाय धर्म की उपलब्धि में सहायक हो सकता है। इस दृष्टि से उन्होंने सघ-बद्धता को महत्व दिया। किन्तु धर्म को सम्प्रदाय से आवृत्त नहीं होने दिया । उन्होंने कहाजो दार्शनिक लोग कहते है कि हमारे सम्प्रदाय में आओ, तुम्हारी मुक्ति होगी अन्यया नही, वे भटके हुए हैं और वे भी भटके हुए हैं जो अपने-अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और दूसरो के सम्प्रदाय की निन्दा करते हैं। धर्म को आरावना सम्प्रदायातीत होकर सत्याभिमुख होकर ही की जा सकती है। सम्प्रदाय एक माचन है, जीवन यापन को परस्परता या सहयोग है। वह व्यक्ति को प्रेरित कर सकता है किन्तु वह स्वय धर्म नहीं है। सम्प्रदाय और धर्म को भिन्न-मिन्न मानने वाले सावक के लिए सम्प्रदाय धर्म-प्रेत होता है, धर्म-घातक नही। • व्यक्ति और समुदाय भगवान् महावीर तीर्यकर थे-भावना के सामुदायिक रूप के महान् सूत्रधार थे। दूसरे पार्च मे वे पूर्ण व्यक्तिवादी थे। उन्होंने कहा-आत्मा अकेला है। वह अपने आप मे परिपूर्ण है। सज्ञा और वेदना भी उसकी अपनी होती है। समुदाय का अर्थ निमित्तनैमित्तिक भाव है। सहयोग या परस्परालम्बन से गति उत्पन्न होती है। उसका अविभक्त उपयोग ही समुदाय है। भगवान् ने Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतंत्र सत्ता और अध्यात्म ]] [३४ कहा~कोई एक व्यक्ति सबके लिए पाप-कर्म करता है, उसका परिणाम उसी को भोगना पडता है। इसका अर्थ है कि पाप-कर्म करते समय व्यक्ति का दृष्टिकोण सदा व्यक्तिवादी ही होना चाहिए और शक्ति सपादन के लिए समुदायवादी दृष्टिकोण। समुदायवाद नास्तिकता भी है। यदि उसका उपयोग इस अर्थ मे किया जाय कि मै वही करूंगा, जो सव लोग करते है। अच्छाई और बुराई का विचार किए विना केवल "सर्व" का अनुसरण करना नास्तिकता है अर्थात् अपनी आत्म-शून्यता है । व्यक्ति अपनी सत्ता के जगत् मे पूर्णत: व्यक्ति है और निमित्त जगत् मे पूर्णतः सामुदायिक है। कोई भी जीवित व्यक्ति केवल व्यक्ति या केवल सामुदायिक नही होता । अध्यात्म का अन्तिम बिन्दु यही होता है कि वहाँ पहुँच कर व्यक्ति निमित्त-जगत् से मुक्त हो जाता है, कोरा व्यक्ति रह जाता है। . स्वतंत्र सत्ता और अध्यात्म भगवान् महावीर आत्मवादी थे। उनकी भाषा मे आत्मा परिपूर्ण है। उसका अस्तित्व पर-निर्भर नही किन्तु स्वतत्र है। इस स्वतत्र सत्ता का बोध ही अध्यात्म है। मनुष्य जितने अर्थ मे परिस्थिति का स्वीकार करता है, उससे भरता है, उतने ही अर्थ मे वह अपने स्वतत्र अस्तित्व से खाली हो जाता है। यह खाली होने की स्थिति भौतिकता है । जो कोई आध्यात्मिक वनता है, वह बाहर से कुछ लेकर नहीं बनता किन्तु बाहर से जो लिया हुआ है, उसे पुनः बाहर फेककर बनता है । अपूर्णता जो है, वह भीतर मे नही है किन्तु बाहर का जो स्वीकार है, वही अपूर्णता है। उसे अस्वीकार करके Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६) प्रस्तावना ही मनुष्य देख सकता है कि वह परिपूर्ण है। भगवान् ने इसी अर्थ में कहा था कि आत्मा ही सुख-दुख का क्र्ता है और आत्मा हो अपना मित्र है और वही अपना नत्रु । जो आत्मा को जानता है, वह परिस्थिति से मुक्त होने का उपाय जानता है। जो आत्मा में रमण करता है वह परिस्थिति के चक्रव्यूह से मुक्त हो जाता है। अदृष्टि से उसकी इन्द्रिय और मन निरपेक्ष स्थिति है, वही अव्यात्म है। वहिर्जगत की दृष्टि से परिस्थिति से मक्त होने की स्थिति है. वह अध्यात्म है। आत्मा परिस्थिति या किसी बाहरी सत्ता पर निर्भर नही है। इसीलिए उसका अस्तित्व स्वतंत्र है। उसका स्वतत्र अस्तित्व है इसलिए उसका कर्तव्य भी स्वतत्र है।। • स्वावलम्बन साधना और आत्म-निर्भरता दोनो सम्बन्धित हैं। जितनी आसक्ति उतनी पर निर्भरता । जितनी पर निर्भरता उतनी विकाता। सावना का मुख स्ववशता की ओर है। भगवान ने कहा-सावना गांव में भी हो सकती है और अरण्य मे भी। वह गाँव मे भी नहीं हो सकती और अरण्य में भी नहीं। भगवान् बाहरी निमित्तों या स्थितियों की उपेक्षा नहीं करते थे किन्तु बात्मा की स्वतंत्र सत्ता के प्रतिपादक होने के कारण वे बाहरी निमित्तों को अतिरिक्त स्थान भी नहीं देते थे। सावू को सामुदायिक जीवन बिताने की छूट दी . पर साय-साथ यह भी कहा कि वह समुदाय मे रहता हुआ भी अकेला रहे। अकेला अर्थात् शुद्ध । बहुत अर्थात् अशुद्ध । जो अकेला होता है वह संगुद्ध होता है और जो संशुद्ध होता है वह अकेला होता है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वावलम्बन] [३७. सघ में रहकर भी अकेला रहने की स्थिति को भगवान ने बहुत प्रवल बनाया। यह साधना का बहुत ही प्रखर रूप है। इस स्थिति में अहिंसा को तेजस्विता प्रगट होती है। स्थिति का जितना अधिक स्वीकार होता है उतनी ही सहायता अपेक्षित होती है। जैसे-जैसे स्थिति का दबाव कम होता चला जाता है, वैसे-वैसे व्यक्ति सहायता-निरपेक्ष होता चला जाता है। एक __ दिन व्यक्ति अपने को सहायता से मुक्त कर लेता है। एक व्यक्ति सहायता न मिलने पर असहाय होता है, यह परतत्रता की स्थिति है। एक व्यक्ति अपने को सहायता से मुक्त कर असहाय होता है, यह पूर्ण स्वतन्त्रता की स्थिति है। इसे भगवान् ने बहुत महत्व दिया। शिष्य ने पूछा-भगवन् ! सहायता का त्याग करने से क्या होता है ? उत्तर मिला-अकेलापन प्राप्त होता है। जिसे अकेलापन प्राप्त हो जाता है वह कलह, कषाय, तूतू, मैं-मैं से मुक्त हो जाता है। उसे संयम, सवर और समाधि प्राप्त होती है। भगवान् महावीर का स्वावलम्बन निमित्तो की दृष्टि से उपकरण, आहार और देह त्याग तक तथा आन्तरिक स्थिति को दृष्टि से प्रवृत्तिऔर कषाय-त्याग तक पहुँचता है। भगवान् आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता के जगत् से बोलते थे इसलिए उन्होने यही कहा-जो व्यक्ति उपकरण आदि बाहरी और कषाय आदि भीतरी बधनो से मुक्त होता है, वही पूर्ण अर्थ मे स्वावलम्बी होता है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] [प्रस्तावना • गार्हस्थ्य और सन्यास भगवान महावीर सन्यान-धर्म के समर्थको मे प्रमुन्न थे। उनकी भाषा मे सन्यास का अर्थ था अहिंसा। वह जीवन मे हो तो गृहत्यवेष मे भी कोई सन्यानी हो सकता है और यदि वह न हो तो साचु के वेप मे भी कोई सन्यासी नही हो सकता। अहिंसा और सत्यान ये दोनो पर्यायवाची हैं। भगवान् ने यह प्रश्न उपस्थित किया कि 'को गारमावसे' ? गृह मे रहना कोन चाहेगा ? इसका अर्थ है हिमा मे रहना कौन चाहेगा ? भगवान् ने कहा कुछ मिनुओ से गृहस्य अच्छे होते हैं। उनका सयम प्रधान होता है-अहिंसा विकसित होती हैं। जिनका सयम पूर्ण परिपक्व हाता है, अहिंसा पूर्ण विकसित होती है, वह भिन्नु नव गृहस्थो से श्रेष्ठ होता है। उनका सन्यास किसी वेशभूपा या बाहरी उपकरण मे वंचा हुआ नहीं था। वह उन्मुक्त था। इसलिए उन्होने कहा- गृहस्य के वेश मे भी वह व्यक्ति परमात्मा बन सकता है जो अहिंसा के चरम विक्राम तक पहुंच जाता है। वेष और धर्म के निश्चित सबन्ध को उन्होने कभी मान्य नहीं किया। उनकी वाणो है एक व्यक्ति रूप को छोड़ देता है, धर्म को नहीं छोड़ता। एक व्यक्ति रूप को नही छोडना, धर्म को छोड़ देता है। एक व्यक्ति दोनों को नहीं छोडता । एक व्यक्ति दोनों को छोड़ देता है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य धर्मों के प्रति ] [ ३६ गृहस्थी का त्याग ममत्व - विसर्जन के लिए आवश्यक है और देष-परिवर्तन का तात्पर्य है - पहचान या जागरूकता । • अन्य धर्मों के प्रति धर्म सत्य है और जो सत्य है वह एक है । वह देश-काल और व्यक्ति के भेद से विभक्त नही है । जो देश-काल और व्यक्ति से "विभक्त है, वह धर्म का उपकरण हो सकता है, धर्म नही । आत्मा और धर्म भिन्न नही है । जो आत्मा है वही धर्म है और जो धर्म है वही आत्मा है । धर्म आत्मा से भिन्न हो तो वह आत्मा को अनात्मा से मुक्त नही कर सकता । जो आत्मा को आत्मा से भिन्न करता है, वह धर्म है । वह सबके लिए समान है । फिर भी लोग कहते है यह मेरा धर्म और यह तुम्हारा धर्म । यहाँ धर्म का अर्थ सघ या सम्प्रदाय है, आत्मा की विशुद्धि करने वाले गुण नही । भगवान् ने कहा— आत्मा की उपलब्धि न गाव मे होती है और न अरण्य मे। आत्मा अपना द्रष्टा बने तो वह गाँव मे भी हो सकती है और अरण्य मे भी । मुक्ति धर्म से होती है । वह जैन, बौद्ध आदि विशेषणो, अमुक-अमुक वेषो, आदि से नही होती । इस सत्य को 'भगवान् ने ‘अन्यलिंगसिद्धा' शब्द के द्वारा व्यक्त किया । मुक्त होने के लिए आवश्यक नही कि वह जैन साधु के वेष मे ही हो। वह किसी भी वेष या अवेष मे मुक्त हो सकता है, यदि साधु हो— मूर्छा या आसक्ति से मुक्त हो । सच्चाई यह है कि धर्म का प्रवाह किसी तट मे बंधकर नही बहता । वह उन्मुक्त होकर बहता है - सबके लिए समान रूप से बहता है । इसलिए वह व्यापक है । उसका Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.] [ प्रस्तावना परिणाम सब देशों और कालों मे समान होता है, इसलिए वह गाश्वत है । वह व्यापक और शाश्वत है इसीलिए वैज्ञानिक है। वह प्रयोगसिद्ध है। उसका परिणाम निश्चित और निरपवाद है। धर्म हो और मुक्ति न हो, धर्म हो और आत्मा पवित्र न हो यह कभी नही हो सकता। जिसने धर्म को देखा वह मुक्त हुआ, जब देखा तव मुक्त हुआ, जहाँ देखा वही मुक्त हुआ। धर्म और मुक्ति मे व्यक्ति, काल और देश का व्यवधान नहीं है। दीपक अपने आप में प्रकाशित होता है, जव जलता है तभी प्रकाशित होता है और जहाँ जलता है वही प्रकाशित होता है। • धर्म क्या और क्यों ? भगवान् महावीर का धर्म आत्म-धर्म है। वह आत्मा के अस्तित्व से जुड़ा हुआ है। आत्मा जो है वह धर्म से सर्वथा भिन्न नही है और धर्म जो है वह आत्मा से सर्वथा भिन्न नही है । धर्म आत्मा से वाहर कही नही है। इसलिए वह आत्मा से अभिन्न भी है और वह आत्मा के अनन्त गुणों मे से एक गुण है। आत्मा गुणी __ है और धर्म गुण है। इस दृष्टि से वह आत्मा से भिन्न भी है। आत्मा जब केवल आत्मा हो जाती है-शरीर, वाणी और मन से मुक्त हो जाती है, सारे विजातीय तत्त्वो-पुद्गल द्रव्यो से मुक्त हो जाती है तब उसके लिए न कुछ धर्म होता है और न कुछ अधर्म । वह जब तक विजातीय तत्त्वों से आवद्ध रहती है तब तक उसके लिए धर्म और अधर्म की व्यवस्था होती है। जिन हेतुओं से विजातीय तत्त्दो का आकर्पण होता है वे अवर्म कहलाते हैं और Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या और क्यों?] [४१ जिनसे उनका निरोध या विनाश होता है, वे धर्म कहलाते है । भगवान् की भाषा मे समता ही धर्म है और विषमता ही अधर्म है। राग और द्वष यह विषमता है। न राग, न द्वष—यह समता, तटस्थता या मध्यस्थता है । यही धर्म है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शान्ति, क्षमा, सहिष्णुता, अभय, ऋजुता, नत्रता, पवित्रता, आत्मानुगासन, सयम, आदि-आदि जो गुण है, वे उसी के क्रियात्मक रूप है। इन्ही को व्यवहार की भाषा मे व्यक्तित्व-विकास के साधन और निश्चय की भाषा मे आत्म-विकास के साधन कहे जाते है। ___ सहज ही प्रश्न होता है, धर्म किसलिए ? साधारणतया इसका समाधान दिया जाता है-परलोक सुधारने के लिए। धर्म परलोक सुधारने के लिए है. यह सच है किन्तु अधूरा। धर्म से वर्तमान जीवन भी सुधरना चाहिए। वह शात और पवित्र होना चाहिए। अपवित्र आत्मा मे धर्म कहाँ से ठहरेगा ? उसका आलय पवित्र जीवन ही है। जिसे धर्म आराधना के द्वारा यहाँ शान्ति नही मिली, उसे आगे कैसे मिलेगी ? जिसने धर्म को आराधा, उसने दोनो लोक आराध लिए। वर्तमान जीवन मे अंधेरा देखने वाले केवल भावी जीवन के लिए धर्म करते है, वे भूले हुए हैं। १-भगवान ने कहा-इहलोक के लिए धर्म मत करो। वर्तमान जीवन मे मिलनेवाले पौद्गलिक मुखो की प्राप्ति के लिए धर्म मत करो। २-परलोक के लिए धर्म मत करो। आगामी जीवन मे मिलने वाले पौद्गलिक सुखो की प्राप्ति के लिए धर्म मत करो। ३-कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि के लिए धर्म मत करो। ४-केवल आत्म-शुद्धि या आत्मा की उपलब्धि के लिए धर्म करो। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] [प्रस्तावना • धर्म और अभय भगवान ने कहा-धर्म पवित्र आत्मा मे रहता है। प्रश्न होता है, पवित्रता क्या है ? उसका उत्तर है कि अभय ही पवित्रता है। यद्यपि पवित्रता का मौलिक रूप अहिंसा है, फिर भी जहा भय होता है, वहाँ अहिंसा नही हो सकती, इसलिए अभय ही पवित्रता है। अभय अहिंसा का आदि विन्दु है। भगवान के प्रवचन का मूलमन्त्र हैं-डरो मत ! जो डरता है वह अपने को अकेला अनुभव करता है, असहाय मानता है। भूत उसी के पीछे पडता है जो डरता है। डरा हुआ मनुष्य दूसरो को भी डरा देता है । डरा हुआ मनुष्य तप और समय को भी तिलाजलि दे देता है। डरा हुआ मनुष्य अपने दायित्व को नही निभाता-उठाए हुए भार को वीच मे डाल देता है। डरा हुआ मनुष्य सत्पथ का अनुसरण करने में समर्थ नहीं होता, इसलिए डरो मत ! न भयावनी परिस्थिति से डरो, न भयावने वातावरण से डरो! न व्याधि से डरो, न असाध्य रोग से डरो ! न बुढापे से डरो, न मौत से डरो ! किसी से भी मत डरो! जिसका अन्तःकरण अभय से भावित होता है, वही व्यक्ति सत्य की सम्पदा को पा सकता है। • साम्ययोग भगवान् महावीर के समूचे धर्म का प्रतिनिधि शब्द है 'सामायिक' । सामायिक का अर्थ है, समता की प्राप्ति। सब जीव समान हैं-इस धारणा से परत्व और ममत्व दोनों मिटते हैं और समत्व का विकास होता है। परत्व से उप पलता है और ममत्व से राग । इनसे Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्ययोग] [४३ विषमता बढती है। जब ये दोनो समत्व मे लीन हो जाते हैं, तब आत्मा सम वन जाती है। भगवान् ने कहा-साम्ययोगी लाभ और अलाभ, सुख और दुःख, जीवन और मरण, प्रशंसा और निन्दा, मान और अपमान मे सम रहे। ये सब औपाधिक स्थितियाँ हैं। ये आत्मा को विषम स्थिति मे ले जाती है। सम स्थिति इनसे परे है। भगवान ने कहा-आत्मा न हीन है और न अतिरिक्त । सब समान है। अध्यात्म जगत् के पहले सोपान मे उत्कर्ष की भावनाएं टूट जाती है। जो मुमुक्षु होकर भी किसी को अपने से अतिरिक्त और किसी दूसरे को अपने से हीन मानता है वह सही अर्थ मे मुमुक्षु नही है। वह उसी व्यवहार-जगत् का प्राणी है जो जाति, वर्ण आदि के आधार पर आत्मा को ऊंच-नीच माने बैठा है। भगवान जातिवाद का खण्डन करने नही चले। यज्ञ-हिंसा और दास-प्रथा का विरोध करना भी उनका कोई प्रमुख ध्येय नही था । उनका ध्येय था समता-धर्म की स्थापना । यह खण्डन और विरोध तो उसका प्रासंगिक परिणाम था। जहां धर्म का आधार समता है, वहाँ जातिवाद हो नहीं सकता। जहाँ धर्म का आधार समता है, वहाँ यज्ञ-हिंसा और दास प्रथा का विरोध स्वतः प्राप्त है । भगवान् महावीर का सन्देश यदि इन्ही के विरोध में होता तो वह सोमित होता और अस्थायी भी। किन्तु उनका सन्देश असीम है और स्थायी और वह इसलिए है कि उसका ध्येय आत्मा की सम स्थिति को प्राप्त करना है। भगवान् ने सत्य को अनेकान्त की दृष्टि से देखा और उसका प्रतिपादन Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] [ प्रस्तावना स्याद्वाद की भाषा मे किया । इसका हेतु भी समता की प्रतिष्ठा है । एकान्त दृष्टि से देखा गया वस्तुतः सत्य नही होता । एकान्त की भाषा मे कहा गया सत्य भी वास्तविक सत्य नही होता । सत्य अखण्ड और अविभक्त है । प्रत्येक अस्तित्वशील वस्तु सत् है । जो सत् है वह अनन्त-धर्मात्मक है । उसे अनन्त दृष्टिकोणों से देखने पर ही उसकी सत्ता का यथार्थ ज्ञान होता है । इसलिए भगवान् ने अनेकान्त दृष्टि की स्थापना की। • अनेकान्त दृष्टि शब्द की शक्ति सीमित है। वह एक साथ अनन्त धर्मात्मक सत् के एक ही धर्म का प्रतिपादन कर सकता है। शेष अनन्त धर्म अप्रतिपादित रहते है । एक धर्म के प्रतिपादन से एक धर्म का ही वोघ होता है, अनन्त घर्मो का नही । इस स्थिति मे हम सापेक्ष पद्धति से ही उसका प्रतिपादन कर सकते है -वस्तु के अनन्त धर्मों से जुडे हुए एक धर्म के माध्यम से उस सभी वस्तु का प्रतिपादन कर सकते हैं । भगवान ने अनेकान्त की दृष्टि से देखा तव स्याद्वाद की भाषा मे कहा—प्रत्येक पदार्थ नित्य भी है और अनित्य भी है । स्वरूप अविच्युति की दृष्टि से सब पदार्थ नित्य है और स्वगत परिवर्तनो की दृष्टि से सब पदार्थ अनित्य है । कोई भी पदार्थ किसी भी पदार्थ से सर्वथा सा भी नहीं है और सर्वया विसदृश भी नही । सव पदार्थ सदृश भी है और विमदृश भी है । प्रत्येक पदार्थ मत् भी है और असत् भी है । अपने अस्तित्व घटकों की दृष्टि से सब पदार्थ मत् है और Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण] [४५ वह अस्तित्व स्व से भिन्न अवयवो से घटित नही है इसलिए सब पदार्थ असत् भी है। कोई भी पदार्थ सर्वथा वाच्य और सर्वथा अवाच्य नही है। एक क्षण मे एक धर्म वाच्य भी है और समग्र धर्मी के दृष्टि से वह अवाच्य भी है। जो जानता है कि पदार्थ नित्य भी है, वह जीवन और मृत्यु मे सम रहता है। जो जानता है कि पदार्थ अनित्य भी है वह सयोगवियोग मे सम रहता है। जो जानता है कि पदार्थ सदृश भी है, वह किसी के प्रति घृणा नही करता। जो जानता है कि पदार्थ विसदृश भी है, वह किसी के प्रति आसक्त नही बनता। जो जानता है कि प्रत्येक पदार्थ सत् है, वह दूसरे की स्वतत्र सत्ता को अस्वीकार नही करता। जो जानता है कि प्रत्येक पदार्थ असत् भी है, वह किसी को परतत्र करना नही चाहता। जो जानता है कि प्रत्येक पदार्थ वाच्य भी है, वह सत्य को शब्द के द्वारा सर्वथा अग्राह्य नही मानता। जो जानता है कि पदार्थ अवाच्य भी है, वह किसी एक शब्द को पकडकर आग्रही नहीं बनता। इस प्रकार जो सत्य को अनेक दृष्टिकोणो से देखता है, वही सही अर्थ मे साम्ययोगी बन सकता है। • निर्वाण धर्म की चरम परिणति निर्वाण मे होती है। निर्वाण का अर्थ है-शान्ति-"सति निव्वाणमाहिय" । निर्वाण से पहले आत्मा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रस्तावना शान्ति और अगान्ति के द्वन्द्र में रहता है। शान्ति का अर्थ है द्वन्द्व का पूर्ण रूपेण गमन । आत्मा अपनी अवस्या मे चैतन्यमय है । वह न शान्त है और न अशान्त । अगान्ति की तुलना मे उसे कहा जाता है, शान्ति । निर्वाण सिद्धि है। निर्वाण होने से पूर्व आत्मोपलब्धि साध्य होता है । आत्मा पूर्ण रूपेण उपलब्ध होते ही साध्य सिद्धि मे परिणत हो जाता है, इसलिए निर्वाण सिद्धि भी है। निर्वाण से पूर्व आत्मा सुख-दुःख के बन्धन से बंधा होता है । वह अपने मौलिक रूप मे आते ही उस वन्चन से मुक्त हो जाता है। इसलिए निर्वाण मुक्ति भी है। आत्मा का पूर्णोदय है वह निर्वाण है और इसे प्राप्त करने का अधिकार उन सब को है जो इसे पाना चाहते हैं। यह उन्हे कमी प्राप्त नहीं होता जो इसे पाना नही चाहते। • युद्ध और निःशस्त्रीकरण भगवान महावीर अहिंसा के अजल स्रोत थे। हिंसा उनके लिये कही भी क्षम्य नही थी। उनकी दुनिया मे शत्रुता, युद्ध और अशान्ति जैसे तत्व थे ही नही। उन्होंने कहा-मनुष्य-मनुष्य का शत्रु नहीं हो सकता । जब कहा जा रहा था-'हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग, जितो वा मोक्ष्यसे महीम्' तब भगवान ने कहा-युद्ध नारकीय जीवन का हेतु है। भगवान ने कहा-आत्मा से लड। बाहरी लडाई से तुझे क्या ? अध्यात्म जगत को यही स्थिति है किन्तु सब के सब तो अध्यात्मलीन होते नही। ऐसे व्यक्ति अधिक है जो युद्ध, आक्रमण और अधिकार-हरण मे विश्वास करते हैं। आत्मा से लड-यह Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] [भगवान् महावीर कल्पसूत्र मे इनके लिये-'दख्खे, दख्खपइन्ने, पडिरूवे, आलीणे, भदए तथा विणीए'-इन छः विशेपणो का उपयोग हुआ है। इन विशेषणो के द्वारा इनके स्वभावादि के सम्बन्ध मे कुछ प्रकाश प्राप्त होता है। ये 'दक्ष' थे, अर्थात् सर्व कलाओ मे कुशल थे। ये 'दक्ष-प्रतिज्ञ' थे अर्थात् की गई प्रतिज्ञा का पालन पूर्णरूपेण करते थे। 'प्रतिरूप' थे अर्थात् आदर्श रूपवान् थे। 'आलीन' थे अर्थात् कछुए के समान अपनेआप मे गुप्त थे। 'भद्रक' थे अर्थात् शुभ लक्षणो से विभूषित थे। और 'विनीत' थे अर्थात् माता, पिता एव गुरुजनों के प्रति विनयशाली थे। ये बाल्यकाल से ही बडे निर्भीक थे। एक बार ये अपने समवयस्क मित्रो के साथ क्रीडा कर रहे थे। उस समय किसी वृक्ष की जड से एक भयंकर सर्प निकला। उसे देखकर सभी कुमार भयभीत होकर भाग गये; किन्तु ये अपने स्थान से तनिक भी विचलित नही हुए। इतना ही नही अपितु ये सर्प के निकट गये और उसे धीरे से उठाकर दूर रख दिया। अनन्तर सभी कुमार वापस लौट आये और उन्होने पूर्ववत खेल आरम्भ किया। इनका शरीर अनुपम कान्ति से युक्त और अत्यन्त सुदृढ था। तीर्थडुर की आत्माएं अनादिकाल से संसार मे परोपकारी स्वभाववाली, स्वार्थ को प्रधान न माननेवाली, सर्वत्र समुचित क्रिया का आचरण करनेवाली, दीनंतारहित, सफल कार्यों को ही करनेवाली, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिल्पथाला में] [५५ अपकारी जनो के प्रति भी अत्यन्त क्रोध न करनेवाली, कृतज्ञतागुण की स्वामिनी, दुष्ट वृत्तियो द्वारा अदमनीय चित्तवाली, देव तथा गुरु का बहुमान करनेवाली और गम्भीर आशय से परिपूर्ण होती है। उनका सहज तथाभव्यत्व तदनुकूल सामग्री के सयोग से जैसेजैसे परिपक्व होता रहता है, वैसे ही उनकी उत्तमता बाहर प्रकट होती रहती है। इस प्रकार भगवान् महावीर मे ये सभी गुण उत्कृष्ट रूप में विकसित हए थे; ऐसा माने तो कोई अनचित न होगा। • शिल्पशाला में उस समय विदेह मे क्षत्रिय कुमारो को शिक्षण देने के लिये विशिष्ट शिल्पशालाएं थी। उनमे क्षत्रिय कुमारो को अक्षरज्ञान, व्यवहारोपयोगी गणित तथा अनेक प्रकार की कलाएं सिखाई जाती थी और युद्धविद्या के सिद्धान्त तथा प्रयोगो का ज्ञान, एव धनुर्विद्या की उच्चकोटि की शिक्षा भी दी जाती थी। फलतः क्षत्रियकुमार युद्ध मे अति निपुण होते थे और अक्षणवेधी तथा बालवेधी बनते थे, अर्थात् क्षण मात्र मे किसी भी वस्तु का वेध कर सकते थे और केश जैसे सूक्ष्म वस्तु पर भी लक्ष्यसन्धान करने मे सफलता पाते थे। क्षत्रियो की अधिक बस्ती होने के कारण क्षत्रियकुण्ड मे ऐसी एक शिल्पशाला थी और वह वहाँ के क्षत्रियकुमारो को उपयुक्त सभी प्रकारो की शिक्षा देती थी। भगवान् महावीर को आठ वर्ष की आयु में इस शिल्पशाला मे प्रविष्ट किया गया, किन्तु वहाँ उनका मन श्रीहरिभद्रसूरि कृत 'ललितविस्तरा' 'चैत्यवन्दनवृत्ति' । •बौद्धग्रन्थ ओपम्मसंयुत की अट्ठकथा । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६] [ भगवान महावीर नहीं लगा। जिसका मन आध्यात्मिक प्रवृत्ति में लगा हो, अहिंसा. वृति से परिपर्ण हो, उसे यद्धविद्या अथवा धनविद्या जैसी हिंसक विद्या मे रस कहाँ से प्राप्त हो ? शिल्पशाला के आचार्य ने उनके मन मे इस प्रकार की अभिरुचि जगाने का पूर्ण प्रयत्न किया, तब उनमें परस्पर जो वार्तालाप हुआ, वह बहुत ही सूचक था । आखिर शिल्पगाला के आचार्य ने सिद्धार्थ राजा को बतलाया कि राजकुमार बुद्धि-प्रतिभापूर्ण है, किन्तु उन्हे यहाँ दी जानेवाली शिक्षा के प्रति तनिक भी अभिरुचि नही है। अत. इन्हें राजमहल मे ही रखें और यथेच्छ प्रवृति करने दें। सिद्धार्थ राजा ने शिल्पगाला के आचार्य की सम्मति के अनुसार कार्य किया और तब से वर्धमान कुमार राजमहल मे यथेच्छ विहार करने लगे। • वैवाहिक जीवन भगवान् महावीर ने युवावस्था मे प्रवेश किया, तब उनके अन्तर मे जन्मसिद्ध वैराग्य की वल्लरी अंकुरित हो रही थी, इसी से उनकी अभिरुचि विवाहित होने को नहीं थी, किन्तु माता के आरहवा उन्होंने समरवीर नामक एक महा सामन्त की पुत्री यगोवा के माय विवाह किया। कालक्रम से उन्हें एक पुत्रीरत्न की प्राप्ति हुई और उसका नाम 'प्रियदर्शना' रखा गया। पुत्री प्रियदर्गना का विवाह, वड़ी होने पर, उसी नगर में 'जमाली' नामक क्षत्रियकुमार के साथ हुआ जो कि भगवान की वहन मुदर्शना का पुत्र था। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससार का त्याग] [५७ उस समय कुछ क्षत्रियकुल मामा को पुत्री को गम्य मानकर उसके साथ विवाह करते थे। ज्ञातकुल भी उनमे से एक था। भगवान के ज्येष्ठ भ्राता श्री नन्दिवर्धन ने भी अपने मामा चेटक को पुत्री 'ज्येष्ठा' के साथ विवाह किया था। प्रियदर्शना को जन्म देने के कुछ समय पश्चात् यशोदादेवी का स्वर्गवास हुआ अथवा दीर्घकाल तक जीवित रही, यह कहा नही जा सकता; क्योकि आगे उनके सम्बन्व मे कोई उल्लेख प्राप्त नही होता। दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार भगवान् महावीर ने अखण्ड कौमारव्रत का पालन किया था। विवाह करने के लिये सम्बन्धी जनो का बहुत आग्रह होने पर भी उन्होने विवाह करना कथमपि स्वीकार नही किया था। • संसार का त्याग भोगमार्ग त्याग कर योगमार्ग गहण करने की तथा उसके निमित्त ससार-त्याग करने की भावना तो भगवान् महावीर के दिल में दीर्घकाल से ही थी, किन्तु इस ओर कदम रखने में माता-पिता के वात्सल्यपूर्ण कोमल हृदय को गहरी चोट पहुंचेगी, ऐसा नमरर वे मोन-बैठे थे। उनकी इस चिर-अभिनपित आगना मो मां ने ग अवसर अट्ठाइस वर्ष की आयु में उपस्थित हुला, मा . पिता दोनो ही स्पर्ग निधार गये। किन्तु उस दामों Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] [ भगवान् महावीर की अनुमति लेते समय वातावरण हृदयद्रावक बन गया । नन्दिवर्धन गद्गद् होकर कहने लगे कि - 'माता-पिता का दारुण वियोग तो अभी ताजा ही है, ऐसी स्थिति मे तुम हमे छोड़कर जाने की बात क्यो करते हो ? तुम्हारे वियोग का दुःख हमसे किंचित् भी सहन नहीं हो सकेगा । कम से कम दो वर्ष तो हमारे साथ रहो, फिर तुम्हे जैसा योग्य प्रतीत हो वैसा करना ।' भगवान् का हृदय इस समय वैराग्य से परिपूर्ण होने पर भी उन्होने बडों का सम्मान रखा और दो वर्ष रुकने का निर्णय किया, किन्तु अपना जीवन तो उसी दिन से एक त्यागी के अनुरूप बना लिया । वारह मास के अनन्तर उन्होने अपना सारा परिग्रह न्यून करना आरम्भ किया तथा दीन-दुखियों को एवं आवश्यकता वाले व्यक्तियों को अपने हाथों से सभी वस्तुएं बाँट दी और कुटुम्विजनो को देने योग्य जो वस्तुएं थी, वे उन्हें वितरित कर दी । * तीस वर्ष की अवस्था मे योगमार्ग ग्रहण किया । का था । ० भगवान् ने ससार का त्याग किया और यह दिन मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी & कल्पसूत्र में "दाणं दायारेहि परिभाइचा, दाणं दाइयाण परिभाइत्ता" हनों के द्वारा ये यात कही गयी है। 6 गुजराती मिति के अनुसार इसे कार्तिक वदी १० का दिन माना जाता 1 2 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोग-साधना] .योग-साधना विना योग-मार्ग के आत्मशद्धि, आत्मा का साक्षात्कार, मुक्ति अथवा निर्वाण नही होता-ऐसा मानकर भगवान् महावीर ने योगमार्ग ग्रहण किया था। भोग और ऐश्वर्य का परित्याग किये बिना योग-दीक्षा सम्भव नहीं, अतः भगवान् ने सभी प्रकार की भोग-लालसाएं छोड दी थी और सारे ऐश्वर्य का त्याग करके एक निर्ग्रन्थ अर्थात् श्रमण की वृत्ति ग्रहण कर ली थी। जब तक पापकारिणी प्रवृत्तियो, पर पूर्णरूप से प्रतिबन्ध नहीं रखा जाय, तब तक आत्मा पवित्र, शुद्ध, स्वच्छ बन नही सकती, इसलिये योगदीक्षा ग्रहण करते समय सर्वविध पापकारिणी प्रवृत्तियो (सावद्ययोग) का मन, वचन और काया से परित्याग किया था। योग की साधना यम-पूर्वक ही सिद्ध होती है, अतएव उन्होने योगसाधना के प्रारम्भ मे ही अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह-ये पांच यम (महाव्रत) धारण किये थे और अप्रमत्तभाव से इनका पालन करते थे। यमो के साथ कुछ नियमो की भी आवश्यकता रहती है। यही कारण था कि भगवान् ने रात्रि-भोजन-त्याग आदि कुछ नियम स्वीकृत किये थे और आवश्यकता अनुसार उनमे परिवर्तन भी किया था। उदाहरण के रूप में किसी तपस्वी के आश्रम मे कुछ कटु अनुभव होने पर उन्होंने निम्नलिखित पांच नियम धारण कर लिये थे :(१) अप्रीति हो ऐसे स्थान मे नही रहना, (२) यथासम्भव ध्यान मे Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] [ भगवान् महावीर -रहना, (३) जहाँ तक हो मोन रहना, (४) भोजन किसी पात्र की अपेक्षा हाथ से ही करना और (५) गृहस्थ से अनुनय-विनय नही करना । भगवान् दक्षप्रतिज्ञ थे, अतः उन्होंने इन नियमों का पूर्णतया पालन किया । योग तो अभ्यास से ही सिद्ध होता है । यह मानकर वे योगाभ्यास मे दत्तचित्त रहते थे ओर क्रमशः उसकी प्रक्रियाएं सिद्ध करते थे । भगवान् की यह धारणा थी कि आसनसिद्धि के बिना काययोग मे स्थिरता होना कठिन है । तथा शीत, आतप, वायु, कुहासा एव अनेकविध जन्तुओ के द्वारा उत्पन्न उपद्रव की परिस्थिति मे निश्चिन्त रहने के लिये भी आसनसिद्धि की पूर्ण उपादेयता है, - कारण भगवान् ने सर्वप्रथम लक्ष्य आसन-सिद्धि की ओर किया था तथा कुछ आसन भी सिद्ध कर लिये थे । इस सम्बन्ध मे 'आचाराग सूत्र' मे लिखा है कि 'भगवान् चञ्चलता से रहित अवस्था मे रहकर अनेक प्रकार के आसनों में स्थिर होकर ध्यान करते थे और समाधिदक्ष तथा आकाक्षा-विहीन हो ऊर्ध्वं अघ, एव तिर्यग् लोक का विचार करते थे ।' इस 'श्री उत्तराध्ययनसूत्र' के तीसवें अध्ययन में कहा है - 'वीरासन -आदि आसन जीव के द्वारा सुख पूर्वक किये जा सके, ऐसे हैं । और वे जब उग्र रूप में धारण किये जायें तो कायक्लेश नाम का तप माना जाता है ।' * ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सहावहा । उग्गा जहा धरिज्जन्ति, कायकिलेस तमाहिय ॥२७॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-साधना] इससे विदित होता है कि भगवान् वीरासन, पद्मासन, उत्कटिकासन, गोदोहिकासन प्रभृति सरल आसनो को अधिक प्रिय मानते थे और उनमे दीर्घकाल तक स्थिर रहते थे। भगवान् अनेक बार कायोत्सर्गासन मे भी रहते थे। उस समय दोनो पांव सीधे खडे रख कर, आगे के भाग मे चार अंगुल जितना और पीछे के भाग मे कुछ थोडा अन्तर रखते थे तथा अपने दोनो हाथो को इक्षुदण्ड के समान सीधे लटकते हुए रखते थे। निर्ग्रन्थ मुनिगण भगवान के पदचिह्नो पर चलते हुए भिन्न-- भिन्न आसनो को सिद्ध करते थे, इसका प्रमाण बौद्धग्रन्थो मे भी मिलता है। भगवान् श्वास-निरोधरूप प्राणायाम की क्रिया को विशेष महत्व नही देते थे। वे ऐसा मानते थे कि प्राणवायु के निग्रह से कदर्थना-प्राप्त मन शीघ्र स्वस्थ नहीं होता। किन्तु वे भाव-प्राणायाम को अवश्य महत्त्व देते थे, जिसमे बहिरात्मभाव का रेचक, अन्तरात्मभाव का पूरक एव स्थिरता रूप कुम्भक, ये तीन प्रक्रियाएं मुख्य थी।* पाँचो इन्द्रियो के विषय से मन को खीच लेना और अपनी इच्छा हो वहाँ स्थापित करना, प्रत्याहार की क्रिया कहलाती है। साधारण मनुष्य के लिये यह क्रिया अत्यन्त कठिन है, क्योकि उसका मन बलगम पर मक्खी के चिपट जाने की तरह इन्द्रियोके विषयमे लिप्त 8 श्री हरिभद्रसूरिजी ने 'योगदृष्टि-समुच्चय' की चौथी दृष्टि में उक्त भाव-प्राणायाम का वर्णन किया है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भगवान महावीर रहता है तथा उससे किसी भी प्रकार पृथक नहीं होता। परन्तु भगवान का मन सवृत्त था और उन्हे पुद्गलों की सङ्गति तनिक भी प्रिय नही थी। अतएव उक्त क्रिया गीघ्रता से सिद्ध हो गयी। 'आचाराङ्गसूत्र' मे कहा है-वि भगवान् कषाय-रहित, लोभरहित, शब्द और रूप मे मूछारहित तथा साधक-दशा मे पराक्रम करते हुए स्वल्पमात्र भी प्रमाद नहीं करते थे। वे स्वानुभूतिपूर्वक ससार के स्वरूप को समझकर आत्मशुद्धि के कार्य मे सावधान रहते थे। भगवान् ने इतना योगाभ्यास कर लेने के पश्चात धारणा सिद्ध करने का प्रयास किया था और तदर्थ भद्रा, महाभद्रा एवं सर्वतोभद्रा नामक प्रतिमाएं अङ्गीकृत की थी। भद्राप्रतिमा की विधि इस प्रकार है कि दो दिन का निराहार उपवास ग्रहण करके प्रातःकाल मे पूर्वाभिमुख होकर किसी एक पदार्थ पर ही दृष्टि केन्द्रित करना। तदनन्तर रात्रि होने पर दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके उपर्युक्त रीति से ही किसी अन्य पदार्थ पर दृष्टि स्थिर करना। दूसरे दिन प्रातःकाल होने पर पश्चिम दिशा की ओर तथा सायं होने पर उत्तर दिशा की ओर मुंह रखकर ऊपर कहे अनुसार 'किसी भी वस्तु पर दृष्टि केन्द्रित करना। तात्पर्य यह है कि इसमे लगातार वारह घण्टे तक एक पदार्थ पर धारणा की जाती है तथा यह प्रयोग अड़तालीस घण्टों तक चालू रखना होता है। हम एक वस्तु पर अधिक से अधिक कितने समय तक दृष्टि स्थिर रख सकते हैं, इसका विचार करें तो इस धारणा का महत्त्व समझ मे आ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोग-साधना] [६३ सकता है। भगवान् ने यह प्रयोग लगभग दस वर्ष के योगाभ्यास के अनन्तर श्रावस्ती नगरी की एक ओर बसे हुए 'सानुयष्टिक' नामवाले गाव में किया था और इसमे सफलता प्राप्त की थी। __महाभद्र-प्रतिमा मे एक दिशा की ओर चौबीस घण्टे तक रहना 'पडता है तथा उतने ही समय तक किसी भी एक पदार्थ पर दृष्टि स्थिर की जाती है। छियानवे घण्टे के निराहार उपवासपूर्वक यह प्रतिमा पूर्ण होती है। भगवान् इस क्रिया में भी सफल सिद्ध हुए। सर्वतोभद्र-प्रतिमा की विधि तो अत्यन्त ही कठिन है। इसमे चार दिशाएं, चार विदिशाएं, ऊर्ध्वदिशा एव अधोदिशा-इस प्रकार कुल दस दिशाओ मे एक-एक अहोरात्र तक दृष्टि स्थिर रखनी पड़ती है और दसों दिन तक निराहार उपवास किये जाते हैं। भगवान् ने इसमे भी विजय प्राप्त की थी। __अप्रमत्त-भाव से रहना यह उनका मुख्य सिद्धान्त था, अतः वे प्रमाद नही आ जावे इस सम्बन्ध मे बडी सावधानी रखते थे। निद्रा को भी वे योग-साधना मे बाधक मानते थे, इसलिये निद्रा-सेवन नही करते थे। आचारागसूत्र में कहा है-'भगवान् किसी-किसी समय उत्कट आसनादि मे स्थिर रहते , किन्तु निद्रा की इच्छा से नही। कदाचित् निद्रा आने जैसा लगता तो ससारवर्धक प्रमाद मानकर उठ जाते और उसे दूर कर देते। आवश्यकतानुसार शीतकाल * श्री हेमचन्द्राचार्य ने 'त्रिषष्टिशलाका-पुरुष-चरित्र' में यह नाम दिया है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भगवान् महावीर की रात्रि मे बाहर जाकर मुहर्त तक भी ध्यान करते।' निद्रा को दूर रखने के लिये उनका यह मुख्य प्रयोग था। भगवान् अपने मन को निष्क्रिय नही रखते थे। कभी उसे अनुप्रेक्षा अर्थात् तत्त्वचिन्तन मे लगाते अथवा कभी उसे धर्मध्यान में सलग्न करते। वारणा सिद्ध हो जाने से उनके धर्मध्यान मे बहुत ही स्थिरता एव उज्ज्वलता आ गई थी। फिर तो वे आत्मा के शुद्धोपयोगरूप शुक्लध्यान धारण करने मे पूर्णरूपेण सफल हो गये थे। शुक्लध्यान की द्वितीय भूमिका मे श्रुत-ज्ञान का आलम्बन प्राप्त करते हुए द्रव्य के एक ही पर्याय का अभेद-चिन्तन होता है और इसी भूमिका मे मन की समस्त वृत्तियों का लय होने पर केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है। उस केवलज्ञान के द्वारा आत्मा भूत, भविष्य तथा वर्तमान काल की सभी वस्तुओं के सभी पर्यायों को जान सकती है देख सकती है, अर्थात सर्वज्ञ की कोटि में विराजमान हो जाती है। भगवान् महावीर जूम्भिक गांव के बाहर ऋजुवालिका नदी के उत्तरी भाग मे स्थित किमी देवालय के निकट, श्यामाक नामवाले गृहस्य के खेत मे, मालवृक्ष के नीचे, उत्कटिकासन से बैठकर, दो उपवास की तपश्चर्या पूर्वक ध्यानावस्थित हुए थे, तब वे इस शुक्लव्यान की दूसरी भूमिका पर पहुंचे और उनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ। यह गभदिन वैशाख शक्ला दशमी का था और केवलजान प्राति का समय दिन का चतुर्य प्रहर था। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-साधना] [६५ चित्त की चलता सर्वथा नष्ट होने पर समाहित अवस्था की प्राप्ति होती है और वह अलौकिक आनन्द का अनुभव करवाती है। इस प्रकार भगवान् महावीर को अब सच्चिदानन्द अथवा आनन्दघन अवस्था प्राप्त हो गई थी और वह जीवन के अन्तिम समय तक स्थिर रही थी। ___ इतना स्मरण रहे कि भगवान् एक महान् राजयोगी थे और उन्होंने उत्तरकाल मे अपने शिष्यो को भी राजयोग की ही दीक्षा दी थी। सामान्यतः योगदीक्षा किसी गुरु से ली जाती है और साधक को गुरु के मार्गदर्शन की पद्धति पर ही आगे बढना पड़ता है, किन्तु भगवान् महावीर ने योगदीक्षा स्वय ली थी और वे अपने अनुभव के आधार पर ही आगे बढ़कर केवलज्ञान की प्राप्ति तक पहुंचे थे। जैन शास्त्रकारो ने उनको 'स्वयसम्बुद्ध' कहा है, इसका यही कारण है। ____ भगवान् ने सर्वविध भय जीत लिये थे तथा मृत्युभय पर भी विजय प्राप्त कर ली थी। साथ ही उन्होने आन्तरिक काम-क्रोधादि सभी शत्रुओ पर विजय प्राप्त की थी, इसलिये उनकी गणना 'जिन' मे की जाती थी। उत्कृष्ट योग-साधना, उन तपश्चर्या, विशुद्ध जीवन और जहाँ जाएं वही मङ्गल-प्रवर्तन होने से वे सभी के पूजनीय बन गये थे और यही कारण था कि वे 'अर्हत्' के अति माननीय विशेषण से सम्बोधित किये जाते थे। योग-साधना करते समय भगवान को अनेक प्रकार की सिद्धियाँ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] [ भगवान् महावीर प्राप्त हुई थी, किन्तु उनका उपयोग उन्होंने अपने स्वार्थ के लिये अथवा जगत को प्रभावित करने के लिये नही किया था । श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 'ध्यानशतक' के प्रारम्भ मे भगवान् महावीर की वन्दना योगीश्वर के रूप मे की है । इससे मालूम होता है कि भगवान् महावीर परम योगविशारद थे और योग की समस्त क्रियाओं को भली प्रकार से जानते थे । • दृढता की वास्तविक कसौटी भगवान् महावीर ने साढे बारह वर्ष से कुछ अधिक समय मे योग-साधना पूरी की थी। इस योग साधना काल मे उन्हे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पडा था। दूसरे शब्दों मे कहा जाय तो यह समय उनको दृढता को वास्तविक कसोटी का समय था, किन्तु वे अपने ध्येय से रचमात्र भी विचलित नही हुए थे । वे जगत् के प्राणीमात्र को अपना मित्र मानते थे, इसलिये कदापि किमी का अनिष्ट - चिन्तन नही करते थे । एक वार एक भयकर दृष्टिविप सर्प ने उनके दाएं पैर मे काट लिया, तब भगवान् ने 'हे चण्डकौशिक ! वुज्झ वुज्भ' ये शब्द कहकर उसके कल्याण की कामना की और उनका उद्धार किया। एक वार किमी बारक्षो विभाग के अधिकारी (कोतवाल) ने उनको परराज्य का गुप्तचर मानकर उनके मुख मे सभी बात (वास्तविक रहन्य) बहलाने के लिये उन्हें रम्मी ने नवर बाँब दिया था और कुएं में उतार कर लगवाने की तयारी को यो नयापि भगवान् ने उसका कोई प्रतिकार नहीं दिया, उतना ही नही मन से भी उनका अनिष्ट Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६७ साधना-काल की विहार भूमि ] नही चाहा । उन्होंने अभतपूर्व दैवी उपसगों मे भी धैर्य का अवलम्बन किया और "मित्ती मे सव्वभएस-सभी प्राणियो के साथ मेरी मैत्री हो', इस भावना का ही दृढता से रटन किया। ___ भगवान् को सर्वाधिक कष्ट राठ के जंगली प्रदेश मे हुआ । इस प्रदेश के वचभूमि और गुद्धभूमि ऐसे दो विभाग थे। इन मे वज्र भूमि के लोग अत्यन्त कर और निर्दयी थे। वे इन्हे मारते-पीटते और कुत्तो द्वारा कटवाते। कई बार तो वे भगवान् के गरीर पर शस्त्रो द्वारा प्रहार भी करते और उनके सिर पर धूल बरसाते। कई बार भगवान् को ऊपर से नीचे गिराते तथा आसन से हटा देते। इस प्रदेश मे कुछ भाग तो ऐसा था कि जहाँ एक भी गांव नही था और न मनुष्य की बस्ती थी। परन्तु भगवान् ने इस प्रदेश मे रह कर भी अपनी योग-सावना आगे बढाई थी तथा एक साधक चाहे तो किस सीमा तक अपनी सहन-शक्ति स्थिर रख सकता है, इसका एक अपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया था। • साधना-काल की विहार-भूमि भगवान् चातुर्मास के चार महीनो मे एक स्थान पर स्थिर रहते थे और अवशिष्ट आठ महीनो मे पृथक्-पृथक् स्थानो पर विचरण करते थे। उन्होने साधना-काल मे विदेह, बंग, मगध और काशी-कौशल आदि जनपदो मे ही विहार किया था, यह साधना-काल के निम्नलिखित चातुर्मासो नामावली से ज्ञात होता है : * यह प्रदेश विदेह की पूर्वी सीमा पर था। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] [ भगवान् महावीर पहला चातुर्मास – मोराक सनिवेश के निकट तापसों के आश्रम में तथा अस्थिक ग्राम में । दूसरा चातुर्मास - राजगृह नगर से बाहर नालन्दा आवास मे एक तन्तुवाय की गाला (वस्त्र बुनने के कारखाने ) मे । तीसरा चातुर्मास - अङ्गदेश की राजधानी चम्पा नगरी मे । चौथा चातुर्मास - पृष्ठचम्पा नगरी मे | पांचवां चातुर्मास – महिलपुर में । - छठा चातुर्मास - भद्रिकापुरी मे । सातवां चातुर्मास - आलभिका नगरी मे | आठवां घातुर्मात - राजगृह मे । नौवां चातुर्मास -राढ के जङ्गली प्रदेश मे । दसवाँ चातुर्मास – श्रावस्ती नगरी मे | ग्यारहवां चातुर्मास - वैशाली मे । बारहवाँ चातुर्मास - चम्पानगरी मे । • लोकोद्धार वहुत से योगी कैवल्य-प्राप्ति के अनन्तर स्वात्मानन्द में ही मस्त रहते है और दुनिया को किसी भी प्रवृत्ति मे रस नही लेते, किन्तु भगवान् महावीर ने कैवल्यप्राप्ति हो जाने के वाद लोकोद्धार का कार्य अपने हाथ मे लिया और यही इनके जीवन को असाधारण महत्ता थी । उन्होंने लोगों को न्याय-नीति-परायण बनाने के लिये, सदाचार Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोरोवार मे स्थिर करने के लिये तथा धर्मप्रिय और तत्त्वनिष्ठ बनाने के लिये प्रपनन आरम्भ विगे। न प्रवचनो से असाधारण सफलता मिली, जिनके तीन कारण हमे निम्नत्य मे विदित होते है : -उस समय धमापदेश अधिकार में सस्कृत भापा का आम्चने थे, जिसने उच्च वर्ग के मनुप्य-लाभान्वित हो सकते थे। परन्तु भगवान् ने अपने प्रवचन लोकभाषा मे आरम्भ किये । लोकमापा जति अर्धभागो भाषा । उस समय मगध और उसके आसपास के प्रदेश में यह भापा बोली जाती थी और इसमे अन्य प्रान्तीय भापाओ के बहन से गब्द होने से भारत के सभी मनुष्य इसे अच्छी तरह समझ सकते थे । आज भारत मे जो स्थान हिन्दी भाषा का है, वही स्थान उस समय अर्चभागधी का था। २- उस समय धर्मोपदेशको ने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वेश्य-इन तीन वर्णो को ही धर्मोपदेश सुनने का अधिकारी माना था। शुद्रो को वार्मिक उपदेग नही सुनाना, यह उनका दृढ निर्णय था, इतना ही नहीं, अपितु यदि कोई शूद्र भूले-भटके लुक-छिपकर धर्मोपदेश सुन जाए तो उसे कठोर दण्ड देना तथा उसके कानों मे शीशा अथवा लाख गरम करके भर देना ऐसी योजना उन्होने गढ रखी थी। इस योजना को कही-कही कार्यान्वित भी किया जाता था। परन्तु भगवान् महावीर ने अपनी धर्म-सभा अथवा व्याख्यान-परिषद् के द्वार देश, वर्ण, जाति और लिंगभेद के बिना सब के लिये खुले कर दिये थे। फलतः सारी प्रजा ने उसका पूर्ण लाभ लिया। ३-उस समय के धर्मोपदेशक तत्त्वज्ञान के नाम पर अनेक Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.] [भगवान् महावीर अटपटी वाते किया करते थे, परन्तु भगवान् महावीर ने जीवन के परम सत्य बहुत ही स्वाभाविक एव सरल भाषा मे प्रस्तुत किये। ___ धर्म जीवन का आवश्यक अङ्ग है, यह वात भगवान् महावीर ने अनेक उदाहरण और तर्कों द्वारा उचित रीति से समझाई और उसकी परीक्षा करने की सप्रमाण विधि भी वतलाई। __ भगवान् ने कहा कि 'जहाँ अहिंसा हो, प्राणि-मात्र के प्रति दया अथवा प्रेम की भावना हो, वही चर्म है ऐसा समझना चाहिये, हिंसा मे धर्म होना असम्भव है।' उन्होंने कहा कि 'जहाँ सयम, सदाचार और शील की सुगन्व हो, वही धर्म है, ऐसा समझना चाहिये। असंयम, दुराचार अथवा कुशील हो वहाँ धर्म होना असम्भव है।' उन्होने यह भी कहा कि 'जहां ज्ञान-पूर्वक तप किया गया हो, इच्छाओं का दमन किया गया हो तथा तृष्णाओं का त्याग किया गया हो, वही धर्म है, ऐसा समझना चाहिये, भोगलालसा, 'विविध इच्छाओं की पूर्ति अथवा तृष्णाओ के ताण्डव मे धर्म होना असम्भव है।' उनके इन उपदेशों का प्रभाव अत्यन्त आश्चर्यजनक हुआ। (१) हिंसक प्रवृत्तिवाले यज्ञ-यागादि कम हो गये और पशुवलि भी अधिकांश मे बन्द हो गई। (२) जीवन के सामान्य व्यवहार में भी अहिंसा का उपयोग होने लगा और पशु-पक्षियो के प्रति दया की भावना विकसित हुई। (३) स्वेच्छाचार-दुराचार बहुत ही कम हो गया । (४) यथासाध्य संयमी जीवन यापन करने के लिये Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७१ लोकोद्धार] अभिरुचि उत्पन्न हो गई। (५) जनता तपश्चर्या के वास्तविक स्वरूप को समझ गई और उसकी यथासम्भव आराधना करने लगी। भगवान् महावीर ने दूसरा एक और महत्त्व का कार्य यह किया कि उस समय मनुष्य अपने उत्कर्ष के लिये पुरुषार्थ पर विश्वास रखने की अपेक्षा देव-देवियो अथवा यक्ष-व्यन्तरो की कृपा पर अवलम्बित रहनेवाले बन गये थे और उन्हे प्रसन्न करने के लिए अनेक प्रकार के उपाय करते थे। परन्तु भगवान् महावीर ने कहा 'अप्पा सो परमप्पा-तुम्हारी आत्मा है, वही परमात्मा है। उसमें ज्ञान और क्रिया की अनन्त शक्ति विराजमान है। तुम इसे प्रकट करना सीखो तो अन्य किसी की सहायता लेने की आवश्यकता नही रहेगी। ___ 'सुख-दुःख का अनुभव हमे अपने कर्मों के अनुसार होता है, अतः सत्कर्म करने की ओर लक्ष्य रखना इस बात को भी भगवान् महावीर ने बहुत ही उत्तम ढग से समझाया। इसके अतिरिक्त उन्होने पुरुषार्थ की पञ्चसूत्री पेश किया, जिसे उत्यान-कर्म-बल-वीर्य-पराक्रम का सिद्धान्त कहा जाता है। उसका रहस्य यह है कि सर्वप्रथम मनुष्य को आलस्य नष्ट करकेप्रमाद दूर करके खडा होना चाहिये, फिर कार्य मे लग जाना चाहिये। तदनन्तर उस कार्य मे अपना सारा बल लगा देना चाहिये, उस कार्य को पूर्ण करने का मन मे परिपूर्ण उत्साह रखना चाहिये, तथा कार्यसिद्धि के मार्ग में जो विघ्न, कष्ट अथवा कठिनाइयां आएं Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भगवान महावीर उनका दृढता से सामना करते हुए आगे बढना चाहिये। ईस प्रकार पुरुपार्थ करनेवाले को सिद्धि-सफलता अवश्य प्राप्त होती है। भगवान् महावीर अनन्य पुरुषार्थी थे और उन्होने भारत की जनता को इस रूप मे पुरुषार्थी वनने का आह्वान किया था। • संघ-स्थापना समाज अपने अधिकार के अनुसार ही धर्म का आचरण कर सकता है, इस वात को ध्यान मे रखकर भगवान् ने धर्माराधको के दो वर्ग बना दिये थे और पुरुष तथा स्त्री, दोनों वर्गो को उनमे स्थान दिया था। जो त्यागी वनकर निर्वाणसाचक योग की उत्तम रीति से साधना करने योग्य थे, उन्हें श्रमण-श्रमणी वर्ग मे प्रविष्ट किया। श्रमण का वास्तविक अर्थ है-समत्व की प्राप्ति के लिये श्रम करनेवाला साधु, तपस्वी अथवा योगी। जो त्यागी बनने की स्थिति मे नही थे, किन्तु गृहस्थ-जीवन मे रहकर नीति-नियम तथा सदाचार पालन करते हुए धार्मिक अनुष्ठान और किसी निर्धारित सीमा तक सयम-योग की साधना करने योग्य थे उनका समावेश श्रमणोपासक तथा श्रमणोपासिकाओ मे किया। श्रमणोपासक का वास्तविक अर्थ है-श्रमणों की उपासना, आराधना किंवा सेवा-भक्ति करके उनसे अध्यात्मज्ञान की प्राप्ति करनेवाला गृहस्थ (श्रावक )। भगवान् ने उक्त चारों वर्गों का एक सघ स्थापित किया। वह • सघ ससार-सागर से पार होने के लिये एक उत्तम नौका Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संध स्थापना] [७३ के समान होने से 'तीर्थ' की संज्ञा को प्राप्त हुआ और उसके संस्थापक के रूप में भगवान महावीर 'तीर्थडर' कहलाये। यहाँ इतना स्पष्ट कर देना उचित है कि उनसे पूर्व इस भारत मे श्रीऋषभ आदि अन्य तेईस तीर्थङ्कर हो गये थे, अतः इनकी गणना चौबीसवें तीर्थडर के रूप में हुई। ____ भगवान् की अपूर्व-अद्भुत धर्म-देशनाओ द्वारा उक्त संघ दिन दूनी और रात चौगुनी उन्नति प्राप्त करने लगा। इसमे एक उल्लेखनीय घटना तो यह हुई कि केवलज्ञान होने के पश्चात् लाभ का कारण समझकर भगवान् महावीर ने एक साथ मे अडतालीस कोस का विहार किया और वे अपापापुरी आये। वहाँ महासेन वन मे धर्मसभा हुई। और उनका अत्यन्त प्रभावशाली प्रवचन सुनकर लोग मुग्ध हो गये। जनता ने नगर में बात फैलाई कि 'यहाँ एक सर्वज्ञ आये है।' यह सुनकर उस पुरी मे एक यज्ञ के लिये एकत्र हुए ब्राह्मण पण्डित चौंके और उनमे से ग्यारह महाविद्वान्-(१)इन्द्रभूति, (२) अग्निभूति, (३) वायुभूति, (४) व्यक्त, (५) सुधर्मा, (६) मण्डिक, (७) मौर्यपुत्र, (८) अकम्पित, () अचलभ्राता, (१०) मेतार्य और (११) प्रभास एक के बाद एक भगवान की धर्मसभा मे उनकी परीक्षा लेने पहुंचे, किन्तु भगवान् ने उनके मन में स्थित शास्त्रार्थ-विषय "कामा का बरावर बता दिया और उनका वास्तविक अर्थ भी करके दखलाया। इससे उन ब्राह्मण पण्डितो ने उसी स्थान पर तत्काल त्यागमार्ग ग्रहण किया और उनके साथ ४४०० ब्राह्मण छात्रों ने भा अपन गुरुओ का अनकरण किया। इस प्रकार एक ही सभा में ४४११ ब्राह्मण प्रतिवोध प्राप्त कर उनके संघ मे प्रविष्ट हुए। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ d७४] [ भगवान महावीर __ भगवान् ने इन्द्रभूति आदि को उनके शिष्यगणो का आचार्य अर्थात् गणघर नियुक्त किया तथा उनकी अपने पट्टशिप्य के रूप मे स्थापना की। इन पट्टशिष्यो ने भगवान् के प्रवचनो के भाव धारण कर उन्ही के आधार पर शास्त्रो की रचना की अर्थात् भगवान महावीर के वचनामृत के सग्रह का वास्तविक श्रेय उन्ही को प्राप्त है। ___ भगवान् महावीर द्वारा स्थापित धर्मारावक संघ का चित्र अत्यन्त उज्ज्वल था। इस सघ के श्रमणवर्ग मे विम्बिसार (श्रेणिक)पुत्र मेघकुमार, नन्दिषेण, राजा उदायन, राजा प्रसन्नचन्द्र आदि क्षत्रिय, घत्य-गालिभद्र आदि धनकुबेर वैश्य तथा किसान, कारीगर आदि भी बहुत से थे। श्रमणीवर्ग मे चन्दनवाला, भगवान् की पुत्री प्रियदर्शना, मृगावती आदि क्षत्रिय-पुत्रियाँ, देवानन्दा आदि ब्राह्मणपुत्रियाँ तथा वैश्य-पुत्रियाँ आदि भी थी। उस समय श्री पार्श्वनाथ के चातुर्याम-धर्म का पालन करनेवाले श्रमण और श्रमणियाँ आदि विद्यमान थी, वे सब शनैः शनैः भगवान् महावीर द्वारा सस्थापित इस धर्माराधक-सघ मे मिल गये। - श्रमणवर्ग मे कुछ केवलज्ञान तक पहुंचे थे और कुछ मन के भावों को जानने की स्थिति तक। कुछ दूरस्थित वस्तु के दर्शन कर लेने की सिद्धि तक तो अन्य शरीर को छोटा-वडा करने की शक्ति पर्यन्त पहुच गये थे। इससे यह ज्ञात हो सकता है कि भगवान् के द्वारा स्थापित श्रमणवर्ग मे योग-साधना कितनी विशद और विपुल रही होगी। श्रमण-वर्ग मे कुछ समर्थ वादी-शास्त्रार्थी भी थे, जो धर्मसम्वन्धी वाद-गास्त्रार्थ करके जनता को उसका सच्चा स्वरूप समझाते थे। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण-प्राप्ति [७५ श्रमणोपासक वर्ग में मगधराज श्रेणिक, उनका पुत्र अजातशत्रु कोणिक, दशार्ण देश का राजा दशार्णभद्र, अपापापुरी का शासक हस्तिपाल तथा ज्ञात, 'लिच्छवी ओर मल्लगण के प्रायः सभी क्षत्रिय राजा थे। आनन्द, कामदेव, चूलणिपिता, सुरादेव, चुल्लगशतक, कुण्डकोलिक, सद्दालपुत्र, महाशतक, नन्दनीप्रिय, सालिहीपिता आदि अनेक धनपति वैश्य थे। इसी प्रकार ब्राह्मण आदि भी अनेक थे। श्रमणोपासिकाओ का वर्ग बहुत विशाल था। उसमे जयन्ती, सुलसा आदि कई विदुषी सन्नारियाँ सम्मिलित थी। •निर्वाण-प्राप्ति भगवान् महावीर ने तीस वर्ष तक भारत के विभिन्न भागो मे परि भ्रमण किया और विविध प्रकार की धार्मिक प्रवृत्तियो का आयोजन करके जनता का उद्धार किया, इसे भारतीय जनता कब भुला सकती है? तीर्थकर जीवन का तीसवाँ चातुर्मास भगवान् ने अपापापुरी के हस्तिपाल राजा की लेखनशाला मे किया। वहां मल्लगण के नौ राजा, लिच्छवीगण के नौ राजा तथा अन्य अनेक उपासको को अड़तालिस घण्टों तक देशना देकर कार्तिक (आश्विन कृष्ण) अमावास्या को निर्वाण प्राप्त हुए। ऐसे महान् जगदीपक के बुझ जाने पर उसकी कमी को पूरा करने के लिये उस रात्रि मे भव्य दीप-मालाएं जलाई गई। तव से दीपावली का पर्व आरम्भ हुआ। जहां प्रभु का अग्निसस्कार किया गया, वहाँ की पवित्र भस्म की जनता बड़े आदर से लेने लगी। बाद मेतो वहां की मृत्ति भी उतनी का Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] [भगवान् महावीर ही पवित्र मानकर ग्रहण करने लगे। ऐसा करते-करते वहां एक बड़ा गड्डा हो गया और कालान्तर मे वही सरोवर बन गया। आज उस सरोवर के बीच एक श्वेत, सुन्दर मन्दिर विराजमान है और प्रतिवर्ष लाखों मनुष्य वहाँ की भावपूर्ण यात्रा करते हैं। • उपसंहार भगवान् की वाणी विश्वमैत्री तथा अनुकम्पा के अमृत से सराबोर थी तथा उसमे गुणानुराग और मध्यस्थता का अनाहत नाद पूर्णतया गुञ्जित था। भगवान् को वाणी मे सत्य की अनन्त आभा से परिपूर्ण विमल-प्रकाश झलक रहा था और अपने दीर्घ अनुभव का निचोड़ ययार्थरूप में अवतरित हुआ था। इसीलिये उनकी वाणी गिव-सुन्दर वनी थी और लाखों-करोडो मानवो के हृदय मे नवचेतना भरने मे सफल हुई थी। प्रिय पाठको ! आप उस वाणी का उस वचनामृत का परम श्रद्धा से पान करे, यही हमारी अभ्यर्थना है। शिवमस्तु सर्वजगतः। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ शुद्ध " शुद्धिपत्रक पृष्ठ पक्ति अशुद्ध ४६ पादनोध प०-४ चंपारण्य-प्रदेशतक कौशिकी नदी तक ५० पादनोध प० २ पटनासे सत्ताइस उत्तर बिहार मे माइल की दूरी पर श्री वीर-वचनामृत पृष्ठ ५० अशुद्ध अवकाश-लक्षणोवाला अवकाश-लक्षणवाला १३ २२ ग०८ गा०६ ३० १० हसगब्भेपुलए हसगम्भे पुलए सजयस्सवि सजयस्सावि ६६ ८ लाभ लोभ ७६ १५ साही सोही आ० अ० ३ आ० श्रु० १, अ० ३ १२६ १६ तिरिय तिरिय १६४ १ पारधणे परिंधणे उ० गा०६ उ० ३, गा०६ १८६ ६ कह न कुजा कह नु कुजा भूयाणमेसमाधाओ, २०२ वभचेरस्स वभचेरस्स ६ २०६६ चित्तधर चित्तघर " " ॥ भूयाण मेसमाधाजो, Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) नन्ति मे भूजति अकप्पिय उवेइ २१३ २१४ १ २४० १ २५७ १५ २७२ ११ २०७४ ३३६ ७ ३४६ ६ ३७४ १ ४१५ ८ नन्ति में मुजति अकप्पिय उने पानरसहि कुपिपजा मायाविजएण अ० ६० १, अन्भागभियम्मि खुलहा पन्नरसहि कुप्पिजा मायाविजएण आ० ६० १, अभागमियम्मि मुलहा - . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-सूची [वचनों के नीचे आधारस्थान बतानेया, जो ग्रन्ममरे हैं, वे निम्न हैं] १०- अध्ययन आ०-आचारांग सूत्र उ०-उत्तराध्ययन सूत्र, (द्वितीय स्थान में ) उद्देश उत्त- " औप०-औपपातिक सूत्र गा०-गाथा चूल-चूलिका जीवा-जीवाजीवाभिगम सूत्र दा-दशवकालिक सूत्र दयाश्रुत०-दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र प्रति-प्रतिपत्ति प्रश्न-प्रश्नव्याकरण सूत्र भग०-भगवती सूत्र २०-शतक अo-श्रुतस्कन्ध सम-समवायाग सूत्र सू-सूत्रकृतांग सूत्र स्था-स्थानाग सूत्र, (द्वितीय स्थान में ) स्थान झा-जाताधर्मकया सूत्र । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतंत्राणकरी सुवाब्विलहरी कारुण्यपूर्णेश्वरी, ससारार्णव सङ्कटे प्रपतता ताराय का तरी। सर्वस्यान्तचरी सुपुण्यनगरी सत्तत्त्वचिन्तादरी, लोकानामभयाय भातु भुवने श्री वीरवाणीझरी ।। -प० रुद्रदेव त्रिपाठी Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर वचनामृत Page #79 --------------------------------------------------------------------------  Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा • १ : विश्वतन्त्र जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए। अजीवदेसमागासे, अलोए से वियाहिए ॥१॥ [उत्त० अ० ३६, गाथा : २] जिसमे जीव भी हो और अजीव भी हो, उसे 'लोक' कहते है, तथा जिसमे अजीव का एक भाग अर्थात् केवल आकाश हो, उसे "अलोक' कहते है। विवेचन-जिसे हम विश्व, जगत् अथवा दुनिया कहते है, उसके दो विभाग है : एक लोक और दूसरा अलोक । इनमे लोक, जीव और अजीव अर्थात् चेतन तथा जड पदार्थों से व्याप्त है, जबकि अलोक मे अजीव-जीव रहित आकाश के अतिरिक्त अन्य कुछ नही है। दूसरे शब्दो मे कहे तो सर्वत्र आकाश ही आकाश फैला हुआ है। उसका एक भाग लोक है, जबकि शेष भाग अलोक है-अर्थात निरवधि आकाश ( Infinite Space ) है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] [श्री महावीर-वचनामृत प्रसिद्ध गणितन प्रो० आल्बर्ट आइन्स्टीन इसी सिद्धान्त का समर्थन करते हुए अपने एक निवन्च मे लिखते हैं कि, "लोक परिमित है और अलोक अपरिमित। लोक परिमित होने के कारण द्रव्य अथवा शक्ति उससे वाहर कही नही जा सकती। लोक से बाहर उस शक्ति का पूर्णतया अभाव है जो गति मे सहायक होती है।" ___ इस बात का उल्लेख यहाँ पर इसलिए किया गया है कि जैसेजैसे विज्ञान प्रगतिपथ पर आगे बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे सर्वज्ञ एव सर्वदर्गी भगवान् महावार द्वारा कथित सिद्धान्तो का दृढता के साथ समर्थन करता जा रहा है। धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल-जंतबो । एस लोगोत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदं सिहि ॥२॥ [उत्तः अ० २८, गा७] धर्म, अवर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-इन छह द्रव्यों के समूह को मर्वी जिन भगवन्तों ने लोक कहा है। विवेचन-लोक जीव और अजीवों से अर्यात् चेतन तथा जड पदार्थों में व्याप्त है यह बात पर कही जा चुकी है। किन्तु उसमे मोलिक द्रव्य कितने हैं ? इसका स्पष्टीकरण इम गाया मे किया गया है। इनमे बताया गया है कि लोक में मौलिक अथवा मूलभूत द्रव्य कुल मिलाकर छह है-पाँच जड़ और एक चेतन । इनमे जड को नंया अधिक होने से इसकी गणना प्रयम की गई है। पांच जड़ द्रव्यो पे नाम इस प्रकार मान्ने चाहिए : Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वतन्त्र] १:धर्म-धर्मास्तिकाय। २: अधर्म-अधर्मास्तिकाय । ३ : आकाश-आकाशास्तिकाय । ४: काल। ५: पुद्गल-पुद्गलास्तिकाय । चेतन द्रव्य को जीव-जीवास्तिकाय कहा जाता है। सामान्य तौर पर धर्म और अधर्म शब्द पुण्य और पाप के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है, किन्तु यहाँ इन्हे द्रव्य के नामविशेष के रूप मे ही ग्रहण करना चाहिए। ___ छह द्रव्यो मे से पाँच को अस्तिकाय कहा जाता है। इसका मूल कारण यह है कि इन द्रव्यो मे प्रदेशो का समूह विद्यमान रहता है जबकि काल मे प्रदेशो का समूह नहीं होता। अतः उसकी गणना अस्तिकाय मे नही की जाती। ये छह द्रव्य ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है. अर्थात् ये किसी के द्वारा उत्पादित नही है और ना तो इनका आत्यन्तिक विनाश भी होता है। बेशक इनके पर्यायो मे-इनकी अवस्थाओ मे अवश्य परिवर्तन होता रहता है। और इसी कारणवश यह लोक चिरतन सनातन होते हुए भी परिवर्तनशील माना जाता है। ऐसे समय मे जब पौराणिक मान्यताओ के स्तर असत्य प्रतीत होने लगे थे और विश्वव्यवस्था के लिये ईश्वर नामक एक अगम्य शक्ति-तत्त्व को आगे धरा जाता था तब ऐसी स्पष्ट वैज्ञानिक विचारधारा सर्वज्ञ के सिवाय भला दूसरा कौन प्रस्तुत कर सकता था ? Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्री महावीर-वचनामृत धम्मो अहम्मो आगासं, दवं इक्विकमाहियं । अणंताणि य दवाणि, कालो पुग्गल-जंतवो ॥३॥ [उत्त० अ००८, गा०८] धर्म, अधर्म और आकाग-इन तीनों को एक-एक द्रव्य कहा गया है जबकि काल, पुद्गल और जीव-इन तीनो को अनन्त द्रव्य कहा गया है। विवेचन-धर्म-द्रव्य समस्त लोक में अखण्ड रूप मे स्थित है। अत वह एक है। हम बुद्धि के द्वारा इसके विभागों की कल्पना कर सकते हैं, पर वस्तुतः ऐसी कोई वात नहीं है। अधर्म और आकाश द्रव्य की भी यही स्थिति है। किन्तु काल, पुद्गल और जीव ये तीन द्रव्य अनन्त है। फलतः इनका निर्देश संख्या के द्वारा नही किया जा सक्ता । यहाँ इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जगत् का विद्वद्वग जिस वस्तु का निर्देश संख्या के द्वारा नही कर सकता, उसे असख्यात कहकर छोड देता है । परन्तु जैन महर्षियों ने असख्यात को भी दो विभागो मे विभाजित किया है, इसमे से प्रथम विभाग को असंख्यात और दूसरे विभाग को अनन्त कहा गया है । असख्यात की अपेक्षा अनन्त का प्रमाण बहुत विस्तृत है। असंख्यात कब कहा जाय इसका स्पष्टीकरण हमे पाँचवी गाथा के विवेचन से ज्ञात हो सकेगा। गईलक्षणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्षणो। भायणं सबदनाणं, नहं ओगाहलक्खणं ॥४॥ [ उत्त अ०२८, गा ] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वतन्त्र धर्म-द्रव्य गति-लक्षणवाला है। जबकि अधर्म-द्रव्य स्थिति-लक्षणवाला है। और आकाग-द्रव्य अवकाश-लक्षणवाला है, साथ ही यह सर्व द्रव्यो के रहने का स्थान है। विवेचन–प्रत्येक द्रव्य को पहचानने के लिये उसके लक्षणो को जानना आवश्यक है। इसलिये यहाँ इनके लक्षणो का विशेष रूप से निर्देश किया गया है। धर्म-द्रव्य-यह गति-लक्षणात्मक है, इसका तात्पर्य यह है कि स्वभावानुसार स्वय ही गमन करनेवाले चेतन तथा जङ-पदार्थों को गति करने मे यह सहायक सिद्ध होता है। यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि यदि एक द्रव्य स्वय स्वभावगत ही गतिशील हो तो उसे अन्य द्रव्य की सहायता की भला क्या आवश्यकता है ? इसका यही समाधान है कि जैसे मछली मे तैरने की शक्ति रहने पर भी वह जल के बिना तैर नही सकती, वैसे ही चेतन और जड़ पदार्थों मे गति करने की स्वय शक्ति है, किन्तु वे धर्मास्तिकाय द्रव्य की सहायता के बिना गति नही कर सकते। आधुनिक वैज्ञानिको ने भी इस बात का स्वीकार किया है कि कोई पदार्थ आकाश मेअवकाश से जो गति करते है, वह ईथर नामक एक अदृश्य पदार्थ के आधार पर ही गतिमान् है। ईथर के स्वरूप के बारे मे इन लोगों मे एकमत नहीं है। किन्तु विशेष सशोधन के परिणामस्वरूप वे घर्मास्तिकाय सिद्धान्त के अधिकाधिक निकट आ रहे है। अधर्म-द्रव्य-यह स्थिति-लक्षणात्मक है, इसका तात्पर्य यह है कि यह अपने स्वभाव से स्थिर अटल-अचल रहे चेतन और जड पदार्थों Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्री महावीर वचनामृत को स्थिर रखने मे सहायभूत होता है। स्थिर रहने की शक्तिवाले मनुष्य के लिये जैसे स्थिर रहने मे शय्या अथवा आसन आदि सहायक सिद्ध नही होते क्या ? यहाँ भी तदनुसार ही समझना चाहिये। धर्म और अधर्म-द्रव्य लोक मे व्याप्त है जवकि लोक से बाहर कही नही ! अतः किसी भी चेतन-जड पदार्थ की गति-स्थिति लोक मे ही सम्भव है, लोक से बाहर नही। __ आकाश-द्रव्य-यह अवकाश-लक्षणोंवाला है, इसका तात्पर्य यह है कि वह प्रत्येक पदार्थ को अपने भीतर रहने के लिये पर्याप्त स्थान देता है और इसीलिये विश्व के चराचर सभी पदार्थ आकाश मे स्थित हैं । आकाश का जितना भाग लोक व्याप्त है, उसे लोकाकाश कहते हैं और शेष भाग को अलोकाकाश । सक्षेप मे धर्म यह गतिसहायक द्रव्य ( Medium of motion ) अधर्म यह स्थितिसहायक द्रव्य ( Mediuni of rest ) और आकाश यह अवकाश (Space) रूप है। वत्तणालक्खणो कालो, जीवो उवओगलक्षणो । नाणेणं दंसणेणं च, सुहेण य दुहेण य ॥५॥ [उत्त० अ० २८, गा० १०] काल वर्तना लक्षणवाला है और जीव उपयोग लक्षणवाला । जीव को ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख के द्वारा जान सकते हैं। विवेचन-काल ('Time ) वर्तना लक्षणवाला है, इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी वस्तु अथवा पदार्थ की वर्तना जाननी हो तो वह काल के द्वारा जानी जा सकती है । ' यह वस्तु है ' 'यह Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परयता [6 पल्लु थो, 'पत पातु होगी.' आदि शब्दो के प्रयोग काल के कारण ही हो साते है। यहाँ गह भी समझना आवश्यक है कि किसी भी क्रिया अथवा पन्धिान के तीन में साल हो गाय कारण होता है। काल की सहायता के बिना कोई भी क्रिया अथवा परिवर्तन नही हो सकता। किलो साधु-महात्मा के दर्शन के लिए जाना हो तो काल अर्थात् समय चाहिए। किसी उत्तम अन्य का पारायण करना हो तो भी समय चाहिए। इसी प्रकार गर्भ ले वालक होने में, बालक से जवान होने में और जवान से वृद्ध होने में भी समय की आवश्यकता है। काल यह अरूपी--अदृश्य द्रव्य है। अतः इसे कोई पकड नही सकता। किन्तु नकेत के आधार पर इसका परिमाण-अदाज निकल सकता है। जैन-गास्त्रो मे यह माप-परिमाण इस प्रकार बतलाया गया है : काल का निर्विभाज्य भाग = समय असख्यात समय = आवलिका सख्यात आवलिका = श्वास दो श्वास = प्राण सात प्राण = स्तोक सात स्तोक - लव सतहत्तर लव = मुहूर्त तीस मुहूर्त = अहोरात्र ( २४ घण्टे) पन्द्रह अहोरात्र 3 पक्ष Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन ऋतु १०] [श्री महावीर-वचनामृत दो पक्ष = माह, महीना दो माह = ऋतु = अयन दो अयन = सवत्सर ( वर्ष * सौ वर्ष = शताब्दी दस शताब्दी = सहस्राब्दी चौरासी सौ सहस्राब्दी = पूर्वाङ्ग चौरासी लाख पूर्वाङ्ग = एक पूर्व [ इस प्रकार एक पूर्व मे ७२५६०००००००००० वर्ष होते हैं। चौरासी लाख पूर्वो को सम्मिलित करे तो एक त्रुटितान और ऐसे चौरासी लाख त्रुटितान एकत्र करने पर एक त्रुटित होता है। इस तरह आये हुए परिमाण को चौरासी लाख से गुणन करते जायं तो क्रम से अटटाग, अटट, अववाग, अवव, हूहुकाग, हूहुक, उत्पलाग, उत्पल, पद्माग, पद्म, नलिताग, नलित, अर्थनिपुराग, अर्थनिपुर, अयुताग, अयुत, नयुताग, नयुत, प्रयुताग, प्रयुत, चूलिकाग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकाग और गीर्षप्रहेलिका नामक माप बनते हैं। शीर्षप्रहेलिका के पर्वो की संख्या १६४ अक तक पहुंचती है । जवकि इस से भी कई अधिक गुनो सख्या को असख्यात कहते हैं। इस से भी आगे चलकर शास्त्रकारो ने परिमाण बताये हैं। किन्तु उनमे सख्या का कोई उपयोग न होने से उपमानो का आधार लिया * एक वर्ष में छह ऋतुएँ होती हैं •- हेमन्त, शिशिर, वसन्त, ग्रीप्म, वर्षा, और शरद् । अयन दो होते हैं '-उत्तरायण और दक्षिणायन । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वतन्त्र] [११ है। इसप्रकार एक योजन लम्बे, एक योजन चौड़े तथा एक योजन गहरे गड्ढे को सूक्ष्म केशो के टुकडो से भर दिया जाय और उस परसे चक्रवर्ती की सेना निकल जाय फिर भी वह दबे नही, इतना लूंस-ठूस कर भर दिया जाय और फिर उस गले मे से सौ-सौ वर्षों के अन्तर से केश का एक-एक टुकड़ा निकालते रहने पर जितने वर्षों मे वह गड्डा खाली होगा, उतने वर्षों को एक पल्योपम कहते है, ऐसे दस कोटाकोटि ( १००००००००x१००००००० ) पल्योपम वर्षों को सागरोपम कहते है। ऐसे बीस कोटाकोटि सागरोपमो का एक कालचक्र बनता है और ऐसे असख्यात कालचक्रो का एक पुद्गलपरावर्त बनता है। जीव-उपयोग लक्षणवाला है, इसका अर्थ यह है कि जीव किसी भी वस्तु को सामान्य अथवा विशेष रूप से जानने के लिये चेतनाव्यापार कर सकता है। वस्तु को सामान्य रूप से जान लेने को दर्शन कहते हैं और विशेषरूप से जानने को ज्ञान कहते है। चैतन्य का स्फुरण उपयोग है। जीव को किस प्रकार जाना जा सकता है ? इसके प्रत्युत्तर में यहां कहा गया है कि जहाँ ज्ञान हो, दर्शन हो, तथा सुख-दुःख का भी अनुभव हो, उसे जीव समझना चाहिए। हम मे ज्ञान-दर्शन और सुख-दुःख का अनुभव है, इसलिये हम जीव है। गाय, भैस आदि पशुओ में, कौए, कबूतर आदि पक्षियो में तथा जन्तुओ मे, कोडो मे भी कुछ जानने की शक्ति तथा सुख-दुःख का सवेदन होता है । अतः वे भी जीव हैं; और हरी वनस्पति मे भी कुछ जानने की शक्ति तथा सुखदुःख का सवेदन है, अतः वह भी जीव है । इस प्रकार जहाँ-जहाँ ज्ञान, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] श्री महावीर-वचनामृत दोन अथवा सुख-दुःख का अनुभव दिखाई दे, वे सब जीव हैं, ऐसा समझना चाहिए। इस से विपरीत जिसमें जानने की शक्ति नही है अथवा सुख-दुःख का सवेदन नही है , वह जीव नहीं है । उदाहरण के लिये लोहा, कांच अथवा पत्यर का टुकड़ा । इनमे जानने की शक्ति नही है अथवा सुख-दुःख की कोई संवेदना भी नही है । अतः ये अजीव हैं। नाणं च दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य, एवं जीवस्स लक्खणं ॥६॥ [ उत्त० अ० २८, गा०११] ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य ( शक्ति अथवा सामर्थ्य ) और उपयोग–ये मव जीव के लक्षण हैं। विवेचन-जहाँ सामान्य अथवा विशेषरूप में किसी प्रकार का ज्ञान देखने मे आवे, सयम अथवा तप को आराधना दिखाई दे, वीर्य का स्फुरण प्रतीत हो अथवा उसका उपयोग दिखलाई दे, वे जीव हैं। क्योकि जीव के अतिरिक्त किसी भी अन्य द्रव्य मे ये बाते नही होती। सइंऽधयार उजोओ, पहा छायातवेइ वा । वन्न-रस-गंध-फासा, पुगलाणं तु लक्खणं॥७॥ [उत्त० अ० २८, गा०१.] शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया और आतप-ये पोद्गलिक वस्तुएं हैं और वर्ण, रस, गन्च और स्पर्ग-ये पुद्गल के लक्षण हैं । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वतन्त्र [१३ विवेचन - मन्द अर्थात ध्वनि अथवा आवाज (Sound ) अन्धकार अर्यात तिमिर अथवा तो अंधियारा। उद्योत अर्थात् रतादि का प्रकाग अथवा जगमगाहट । प्रभा अर्थात् चन्द्र आदि का शीतल प्रकाश । छाया अर्थात् प्रतिच्छाया और आतप अर्थात् सूर्य की धूप आदि उप्ण प्रभाग। ये सब पीद्गलिक वस्तुएं हैं। कुछ लोग गब्द अर्थात् ध्वनि को आकाग का ही एक गुण मानते थे। किन्तु आधुनिक आविष्कार ने प्रमाणित कर दिया है कि शब्द आकाग का गुण नहीं, अपितु पुद्गल का ही एक प्रकार है और इसी से उसे युक्ति के द्वारा पकड सकते है । ग्रामोफोन का रिकार्ड, रेडियो आदि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है। पुद्गल का मुख्य लक्षण वर्ण, रस, गन्ध, और स्पर्श है । इन मे से वर्ण के पांच प्रकार है :-(१) कृष्ण-काला (२) नील-नीला (३) पीत-पीला, (४) रक्त लाल और (५) श्वेत-सफेद । रस के भी पाँच प्रकार है :-(१) तिक्त-तीखा (२) कटुकडुआ (३) मधुर- : मीठा (४) अम्ल-खट्टा और (५) कषाय-~-कसैला । गन्ध के दो प्रकार हैं :-(१) सुगन्ध और (२) दुर्गन्ध । स्पर्श के आठ प्रकार है :-(१), स्निग्य - चिकना (२) रूक्ष रूखा (३) शीत-ठडा (४) उष्ण-~ गर्म, (५) मृदु-कोमल (E) कर्कशकठोर (७) गुरु-भारी (८) लघु-हल्का । गुणाणमासओ दवं, एगदवस्सिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणंतु, उभओ अस्सिआ भवे ॥८॥ [ उत्त० अ० २८, ग०८] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] [ श्री महावीर वचनामृत __द्रव्य गुणों को आश्रय देता है और गुणो का आश्रय द्रव्य है । अनेक गुण एक द्रव्य के आश्रित रहते हैं । परन्तु पर्याय का लक्षण यह है कि वह द्रव्य और गुण दोनो का आश्रित रहता है। विवेचन-द्रव्य गुणो को आश्रय देता है, अर्थात् प्रत्येक द्रव्य के अपने विशिष्ट गुण होते हैं। ये गुण द्रव्याश्रित होते हैं। अतः वे द्रव्य के साथ ही रहनेवाले होते हैं, उससे अलग नहीं होते। उदाहरण के लिये चैतन्य जब जीव-द्रव्य का गुण है तभी वह उसके साथ ही देखने मे आता है, किन्तु उससे पृथक् नही । पर्याय अर्थात् अवस्थाविशेष । यह भी द्रव्य और गुण दोनो के आधार पर ही होता है, परन्तु निरे द्रव्य पर अथवा गुण पर नही होता । जैसे कि घट यह पुद्गल का पर्याय है। इसमे पुद्गल द्रव्य भी है और स्पर्श, रस, वर्ण, गत्व आदि गुण भी। साराश यह है कि विश्व की व्यवस्था करनेवाले जिन छह द्रव्यो की गणना ऊपर की गई है, वे छहो द्रव्य गुण और पर्याय से युक्त होते हैं। वे कभी भी गुण रहित अथवा पर्याय रहित नही होते। श्री उमास्वाति वाचक ने 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' के पांचवे अध्याय मे 'गुण पर्यायवद् द्रव्यम् ॥३८॥' इस गाथा के माध्यम से यह बात स्पष्ट की है। यहाँ केवल इतना ही समझना है कि गुण यह सहभावी है, अर्थात सदा साथ रहने वाला है और पर्याय क्रमभावी है, यानी एक पर्याय का नाश होने पर नया पर्याय उत्पन्न होने, वाला है। यह भी अपेक्षा से ज्ञात होता है। अन्यथा गुणो मे से प्रत्येक गुण क्रमशः परिवर्तनशील है, उदाहरणार्थ पहले अमुक ज्ञान, वाद मे दूसरा ज्ञान, उसके बाद मे तीसरा ज्ञान । इस तरह देखा जाय तो गुण भी अन्त मे पर्याय ही है ! Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वतन्त्र] [१५ भगवान् महावीर ने द्रव्य का लक्षण सत् माना है और उसे उत्पाद, व्यय और ध्रीव्य-सजक बतलाया है। इसका भी यही रहस्य है। किसी भी द्रव्य मे नये पर्याय की उत्पत्ति तभी होती है जबकि उसके पुरातन पर्याय का व्यय हो-नाश हो। ये दोनों क्रियाएं साथ-साथ ही होती है अर्थात् पुराना पर्याय नष्ट होता जाता है और नया पर्याय उत्पन्न होता रहता है। मनुष्य बालक से युवा बनता है । उस समय बचपन मिटने की और जवानी आने की क्रिया भिन्न-भिन्न समय पर नही होती बल्कि एक साथ ही होती है। इसी तरह पुराने पर्याय का नाश और नवीन पर्याय की उत्पत्ति होने पर भी मूल द्रव्य तो ध्रौव्य-सज्ञक ( अटल) होने के कारण स्थित ही रहता है। दूसरे शब्दो मे कहा जाय तो पर्याय के इस रूपान्तर के समय भी इसके मौलिक गुण-मूलभूत वस्तु तो बनी ही रहती है और इसी कारणवश द्रव्य के नरन्तर्य का हम अनुभव करते है, जैसे बाल्यावस्था, युवावस्था आदि मे मनुष्यत्व स्थित है, मानव के सहज गुण स्थित है। एगत्तं च पुहुत्तं च, संखा संठाणमेव य । संजोगा य विभागा य, पजवाणं तु लक्खणं ॥६॥ [उत्त० अ० २८, गा० १३] एकत्व, पृथक्त्व, सख्या, सस्थान, सयोग और विभाग ये पर्यायो के लक्षण है। विवेचन-पर्याय यह द्रव्य की एक अवस्था है, द्रव्य का परिणाम है। ऐसे अनेकानेक परिणाम द्रव्य मे होते है। हमे वस्तु के Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] [श्री महावीर-वचनामृत एकत्व का, पृथक्त्व का, संख्या का,सस्थान अर्थात् आकार का, सयोग अर्थात् किसी के साथ जुडने का और विभाग अर्थात् उसके पृथक् २ भागो का ज्ञान ये सव पर्याय के कारण ही होता है। उदाहरणार्थ भिन्नभिन्न परमाणुओं द्वारा निर्मित होने पर भी यह एक घडा है, ऐसा ज्ञान उसके घटत्व-पर्याय के द्वारा ही हमे होता है। यह घटत्व घडे का एक परिणाम है। यह घट दूसरे से पृथक है, यह ज्ञान भी उसके पर्याय से ही ज्ञात होता है। यह एक है, दो हैं या दो से अधिक हैं इसका ज्ञान भी उसके पर्याय से ही होता है, ठीक वैसे ही यह गोल है, लम्बा है अथवा अमुक आकार का है, इसका ज्ञान भी उसके पर्याय से ही होता है। वह पटिये से जुडा हुआ है अथवा भूमि से सलग्न है, इसका ज्ञान भी उसके पर्याय द्वारा ही होता है, साथ ही यह घडे का सिरा है, यह घड़े का वीच का भाग है, यह ज्ञान भी उसके पर्याय के आधार पर ही किया जाता है।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : २: सिद्ध जीवों का स्वरूप संसारत्था य सिद्धा य, दुविहा जीवा वियाहिया । सिद्धा णेगविहा वुत्ता, तं मे कित्तयओ सुण ॥१॥ उत्त० अ० ३६, गा०४८] जीव दो प्रकार के कहे गये है :-ससारी और सिद्ध । जबकि सिद्ध अनेक प्रकार के बताये गये है, उनका वर्णन मेरे द्वारा सुनो। विवेचन-इस लोक मे जीव अनन्त है, वे मुख्यतः दो विभागों मे विभाजित है :-ससारी और सिद्ध। जो जीव कर्मवशात् ससार मे परिभ्रमण कर रहे है अर्थात् नरक, तिर्यरच, मनुष्य और देवादि चार गतियो मे बार-बार जन्म धारण कर जन्म-जरा-मरणादि के दुःख भोग रहे है, वे संसारी और जो जीव कर्म के बन्धनों से मुक्त हो जाने के कारण ससार-सागर पार कर गये है, वे सिद्ध। उनमे से सिद्ध बने हुए जीवो का वर्णन यहाँ प्रस्तुत है। सिद्ध के जीव अनेक प्रकार के है, जैसे कि इत्थीपुरिससिद्धा य, तहेव य नपुंसगा। सलिगे अन्नलिगे य, गिहिलिंगे तहेव य ॥२॥ [उत्त० अ० ३६, गा०४६] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्री महावीर-वचनामृत ___ अर्थात् स्त्रीलिंगसिद्ध, पुरुपलिंगसिद्ध, नपुसकलिंगसिद्ध, स्वलिंग सिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध, गृहलिंगसिद्ध आदि । विवेचन-सिद्ध होने के बाद सभी जीव समान अवस्था को प्राप्त होते हैं, किन्तु सिद्ध वनने के समय सभी जीवों की अवस्था एक सी नही होती। इस अवस्था-भेद को समझाने के लिये ही यहां पर सिद्ध के विविध प्रकारो का वर्णन किया गया है। चार गतियों मे संसरण करनेवाले जीव केवल मनुष्य गति के माध्यम से ही सिद्ध बन सकते हैं, अर्थात् यहाँ पर वर्णित समस्त प्रकार मनुष्य से सम्बन्वित ही समझने चाहिए। लिंग की दृष्टि से मनुष्य के तीन भेद होते है :-स्त्री, पुरुष और नपुसक। इन तीनों लिंगो के द्वारा मनुष्य सिद्ध गति प्राप्त कर सकता है। 'चन्दनवाला स्त्रीलिंग से सिद्ध वनी, इलाचीकुमार पुरुषलिंग मे रहते हुए सिद्ध बने और गागेय नपुसकलिंग मे सिद्ध हुए। सारांग यह है कि सिद्धावस्था प्राप्त करने मे लिंग किसी भी रूप मे वाचक नहीं होता । जो कोई कर्मों का क्षय करता है, वह अवश्य सिद्धावस्था प्राप्त कर सकता है। मनुष्य स्वलिंग मे अर्थात श्रमण के वेग मे ही सिद्ध होता है। किन्तु अपवाद रूप मे कभी अन्य वेश मे भी सिद्ध हो सकता है। वहाँ पूर्वजन्म के स्मरणादि से श्रमण-जीवन का ज्ञान होता है और जीव अन्तःकरणपूर्वक सर्वविरति, अप्रमत्त दशा, अनासक्त भाव आदि मे वढ जाने से वैसा बनता है। श्री गौतमादि महामुनि स्वलिंग मे सिद्ध हुए तथा वल्कलचीरी आदि महानुभाव तापग-वेस Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध जीवों का स्वल्प] [१६ मे मिन बने। ठीक वैसे ही इलाचोकुमार आदि कुछ महानुभाव अत तक गृहिलिंग अर्थात् गृहस्थ-वेश मे ही रह कर सिद्ध बने है। तात्पर्य यह है कि सिद्ध बनने मे वेश कोई अन्तिम महत्त्व की वस्तु नहीं है, बल्कि कर्मक्षय ही अन्तिम महत्वपूर्ण वस्तु है। यहाँ छह प्रकारों का स्पष्ट निर्देश किया गया है और आदि पद के द्वारा अन्य प्रकारो की सम्भवितता दिखलाई गई है । अतः यह स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है कि जैन सिद्धान्त मे कुल पन्द्रह प्रकार के सिद्ध माने गये है। इस तरह अब नी तरह के सिद्धो का वर्णन गेप रहा, जो यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद के आधार पर दिया जाता है : ७ : तीर्थसिद्ध तीर्थ के अस्तित्व-काल मे सिद्ध बने हुए। यहाँ तीर्थ शब्द का अर्थ श्री जिनेश्वर भगवन्तो द्वारा स्थापित साधुसाध्वी श्रावक-श्राविकारूपी चतुर्विध सघ समझना चाहिए। ८ : अतीर्थसिद्ध तीर्थ की स्थापना होने से पूर्व या तीर्थ के व्यवच्छेद काल मे जातिस्मरणादि-ज्ञान से सिद्ध बने हुए। ६: तीर्थकरसिद्ध-श्रीऋषभदेव आदि की तरह तीर्थर वनकर सिद्ध बने हुए। १०: अतीर्थङ्करसिद्ध-श्री भरतचक्रवर्ती आदि के समान सामान्य केबली होकर सिद्ध बने हुए। ११ : स्वयबुद्धसिद्ध-श्रीआर्द्र कुमार आदि के समान स्वयमेव बोध प्राप्त कर सिद्ध बने हुए। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] [श्री महावीर वचनामृत १२ प्रत्येकबुद्भसिद्ध-श्री करकण्डू आदि के समान किसी निमित्त मात्र से वोघ प्राप्त कर सिद्ध बने हुए। १३ : बुद्भबोधितसिद्भ-आचार्यादि गुरुओ से वोध प्राप्त कर सिद्ध बने हुए। १४ : एकसिद्भ-एक समय मे एक सिद्ध वने हुए। १५ : अनेकसिद्भ-एक समय मे अनेक सिद्ध बने हुए। कहिं पडिहया सिद्धा ? कहिं सिद्धा पइट्ठिया ? । कहिं बोंदि चइत्ताणं ? कत्थ गंतूण सिज्झई ॥ ३॥ [उत्त० अ० ३६, गा० ५५] सिद्ध वननेवाले जीव कहाँ जाकर रुकते हैं ? कहाँ स्थिर होते है ? कहाँ गरीर का त्याग करते हैं ? और कहां जाकर सिद्ध बनते है ? विवेचन-जिन जीवो ने चार घाती कर्मों का क्षय किया हो, वे अन्त समय मे अवशिष्ट चार अघाती कर्मों का अवश्य क्षय करते हैं और इस प्रकार समस्त कर्मों से मुक्त हो देह त्याग करते हैं। उस समय वे अपनी स्वाभाविक ऊर्च गति को प्राप्त करते हैं और ऊपर चले जाते हैं। इस प्रकार गति करने वाला जीव कहाँ जाकर रुक्ता है, यह भी एक प्रश्न है। ठीक वैसे ही रुक जाने के पश्चात् वे कहाँ स्थिर होते हैं ? यह जानना भी अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। साथ ही सिद्ध होने वाला जीव अन्तिम देहत्याग कहां करता है ? और कहां जाकर सिद्ध होता है ? यह भी स्पष्ट होना आवश्यक Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध जीवों का स्वरूप] [२१ है। इन समस्त उलझनमय प्रश्नो के उत्तर निम्नलिखित गाथाओ से यो दिये गये है : अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइटिया । इहं वोदि चइत्ताणं, तत्थ गंतूण सिज्झई ॥४॥ त० अ० ३६, गा० ५६ ] सिद्ध जीव अलोक की सीमा पर जाकर रुकते है और लोक के अग्रभाग पर स्थिर होते है। वे यहाँ अर्थात् मनुष्यलोक मे शरीर त्याग करते हैं तथा लोकान पर पहुंच कर सिद्ध-गति प्राप्त करते है। विवेचन-ऊर्ध्व गति करनेवाला जीव जहाँ तक धर्मास्तिकाय द्रव्य रहता है, वहाँ तक ही गति करता है। वहाँ से आगे गति कर नही सकता, क्योकि वहाँ गति करने के लिए सहायभूत धर्मास्तिकाय द्रव्य नही होता, फलतः वह अलोक की सीमा पर जा रुकता है । जीव यदि धर्मास्तिकाय द्रव्य की सहायता के बिना भी गति करने मे समर्थ हो, तो उसको यह ऊर्ध्व गति निरतर चालू हो रहेगी और कभी किसी काल मे उसका अन्त नही आयेगा क्योकि आकाश का अन्त नही है। ऊर्ध्व गति करता हुआ जीव जिस स्थान पर रुकता है, वह लोक का अग्रभाग है। वहाँ पहुँचने के पश्चात् वह किसी प्रकार की गति नहीं करता, अर्थात वही पर स्थिर हो जाता है और अनन्त काल तक इसी अवस्था मे रहता है। सिद्ध बनने वाला जीव सामान्यतः मनुष्यलोक की मर्यादा मे ही अपना शरीर छोड़ता है और वह जब लोकान पर पहुचता है तभी Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] [श्री महावीर-वचनामृत सिद्ध वन गया माना जाता है। अतः सिद्ध शब्द का अर्थ 'सिद्धिस्थान प्राप्त' ऐसा समझना चाहिये। सिद्ध वने हुए जीव परमात्मदशा को प्राप्त हो जाते है, अर्थात् उनकी गणना परमात्मा के रूप में होती है और इसीलिये उन्हे अरिहन्त भगवन्त के समान वन्दनीय तथा पूजनीय माना जाता है। वारसहिं जोयणेहिं, सचट्ठस्सुवरिं भवे । ईसीपभारनामा उ, पुढवी छत्तसंठिया ॥५॥ पणयालसयसहस्सा, जोयणाणं तु आयया । तावइयं चेव वित्थिन्ना, तिगुणो साहिय परिरओ ॥६॥ अट्ठजोयणवाहल्ला, सा मज्झमि वियाहिया। परिहायंती चरिमन्ते, मच्छियपत्ताउ तणुयरी ॥७॥ अज्जुणसुवन्नगमई, सा पुढवी निम्मला सहावेण । उत्ताणयछत्तयसंठिया य भणिया जिणवरेहिं ॥८॥ संखंककुंदसंकासा, पंडुरा निम्मला सुभा । सीयाए जोयणे तत्तो, लोगंतो उ वियाहिओ ॥६॥ [उत्त० अ० ३६, गा०५७ से ६१] सर्वार्थसिद्ध विमान से वारह योजन ऊपर छत्र के आकारवाली ईषत्प्राग्भार नामक पृथ्वी है। वह पैतालीस लाख योजन लम्बी और इतनी ही चौडी तथा इसके तिगनेपन से अधिक परिधिवाली है। तात्पर्य यह है कि वह वर्तुलाकार है। वह पृथ्वी मध्य भाग से आठ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध जीवों का स्वरूप ] [ २३ योजन मोटी है, वहाँ से कम होते-होते अन्तिम सिरे पर मक्खी के पंख से भी अधिक पतली बनी हुई है । वह ईषत्प्राग्भार पृथ्वी स्वभाव से ही निर्मल और अर्जुन नामक श्वेत सुवर्ण के समान है । श्री जिनेश्वर भगवन्तो का कथन है कि उसका आकार उलटे किये हुए छत्र के समान है । यह पृथ्वी शख, अक रत्न तथा कुन्द पुष्प के समान श्वेत, निर्मल और सुहावनी है । उसी पर लोक का अन्त भाग माना गया है । विवेचन - हम मनुष्यलोक मे निवास करते है । यहाँ से जब अधिकाधिक ऊपर जाते है तो सर्व प्रथम ज्योतिषचक्र अर्थात् सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे आदि के दर्शन होते है, उसके ऊपर बारह देवलोक है और उसके ऊपर नवग्रैवेयक नामक विमान । उक्त नवग्रैवेयक विमान के ऊपर पाँच अनुत्तर विमान स्थित है, उन्ही मे से एक विमान सर्वार्थसिद्ध है । मनुष्यलोक से उसकी ऊंचाई करोडो मील दूर है; जबकि उससे भी बारह योजन ऊपर ईषत् - प्राग्भार नामक पृथ्वी है । इसका परिमाण उतना ही है, जितना कि मनुष्यलोक का है । अन्य वर्णन स्पष्ट है । जोयणस्स उ जो तत्थ, कोसो उवरिमो भवे । तस्स कोसस्स छन्भाए, सिद्धाणोगाहणा भवे ॥१०॥ [ उत्त० भ० २६, गा० ६२ ] वहाँ एक योजन मे ऊपर के एक कोस के छठे भाग मे सिद्धो की अवगाहना है, अर्थात् सिद्धों के जीव वहाँ स्थित है । विवेचन -- इस स्थान को सिद्धशिला कहते हैं । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] [श्री महावीर-वचनामृत अरूविणो जीवघणा, नाण-दंसण-सण्णिया। अउलं सुहं संपत्ता, उवमा जस्स नत्थि उ ॥११॥ [उत्त० म०३६, गा०६६] सिद्धो के वे जीव-सिद्ध भगवन्त अरूपी है, घन हैं ( उनके जीव-प्रदेशो के वीच कोई खोखलापन नही है), ज्ञान और दर्शन से युक्त हैं , तथा अपरिमित सुख-प्राप्त है। उनको उपमा देने के लिए दूसरा कोई शब्द ही नही है । अत्थि एगं धुवं ठाणं, लोगग्गंमि दुरारुहं । जत्थ नस्थि जरा मच्चू, वाहिणो वेयणा तहा ॥१२॥ [उत्तः अ० २३, गा० ८१] लोक के अग्नभाग पर एक निश्चल स्थान है, जहाँ जरा, मृत्यु, रोग और दुःख नहीं है , परन्तु वहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है। निबाणं ति अवाहं ति, सिद्धी लोगग्गमेव य । खेमं मित्रं अणावाहं, जं चरन्ति महेसिणो ॥१३।। [ उत्त० अ० २३, गाः ८२] उस स्थान के निर्वाण, अवाव, सिद्धि, लोकाय, क्षेम, गिव और अनावाचादि अनेक नाम प्रचलित है। उसे महपिंगण ही प्राप्त करते हैं। विवेचन-अबाच अर्थात् पोहा-रहित । अनावाच अर्थात् उसके स्वाभाविक सुख मे अन्तराय-रहित । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध जीवों का स्वरूप] [ २५ तं ठाणं सासयं वासं, लोगग्गंमि दुरारुहं । जं संपत्ता न सोयंति, भवोहन्तकरा मुणी ॥ १४ ॥ [ उत्त० अ० २३, गा० ८४ ] हे मुने । वह स्थान शाश्वत निवासरूप है, लोक के अग्रभाग पर स्थित है, किन्तु वहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है। जिन्होने उस स्थान को प्राप्त किया है, उनके ससार का अन्त आ जाता है और उन्हे किसी प्रकार का शोक नही होता। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा ३: संसारी जीवों का स्वरूप संसारत्था उ जे जीवा, दुविहा ते वियाहिया। तसा य थावरा चेव, थावरा ति विहा तहिं ॥१॥ [ उत्त० म० ३६, गा० ६८] ससारी जीव दो प्रकार के होते है :-त्रस और स्थावर । उनमे से स्थावर के तीन प्रकार है। विवेचन-सिद्ध के जीवों का वर्णन पूरा हुआ। अब ससारी जीवों का वर्णन आरम्भ होता है। ससारी जीव दो प्रकार के होते है :(१) त्रस अर्थात् चर-हिलने-डुलनेवाले गतिशील और (२) स्थावर अर्थात् अचर-स्थिर । पुढवी आउजीवा य, तहेव य वणस्सई । इच्चेते थावरा तिविहा, तेसिं भेए सुणेह मे ॥२॥! [उत्त० म० ३६, गा० ६६ ] स्थावर जीव पृथ्वीकायिक, अपकायिक और वनस्पतिकायिक ऐसे तीन प्रकार के हैं, जिनके भेद मेरे द्वारा सुनो। विवेचन-पृथ्वी-मिट्टी ही जिसकी काया है वह पृथ्वीकायिक जीव, अप-पानी ही जिसकी काया है वह अपकायिक जीव; और Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७ संसारी जीवों का स्वरूप] वनस्पति ही जिसकी काया वह है वनस्पतिकायिक जीव कहलाता है। इन तीनो प्रकार के जीवो का समावेश स्थावर मे होता है। दुविहा पुढवीजीवा उ, सुहुमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो ॥३॥ [ उत्त० अ० ३६, गा० ७० ] पृथ्वीकायिक जीव के दो प्रकार है :--सूक्ष्म और बादर । ठीक वैसे ही इनमे से प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो और प्रकार होते है। विवेचन-यहाँ सूक्ष्म शब्द से ऐसे सूक्ष्म जीवो का निर्देश किया है जो किन्ही भी सयोगो मे दृष्टिगोचर नही होते, इतना ही नही बल्कि उन पर शस्त्रादि किसी अन्य चीज के प्रयोग का कोई असर नही होता। ऐसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव समस्त लोक मे व्याप्त है। बादर शब्द स्थूलतावाचक है। किन्तु बादर पृथ्वीकायिक एक जीव का शरीर हमारी दृष्टि का विषय नही बन सकता। हम पृथ्वीकाय का जो शरीर देखते है, वह असख्य जीवो के असख्य शरीर का एक पिण्ड होता है, वह समुदित अवस्था मे देखा जा सकता है, अतः उसे बादर कहा गया है। जीव विग्रह गति द्वारा नये जन्मस्थान पर पहुंचने पर जीवन वारण करने के लिये आवश्यक ऐसे पुद्गल एकत्र करने लगता है, जिसे आहार की क्रिया कहते है। उसी आहार मे से वह गरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन की रचना करता है। शास्त्रीय परिभाषा मे इन छह वस्तुओ को पर्याप्ति कहा जाता है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] [ श्री महावीर वचनामृत परन्तु सभी जीव छहों पर्याप्तियों के अधिकारी नहीं हैं । एकेन्द्रिय जीव आहार, शरीर, इन्द्रिय, बोर वामोच्छ्वास-इन चार पर्याप्तयों के अधिकारी हैं । दो इन्द्रियवालों से लेकर असनी पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव पांचवी भाषापर्याप्ति के भी अधिकारी हैं और सजी पचेन्द्रिय जीव छहों पर्याप्ति के अधिकारी हैं । यहाँ इतनी स्पष्टता करना आवश्यक है कि यदि हम इन्द्रिय के आधार पर संसारी जीवों को विभाजित करे तो पांच विभाग होते है :- (१) एकेन्द्रिय, (२) वेडन्द्रिय, (३) तेइन्द्रिय, (४) चतुरिन्द्रिय और (५) पचेन्द्रिय । इनमे से एकेन्द्रिय जीव को एक स्पर्शनेन्द्रिय होती है । स्सर्वनेन्द्रिय अर्गत स्पर्ग पहचाननेवाली इन्द्रिय: उसका मुल्य साघन चमड़ी है । वेन्द्रिय जीव को स्पर्शनेन्द्रिय के अतिरिक्त रसनेन्द्रिय भी होती है । रसनेन्द्रिय अर्थात् रस स्वाद का परीक्षण करनेवाली इन्द्रिय । इनका मुख्य साधन जिह्वा है । तेइन्द्रिय जीव को इन दो इन्द्रियों के अतिरिक्त तीसरी घ्राणेन्द्रिय भी होती है । घ्राणेन्द्रिय अर्थात् गन्य परखनेवाली इन्द्रिय । इसका मुख्य सावन नासिका है । चतुरिन्द्रय जीव को इन तीन इन्द्रियों के अतिरिक्त चौथी चक्षुरिन्द्रिय भी होती है । चक्षुरिन्द्रिय अर्थात् वस्तुओं को देखनेवाली इन्द्रिय । इसका मुख्य नावनचा - आँख है । बोर पंचेन्द्रिय जीव को इन चार के उपरान्त पाँचवी श्रोत्रेन्द्रिय भी होती है ; श्रोत्रेन्द्रिय अर्थात् सुननेवाली इन्द्रिय । इसका मुख्य सावन कान है। इनमे से एकेन्द्रिय के जीव चार पर्याप्ति के अधिकारी हैं । अतः Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससारी जीवों का ल्वरूप] [ २६ जब वे पहली चार पर्याप्तियाँ पूर्ण करे तब पर्याप्त कहलाते है और यदि उन जीवो ने ये पर्याप्तियाँ पूर्ण न की हो अथवा पूर्ण किये बिना हो मृत्यु प्राप्त हो जायं तो अपर्याप्त कहलाते है। पृथ्वीकायिक जीव एकेन्द्रिय है, अतः उन्हे चार पर्याप्तियाँ पूर्ण करनी पड़ती है। __यहाँ इतना स्मरण रखना आवश्यक है कि कोई भी जीव आहार, शरीर और इन्द्रियादि तीन पर्याप्तियो को पूर्ण किये बिना मृत्यु नही पाता। इस वर्गीकरण के अनुसार पृथ्वीकायिक जीव के मुख्य चार भेद होते है : १ : सूक्ष्म पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीव । २ : सूक्ष्म अपर्याप्त पृथ्वीकायिक जीव । ३ : बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीव । ४ : बादर अपर्याप्त पृथ्वीकायिक जीव । वायरा जे उ पज्जत्ता, दविहा ते वियाहिया । सण्हा खरा य वोधन्या, सण्हा सत्तविहा तहिं ॥४॥ [उत्त० अ० ३६, गा० : ७१ ] पर्याप्त वादर पृथ्वीकायिक जीव के दो भेद कहे गये है . -लक्ष्ण अर्थात् कोमल और खर अर्थात् कठोर । इनमे से लक्षण पृथ्वी सात प्रकार की है। किण्हा नीला य रुहिरा य, हलिद्दा सुकिला तहा। पंडुपणगमट्टिया, खरा छत्तीसईविहा ॥ ५ ॥ [उत्त० अ० ३६, गा० ७२ ] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] [श्री महावीर-वचनामृत काली, नीली, (स्लेटिया अथवा हरी), लाल, पीली, वेत, पाण्ड (कुछ हल्की पीली झांई वालो) और पनक ( अत्यन्त सूक्ष्म रजोरूप ) । जवकि खर पृथ्वी छत्तीस प्रकार की है। पुडवी य सकरा वाल्या य उबले सिला य लोणूसे । अय-तउय-तंब-सीसग-रुप्प-सुबन्ने य वयरे य ॥६॥ हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजण-पवाले । अभपडलन्भवालुय बायरकाये मणिविहाणे ॥७॥ गोमेजए य रुयगे अंके फलिहे य लोहियक्खे य । मरगय-मसारगल्ले भूयमोयग-इंदनीले य ॥ ८॥ चंदण-गेल्य-हंसगम्भेपुलए सोगंधिए य बोधच्चे। चंदप्पह-वेरुलिए जलकंते सरकते य ॥६॥ [उत्तः न०३१, गा३ से ] १ : शुद्ध पृथ्वो। २: कंकड़। ३: वालुका-रेती। ४ : उपल-छोटे पत्थर । ५: बिला-पत्यर की बड़ी चट्टान । ६: लवण-समुद्र के जल से तैयार होने वाला नमक । ७:तारी मिट्टी-क्षार। लोहा-खदान मे होता है तव । वाद मे रासायनिक Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी जीवों का स्वरूप] [३१ प्रक्रिया से वह टुकड़े अथवा प्रतरो का रूप धारण करता है, उस स्थिति मे वह अजीव बनता है। ६: सीसा १० : ताँवा ११ : जस्ता १२: चाँदी १३ : सोना १४ : वज्र-हीरा । खदान मे होता है तब । १५ : हरताल१६ : हिंगलू- , १७ : मेनसिल१८ : सासक -एक प्रकार की घातु । १६ : अजन-सुरमा। २० : प्रवाल-मूगा। २१ : अभ्रक-खान से निकलता है। २२ : अभ्रवालुका-अभ्रक के मिश्रण वाली रेती। इन वाईस प्रकार मे चौदह रतो को मिला देने से कुल छत्तीस प्रकार हो जाते हैं। चौदह रत्नो के नाम इस प्रकार समझने चाहिए : २३ : गोमेदक। २४ : रुचक। २५ : अकरल Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] श्री महावीर वचनामृत २६ : स्फटिक और लोहिताक्ष । २७ : मरकत और मसारगल्ल । २८ : भुजमोचक। २६ : इन्द्रनील। ३० . चन्दन-गरिक और हसगर्भ । ३१ : पुलक । ३२ : सौगन्चिक । ३३ : चन्द्रप्रभ । ३४ : वैडूर्य । ३५ : जलकान्त। ३६ : सूर्यकान्त । रत्नपरीक्षा आदि ग्रन्थों मे इन रलों का विशेष वर्णन दिया हुआ है। ये सभी रत पृथ्वी में होते हैं तब जीवन-शक्ति से युक्त होने के कारण इनकी गणना पृथ्वीकायिक जीवों में की जाती है। वाहर निकलने के पश्चात् इनमे जीवन-शक्ति नही रहता। अतः ये अजीव माने जाते हैं। एएसि वण्णओ चव, गंधओ रसफासओ। मंठाणदेसओ वावि, विहाणाई सहस्समा ॥१०॥ [उत्तः १० ३६, गा० ८३] इन जीवों के वर्ग, गन्य, रस, स्पर्ग और संस्थान द्वारा हजारों भेद होते है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससारी जीवों का स्वरूप ] [ ३३ दुविहा आऊजीवा उ, सुहुमा बायरा तहा । एवमेए दुहा पुणो ॥ ११ ॥ पज्जत्तमपज्जत्ता, वायरा जे उ पज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिया । सुद्धोदय उस्से, हरतण महिया हिमे ॥ १२ ॥ २ [ उत्त० भ० ३६, गा० ६४-६५ ] अपकायिक जीव के दो प्रकार है :-सूक्ष्म और बादर । ठीक वैसे ही इनके पुनः पर्याप्त और अपर्याप्त - ऐसे दो भेद होते है ! जो बादर पर्याप्त अप्काय जीव है, वे पाँच प्रकार के कहे गये है : - ( १ ) शुद्धोदक - मेघ का जल, (२) ओस, (३) तृण के ऊपर के जलबिन्दु, (४) कुहासा ओर (५) बर्फ | -- विवेचन -- अपकायिक सूक्ष्म जीव पृथ्वीकायिक सूक्ष्म जीवो के समान ही सूक्ष्म हैं और वे सब लोक मे व्याप्त है । दुविहा वणस्सईजीवा, सुहुमा वायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो ॥ १३॥ वायरा जे उपज्जत्ता, दुविहा ते वियाहिया । साहारणसरीरा य, पत्तेगा य तहेव य ॥ १४ ॥ पत्तेअसरीराओ, ऽणेगहा ते पकित्तिया । रुक्खा गुच्छा य गुम्मा य, लया वल्ली तथा तहा ॥ १५ ॥ वलया पव्वया कुहणा, जलरुहा ओसही तहा । हरियकाया य बोधव्वा, पत्तेया इति आहिया ॥ १६ ॥ m Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] [श्री महावीर-चचनामृत साहारणसरीराओ, ऽणेगहा ते पकित्तिया । आलूए मूलए चेव, सिगवेरे तहेव य ॥१७॥ [उत्त० न. ३६, गा०६२ ते १६] वनस्पतिकायिक जीव सूक्ष्म और बादर इस तरह दो प्रकार के हैं और उनके प्रत्येक के पुनः पर्याप्त और अपर्याप्त-ऐसे दो प्रकार होते हैं। जो वादर पर्याप्त है, वे दो प्रकार के कहे गये है:-साधारणगरीरी तथा प्रत्येक-शरीरी। प्रत्येक-गरीरी के अनेक भेद कहे गये हैं। जैसे कि-वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, तृण, वलय, पर्वज, कूहण, जलव्ह, औषधि, हरितकाय आदि । साधारण-गरीरी भी अनेकविध कहे गये है। जैसे कि-आल, मूली, शृंगवेर आदि। विवेचन-वनस्पतिकायिक सूक्ष्म जीव भी पृथ्वीकायिक मूक्ष्मजीवों के समान ही सूक्ष्म हैं और वे समस्त लोक मे व्याप्त है। अनेक जीवों का एक समान गरीर हो, वह साधारण ( तमान) गरीरी कहलाता है और एक जीव के एक ही शरीर हो, वह प्रत्येक शरीरी कहलाता है। यहां इतना स्मरण रखना चाहिये किफल, पुष्प, छाल, लकडी, मूल, पत्ते और बीज-इन प्रत्येक का स्वतन्त्र गरीर माना गया है। साधारण-गरीरो को साधारण वनस्पति और प्रत्येकन्यरीरो को प्रत्येक वनस्पति कहा जाता है। इन दोनों वनस्पतियों को Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससारी जीवों का स्वरूप] किस प्रकार पहचाना जाय, इसका समुचित उत्तर जीवविचार प्रकरण की निम्न गाथा में दिया गया है : गूढसिरसधिपव्वं, समभग महीरुगं च छिन्नरुह । साहारणं सरीर, तव्विवरिअ च पत्तय ॥ १२ ॥ जिसके भुट्टा, शिराएं और प्रन्थियाँ आदि गुप्त हो, जिसके टूटने से समान भाग हो तथा तन्तु आदि न निकले, साथ ही जिसे काट कर पुनः उगाया जाय तो उग जाय, उसे साधारण वनस्पति जानना, तथा इससे विपरीत लक्षणवाली हो उसे प्रत्येक वनस्पति समझना। प्रत्येक वनस्पति के अनेक प्रकार हैं। जैसे कि :१ : वृक्ष-आम, नीम आदि । २: गुच्छ-बैगन (वैताकडी ) आदि । ३ : गुल्म-नवमल्लिका आदि। ४: लता-चम्पकलता आदि । ५ वल्ली-कुष्माण्ड, तुरई आदि । ६. तृण-घास। ७: वलय-वलयाकृतिवाली विशिष्ट वनस्पति । ८: पर्वजगन्ना आदि पर्व (गांठ) वाली वनस्पति । ६ : कूहण-भूमि को फोड़कर निकलनेवाली वनस्पति । १० : जलरुह-जल मे उगनेवाले-कमल आदि । ११ : औषधि-धान्यवर्ग, गेहूं आदि । १२ : हरित-भाजी, पत्तियाँ । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्री महावीर-वचनामृत साधारण वनस्पति के भी अनेक प्रकार होते हैं। यहाँ आलू, ___ मूली, शृगवेर आदि के ही नाम दिये गये है, ये सव कन्द हैं। आलू अर्थात् आलू-कन्द । मूली प्रसिद्ध है। शृगवेर अर्थात् अद्रक । तात्पर्य यह है कि सभी प्रकार के कन्दो की गणना साधारण वनस्पति मे करनी चाहिये। इसके अतिरिक्त समस्त वनस्पतियो के अकुर, कोंपले, कोमल फल तथा जिसके दाने और शिराएं गुप्त हो, उसकी गणना भी साधारण वनस्पति मे करनी चाहिये । साधारण वनस्पति को अनन्तकाय भी कहते हैं क्योंकि उसके एक सूक्ष्म गरीर मे अनन्त जीव होते है। तेउ वाऊ अ बोधवा, उराला य तसा तहा । इच्चेए तसा तिविहा, तेसिं भेए सुणेह मे ॥१८॥ [उत्त० अ० ३६, गा० १०७] त्रस जोव तीन प्रकार के हैं :-तेजसकायिक, वायुकायिक और प्रधान त्रसकाय। इनके भेद मुझ से सुनो। विवेचन-तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव एकेन्द्रिय है, किन्तु वे हिलने-डुलनेवाले होने के कारण उनकी गणना त्रस मे की गई है। जो जीव भयग्रस्त होकर हिलने-डुलने लगते हैं, वे प्रधान त्रस कहलाते हैं। इन तीनों के भेद वाद मे कहे जायेंगे । दुविहा तेऊजीवा उ, सुहमा वायरा तहा । पजत्तमपज्जत्ता, एवमए दुहा पुणो ॥१६॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी जीवों का स्वरूप] वायरा जे उ पज्जत्ता, ऽणेगहा ते चियाहिया । इंगारे मुम्मुरे अगणी, अचिजाला तहेब य ॥२०॥ [उत्तः अ० ३६, गाः १०८-६] तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के है :- सूक्ष्म और वादर, तथा उनके भी पर्याप्त और अपर्याप्त-ऐसे दो भेद होते है। ___जो बादर पर्याप्त तेजस्कायिक जीव है, वे अनेक प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि :-अगारे, चिनगारी, अग्नि, शिखा-(लो), ज्वाला आदि। विवेचन यहां 'आदि' पद से उल्का, विद्युत तथा अग्निमय ऐसे अन्य पदार्थ भी समझने चाहिये। सुक्ष्म तेजस्कायिक जीव पृथ्वीकायिक सूक्ष्म जैसे ही सूक्ष्म है और वे सकल लोक में व्याप्त है। दुविहा वाउजीवा उ, सुहुमा वायरा तहा। पज्जत्तसपज्जत्ता, एवमए दुहा पुणो ॥२१॥ बायरा जे उ पज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिया । उकलिया संडलिया, घण-गुंजा-सुद्धवाया य ॥२२॥ [उत्त० अ० ३६, गा० ११७-८] वायुकायिक जीव दो प्रकार के है ; सूक्ष्म और बादर तथा इनके भी पर्याप्त और अपर्याप्त-ऐसे दो भेद है।। जो बादर पर्याप्त वायुकायिक जीव है, वे पांच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे कि :-(१) उत्कलिक वायु, (२) मण्डलिक वायु, (३) धन वायु, (४) गूजन वायु और (५) शुद्ध वायु ! Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] [श्री महावीर-वचनामृत विवेचन-सूक्ष्म-वायुकायिक जीव पृथ्वीकायिक सूक्ष्म जीव के समान ही सूक्ष्म है और वे समस्त लोक में व्याप्त हैं। जो रुक-रुक कर फिर से वहने लगे, वह उत्क्रलिक वायु । जो चक्राकार घूमता आये अर्थात् झमावात जैसा हो, वह मण्डल्कि वायु । जो वायु गाढ-घना हो, वह धन वायु । यह वायु ससार को स्थिर रखनेवाली घनोदवि का आवाररूप होता है। जो वायु गूंजता हुआ बहे, वह गूंजन वायु और जिस वायु की मन्द-मन्द लहरियां वहतो है, वह शुद्ध वायु । ओराला तसा जे उ, चहा ते पकित्तिया । वेइंदिया तेइंदिया, चउरो पंचिंदिया चेव ॥२३॥ [उत्त० अ० ३६, गा० १२६] प्रधान त्रस जीव चार प्रकार के कहे गये हैं:-(१) दो इन्द्रियवाले, (२) तीन इन्द्रियवाले, (३) चार इन्द्रियवाले और (४) पांच इन्द्रियवाले। वेइंदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणह मे ॥२४॥ किमिणो सोसंगला चेव, अलसा माइवाया। वासीमुहा य सिप्पीया, संखा संखणगा तहा ॥२५॥ पल्लोयाणुल्ल्या चेव, तहेव च वराडगा। जलूगा जालगा चंव, चंदणा य तहेब य ॥२६॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी जीवों का स्वरूप ] [ ३६ एवमायओ । इइ वेइंदिया एए, ऽणेगहा लोगेगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ वियाहिया ||२७|| [ उत्त० अ० ३६, गा० १२७ से १३० ] दो इन्द्रियोवाले जीव दो प्रकार के होते है :- पर्याप्त और अपर्याप्त । इनके दो भेद मेरे द्वारा सुनो कृमि ( अशुचिमय पदार्थो में उत्पन्न होनेवाले ), सुमङ्गल, अलसिया, मातृवाहक ( कनखजूरा ), वासीमुख, छिपकली, शंख, घोघा, पल्लक, अनुपल्लक, कोडी, जलौका, जालक, चदनक ( स्थापनाचार्य मे रखा जाता है ) आदि । ये दो इन्द्रियवाले जीव अनेक प्रकार के है । ये सब लोक के एक भाग में स्थित कहे गये हैं, न कि सर्वत्र । विवेचन- जिन्हे सामान्यतया जन्तु अथवा कीड़े ( Worms and insects ) कहते है, उनका समावेश, दो इन्द्रियवाले, तीन इन्द्रियवाले और चतुरिन्द्रियवाले जीवो में होता है | तेइंदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । पजत्तमपज्जत्ता, तेर्सि भेए भेए सुणेह मे |२८| कुंथु पिवीलिया दंसा, उक्ललुद्देहिया तहा ॥ तणहारकट्ठहारा य, मालूगा पत्तहारका ||२६|| कपासट्ठिमिंजा य, तिंदुगा तउस मिंजगा || सदावरी य गुम्मी य, बोधन्वा इंदगाइया ||३०|| Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.] [श्री महावीर-वचनामृत इंदगोवमाझ्या, ऽणेगहा एवमायओ ॥ लोगेगदेसे ते सम्बे, न सम्वत्थ वियाहिया ॥३१॥ [उत्त० अ० ३६, गा० १३६ से १३६ ] तीन इन्द्रियवाले जीव दो प्रकार के कहे गये हैं:-पर्याप्त और अपर्याप्त । इनके भेद मेरे द्वारा सुनो। ___ कुथु, चीटी, डास, उत्कल, उदई, तृणाहारक (घास मे होनेवाले) काष्ठाहारक (लकड़ी मे होनेवाली, घुन ), मालुका, पत्राहारक ( पत्तों मे होनेवाले), कासिक (कपास आदि मे होनेवाले), अस्थिजात (गुटली-गुटले आदि मे होनेवाले ), तिन्दुक, त्रपुप. मिंजग, शतावरी गुल्मी, इन्द्रकायिक आदि। ___ इन्द्रगोप (गोकुलगाय ) आदि तीन इन्द्रियवाले जीव अनेक प्रकार के हैं, वे लोक के एक भाग मे कहे गये हैं, न कि सर्वत्र । चउरिंदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । पजत्तमपञ्जत्ता, तेसिं भेए सुणह मे ॥३२॥ अंधिया पुत्तिया चेव, मच्छिया मसगा तहा । भमरे कीड-पयंगे य, ढिकुण कुंकण तहा ॥३३।। कुकुडे सिंगिरीडी य, नंदावते य विछिये । डोले य भिंगिरीडी य, विरिली अच्छिवेहए ॥३४॥ अच्छिले माहए अच्छिरोडए विचित्तचित्तए । उहिंजलिया जलकारी य, तंनिया तंबगाइया ॥३॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी जीवों का स्वरूप] [४१ इह चउरिदिया एए, ऽणेगहा एवमायओ। लोगस्स एगदेसंमि, ते सम्वे परिकित्तिया ॥३६॥ [ उत्त० अ० ३६, गा० १४५ से १४६ ] चतुरिन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे गये है :-पर्याप्त और अपर्याप्त । इनके भेद मुझसे सुनो। ___ अन्धक, पौतिक, मक्षिका, मशक, भ्रमर, कीट, पतग, बगाई, और कुकण, कर्कुट, सिंगरीटी, नन्द्यावर्त, बिच्छू , खड-मकडी, भृगरीटक, अक्षिवेधक, अक्षिल, मागध, अक्षिरोडक, विचिन, चित्रपत्रक, उपधि, जलका, जलकारी, तन्निक, ताम्रक आदि को चार इन्द्रियवाले जीव माना है। ये सब लोक के एक भाग में स्थित है (न कि सर्वत्र)। पंचिंदिया उ जे जीवा, चउबिहा ते चियाहिया। नेरड्या तिरिक्खाय, मणुया देवा य आहिया ॥३७॥ उत्त० अ० ३६, गा० १५५ ] जो जीव पचेन्द्रिय है, वे चार प्रकार के कहे गये है :- नारकीय, तिर्यन्च, मनुष्य और देव । नेरइया सत्तविहा, पुढवीसु सत्तसू भवे । रयणाभ-सकराभा, चालुयाभा य आहिया ॥३८॥ पंकामा य धूमाभा, तमा तमतमा तहा। इइ नेरइया एए, सत्तहा परिकित्तिया ॥३६॥ [उत्त० अ० ३६, गा० १५६-१५७ } Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] [ श्री महावीर वचनामृत नारकी - जीव सात प्रकार के हैं, क्योंकि नरक से सम्बद्ध पृथ्वियां सात प्रकार की हैं । वे इस प्रकार हैं :- (१) रत्नप्रभा, (२) शर्कराप्रभा, (३) वालुकाप्रभा, (४) पङ्कप्रभा, (५) घूमप्रभा, (६) तमप्रभा और (७) तमतमाप्रभा । विवेचन—पहली नरक की अपेक्षा दूसरी नरक मे और दूसरी नरक की अपेक्षा तीसरी नरक मे इस प्रकार उत्तरोत्तर हर नरक मे अधिक अन्धकार होता है । जवकि सातवी नरक तमतमा नाम की है, अतः वहाँ घोर अन्धकार होता है । पंचिंदिय तिरिक्खा उ, दुविहा ते वियाहिया । गव्भवक्कंतिया तहा ॥४०॥ संमुच्छिम - तिरिक्खा उ, [ उत्त० अ० ३६, गा० १७० ] पचेन्द्रिय तिर्यंच जीव दो प्रकार के कहे गये हैं :- संमूच्छिम और गर्भोत्पन्न-गर्भज । विवेचन—समूच्छिम जीव मनःपर्याप्ति के अभाव मे मूढदशा मे रहते है । वे कुछ पदार्थों मे उत्पन्न होते हैं जबकि गर्भोत्पन्न गर्भ से उत्पन्न होते हैं । दुविहावि ते भवेतिविहा, जलयरा थलयरा तहा । नहयरा य बोधव्वा, तेसिं भेए सुणेह मे ॥ ४१ ॥ [ उत्त० अ० ३६, गा० १७१ ] इन दोनो प्रकार के तियंच जीवों के तीन भेद हैं :- (१) जलचर, (२) स्थलचर और (३) नभचर अर्थात् खेचर । इनके भेद मेरे द्वारा सुनो। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी जीवों का स्वरूप] मच्छा य कच्छभा य, गाहा य मगरा तहा । सुंसुमारा य वोधवा, पंचहा जलराहिया ॥४२॥ [उत्त० अ० ३६, गा० १७२ ] जलचर जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं :-(१) मच्छ (मछलियों को जाति), (२) कच्छप (कछुए की जाति), (३) ग्राह (घड़ियाल की जाति), (४) मगर और (५) संसुमार (ह्वल आदि की जाति)। चउप्पया य परिसप्पा, दुविहा थलयरा भवे । चउप्पया चउचिहा, ते मे कित्तयओ सुण ॥४३॥ [उत्त० अ० ३६, गा० १७६ ] स्थलचर जीव दो प्रकार के है :-चतुष्पद और परिसर्प। इनमे चतुष्पद चार प्रकार के है। इनके भेद मेरे द्वारा सुनो। एगखुरा दुखुरा चेव, गंडीपय सणप्पया। हयमाई गोणमाई, गयमाई सीहमाइणो ॥४४॥ [ उत्त० अ० ३६, गा० १८० ] (१) एक खुरवाले--अश्व आदि । (२) दो खुरवाले-गायआदि । (३) गण्डीपद-हाथी आदि और (४) सनखपद-सिंह आदि । भुओरगपरिसप्पा य, परिसप्पा दुविहा भवे । गोहाई अहिमाई, इक्केका इणेगविहा भवे ॥४॥ [उत्त० अ० ३६, गा० १८१] परिसर्प दो प्रकार के होते है :-(१) भुजपरिसर्प-गोह, गिरगीट आदि। और (२) उर-परिसर्प-सर्प, अजगर आदि। ये प्रत्येक भी अनेक प्रकार के होते है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] [श्री महावीर-वचनामृत चम्मे उ लोमपक्खी य, तइया समुग्गपक्खिया । विययपस्वी य बोधवा, पक्विणो य चउनिहा ॥४६॥ [उत्त० म०३६, गा० १८८] खेचर अर्थात् पक्षी चार प्रकार के होते हैं :-(१) चर्मपक्षीचमडे की पंखवाले, चमगादर आदि। (२) रोमपक्षी-रोमवाली पंतवाले, गजहस आदि। (३) समुद्गपक्षी-आवेष्ठित पंखवाले और (४) विततपक्षी-जिनके पख सदा खुले रहते हैं। ये दोनो मानुपोत्तर 'पर्वत से बाहर होते है। मगुया दुविहभेया उ, ते मे कित्तयओ सुण । समुच्छिमा य मणुया, गन्भवतिया तहा ॥४॥ [उत्त० म० ३६, गा० १९५] मनुष्य के दो भेद है, वे मेरे द्वारा सुनो:-सम्मूछिम और गर्भाविवेचन-मनुष्य के देश, रंग और जाति के अनुसार भेद होते हैं। देवा चउनिहा वुत्ता, ते मे कित्तय सुण । भोमिज्ज" बाणमंतर-जोड्स-वेमाणिया तहा ॥४८|| [उत्त० मा ३६, गा २०४] देव चार प्रकार के कहे गये हैं। उनके भेद मेरे द्वारा सुनो। (१) भुवनपति, (२) वाणयतर, (३) ज्योतिप और (४) वैमानिक । दसहा उ भवणवासी, अट्टहा वणचारिणो । पंचविहा जोइसिया, दुविहा वैमाणिया तहा ॥४६॥ [टत्त म०३६, गा० २०५] है Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी जीवों का स्वरूप ] [ ४५ भवनवासी के दस प्रकार है, वाणव्यन्तर अर्थात् वनचारी देवो के आठ प्रकार है, ज्योतिषी देवो के पाँच प्रकार है और वैमानिक देवो के दो प्रकार । असुरा नाग-सुवण्णा, विज्जू अग्गी वियाहिया । दीवोदहि- दिसा वाया, थणिया भवणवासिणो ॥ ५० ॥ ॥ [ उत्त० अ० ३६, गा० २०६ ] भवनपति के दस प्रकार इस तरह समझने चाहिये : - ( १ ) असुरकुमार, (२) नागकुमार, (३) सुवर्णकुमार, ( ४, विद्युतकुमार, (५) अग्निकुमार, ६) द्वीपकुमार, (७) उदधिकुमार, (८) दिशाकुमार,(९) वायुकुमार और (१०) स्तनितकुमार । पिसाय - भूया जक्खा य, रक्खसा किंनरा य किंपुरिसा । महोरगा य गंधव्वा, अड्डविहा वाणमंतरा ॥ ५१ ॥ [ उत्त० अ० ३६, गा० २०७] वाणव्यतर देवो के आठ भेद इस प्रकार बताये गये है (१) पिशाच, (२) भूत, (३) यक्ष, (४) राक्षस, (५) किन्नर, (६) किम्पुरुष, (७) महोरग और (८) गन्धर्व । तहा । चंदा सूराय नक्खत्ता, गहा तारागणा दिसविचारिणो चैव, पंचहा जोइसालया ||२२|| [ उत्त० अ० ३६, गा० २०६ ] ज्योतिषी देव पाँच प्रकार के है : - (१) चन्द्र, (२) सूर्य, (३) नक्षत्र, (४) ग्रह और (५) तारा | ये सब मनुष्यलोक मे चर है Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] [श्री महावीर वचनामृत अर्थात् गतिमान् हैं और मनुष्यलोक के बाहर स्थिर है अर्थात् गति नही करते। वेमाणिया उ जे देवा, दुविहा ते वियाहिया । कप्पोवगा य बोधवा, कप्पाईया तहेव य ॥५३॥ [उत्त० अ० ३६, गा० २०६] वैमानिक देव दो प्रकार के है :-(१) कल्पोत्पन्न और (२) कल्पातीत । कप्पोवगा य वारसहा, सोहम्मीसाणगा तहाँ । सणंकुमार-माहिंदा, वंभलोगा य लंतगा ॥५४॥ महासुक्का सहस्सारा, आणया पाणया तहा । आरणा अच्चुया चेव, इइ कप्पोवगा सुरा ॥५॥ [उत्त० अ० ३६, गा० २१०-११] कल्पोत्पन्न वैमानिक देव वारह प्रकार के हैं :-(१) सौधर्म (२) ईशान, (३) सनत्कुमार, (४) माहेन्द्र, (५) ब्रह्म (8) लातक, (७) महाशुक्र, (८) सहलार, (६) आनत, (१०) प्राणत, (११) आरण और (१२) अच्युत। कप्पाईया उ जे देवा, दुविहा ते वियाहिया । गेविजाणुत्तरा चेव, गेविजा नवविहा तहिं ॥५६|| [उत्त० अ० ३६ गा० २१ ] कल्पातीत देव दो प्रकार के वताये गये हैं:-(१) ग्रंवेयक और (२) अनुत्तर। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससारी जीवों का स्वरूप] [४७ विवेचन-वेयक देव नौ प्रकार के है। विजया वेजयंता य, जयंता अपराजिया। सम्वसिद्धगा चेव, पंचहाणुत्तरा सुरा ॥५॥ [उत्त० अ० ३६, गा० २१५-१६ ] अनुत्तरविमानो के पाँच प्रकार है :-(१) विजय, (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, (४) अपराजित और (५) सर्वार्थसिद्ध । विवेचन-ससारीजीवो का यह स्वरूप जानने से जीव-सृष्टि कितनी व्यापक है और उसके कितने विभाग है आदि का बोध होता है। ठीक वैसे ही अहिंसा के पालनार्थ भी इसका ज्ञान होना निहायत आवश्यक है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा ४: कर्मवाद - नो इंदियगेज्ज्ञ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो। अज्झत्थहेडं निययस्स बंधो, संसारहेउं च वयंति बंधं ॥१॥ [उत्त० अ० १४, गा० १६] आत्मा अमूर्त है, अतः वह इन्द्रियग्राह्य नही है। अमूर्त होने के कारण ही आत्मा नित्य है। मिथ्यात्व आदि कारणो से आत्मा को कर्मबन्धन होता है और कर्मवन्धन को ही संसार का कारण कहा जाता है। विवेचन-जिसमे वर्ण, रस, गन्च और स्पर्श हो वही वस्तु मूर्त हो सकती है, परन्तु आत्मा मे वर्ण, रस, गन्ध अथवा स्पर्श आदि नही है, इसलिये वह अमूर्त है और यही कारण है कि वह इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य नहीं है। साथ ही अमूर्त वस्तु नित्य होती है, जैसे कि आकाश, इस प्रकार आत्मा नित्य है। ऐसी अमूर्त और नित्य आत्मा को कर्मबन्वन होने का मूल कारण मिथ्यात्व, अविरति, Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद] [४६ कषाय, आदि दोष ही है। कर्म-फल भोगने के लिये आत्मा को ससार मे परिभ्रमण करना पड़ता है, इसलिए कर्मबन्धन ही ससारवृद्धि का कारण है। सर्व प्रथम आत्मा कर्मरहित था और बाद मे कर्मबन्धन हुआ, ऐसा नही है । यदि हम यह मान ले कि शुद्ध आत्मा को भी कर्म का बन्धन होता है तो सिद्ध जीवों को भी कर्म-बन्धन का प्रसङ्ग आता है, जो कतई उचित नही है। अतः यह मानना ही उचित होगा कि आत्मा आरम्भ से ही कर्मयुक्त थी और कर्मबन्धन के कारण विद्यमान होने से वह कर्म बांधती ही रही तथा उसका फल भोगती रही। सोना जब खदान मे रहता है, तब मिट्टी से युक्त रहता है। अर्थात् खदान मे सोना और मिट्टी दोनो का मिश्रण होता है। बाद मे उस पर रासायनिक प्रक्रिया होने से मिट्टी पृथक् हो जाती है और शुद्ध सोना पृथक् निकल आता है, ठीक यही बात आत्मा के बारे में भी समझनी चाहिए। संयम, तप आदि रासायनिक क्रिया के आत्मा पर लिपटे हुए कर्मावरण दूर हो जाते है और उसका शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है। सबजीवाण कम्मं तु, संगहे छदिसागयं । सम्वेसु वि पएसेसु, सन्नं सवेण बज्झगं ॥२॥ (उत्त० अ० ३३, गा० १८) सभी जीव अपने आसपास छहों दिशाओ मे स्थित कर्मपुद्गलों को ग्रहण करते हैं और आत्मा के सर्वप्रदेशों के साथ सर्वकर्मों का सर्वप्रकार से बन्धन हो जाता है । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] [श्री महावीर वचनामृत विवेचन-कर्मरूप में परिणत होने योग्य पुद्गल की एक प्रकार की वर्गणा को कार्मण-वर्गणा अथवा कर्मपुद्गल कहा जाता है । पुद्गल को वर्गणाएं अनेक प्रकार की होती है, उनमे औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तंजस, भाषा, श्वासोच्छवास, मन और कार्मण-इन नामो वाली ८ अयोग्य +८ योग्य यो सोलह वर्गणाएं विशेषतः समझने योग्य है। वे इस प्रकार है : १: औदारिक शरीर के लिये नही ग्रहण करने योग्य महावर्गणा । २: औदारिक शरीर के लिए ग्रहण करने योग्य महावर्गणा । ३ : औदारिक-वैक्रिय शरीर के लिये नही ग्रहण करने योग्य महावर्गणा। ४: वैक्रिय शरीर के लिये ग्रहण करने योग्य महावर्गणा । ५ : वैक्रिय-आहारक गरीर के लिये नही ग्रहण करने योग्य महावर्गणा। ६ : आहारक शरीर के लिये ग्रहण करने योग्य महावर्गणा । ७: आहारक-तैजस शरीर के लिये ग्रहण न करने योग्य महावर्गणा। ८: तेजस शरीर के लिये ग्रहण करने योग्य महावर्गणा।। ६ तेजस शरीर और भाषा के लिये ग्रहण नही करने योग्य महावर्गणा। १० : भाषा के लिये ग्रहण करने योग्य महावर्गणा । ११ : भाषा और श्वासोच्छवास के लिये ग्रहण न करने योग्य महावर्गणा। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद] [५१ १२ : श्वासोच्छवास के लिये ग्रहण करने योग्य महावर्गणा।। १३ : श्वासोच्छवास और मन के लिये ग्रहण न करने योग्य महावर्गणा। १४ : मन के लिये ग्रहण करने योग्य महावर्गणा। १५ : मन और कर्म के लिये ग्रहण न करने योग्य महावर्गणा। १६ : कर्म के लिये ग्रहण करने योग्य महावर्गणा। इस सोलहवी वर्गणा को ही कार्मण-वर्गणा कहा जाता है। ये कार्मण-वर्गणाएं पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्च और अधः आदि छहो दिशाओ मे सर्वत्र व्याप्त रहती है। इन्ही मे से आत्मा उपयुक्त वर्गणाओं को ग्रहण कर लेती है और वह आत्मा के सर्वप्रदेशो के साथ सर्वप्रकार से अर्थात् प्रकृति से, स्थिति से, रस से और प्रदेश से इस तरह चारो प्रकार से बंध जाती है। यहाँ इतना स्मरण रखना चाहिये कि आत्म-प्रदेशो के केन्द्र मे जो आठ रुचकप्रदेश होते है, वे सदा निर्मल होते है। उन्हे किसी प्रकार के कर्म का बन्धन नही होता। जमियं जगई पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पन्ति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाहई, __णो तस्स मुच्चेज्जऽपुट्ठयं ॥३॥ [सू० अ० १, भ० २, उ० १, गा० ४] इस भूतलपर जितने भी प्राणी है, वे सब अपने-अपने सचित कर्मों के कारण ही संसार मे परिभ्रमण करते रहते है और स्वकृत Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्री महावीर-वचनामृत कमों के अनुसार ही भिन्न-भिन्न योनियों में पैदा होते हैं। पाजित कर्मों का फल भोगे विना प्राणी मात्र का छटकारा नहीं होता। विवेचन-जीव के उन्पत्ति-स्थान को योनि कहते है। योनियों की सान्या ८४ लाख इन प्रकार मानी जाती है : पृथ्वीकाय की योनि ७ लाख अपकाय की , ७ लाख तेजस्काय की , ७ लाख वायुकाय को , ७ लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय की १० लात साधारण , १४ लाख दो इन्द्रियवाले जीवों को २ लाख तीन इन्द्रियवाले जीवों को २ लाख चार इन्द्रियवाले जीवो की २ लाख देवताओं की ४ लाख नारकीयो की ४ लाख तिर्यच पन्चेन्द्रियों की ४ लाख मनुष्यों को १४ लाख ८४ लाख __ ये योनियाँ प्रवान रूप से नौ प्रकार की है:-(१) सचित्त, (२) अचित्त, (३) सचित्ताचित्त, (४) गीत, (५) उष्ण, () शीतोष्ण, (७) सवृत्त () विवृत्त, और (६) सवृत्त-विवृत्त। इनमे जो जीवप्रदेश वाली योनि है वह सचित्त, जीवप्रदेश से रहित है वह अचित्त, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद] [५३ और जो दोनो के मिश्रणवाली है वह सचित्ताचित्त। जिसका स्पर्श शीतल-ठडा है वह शीत, गर्म है वह उष्ण, और कुछ भाग मे शीत और कुछ भाग मे उष्ण हो वह शीतोष्ण। जो ढंकी हुई हो वह संवृत्त और जो खुली है वह विवृत्त तथा जो कुछ अश मे ढंकी हुई और कुछ अश मे खुली हो वह सवृत्त-विवृत्त । अन्य सम्प्रदाय भी ८४ लाख योनि को मान्यता रखते हैं, किन्तु उनकी गणना अन्य प्रकार से करते है। अस्सि च लोए अदु वा परत्था, सयग्गसो वा तह अन्नहा वा। संसारमावन्न परं परं ते, बंधंति वेदंति य दुन्नियाणि ॥४॥ [सू० श्रु० १, अ० ७, गा० ४] किये गये कर्म, इस जन्म मे अथवा अगले जन्म मे ही सही जिस तरह भी किये गये हो वे उसी तरह से अथवा अन्य प्रकार से फल देते है। ससार मे भ्रमण करता हुआ जीव मानसिक, वाचिक और कायिकादि दुष्कृतो के कारण निरन्तर नये-नये कर्म बांधता ही रहता है तथा उनका फल भोगता है। सच्चे सयकम्मकप्पिया, अवियत्तेण दुहेण पाणिणो। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] [श्री महावीर वचनामृत पड़ता है, वैसे ही कुछ कर्म से रहित होने पर सर्व दुःखों का अन्त हो जाता है। ___ अट्टदुहट्टियचित्ता जह जीवा दुःख सागरमुर्वेति जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्गं विहाडेति ॥१५॥ [औप० सू० ३४] जैसे आर्त्त-रौद्र ध्यान से विकल्प-चित्तवाले जीव दुःखसागर को प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैराग्यप्राप्त जीव कर्म-समूह को नष्ट कर डालते हैं। ____जह रागेण कडाण कम्माणं पावगो फलविवागो जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुर्वेति ॥१६॥ [औप० सू० ३५] जैसे राग (द्वष) द्वारा उपार्जित कर्मों का फल अनुचित होता है, वैसे ही सब कर्मों के क्षय से जीव सिद्ध होकर सिद्धलोक मे पहुँचता है। जह मिउलेवालित्तं गरुयं तुवं अहो वयइ एवं । आसवकयकम्मगुरु, जीवा वच्चंति अहरगई ॥१७॥ तं चेव तन्चिमुक्कं, जलोपरि ठाइ जायलहुभावं । जह तह कम्मविमुक्का, लोयग्गपइडिया होंति ॥१८॥ [शातासूत्र अ०६] जिस प्रकार तुम्बी पर मिट्टी को तहे जमाने से वह भारी हो Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [. कर्मवाद] जाती है, और डूबने लगती है, ठीक वैसे ही हिंसा, असत्य, चोरी व्यभिचार तथा मूर्छा-मोह इत्यादि आश्रवरूपी कर्म करने से आत्म पर कर्मरूपी मिट्टी की तहे जम जाती है और यह भारी वन अधोगति को प्राप्त हो जाती है। यदि तुम्बी के ऊपर की मिट्टी की तहे हट दी जायं तो वह हलकी होने के कारण पानी पर आजाती है और तैरने लगती है, वैसे ही यह आत्मा भी जब कर्म-वन्वनो से सर्वथ मुक्त हो जाती है, तब ऊर्ध्वगति प्राप्त करके लोकाग्र-भाग पर पहुंच जाती है और वहाँ स्थिर हो जाती है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा: ५: • कर्म के प्रकार अट्ठ कम्माई वोच्छामि, आणुपुन्निं जहकमं । जेहिं बद्धो अयं जीवो, संसारे परिवट्टई ।। १ ।। नाणस्सावरणिज्जं, दसणावरणं तहा। वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेब य ॥ २॥ नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य ।। एवमेयाई कम्माई, अट्ठव उ समासओ ॥ ३ ॥ मैं आठ कर्मों का स्वरूप यथाक्रम कहता हूं जिनसे बद्ध यह जीव ससार मे विविध पर्यायो का अनुभव करता हुआ निरतर परिभ्रमण करता रहता है। (१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र और (5) अतराय । विवेचन-आत्मा मिथ्यात्व, अविरति आदि दोषों के कारण कार्मण वर्गणाओं को अपनी ओर आकृष्ट करती है और जब ये कार्मणवर्गणाएं आत्मप्रदेश के साथ मिल जाती है, तव उसे 'कर्म' सज्ञा प्राप्त होती है। कर्म का मुख्य कार्य आत्मा की शक्तियो पर आवरण चढाना है। अतः इसे आत्मा का विरोधी तत्त्व माना जाता है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म के प्रकार ] [६१. कर्म के कुल आठ प्रकार है ज्ञानावरणीयादि । जिस कर्म के कारण आत्मा के ज्ञानगुण पर आवरण छा जाता है उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते है। यह कम आँख की पट्टीके के समान होता है। आँख मे देखने की शक्ति रहने पर भी पट्टी रहने के कारण वह बराबर देख नही सकती, वैसे ही आत्मा अनन्त ज्ञानवाली होने पर भी ज्ञानावरणीयकर्म के कारण बराबर जान नही पाती। जिस कर्म के द्वारा आत्मा की दर्शनशक्ति पर आवरण छा जाय उसे दर्शनावरणीय-कर्म कहते है। इसका कार्य राजा के प्रतिहारी जैसा होता है। जैसे प्रतिहारी राजा के दर्शन करने पर रोक लगाता है, वैसे ही दर्शनावरणीय कर्म आत्मा को वस्तुस्वरूप के दर्शन से रोकती है। जिस कर्म से आत्मा को साता (सुख) और असाता ( दुःख ) का अनुभव हो, उसे वेदनीय कर्म कहते है। यह कर्म शहद से लिपटी हुई तलवार की धार जैसा है। शहद लिपटी तलवार की घार चाटने पर जैसी साता उत्पन्न होती है-सुख मिलता है, वैसे ही जीभ कट जाने पर असाता उत्पन्न होती है, अत्यन्त पीड़ा होती है। यही बात आत्मा के विषय मे है। आत्मा मूलस्वरूप मे आदन्दघन होते हुए भी वेदनीय-कर्म के कारण वह कृत्रिम सुख-दुःखो का लगातार अनुभव करती रहती है। जिस कर्म के द्वारा आत्मा के सम्यक् श्रद्धान और सम्यक् चारित्ररूपी गुणो का अवरोध होता है, उसको मोहनीय-कर्म कहते हैं। यह कर्म मदिरापान के समान है। मदिरापान करने से मनुष्य में Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] [श्री महावीर-वचनामृत मानसिक विकार उत्पन्न होता है, वैसे ही मोहनीय-कर्म के कारण आत्मा की निर्मल श्रद्धा का विपर्यास हो जाता है और शुद्ध चारित्र मे विकृति उत्पन्न होती है। __जिस कर्म के फलस्वरूप आत्मा को एक शरीर मे नियत समय तक रहना पड़े उसे आयुकर्म कहते हैं । यह कर्म कैद जैसा है। जैसे कैद मे डाला हआ मनुष्य उसकी अवधि पूरी होने से पूर्व मुक्त नही हो सकता, वैसे ही आयुकर्म के कारण आत्मा तदर्थ नियत अवधि को पूर्ण किये विना धारण की हुई देह से मुक्त नही हो सकता। जिस कर्म के परिणामस्वरूप आत्मा मूर्तावस्था को प्राप्त हो तथा शुभाशुभ शरीर को धारण करे उसे नामकर्म कहते हैं। यह कर्म चित्रकार जैसा है। चित्रकार जैसे विविध रगो से चित्रों का निर्माण करता है, वैसे ही नामकर्म आत्मा के लिये धारण करने योग्य ऐसे अच्छे बुरे भिन्न-भिन्न रूप, रग, अवयव, यश, अपयश, सौभाग्य, दुर्भाग्य आदि का निर्माण करता है। जिस कर्म के द्वारा आत्मा को उच्च-नीचावस्था प्राप्त हो, उसे गोत्रकर्म कहते हैं। यह कर्म कुम्हार जैसा है। कुम्हार जैसे मिट्टी के पिंड से छोटे और बडे पात्र बनाता है, वैसे ही इस कर्म के द्वारा जीव को उन्नकुल मे अथवा नीचकुल मे जन्म धारण करना पडता है। जिस कर्म के द्वारा आत्मा की लब्धि-(शक्ति ) मे विघ्न उपस्थित हो, उसे अन्तरायकर्म कहते हैं। यह कर्म राजा के भण्डारी जैसा है। राजा की आज्ञा मिल चुकने पर भी जैसे भण्डारी के दिये विना भण्डार मे रही सागग्री प्राप्त नही होती, वैसे ही अन्तराय कर्म Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म के प्रकार] [६३ के कारण आत्मा की दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यरूप लब्धि का पूर्णरूपेण विकास नही होता। ___ मूलभूत स्वरूप मे जगत् के सभी जीव समान होने पर भी उनकी अवस्थाओ मे जो विचित्रता और विभिन्नता दीख पड़ती है, उसके मूल मे कर्म के उक्त प्रकार ही हैं। नाणावरणं पंचविहं, सुयं आभिणियोहियं । ओहिनाणं च तइयं, मणनाणं च केवलं ॥४॥ ज्ञानावरणीय कर्म पांच प्रकार के है :-(१) श्रुतज्ञानावरणीय, (२) मतिज्ञानावरणीय, (३) अवधिज्ञानावरणीय, (४) मनःपर्यायज्ञानावरणीय तथा (५) केवलज्ञानावरणीय । विवेचन-ज्ञान के पांच प्रकार हैं :--(१) आभिनिबोधिक अथवा मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःपर्यवज्ञान और (५) केवलज्ञान । इन पांचो ज्ञानो को अवरुद्ध करनेवाले अलग-अलग कर्म होते हैं, इसलिये ज्ञानावरणीय कर्म के पांच प्रकार माने गये हैं । यहाँ श्रुतज्ञानावरणीय कर्म प्रथम और मतिज्ञानावरणीय कर्म दूसरा कहा है, किन्तु ज्ञान के क्रमानुसार मतिज्ञानावरणीय पहला और श्रुतज्ञानावरणीय दूसरा समझना चाहिये। निदा तहेव पयला, निदानिद्दा य पयलपयला य । तत्तो अ थीणगिद्धी उ, पंचमा होई नायबा ॥५॥ चक्खुमचक्खू ओहिस्स, दंसणे केवले अ आवरणे। एवं तु . नवविगप्पं, नायव्वं दसगावरणं ॥६॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] [श्री महावीर-चकनामृत निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानद्धि ( थीणद्धी ) इस तरह निद्रा के पांच प्रकार है। इसके अतिरिक्त चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्गनावरणीय तथा केवलदर्शनावरणीय इस प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के अन्य और चार प्रकार है। अतः दर्शनावरणीय कर्म के कुल नौ । प्रकार समझने चाहिये। विवेचन-निद्रादर्शनशक्ति का अवरोध करनेवाली होने से उसकी गणना दर्शनावरणीय कर्म मे होती है। (१) मुखपूर्वक अर्थात् गन्दमात्र से जगा सके ऐसी निद्रा 'निद्रा कहलाती है। (२) दुःखपूर्वक अर्थात वहुत मकझोरने से जगाया जा सके ऐसी निद्रा 'निद्रानिद्रा कहलाती है। (३-४) बैठे अयवा खडे-खडे ही निद्रा आ जाय लेकिन उनमे से सुखपूर्वक जगाया जा सके ऐसी निद्रा को 'प्रचला' और दुःखपूर्वक जगाया जा सके उसे 'प्रचला-प्रचला' कहते हैं। (५) जिसमे दिन मे चिन्तित कार्य कर लिया जाय और कुछ पता ही न लगे, ऐसी गाढ निद्रा को 'स्त्यानद्धि अथवा 'योणतो' निद्रा कहते हैं। इस निद्रा मे मनुष्य का बल असाधारण रूप में वड जाता है। विज्ञान ने भी ऐसी निद्रा की सूचना दी है और इससे सम्बद्ध अनेक उदाहरणों का संग्रह किया है। (E) जो चक्षुरिन्द्रिय द्वारा होनेवाले सामान्य बोव को रोक दे वह बग्दर्शनावरणीय, (७) जो चनु के अतिरिक्त गेम गर न्द्रियाँ तथा पांचवे मन के द्वारा होते हुए सामान्य बोव को रोके वह बचादानापरणोप, (८) जो आत्मा को होनेवाले स्पा द्रव्य के सामान्य Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म के प्रकार ] [ ६ बोध को रोके वह अवधिदर्शनावरणीय और ( 8 ) जो केवलदर्शन द्वारा होनेवाले वस्तुमात्र के सामान्य बोध को रोके वह केवलदर्शनावरणीय । वेयणियं पि दुविहं, सायमसायं च आहियं । सायरस उ बहू भैया, एमेव असायन्स वि ॥७॥ वेदनीय कर्म दो प्रकार के कहे गये हैं : -- (१) सातावेदनीय और असातावेदनीय । इन दोनो के अवान्तर भेद अनेक है । विवेचन - जिसके द्वारा शारीरिक तथा मानसिक सुखशान्ति का अनुभव हो वह 'सातावेदनीय' और दुःख तथा अशान्ति का अनूभव हो वह 'असातावेदनीय' कर्म कहलाता है । दुविहं मोहणिज्जं पि दुविहं, दंसणे चरणे तहा । दंसणे तिविहं वृत्तं चरणे दुविहं भवे ॥८॥ मोहनीय कर्म भी दो प्रकार के है : -- (१) दर्शनमोहनीय और (२) चारित्रमोहनीय । इनमे दर्शनमोहनीय कर्म तीन प्रकार का और चारित्रमोहनीय कर्म दो प्रकार का कहा गया है । सम्मत्तं चैव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य । एयाओ तिष्णि पयड़ीओ, मोहणिज्जस्स दंसणे ॥६॥ (१) सम्यक्त्वमोहनीय, (२) मिथ्यात्वमोहनीय और (३) मित्रमोहनीय । इस प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म की तीन उत्तरप्रकृतियाँ हैं । विवेचन - आत्मा अपने अध्यवसाय के बल पर मिथ्यात्व के पुद्गलो को शुद्ध करे और उसमे से मिथ्यात्वकारी मल निकल जाय, उसे ५. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] [श्री महावीर-चनामृत सम्यक्त्वमोहनीय कर्म कहते हैं। इस कर्म का उदय होने से जीव को । सम्यक्त्व की प्राप्ति तो होती है ; परन्तु जब तक वह अस्तित्व मे रहता है, तब तक मोक्ष की एक शुद्ध अवस्यास्वरूप क्षायिक सम्यक्त्व को रोकता है। जिससे आत्मा मिथ्यात्व मे आसक्त हो जाय वह मिथ्यात्वमोहनीय-कर्म कहलाता है। मिथ्यात्व के उदय से जीव वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कथित तत्त्व को अतत्त्व और अज्ञकथित तत्त्व को तत्त्व मानता है, सत्य को असत्य और असत्य को सत्य मानता है। और इसीलिये वह तत्त्व का-सत्य का आग्रह न रखते हुए अरुचि रखता है। जो अतत्व का-असत्य का आग्रह रखता है, वह सत्य का साक्षात्कार नही कर सकता। ऐसी स्थिति मे वह अन्य प्रकार की आध्यात्मिक प्रगति मला कैसे कर सकता है ! जिससे न मिथ्यात्व और न सम्यक्त्व अर्थात् तत्त्व के प्रति रुचि मी नही और अरुचि भी नही-(कुछ मिथ्यात्व चला जाय और कुछ शेष रहे ) उसे मिश्रमोहनीय-कर्म कहते हैं। उपर्युक्त प्रकार के कर्मोदय के समय जीव तत्त्व और अतत्त्व सत्य और असत्य दोनो के प्रति समान वृत्ति धारण करता है। फलतः सत्य के लिए आग्रही नही बन सकता-यह स्थिति भी आध्यात्मिक प्रगति के लिये उतनी ही बाधक है। चरित्तमोहणं कम्मं, दुविहं तं वियाहियं । कसायमोहणिज्जं तु, नोकसायं तहेव य ॥१०॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , कर्म के प्रकार] [६७ चारित्रमोहनीव-कर्म दो प्रकार का कहा गया है :-(१) कषायमोहनीय और (२) नोपायमोहनीय । सोलसविहभेएणं, कम्मं तु कसायजं । सत्तविहं नवविहं वा, कम्मं च नोकसायजं ॥११॥ कपायमोहनीय-कर्म के सोलह प्रकार है और नोकपायमोहनीय__कर्म के सात अथवा नी प्रकार हैं। विवेचन--जीव के शुद्ध स्वरूप को कलुषित करनेवाला तत्त्व कपाय कहलाता है, अथवा जो अनेक प्रकार के सुख और दुःख के फलयोग्य कर्मक्षेत्र का कर्पण करता है-वह कषाय कहलाता है। अथवा जिससे कष, यानी ससार का, आय यानी लाभ हो अर्थात् संसार की वृद्धि हो वह कपाय कहलाता है। कषाय के मुख्य चार प्रकार हैं : (१) क्रोध, (२) मान (अभिमान ), (३) माया ( कपट ), तथा (४) लोभ (तृष्णा)। इन प्रत्येक के तरतमता के अनुसार (१) अनन्तानुवन्वी, (२) प्रत्याख्यानी, (३) अप्रत्याख्यानी तथा (४) सज्वलन ऐसे चार-चार भेद है। इस तरह कषाय के कुल सोलह प्रकार होते है। अनन्तानुवन्धी कषाय अत्यन्त तीव्र होते है। प्रत्याख्यानी कषाय केवल तीव्र होते है जबकि अप्रत्याख्यानी कषाय मन्द होते है और सज्वलन कषाय अति मन्द । कषाय की तरतमता को समझने के लिये जैन शास्त्रो मे निम्न दृष्टान्त दिये गये हैं Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] [श्री महावीर-वचनामृत क्रोध अनन्तानुबन्धी-पर्वत मे पड़ी हुई दरार के समान। जिस तरह पर्वत मे पड़ी दरार पुनः जुडती नही, वैसे ही इस प्रकार का क्रोध उत्पन्न होने पर जीवन भर शान्त होता नहीं। अप्रत्याख्यानी-पृथ्वी मे पड़ी हुई दरार के समान । जसे पृथ्वी मे पडी हुई दरार वर्षा आने पर पट जाती है, ठीक वैसे ही इस प्रकार का क्रोध उत्पन्न हुआ हो तो अधिक से अधिक एक वर्ष में शान्त हो जाता है। प्रत्याख्यानी रेती मे खोची हुई रेखा के समान । रेती मे खीची हुई रेखा वायु का झोका आने पर मिट जाती है, इसी तरह ऐसा क्रोध उत्पन्न हुआ हो तो अधिक से अधिक एक मास में गान्त हो जाता है। सज्वलन-पानी मे खीची गई रेखा के समान । पानी मे खीची गई रेखा जैसे शीघ्र नष्ट हो जाती है, वैसे ही इस तरह का क्रोध उत्पन्न हुआ हो तो अधिक से अधिक पन्द्रह दिन मे शान्त हो जाता है। मान अनन्तानुबन्धी-पत्थर के खम्भे के समान, जो किसी प्रकार __ मुक्तता ही नहीं। अप्रत्याख्यानी-हड्डी के समान, जो अत्यन्त कष्ट से भूतता है। प्रत्याख्यानी-काष्ठ के समान, जो उपाय करने पर भुकता है। सज्वलन-उत की लकड़ी के समान, जो सरलता से मुक जाता है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म के प्रकार] साया अनन्तानुबन्धी-बांस के कठोर जड जैसी, जो किसी प्रकार अपनी वक्रता को नही छोडती।। अपत्याख्यानी-भेड़ के सीग जैसी, जो बडे प्रयत्न से अपनी वक्रता __ छोडती है। प्रत्याख्यानी-बैल के मूत्र की धारा जैसी, जो वायु के झोके से दूर हो जाय। संज्वलन-बॉस की चीपट के समान । लोम अनन्तानुबन्धी-किरमच के रग जैसा, जो एक बार चढने पर उखड नही जाता। अप्रत्याख्यानी-गाडी के कीटे जैसा, जो एक बार वस्त्र को गन्दा __ कर लेने पर बहुत प्रयत्न से मिटता है। प्रत्याख्यानी-कीचड जैसा कि जो कपडो पर पड जाने पर सामान्य प्रयत्न से दूर हो जाता है। सज्वलन-हल्दी के रंग जैसा जो सूर्य की धूप लगते ही दूर हो जाय। नोकषाय के सात प्रकार होते है :-(१) हास्य, (२) रति, (३) अरति, (४) भय, (५) शोक, (६) जुगुप्सा और (७) वेद (जातीय सज्ञा--Sexual instinct )। यदि वेद के स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद आदि तीन प्रकार मान लें तो हास्यादि छह और तीन वेद मिलकर नौ प्रकार हो जाते है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्री महावीर वचनामृत नेरझ्यातिरिक्खाउं, मणुस्साउं तहेव य । देवाउअं चउत्थं तु, आउकम्मं चउनिहं ॥१२॥ आयुकर्म के चार प्रकार है- (१) नरकायु, (२) तीर्यचायु, (३) मनुष्यायु और (४) देवायु। विवेचन-जीव को जिसके कारण नरकयोनि मे रहना पड़े, वह नरकायु, तिर्यच योनि मे रहना पड़े, वह तिर्यचायु, मनुष्य योनि मे रहना पड़े, वह मनुष्यायु और देवयोनि मे रहना पडे, वह देवायु । नामकम्मं तु दुविहं सुहमसुहं च आहियं । सुहस्स उ वहू भेया, एमेव असुहस्स वि ॥१३॥ नामकर्म दो प्रकार का कहा गया है-(१) शुभ और (२) अशुम । शुभ नाम-कर्म के अनेक मेद है, और अशुभ नाम-कर्म के भी अनेक भेद है। विवेचन-जिसके योग से जीव को मनुष्य और देव की गति, सुन्दर अङ्ग-उपाङ्ग, अच्छा स्वरूप, वचन को मधुरता, लोकप्रियता, यशस्विता आदि प्राप्त हों, वह शुभ नामकर्म कहा जाता है। और नरक तथा तिर्यच की गति, वेडोल अङ्ग-पाङ्ग, पुल्पता, वचन की कठोरता, अप्रियता, अपयश आदि प्राप्त हों वह अशुभ नामकर्म कहा जाता है। शुभ नाम-कर्म के अनन्त भेद है, किन्तु मध्यम अपेक्षा से ३७ भेद माने जाते है और अनुभ नाम-कर्म के भी अनन्त भेद है, किन्तु मध्यम अपेक्षा से ३४ भेद माने जाते है। इनका विस्तार कर्मग्रन्थों से जानना। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७१ कर्म के प्रकार] गोयकम्मं तु दुविहं, उच्चं नीयं च आहियं । उच्च अट्ठविहं होइ, एवं नीयं वि आहियं ॥१४॥ गोत्रकर्म दो प्रकार का होता है-(१) उच्च और (२) नीच । इन दोनो के आठ-आठ और प्रकार कहे गये है। विवेचन-उच्च गोत्रकर्म के आठ प्रकार इस तरह समझना चाहिये :--(१) उच्च जाति मे उत्पन्न होना, (२) उच्च कुल में उत्पन्न होना, (३) बलवान् बनना, (४) सौन्दर्यशाली होना, (५) तपस्वी बनना, (६) यथेष्ठ अर्थप्राप्ति होना, (७) विद्वान् बनना और (८) सम्पत्तिशाली बनना। जबकि नीचगोत्रकर्म के आठ प्रकार इनसे विपरीत समझना चाहिए। दाणे लाभे य भोगे य, उवभोगे वीरिए तहा । पंचविहमंतरायं, समासेण वियाहियं ॥१२॥ [उत्त० अ० ३३, गा० १ से १५ ] अन्तराय कर्म को सक्षेप मे पांच प्रकार का कहा गया है(१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय । विवेचन-दान देने की वस्तु विद्यमान रहने पर तथा उसके देने से होनेवाले लाभो का ज्ञान होते हुए भी, जिसके कारण दान नहीं दिया जा सके, वह दानान्तराय-कर्म कहलाता है। इसी तरह प्रयत्न करने पर भी जिस कारण किसी वस्तु का लाभ न हो उसे लाभान्तरायकर्म कहते है । खान-पानादि सभी सामग्रियो के विद्यमान होने पर Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्री महावीर वचनामृत भी जिस वजह उसका खाने-पीने मे उपयोग न किया जा सके और कदाचित् खा-पी सके तो उसका पाचन न हो सके वह भोगान्तरायकर्म । जो एक बार ही काम में आये उसे भोग्य पदार्थ कहते हैं, से भोजन, पानी आदि। जो बार-बार उपयोग में लिया जा सके उसे उपभोग्य कहते हैं, जैसे वस्त्र, आभूषण आदि । जिसके कारण उपभोग की सामग्री जब चाहिये तब और जितने प्रमाण मे चाहिए ज्तने प्रमाण मे स्वाधीन रहते हुए भी उपयोग में न आ सके, वह उपमोगान्तराय कर्म । और जिसके उदय मात्र से स्वय युवा और दलवान् होने पर भी कोई कार्य सिद्ध न कर सके वह वीर्यान्तराय-कर्म कहलाता है। उदहीसरिसनामाणं, तीसई कोडिकोडीओ। उक्कोसिया ठिई होई, अन्तोमुहुत्तं जहणिया ॥१६॥ आवरणिजाण दुण्हं पि, वेयणिज्जे तहेव य । अन्तराए य कम्ममि, ठिई एसा वियाहिया ॥१७॥ [उत्त० अ० ३३, गाः १६-२०] ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय तथा अन्तराय इन चार कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम की होती है। विवेचन-जब आत्मप्रदेशों के माय कर्म का बन्धन होता है, समी उसकी स्थिति अर्थात् टिक्ने का समय भी निश्चित हो जाता है। बतः वे इतने समय तक बात्मा के साथ बने रहते हैं। उसका Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म के प्रकार ] [ ७३ जघन्य अर्थात् कम से कम और उत्कृष्ट अर्थात् अधिक से अधिक कितना प्रमाण होता है; इसी बात का यहाँ स्पष्टीकरण किया गया है । नौ समय से लेकर दो घडी मे एक समय न्यून को अन्तर्मुहूर्त कहते हैं । उदहीसरिसनामाणं, सत्तरिं कोडिकोडीओ । | मोहणिज्जस्स उक्कोसा, अन्तोमुहुत्तं जहणिया ॥ १८ ॥ तित्तीसं सागरोवमा, उक्कोसेण वियाहिया । ठिई उ आउकम्मस्स, अन्तोमहुत्तं जहणिया ॥ १६ ॥ उदहीसरिसनामाणं वीसई कोडिकोडिओ | नामगोत्ताण उक्कोसा, अट्ठ मुहुत्ता जहणिया ॥२०॥ [ उत्त० अ० ३३, गा० २१-२२-२३ ] मोहनोयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है । आयुष्य कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है । नामकर्म और गोत्रकर्म की उत्कृष्ट-स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम और जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त की होती है । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा :६: दुर्लभ संयोग चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥१॥ इस संसार मे प्राणी मात्र को मनुष्यजन्म, धर्मश्रवण, श्रद्धा और संयम की प्रवृत्ति जैसे चार उत्तम अङ्गों की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लम है। समावण्णाण संसारे, णाणागोत्तासु जाइसु । कम्मा णाणाविहा कट्ट, पुढो विस्संभिया पया ॥२॥ संसार मे भिन्न-भिन्न गोत्र और जाति मे पैदा हुए जीव विविध कर्म करके ससार मे भिन्न-भिन्न स्वरूप मे उत्पन्न होते हैं। एगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया। एगया आसुरं कायं, आहाकम्मेहिं गच्छई ॥३॥ अपने कर्म के अनुसार यह जीव किसी समय देवलोक मे, किसी समय नरक मे तो किसी समय असुरकाय मे ( भुवनपति इत्यादि मे) उत्पन्न होता है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्लभ संयोग ] एगया खत्तिओ होई, तओ चंडाल वुक्कसो । तओ कीड - पयंगोय, तओ कुंथू - पिवीलिया ॥४॥ a जीव किसी समय क्षत्रिय, किसी समय चाण्डाल, किसी समय बुक्कस, ( वर्णसंकर जाति), किसी समय कोट, किसी समय पतंग, किसी समय कुंथू और किसी समय चीटी भी बनता है । एवमाचट्टजोणीसु, पाणिणो कम्मकिव्विसा । पण णिविज्जति संसारे, सव्वसु व खत्तिया ॥ ५॥ [ ७५ सर्वप्रकार की ऋद्धि-वैभव होने पर भी जिस तरह क्षत्रियो की राज्यतृष्णा शान्त नही होती, ठीक उसी तरह कर्मरूपी मैल से लिपटे जीव भी अनेकविध योनियो मे परिभ्रमण करने के बावजूद भी विरक्त नही होते । | कम्मसंगेहिं सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा | अमाणुसासु जोणीसु, विणिहम्मन्ति पाणिणो ॥ ६ ॥ कर्म के सम्बन्ध से मूढ बने हुए प्राणी असख्य वेदनाएं प्राप्त कर तथा दुःखी होकर मनुष्ययोनि के अतिरिक्त दूसरी योनियो में जन्म धारण कर बार-बार हना जाता है । कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुत्री कयाइ उ । जीवा सोहिमणप्पत्ता, आययति मणुस्सयं ॥७॥ क्रमशः अर्थात् एक योनि मे से दूसरी योनि में भटकते हुए, की गई अकामनिर्जरा के कारण कर्मों का भार हलका हो जाने Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] [श्री महावीर-वचनामृत से जीव-शुद्धि को पाता है और किसी समय मनुष्ययोनि मे जन्म धारण करता है। __ विवेचन–अज्ञान अथवा मूढ दशा मे दुःख सहन करते हुए कर्म की जो निर्जरा होती है, वह अकामनिर्जरा कहलाती है। मानव-जन्म की दुर्लभता समझने के लिये श्रीभद्रबाहुस्वामी ने श्री उत्तराध्ययन-सूत्र की नियक्ति मे निम्नलिखित दस दृष्टान्त दिये हैं : (१) चूल्हे का दृष्टान्त-चक्रवर्ती राजा छह खण्ड पृथ्वी का अधिपति होता है। उसके राज्य में कितने चूल्हे होते हैं ? प्रथम चक्रवर्ती के चूल्हे पर भोजन हो और वाद मे प्रत्येक चूल्हे पर भोजन करना हो तो चक्रवर्ती के चूल्हे पर भला पुनः भोजन का कव अवसर आवे ? (२) पासों का दृष्टान्त-किसी खेल में यन्त्रमय पासों का उपयोग करके किसी का सारा धन जीत लिया गया हो और उस 'पराजित मनुष्य को अक्ष-क्रीड़ा से फिर अपना धन प्राप्त करना हो, तो भला कब तक प्राप्त हो? (३) धान्य का दृष्टान्त-लाखों मन घान्य के ढेर मे यदि सरसो के थोडे दाने मिला दिये हों और उन्हें वापस निकालने का प्रयत्न किया जाय तो भला कव मिल सकते हैं। (४) धूत-क्रीडा का दृष्टान्त-किसी राजमहल के १००८ स्तम्भ हो और उनमे से प्रत्येक स्तम्भ के १०८ विभाग हों तथा उक्त प्रत्येक विभाग को जूआ मे जीतने पर ही राज्य मिलता हो, तो भला वह राज्य कब मिल सकेगा ? Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्लभ सयोग ] [ ७७ (५) रत्न का दृष्टान्त - सागर मे प्रवास करते समय पास मे रहे रत्न अगाध जल मे डूब जायँ तो भला खोज करने के बावजूद भी वे रत्न कब तक मिल सकेंगे ? (६) स्वप्न का दृष्टान्त - राज्य की प्राप्ति करानेवाला शुभ स्वप्न देखा हो और उससे राज्य की प्राप्ति भी हो गई हो । यदि ऐसा ही स्वप्न पुनः लाने के लिये कोई प्रयत्न करे, तो भला ऐसा स्वप्न पुनः कब ला सकता है ? (७) चक्र का दृष्टान्त - चक्र अर्थात् राधावेध | खम्भे के ऊंचे सिरे पर यन्त्र - प्रयोग से चक्राकार मे एक पुतली घूमती हो, उसका नाम राधा । स्तम्भ के नीचे तेल की कढाई उभलती हो, खम्भे के मध्य भाग मे एक तराजू बिठा दिया गया हो और उसमे खड़े रहकर नीचे की कढाई मे पडे राधा के प्रतिबिंब के आधार पर बाण मारकर उसकी बाई आँख बीघना हो तो भला कब बीघ सकता है । (८) चर्म का दृष्टान्त-यहां चर्म शब्द का अर्थ चमडे जैसी मोटी सरोवर के ऊपर की शैवाल है । किसी पूर्णिमा की रात्रि मे वायु के तेज झोका से शैवाल जरा इधर-उधर हो जाय, फलस्वरूप उसके नीचे छिपा हुआ कोई कछुआ चन्द्रमा के दर्शन कर ले और यदि वह पुनः वैसा ही चन्द्र-दर्शन अपने सगे-सम्बन्धियो को कराना चाहे तो भला कब करवा सकता है ? वायु के झोको से उसी स्थान पर शैवाल का इधर-उधर खिसकना और वैसे ही पूर्णिमा को रात्रि का होना, यह सब कितना दुर्लभ है ? Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ [श्री महावीर-वचनामृत (६) युग का दृष्टान्त-युग अर्थात् धुरा जूड़ा । बैल के कन्धे पर उसे वरावर बिठाने के लिये लकडी के एक छोटे डण्डे का उपयोग किया जाता है। यदि वह जूडा महासागर के एक छोर से पानी मे डाली गई हो और दूसरे छोर से लकड़ी, तो भला उस जूडे पर वह लकड़ी कब बैठ सकेगी ? (१०) परमाणु का दृष्टान्त-एक स्तम्भ का अत्यन्त महीन चूर्ण करके फूंकनी मे भर दिया हो और किसी पर्वत के शिखर पर खड़ा होकर फूंक द्वारा उसे हवा में उड़ा दिया जाय तो भला उक्त चूर्ण के सभी परमाण पुनः कब एकत्र हो सकते हैं ? __यदि इन सभी प्रश्नों का उत्तर 'बहुत समय और बहुत कष्ट के बाद' यही है तो मनुष्यजन्म भी दीर्घाववि के पश्चात् और अत्यधिक कष्टों के बाद प्राप्त होता है, अर्थात् वह अतिदुर्लभ है। माणुस्सं विग्गहं ल , सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोचा पडिवजन्ति, तवं खन्तिमहिंसियं ॥८॥ कदाचित् मनुष्यजन्म मिल भी जाय तो भी धर्मशास्त्र के वचन सुनना अत्यन्त दुर्लभ है, जिन्हे सुनकर जीव तप, क्षमा तथा अहिंसा को स्वीकार करता है। आहच सवणं लद्ध, सद्धा परमदुल्लहा । सोचा गेयाउयं मग्गं, वहवे परिभस्सई ॥ ६ ॥ कदाचित् धर्मशास्त्रों के वचन सुन भी ले, तो भी उस पर श्रद्धा होना अति दुर्लभ है। न्यायमार्ग पर चलने की बात सुनकर भी बहुत Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्लभ संयोग] [७६ से लोग ( उसका अनुसरण नहीं करते और दुराचारी स्वच्छन्दी जीवन बिताकर ) भ्रष्ट बन जाते है। सुई च लडु सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं । वहवे रोयमाणा वि, णो य णं पडिचजई ॥ १० ॥ कदाचित् धर्मशास्त्रों के वचन सुने हो और उन पर श्रद्धा भी जम गई हो, पर सयम-मार्ग मे वीर्यस्फुरण होना अर्थात् प्रवृत्ति करना अत्यन्त कठिन है। बहुत से लोग श्रद्धासम्पन्न होते हुए भी सयममार्ग मे प्रवृत्त नही होते। माणुसत्तम्मि आयाओ, जो धम्म सोच्च सद्दहे । तवस्सी चीरियं लद्ध, संवुडे निणे रयं ॥ ११ ॥ जो जीव मनुष्य-जीवन प्राप्त करके धर्मशास्त्र के वचन सुनता है, उस पर श्रद्धा रखता है, और सयम-मार्ग मे प्रवृत्त होता है, वह तपस्वी और सवृत्त ( सवरवाला ) बनकर अपने (बद्ध और बद्धयमान) सभी कर्मों का क्षय कर देता है, अर्थात् मुक्ति प्राप्त करता है। सोही उज्जुभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। निवाणं परमं जाइ, घयसित्तेव पावए ॥ १२ ॥ सरलता से युक्त आत्मा की शुद्धि होती है और ऐसी आत्मा मे ही धर्म स्थिर रह सकता है। घृत से सीची हुई अग्नि के समान वह देदीप्यमान होकर परम निर्वाण ( मुक्ति ) को प्राप्त करता है। विगिंच कम्मुणो हेडं, जसं संचिणु खंतिए। पाढवं सरीरं हिच्चा, उड्डूं पक्कमई दिसं ॥ १३ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] [श्री महावीर-चनामृत कर्मों के कारण को अर्यात मिथ्यात्व, अविरति आदि को दूर करो। क्षमा, सरलता, मृदुता, निर्लोभतादि प्राप्त कर यश का संचय करो। ऐसा करनेवाला मनुष्य पार्थिव शरीर छोडकर ऊर्ध्व दिशा की ओर प्रयाण करता है, अर्थात् स्वर्ग अथवा मोक्ष मे जाता है । विसालिसेहिं सीलेहिं, जक्खा उत्तर उत्तरा । -महासुक्का व दिप्पंता, मन्नंता अपुणच्चयं ॥ १४ ॥ - उत्कृष्ट आचारो का पालन करने से जीव उत्तरोत्तर विमानवासी देव बनता है। वहां वह अतिशय सुशोभित और देदीप्यमान शरीर धारण करता है तथा स्वर्गीय सुखों मे इतना लीन हो जाता है कि 'मुझे अब यहाँ से च्यवित नही होना है' ऐसा समझ लेता है। अप्पिया देवकामाणं, कामरूवविउविणो । उडूं कप्पेसु चिट्ठति, पुवा वाससया बहू ॥ १५ ।। देव सम्बन्धित काम-सुखों को प्राप्त एव इच्छानुसार रूप धारण करने की शक्तिवाले ये देव अनेक सैकड़ों पूर्व वर्षों तक ऊंचे स्वर्ग में रहते हैं। विवेचन-एक पूर्व-७०५६०००००००००० सत्तर हजार पाँच सौ साठ अरव वर्ष। तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्सए चुया । उर्वति माणुसं जोणिं, से दसंगेऽभिजायइ ॥ १६ ॥ __ वहाँ अपने-अपने स्थान रहे हुए ये देव आयुष्य का क्षय होने पर मनुष्ययोनि को प्राप्त करते हैं और उन्हे दस अगो की प्राप्ति होती है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करत ह। दुर्लभ संयोग] खेत्तं वत्थु हिरणं च, पसवो दास-पोरुसं । चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववज्जइ ॥१७॥ ___ उक्त स्वर्ग मे से च्यवित देव जहाँ क्षेत्र (खुली जगह-बागबगीचा आदि ), वास्तु ( मकान, महल आदि), हिरण्य ( सोना, चांदी, जवाहरात, आदि) और पशु तथा दास-दासी रूपी चार कामस्कन्ध अर्थात् सुखभोग की सामग्री हों, वहाँ जन्म धारण करते है। मित्तवं नाइवं होइ, उच्चागोते य वण्णवं । अप्पायके महापन्ने, अभिजाय जसो बले ॥१८॥ [ऊपर चार काम-स्कन्वरूपी एक अग का निर्देश किया गया है। शेष अन्य नौ अगो का वर्णन इस गाथा मे किया गया है ] (२) उसके अनेक सन्मित्र होते है, (३) उसके बहुत से कुटुम्बिजन होते है, (४) वह उत्तम गोत्र मे जन्म लेता है, (५) सौन्दर्यशाली होता है, (६) व्याधि-रहित होता है, (७) बुद्धि-सम्पन्न होता है, (८) विनयी होता है, (६) यशस्वी होता है और (१०) बलवान् भी होता है। इस प्रकार उसे दस अग की प्राप्ति होती है। भोच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूवे अहाउयं । पुर्वि विसुद्ध सद्धम्मे, केवलं बोहि बुझिया ॥१६॥ आयुष्य के अनुसार मनुष्य योनि के उत्तमोत्तम भोग भोगकर तथा पूर्वभव मे किये हुए शुद्ध धर्म के आचरण के फलस्वरूप वह सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] [श्री महावीरवचनामृत हे पुरुष! तू आत्मा के साथ ही युद्ध कर । बाहरी शत्रुओं के साथ भला किस लिये लड़ता है ? आत्मा के द्वारा ही आत्मा को जीतने मे सच्चा सुख मिलता है। पंचिंदियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चेव अप्पाणं, सन्नं अप्पे जिए जियं ॥१०॥ [उत्त० भ० ६, गा० ३६] पाँच इन्द्रियो, क्रोध, मान, माया और लोभादि की वृत्तियां दुर्जय हैं, ठीक वैसे ही आत्मा को जीतना बहुत कठिन है। जिसने आत्मा को जीत लिया उसने सबको जीत लिया। न तं अरी कंठछित्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ॥११॥ [उत्त० अ० २०, गा०४८] दुराचार मे प्रवृत्त आत्मा हमारा जितना अनिष्ट करती है, उतना अनिष्ट तो गला काटने वाला कट्टर शत्रु भी नहीं करता। ऐसा निर्दयी मनुष्य मृत्यु के समय अवश्य अपने दुराचार को पहचानेगा और फिर पश्चात्ताप करेगा। जो पचहत्ताण महन्बयाई, सम्मं च नो फासयई पमाया । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-जय] [८५ अनिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे, न मूलओ छिन्दइ बंधणं से ॥१२॥ उत्त० भ० २०, गा० ३६] जो साधक प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् भी प्रमादवश अङ्गीकृत महानतों का उचित रूप से पालन नहीं करता और विविध रसो के प्रति लोभी बनकर अपनी आत्मा का निग्रह नही करता उसके बन्धन जड भूल से कभी नष्ट नहीं होते। से जाणं अजाणं या, कटु आहम्मियं पयं । संवरे खिप्पमप्पाणं, बीयं तं न समायरे ॥१३॥ [द० अ०८, गा० ३१ ] यदि विवेकी मनुष्य जाने-अनजाने मे कोई अधर्म कृत्य कर बैठे तो उसे अपनी आत्मा को शीघ्र ही उस से दूर कर ले और फिर दूसरी बार वैसा कार्य नही करे। पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिनिगिज्झ एवं दुक्खा पमो. क्खसि ॥१४॥ [आ० अ० ३, उ० ३, सू० ११६ ] हे पुरुष ! तू अपनी आत्मा को ही वश मे कर। ऐसा करने से तू सब दुःखो से मुक्त हो जायगा। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा:८: मोक्षमार्ग नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एयमग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छंति सोग्गई ॥१॥ [उत्त० अ० २८, गा०३] ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप [ये मोक्षमार्ग है। ] इस मार्ग पर चलनेवाले जीव सुगति में जाते हैं। विवेचन-सभी मुमुक्ष मोक्षप्राप्ति की अभिरुचि रखते हैं, परन्तु मोक्ष की इस अवस्था पर पहुंचने का सच्चा विश्वास पात्र मार्ग कौनसा है ? यह जानना आवश्यक है। इसीलिये यहां स्पष्ट किया गया है कि ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप की यथार्थ आरावना ही मोक्षप्राप्ति का सच्चा मार्ग है। इस मार्ग का अनुसरण करनेवाले अवश्य सुगति में अर्थात् मोक्ष में जाते है। . नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे । चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥२॥ - [उत्त० म० २८, गा० ३५] ज्ञान से पदार्थ जाने जा सकते हैं, दर्शन से उस पर श्रद्धा होती Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग] [८६ है, चारित्र से कर्म का आस्रव रुकता है और तप से आत्मा की सम्पूर्ण शुद्धि होती है। तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिणिवोहियं । ओहिनाणं तु तइयं, मणनाणं च केवलं ॥३॥ [उत्त० म० २८, गा० ४] इनमें ज्ञान पाँच प्रकार का है :-(१) आभिनिबोधिक, (२) श्रुत, (३) अवधि, (४) मनःपर्यव और (५) केवल ।। विवेचन-मोक्ष के चतुर्विध साधनो मे ज्ञान का क्रम पहला है, अतः उसका वर्णन प्रथम किया गया है। जिसके द्वारा वस्तु का ज्ञान हो, वस्तु पहचान मे आवे, अथवा वस्तु समझी जाय, वह ज्ञान कहलाता है। इसके पांच प्रकार है, आभिनिबोधिक आदि। पाँच इन्द्रियाँ तथा छठे मन के द्वारा जो अर्थाभिमुख निश्चयात्मक बोध होता है वह आभिनिबोधिक ज्ञान कहलाता है। इसी को मतिज्ञान भी कहते हैं । हम स्पर्श कर, चख कर, सूघ कर, देख कर तथा सुन कर जो ज्ञान प्राप्त करते है, वह मतिज्ञान है। इस ज्ञान की प्राप्ति चार भूमिकाओं में होती है। जिसमें से 'पहली भूमिका का नाम अवग्रह है, दूसरी का ईहा, तीसरी का अपाय और चौथी का घारणा। एक वस्तु का स्पर्श होने पर कुछ है' ऐसा जो ज्ञान अव्यक्तरूप में होता है वह अवग्रह कहलाता है । 'यह क्या होगा ?' ऐसा जो विचार पैदा होता है वह है ईहा । यह वस्तु वही है' ऐसा जो निर्णय होता है वह अपाय कहलाता है । तथा 'मुझे इस वस्तु का स्पर्श हुआ' Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] [श्री महावीर-वचनामृत ऐसा जो स्मरण, वह धारणा कहलाती है। लकडी का स्पर्श होते ही 'लकडी का स्पर्श मझे हमा' ऐसा अनभव होता है। किन्त इतनी अवधि मे तो उक्त चारों क्रियाएँ अत्यन्त शीघ्रता से हो जाती हैं। अज्ञात वस्तु का स्पर्श होने पर ये क्रियाएं मन्दगति से होती हैं, तव उसका ज्ञान होता है, जबकि चिरपरिचित वस्तु मे उपयोग अति शीघ्र रहता है, इसलिये उसका ज्ञान नही होता। . श्रतज्ञान का सादा अर्थ है--सुनकर प्राप्त किया हुआ ज्ञान । हम व्याख्यान सुनकर अथवा पुस्तक पढकर जो ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह यह दूसरे प्रकार का श्रुतज्ञान है। प्रत्येक ससारी जीव मे ये दोनो ज्ञान व्यक्त अथवा अव्यक्त रूप मे अवश्य रहते हैं। ___ आत्मा को रूपी द्रव्यो का अमुक काल और अमुक क्षेत्र तक मर्यादित जो ज्ञान होता है वह है अवधिज्ञान । दूसरे के मन के पर्यायों-भावों का जो ज्ञान होता है वह है मनःपर्यव अथवा मनःपर्यवज्ञान है, और प्रत्येक वस्तु के सभी पर्यायों का सर्वकालीन जो ज्ञान होता है वह है केवलज्ञान । अवधिज्ञान नारकीय और देव के जीवों को सहज मे होता है अर्थात् वे जन्म लेते हैं तब से ही अवधिज्ञान से युक्त होते हैं, जबकि तिर्यच तथा मनुष्यों को यह ज्ञान विशिष्ट लब्धि से प्राप्त होता है । मनःपर्यव और केवलज्ञान केवल मनुष्य को ही प्राप्त होता है और उसके लिये विशिष्टावस्था की अपेक्षा रहती है। , अवधि, मनःपर्यव और केवल ये तीनों ज्ञान इन्द्रिय और मन Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६१ .मोक्षमार्ग] की सहायता के बिना आत्मा को सीधे हो प्राप्त होते है, अतः इनकी गणना प्रत्यक्ष-ज्ञान में की जाती है। इसकी अपेक्षा आभिनिबोधिक ज्ञान तथा श्रुतज्ञान परोक्ष है, जबकि व्यवहार की गणना इससे भिन्न है। व्यवहार मे इन्द्रिय और मन के निमित्त से होनेवाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते है और अनुमान, शब्द आदि से होनेवाले सीधे ज्ञान को परोक्ष कहते है। शास्त्रकारो ने संव्यवहारिकप्रत्यक्ष और संव्यवहारिक-परोक्ष के रूप मे इसकी सूचना दी है। एयं पंचविहं नाणं, दवाण य गुणाण य । पजवाणं य सम्वेसि, नाणं नाणीहि देसियं ।।४।। [उत्त० भ० २८, गा०५] सर्वद्रव्य, सर्वगुण और सर्वपर्यायो का स्वरूप जानने के लिये ज्ञानियो ने पांच प्रकार का ज्ञान बतलाया है। विवेचन-इस कथन का तात्पर्य यह है कि कोई भी ज्ञेय वस्तु इन पांच ज्ञान की मर्यादाओ से बाहर नही है। ___पाँच ज्ञानो का स्वरूप तथा उनकी प्रक्रिया नन्दिसूत्र तथा विशेषावश्यकभाष्य मे विस्तारपूर्वक समझाई गई है। * जीवाज्जीवा बंधो य, पुण्णं पावाऽसवो तहा। संवरो निजरा मोक्खो, संते ए तहिया नव ॥॥ [उत्त० अ० २८, गा० १४] * इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए सम्पादक द्वारा गुजराती माध्यम से लिखी गई 'ज्ञानोपासना' (धर्मबोध-ग्रन्थमाला की भाठवीं पुस्तक) देखनी चाहिये। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] [श्री महावीर वचनामृत (१) जीव, (२) अजीव, (३) बंध, (४) पुण्य, (५) पाप, (६) आश्रव, (७) सवर, (८) निर्जरा और () मोक्ष ये नव तत्त्व है। विवेचन-इस जगत् मे जो कुछ जानने योग्य है, उसे ज्ञेय तत्त्व कहते हैं ; जो कुछ छोड़ने योग्य है, उसे हेय तत्त्व कहते हैं, और जो कुछ आदरने योग्य है, उसे उपादेय तत्त्व कहते हैं। इन तीनों तत्त्वों के विस्तार के रूप मे ही नव तत्त्वो की योजना की गई है। ज्ञेय तत्त्व के दो प्रकार हैं:-जीव और अजीव । इन दोनों तत्त्वो का परिचय पहले दिया जा चुका है। हेय तत्त्व के तीन प्रकार है :-आस्रव, बन्ध और पाप। जिससे कर्म आत्मप्रदेश की ओर खिंचा जाता हैं, वह आत्रव, जिससे कर्म आत्मप्रदेश के साथ ओतप्रोत हो जायं, वह बन्च, और जिससे आत्मा को अशुभ फल भोगना पड़े वह पाप । उपादेय तत्त्व के चार प्रकार हैं:-सवर, निर्जरा, मोक्ष और पुण्य । आस्रव को रोकनेवाली क्रिया सवर कहलाती है, आत्मप्रदेशों के साथ ओतप्रोत बने हुए कर्मों का अल्ल अयवा अधिक अश मे पृथक् हो जाना उसे निर्जरा कहते हैं, सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाने को मोक्ष कहते हैं तथा शुभफल देनेवाला कर्म पुण्य कहलाता है। इनमे पुण्य कथमित् उपादेय है, क्योंकि उससे सत्साधनों की प्राप्ति होती है, किन्तु मोक्ष मे जाने के लिये उसका भी क्षय होना आवश्यक है। नवतत्त्व-प्रकरण तथा सटीक कर्मग्रन्थों मे नवतत्त्वों के सम्बत्व मे उपयोगी जानकारी दी गई है। सम्पादक ने 'जन-धर्मदर्शन' नामक अपने वृहद् अय में इस विषय प्पर वैज्ञानिक तुलना के साथ विस्तृत विवेचन किया है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग] [६३ तहियाणं तु भावाणं, सम्भावे उवएसेणं । भावेण सद्दहंतस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ॥६॥ [उत्त ० अ० २८, गा० १५] स्वभाववश अथवा उपदेश के कारण इन तत्त्वो के यथार्थस्वरूप मे भावपूर्वक श्रद्धा रखना, उसे सम्यगदर्शन कहते है।। विवेचन-सम्यग्दर्शन का अर्थ है तत्त्वो के यथार्थस्वरूप की भावपूर्वक श्रद्धा । वह स्वभाव से अर्थात् नैसर्गिक रीति से और उपदेश से अर्थात् गुरुजनो के व्याख्यानादि श्रवण करने से यो दो प्रकार से होती है। श्री उमास्वातिवाचक ने तत्त्वार्थधिगमसूत्र के प्रथम अध्याय मे- 'तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शनम्' और 'तन्निसर्गादघिगमाद् वा' इन दो सूत्रों द्वारा उसकी स्पष्टता की है। परमत्थसंथवो वा, सुदिपरमत्थसेवणा वा। वावन्नकुदंसणवज्जणा य, सम्मत्तसद्दहणा || [उत्त० भ० २८, गा० २८] परमार्थसंस्तव, परमार्थज्ञातृसेवन, व्यापन्नदर्शनी का त्याग और कुदर्शनी का त्याग, ये सम्यग् दर्शन से सम्बन्धित श्रद्धा के चार अग है। विवेचन-परमार्थसस्तव का अर्थ है तत्त्व की विचारणा, तत्त्व सम्बन्धी परिशीलन। परमार्थज्ञातृसेवन का अर्थ है तत्त्व को जाननेवाले गीतार्थ गुरुजनों के चरणों की सेवा । व्यापन्नदर्शनी का अर्थ है जो एक बार सम्यक्त्व से युक्त हो, किन्तु किसी कारणवश उससे Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] [श्री महावीर-वचनामृत भ्रष्ट हो गया हो। कुदर्शनी का अर्थ है मिथ्यादर्शन की मान्यता रखनेवाला । इन-चार अगो मे से आरम्भ के दो अंग श्रद्धा को पुष्ट करनेवाले हैं जबकि शेष दो अग श्रद्धा का सरक्षण करनेवाले हैं। नादसणिस्स नाणं, नाणेण विना न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निवाणं ।।८।। . [उत्त० म० २८, गा० ३०] -. सम्यग् दर्शन के विना सम्यग् ज्ञान नही होता , सम्यग् ज्ञान के विना सम्यक् चारित्र के गुण नही आते , सम्यक् चारित्र के गुणों के विना सर्व कर्मों से छुटकारा नही होता , और सर्व कर्मों से छुटकारा पाये विना निर्वाण की प्राप्ति नही होती। . . विवेचन-ज्ञान से पदार्थों को जाना जा सकता है और दर्शन से उसपर श्रद्धा होती है, इसलिये 'नाण दसण चेव' यह क्रम दिखलाया है। परन्तु जीव मात्र का मोक्षमार्ग की ओर सच्चा प्रस्थान तो सम्यग् दर्शन को-सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के पश्चात् ही होता है; यह वस्तु यहां स्पष्ट की गई है। जिसे सम्यग दर्शन प्राप्त हो, उसे ही सम्यग् ज्ञान होता है। इसका अर्थ यह है कि सम्यक्त्व की प्राप्ति मे पूर्व जीव को जो कुछ ज्ञान रहता है, वह वास्तव मे अज्ञान ही है , क्योकि मोक्षप्राप्ति मे वह उपकारक सिद्ध नहीं होता। सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के पश्चात् यही ज्ञान सम्यग बन जाता है। जिसको सम्यग् ज्ञान हुआ हो उसको ही सम्पक्चारित की प्राप्ति होती है। इसका तात्पर्य यह समझना चाहिये कि मनुष्य चाहे जितने अंचे चरिय का पालन करता हो, किन्तु यह सम्या जान में Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग ] [ ६५ रहित हो तो उसका चारित्र सम्यक् नही कहलाता और इसी कारण उसके द्वारा उसे मोक्ष की प्राप्ति नही हो सकती । यहाँ तप का समावेश सम्यक् चारित्र मे ही किया गया है, अतः -उसकी पृथक गणना नही की गई । सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र - इन तीन साधनो को रत्नत्रयी कहते है । श्री उमास्वातिवाचक ने तत्त्वार्थाघिगमसूत्र के प्रारम्भ मे मोक्षमार्ग के साघनरूप मे इस रत्नत्रयी का ही उल्लेख किया है । उपर्युक्त तीन साधनो का सक्षेप ज्ञान और क्रिया इन दो साधनो में किया जाता है; वहाँ दर्शन का समावेश ज्ञान मे किया जाता है, और चारित्र के स्थान पर क्रिया शब्द बोला जाता है । 'नागकिरियाहिं मोक्खो,' ये वचन उसके लिये प्रमाणभूत हैं । तात्पर्य यह 'कि यहाँ मोक्षमार्ग के चतुर्विध साधनो का वर्णन किया गया है, किन्तु ये साधन चार ही होते है, इनसे न्यूनाधिक नही हो सकते, ऐसा एकान्तिक आग्रह नही है । अपेक्षाभेद से इन साधनो की संख्या न्यूनाधिक हो सकती है । सामाइय त्थ पढमं, छेओवट्ठावणं भवे वीयं । परिहारविसुद्धीयं, सुहुमं तह संपरायं च ॥६॥ अकसाय महक्खायं, छउमत्थस्स जिणस्स वा । एवं चयरितकरं चारितं होइ आहियं ॥ १०॥ [ उत्त० अ० २८, गा० ३२-३३ ] Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] [श्री महावीर वचनामृत __ पहला सामयिक नाम का चारित्र है, दूसरा छेदोपस्थापनीय नामक चारित्र है, तीसरा परिहारविशुद्धि नामक चारित्र है और चौथा सूक्ष्मसपराय नामवाला चारित्र है। कषाय से रहित चारित्र यथाख्यात कहलाता है। वह छद्मस्थ और केवली को होता है। भगवान ने कहा है कि ये पांचो चारित्र कर्मों का नाश करनेवाले है। विवेचन-आत्मा को शुद्ध दशा मे स्थिर करने का प्रयत्न चारित्र है। इसीको सवर, सयम, त्याग अथवा प्रत्याख्यान भी कहा जाता है। परिणामशुद्धि के तरतमभाव की अपेक्षा से चारित्र के पांच प्रकार किये गये हैं। छद्म अर्थात् परदा। अव तक जिसके ज्ञान पर परदा है, वह है छमस्थ। केवलज्ञान होने से पूर्व सभी आत्माएं इस अवस्था मे रहती है। ___ मन, वचन और काया से पापकर्म नही करना, नही कराना तथा करते हुए को अनुमति नही देना, ऐसे सकल्पपूर्वक जो चारित्र ग्रहण किया जाता है, उसे सामायिक चारित्र कहते हैं। यह चारित्र व्रतधारी गृहस्थों मे अल्पाश तथा साघुओं मे सर्वाश मात्रा मे होता है। नये शिष्य को दशवकालिक-सूत्र का पड्जीवनिका नामक चौथा अव्ययन पढाने के बाद जो बडी दीक्षा दी जाती है, उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं अथवा एक तीर्थङ्कर के साधु को अन्य तीर्थडर के शासन मे प्रवेश करने के लिये नया चारित्र ग्रहण करना पड़ता है, उसे भी छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं। श्री पार्श्वनाथ भगवान् के चातुर्याम व्रतवाले साधुओं ने पांच महाव्रतवाला श्रीमहावीर Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग] [६५ स्वामी का मार्ग स्वीकृत किया, तब नये सिरे से चारित्र ग्रहण किया था , वह इस प्रकार का था। सामायिक-चारित्र के पर्याय का छेदन कर उपस्थापित किया जाता है इसलिये इसे छेदोपस्थापनीय कहते है। इसमे प्रवेश करने के बाद पूर्वावस्था के मुनियो के साथ व्यवहार में आ सकते हैं। विशिष्ट प्रकार की तपश्चर्या से आत्मा की शुद्धि करना, परिहार विशुद्धि नामक तीसरा चारित्र है। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायो को सम्पराय कहते है। वह सूक्ष्म हो जाय अर्थात् उपशम या क्षय को प्राप्त हो जाय, तव सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र की प्राप्ति मानी जाती है। इस चारित्र मे सूक्ष्म लोभ का अरा गेष रहता है। जब सूक्ष्म लोभ भी चला जाय और इस प्रकार सम्पूर्ण कषाय रहित अवस्था प्राप्त हो, तब यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति मानी जाती है। इस चारित्र को वीतराग चारित्र भी कहते है, क्योकि उस समय आत्मा राग और द्वष दोनो से ऊपर उठ सम्पूर्ण माध्यस्थभाव को प्राप्त होती है। छद्मस्थ आत्मा उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त करती हुई इस अवस्था तक पहुँचती है और केवलज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् भी इस चारित्र मे स्थिर रहती है। ये सब चारित्र उत्तरोत्तर शुद्ध हैं और कर्म का क्षय करने मे परम उपकारक है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] [श्री महावीर वचनामृत तवो य दुविहो वुत्तो, वाहिरव्भन्तरो तहा। वाहिरो छचिहो वुत्तो, एवमभन्तरो तवो ॥११॥ [उत्त० अ० २८ गा० ३४] तप दो प्रकार का बतलाया गया है। वाह्य और आभ्यन्तर । वाह्य तप छह प्रकार का वर्णित है और आभ्यन्तर तप भी इतने ही प्रकार का। विवेचन-जो शरीर के सातों धातुओ तथा मन को तपाये, वह तप कहलाता है। कर्म की निर्जरा करने के लिये यह उत्तम साधन है। तप दो प्रकार का है :-बाह्य और आभ्यन्तर । इन मे वाह्यतप गरीर की गुद्धि में विशेष उपकारक है और आभ्यन्तर तप मानसिक शुद्धि मे। इन दोनो तपों के अलग-अलग छह प्रकार हैं। अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ । कायकिलेसो संलीणया, 4 वज्झो तबो होई ॥ १२ ॥ . [उत्त० भ०३०, गा०८] वाह्यतप के छह प्रकार है-(१) अनगन, (२) ऊनोदरिका, (३) मिक्षाचरो, (४) रसपरित्याग, (५) कायक्लेश तथा (6) सलीनता । विवेचन-भोजन का अमुक समय के लिये अथवा पूर्ण समय के लिये परित्याग करना अनशन कहलाता है। एकागन, आयविल, उपवास-ये सब इसी तप के प्रकार हैं। क्षुधा से कुछ कम भोजन करने की क्रिया को ऊनोदरिका कहते हैं। शुद्ध भिक्षा पर निर्वाह Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] [ श्री महावीर वचनामृत * लोक-समूह का त्याग करके एकाग्रभाव से विचरण करना तथा काया के ममत्व को छोड़कर आत्मभाव मे रहना व्युत्सर्ग हैं | खवित्ता पुव्वकम्माई, संजमेण तवेण य । सन्चदुःखप्पहीणट्ठा, पक्कमंति महेसिणो ॥ १४ ॥ [ उत्त० अ० २८, गा० ३६ ] जो महर्षि है, वे सयम और तप से पूर्व कर्मों का क्षय कर समस्त दुःखों से रहित ऐसे मोक्षपद की ओर शीघ्र गमन करते हैं । तव संवरमग्गलं । सर्द्ध नगरं किच्चा, खन्ति निउणपागारं तिगुत्तं दुप्पधंसगं ॥१५॥ धणुं परकमं किच्चा, जीवं च ईरियं सया । धि च केयणं किच्चा, सच्चेण पलिमन्थए || १६ || तवनारायजुत्तेण, । भित्तणं कम्मकंचुयं । मुणी विगयसंगामी, भवाओ परिमुच्चए ||१७|| [ उत्त० अ० ६, गा० २०-२१-२२ ] 1 तपोरत्नमहोदधि ग्रन्थ में अनेक प्रकार के तप का वर्णन किया गया है और सम्पादक ने 'तप-विचार', 'तपनां तेज, ( धर्मबोध-प्रन्थमाला : पु० १२ ) और 'तपनी महत्ता' (जैन शिक्षावली प्रथम श्रेणी : पु० ८ ) तथा 'आर्यावल - रहस्य' ( जैन शिक्षावली द्वितीय श्रेणी : पु० ६ ) नामक गुजराती पुस्तकों मे तप के सम्बन्ध में विविध दृष्टियों से विचार किया है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग] ५. [१०१ श्रद्धारूपी नगर, क्षमारूपी दुर्ग और तप-सयमरूपी अगला बनाकर त्रिगुप्तिरूप शस्रो द्वारा कर्मशत्रुओ से अपनी रक्षा करनी चाहिये। पुनः पराकमरूपी धनुष की ईर्यासमिति रूप डोरी बनाकर धैर्यरूपी केतन से सत्य द्वारा उसे बाँधना चाहिये। उस धनुष पर तपरूपी वाण चढाकर कर्मरूपी कवच का भेदन करना चाहिये। इस प्रकार से सग्राम का सदा के लिये अन्त कर मुनि भवभ्रमण से मुक्त हो जाता है। विवेचन-इस वर्णन का तात्पर्य यह है कि मोक्षमार्ग के पथिक को नीचे लिखे गण प्राप्त करने चाहिये। १ : श्रद्धा-आत्मश्रद्धा, देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा, नव तत्त्वों पर श्रद्धा। २:क्षमा- क्रोध पर विजय । यहाँ मान, माया और लोभ पर विजय का निर्देश नही किया गया है पर वह समझ लेना चाहिये। इस प्रकार आर्जव, सरलता और निर्लोभता भी अर्जित करनी चाहिये। ३ : तप-अनेकविध तप। ४ : सयम-पाँच इन्द्रियों पर नियन्त्रण । ५ : त्रिगुप्ति-~-गुप्ति अर्थात अप्रशस्त प्रवृत्ति का निग्रह । इसके तीन प्रकार हैं--(१) मनगुप्ति, (२) वचनगुप्ति और (३) कायगुप्ति । सयम मार्ग मे आगे बढ़ने के लिये ये तीनो गुप्तियाँ बहुत ही महत्त्वपूर्ण साधन है। ६:प्रराकम-विघ्नो की परवाह किये बिना ध्येय की ओर अग्रसर होने का दृढ पुरुषार्थ । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] [श्री महावीर-वचनामृत ७ : इर्यासमिति समिति अर्थात् सम्यक प्रवृत्ति । इसके पांच प्रकार हैं :-(१) ईर्या-समिति, (२) भाषा-समिति, (३) एषणासमिति, (४) आदान-निक्षेप-समिति और (५) पारिष्ठापनिका-समिति। इन पांचो समितियों का पालन सयमसाधना में अत्यन्त उपकारक सिद्ध होता है। तीन गुप्तियों और पांच समितियो को अष्टप्रवचन-माता कहा जाता है। इसका वर्णन इस ग्रन्य की अठारहवी धारा मे किया गया है। ८:धैर्य-चित्तस्वास्थ्य। जिस साधक का चित्त स्वस्थ नहीं है, वह मोक्षमार्ग की साधना मे आगे प्रगति नही कर सकता। चाहे कष्टों के पहाड ही न टूट जाय तो भी उसे सहन करने की तैयारी रखनी चाहिये। ६ : सत्य-सत्य की उपासना, सत्य के प्रति आग्रह । १० : तप-यहाँ तप शब्द से इच्छानिरोघरूपी तप समझना चाहिये। ११ : कर्मरूपी कवच का भेदन-समस्त कर्मों का क्षय । तस्सेस मग्गो गुरु-विद्धसेवा, विवजणा बालजणस्स दूरा। सज्झायएगंतनिसेवणा य, सूत्तत्थसंचिंतणया धिई य ॥१८॥ [उत्त० अ० ३२, गा०३] गुरु और वृद्ध सन्तों की सेवा, अज्ञानी जीवों की सगति का दूर से ही त्याग, स्वाध्याय, स्त्री-नपुसकादि रहित एकान्तस्थल का सेवन Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग] [१०३ सूत्रार्थ का उत्तम प्रकार से चिन्तन तथा धैर्य, ये एकान्तिक सुखरूप मोक्षप्राप्ति के मार्ग है। विवेचन-मोक्षमार्ग के पथिक मे कुछ और भी गुण होने चाहिये, जो यहाँ दिखाये गये है :१ : गुरु की सेवा-ज्ञान दे वे गुरु। उनके प्रति विनय रखने से, उनकी सेवा करने से शास्रो का रहस्य समझ मे आता है और मोक्ष की साधना मे शीघ्र आगे बढ़ सकता है। २ : वृद्ध सन्तो की सेवा-यह भी गुरु सेवा के समान ही उपकारक है । ३ : अज्ञानियो की सगति का त्याग-जो बालभाव मे क्रीड़ा कर रहे है, उन्हे अज्ञानी समझना चाहिये। उनकी सगति करने से मोक्षसाधना का उत्साह शिथिल हो जाता है, अथवा उससे भ्रष्ट होने का प्रसग भी आ जाता है। इसलिये उनकी सगति का परित्याग करना चाहिये। सगति करना हो तो परमार्थ जाननेवाले ज्ञानियो की ही करनी चाहिए ताकि कल्याण की प्राप्ति हो। ४ : स्वाध्याय-आसप्रणीत शास्त्रो का अभ्यास । ५: एकान्त-निषेवण-एकान्त मे रहना। ६ : सत्रार्थ का उत्तम प्रकार से चिन्तन-सूत्र और अर्थ दोनो का अच्छी तरह चिन्तन-मनन करने पर मन का विक्षेप टल जाता है और मोक्षसाधना के उत्साह मे वृद्धि होती है। ७: धैर्य-चित्त की स्वस्थता। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा :६: साधना-क्रम सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥१॥ [दश० अ० ४, गा० ११] साधक सद्गुरु का उपदेश श्रवण करने से कल्याण का-आत्महित का मार्ग जान सकता है, ठीक वैसे ही सद्गुरु का उपदेश श्रवण करने से पाप का-अहित का मार्ग भी जान सकता है । जब इस प्रकार वह हित और अहित दोनों का मार्ग जान ले, तभी जो मार्ग हितकर हो उसका आचरण करे। जो जीवे वि न जाणेइ, अजीवे वि न जाणइ । जीवाजीवे अयाणतो, कहं सो नाहीइ सजमं ॥२॥ [ दश० अ० ४, गाः १२] जो जीवों को नही जानता है, वह अजीवों को भी नही जानता है। इस प्रकार जीव और अजीव दोनों को भी नही जाननेवाला भला सयम को किस प्रकार जानेगा ? विवेचन-साधक को सर्वप्रथम जीवो का आत्मतत्त्व-का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये, अर्थात् उसके लक्षणादि से परिचित होना Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना-क्रम] [१०५ चाहिये। जिसने इस तरह का ज्ञान प्राप्त नही किया, उसको अजीव का ज्ञान भी नही हो सकता, क्योकि इन दोनो के बीच का भेट उसकी समझ में नहीं आता। इस तरह जो जीवो और अजीवो, दोनो के स्वरूप से अज्ञात है, वह सयम का स्वरूप भी नही जान सकता, क्योकि सयमपालन का जीवदया के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। जो जीवे वि बियाणेइ, अजीवे वि वियाणइ । जीवाजीवे चियाणतो, सो हु नाहीइ संजमं ॥३॥ [दश० अ० ४, गा० १३] जो जीवोंको अच्छी तरह जानता है, वह अजीवो को भी अच्छी तरह जानता है। इसी प्रकार जीव और अजीब दोनो को सर्वोत्तम रूप मे जाननेवाला संयम को भी अच्छी तरह जान लेता है। जया जीवमजीवे य, दो वि एए वियाणइ । तया गइं बहुविहं, सवजीवाण जाणइ ॥४॥ [दश० अ० ४, गा० १४] जब कोई साधक जोवो और अजीवों को उत्तम रीति से जानता है, तब वह सभी जीवो की बहुविध गति को भली-भांति पहचानता है। विवेचन-यहाँ गति शब्द का अर्थ एक भव से दूसरे भव में जाने की क्रिया समझनो चाहिये । यह गति नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव इस तरह चार प्रकार की है। ससारी जीव को इन चार गतियो में से एक गति मे अवश्य उत्पन्न होना पड़ता है, क्योकि उसने इस Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] [श्री महावीर-वचनामृत प्रकार का कर्मबन्धन किया है, ओर कर्म के फल भोगे बिना किसी को मुक्ति नही मिलती। जया गई बहुविहं, सबजीवाण जाणइ। तया पुण्णं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणइ ॥५॥ [दश० अ० ४, गा० १५] जब साधक सर्वजीवो की अनेकविध गतियों को जानता है, तब पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को जानता है। विवेचन-जव साधक जीवकी अनेकविध गति का कारण सोचता है तब उसके सामने पुण्य-पाप का सिद्धान्त आ जाता है। जैसे कि पुण्य करनेवालों की सद्गति होती है और पाप करनेवालो की दुर्गति । पीछे अधिक विचार करने पर पुण्य और पाप एक प्रकार का कर्मबन्धन है, यह बात उनके समझने मे आती है , और जहाँ कर्मवन्चन है, वहाँ उसमे से छूटने की कोई प्रक्रिया भी अवश्य होनी चाहिये, ऐसा अनुमान होते ही मोक्ष का निर्णय हो जाता है । जया पुण्णं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणइ । तया निविंदए भोए, जे दिवे जे य माणुसे ॥६॥ [दश० अ० ४, गा० १६ ] जब साधक पुण्य, पाप, बन्च और मोक्ष का स्वरूप अच्छी तरह जान लेता है, तब उसके मन मे स्वर्गीय तथा मानुपिक दोनों प्रकार के भोग सारहीन है, यह वात उसके ध्यान मे आ जाती है और उसके प्रति निर्वेद-वैराग्य उत्पन्न होता है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधनाक्रम [१०७ जया निम्बिदए भोए, जे दिवे जे य माणुसे । तया चयइ संजोगं, समितर-बाहिरं ॥७॥ [ दश० अ० ४, गा० १७] जब साधक के मन में स्वर्गीय तथा मानुपिक भोगो के प्रति निर्वेद -वैराग्य उत्पन्न होता है, तब आभ्यन्तर और बाह्य संयोगो को वह छोड देता है। विवेचन :-यहाँ आभ्यन्तर सयोग से कषाय और बाह्य सयोग से धन, धान्यादि का परिग्रह तथा कुटुम्बिजनो का सम्बन्ध ऐसा अर्थ लेना चाहिये। तात्पर्य यह है कि साधक मे जब स्वर्गीय अथवा मानुषिक भोग की इच्छा नही रहती, तब कषाय करने का कोई कारण नही रहता और धन-धान्यादि तथा कुटुम्बिजनो के प्रति रहे ममत्व मे अपने आप ही कमी आ जाती है। जया चयइ संजोगं सभितर-बाहिरं। तया मुण्डे भवित्ताणं, पच्चयइ अणगारियं ॥८॥ [दश० भ० ४, गा० १८] जब साचक आभ्यन्तर और बाह्य सयोगो को छोड देता है, तब सिर मुंडवाकर अणगार धर्म मे प्रवजित होता है। विवेचन :-अणगार धर्म अर्थात् श्रमण-धर्म, साधु-धर्म । प्रवजित होना अर्थात् दीक्षित होना। निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय मे साधु-धर्म की दीक्षा ग्रहण करते समय सिर मुंडवाना अत्यावश्यक होता है। बौद्ध-श्रमण भी दीक्षा ग्रहण करते समय सिर का मुण्डन कराते है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] [श्री महावीर-वचनामृत जिसने सिर मुंडवाया उसने शरीर सम्बन्धी सारी शोभा, सारे ममत्व का परित्याग कर दिया ऐसा समझा जाता है। . जया मुण्डे भवित्ताणं, पन्चयइए अणगारियं । तया संवरमुक्किटुं, धम्मं फासे अणुत्तरं ॥६॥ [ दश० अ०४, गा० १६] जब साधक मस्तक का मुण्डन करवा कर अणगार धर्म मे प्रवजित होता है, तब उत्कृष्ट सयमरूपी धर्म का सर्वोत्तम ढग से आचरण कर सकता है। जया संवरमुकिलु, धम्मं फासे अणुत्तरं।। तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसं कडं ॥१०॥ [दश० अ० ४, गा० २०] जब साधक उत्कृष्ट सयमरूपी धर्म का सर्वोत्तम रूप से आचरण __ करता है, तव मिथ्यात्वजनित कलुषित भावो से उत्पन्न कर्मरज को दूर कर देता है। जया धुणइ कम्मरयं, अवोहिकलुसं कडं । तया सवत्तगं नाणं, दसणं चाभिगच्छइ ॥११॥ [दश० अ० ४, गा० २१] जब सावक मिथ्यात्वजनित कलुषित भावों से उत्पन्न कर्मरज को दूर कर देता है, तव सर्वव्यापी ज्ञान ( केवलज्ञान ) और सर्वव्यापी न (केवलदर्शन ) को प्राप्त कर सकता है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना-क्रम ] [ १०६ जया सवत्तगं नाणं, दंसणं तया लोगमलोगं च, जिणो चाभिगच्छन् । जाणइ केवली ॥१२॥ [ दश० अ० ४, गा० २२ ] जब साधक सर्वव्यापी ज्ञान और सर्वव्यापी दर्शन को प्राप्त करता है, तब वह लोक और अलोक को जान लेता है तथा जिन एवं केवली बनता है । जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली | तया जोगे निरंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ ॥ १३॥ [ दश० भ० ४, गा० २३] जब साधक लोक और अलोक का ज्ञाता जिन तथा केवली बनता है, तब अन्तिम समय में मन, वचन और काया की समस्त प्रवृत्तियो को रोककर शैलेशी अवस्था को प्राप्त करता है, अर्थात् पर्वत जैसी स्थिर - अकम्प दशा को प्राप्त होता है । जया जोगे निरुंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ । तया कम्मं खचित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ || १४ || [ दश० अ० ४, गा० २४ ] जब साधक मन, वचन और काया की समस्त प्रवृत्तियों को रोक कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त करता है, तब सम्पूर्ण कर्मों को क्षीण कर गुद्ध रूप धारण कर सिद्धि को पाता है । जया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छड़ नीरओ । तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हचड़ सासओ ॥ १५ ॥ [ घ० भ० ४, गा० २५ ] Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] [श्री महावीर-वचनामृत जव वह समस्त कर्मों को क्षीण कर शुद्ध बना हुआ सिद्धि को पाता है, तव लोक के मस्तक पर रहनेवाला ऐसा गाश्वत सिद्ध वन जाता है। सुहसायगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स । उच्छोलणापहोयस्स, दुल्लहा सुगई तारिसगस्स ॥१६॥ [दश० भ० ४, गा० २६ ] जो श्रमण बाह्य-सुख का अभिलाषी है, और सुख कैसे प्राप्त हो ? इसी उधेड़-बुन मे निरन्तर व्याकुल रहता है, सूत्रार्थ की वेला टल जाने के पश्चात् भी दीर्घकाल तक सोया रहता है, जो अपना गारीरिक सौन्दर्य बढ़ाने के हेतु सदा हाथ-पैर आदि घोता रहता है, ऐसे श्रमण को मोक्ष की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। तबोगुणपहाणस्स, उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्म । परीसहे जिगन्तस्स, सुलहा सुगई तारिसगस्स ॥१७॥ [दश० भ० ४. गा० २७ ] जो श्रमण तपोगुण मे प्रधान है अर्थात् घोर तप करता है, जो प्रकृति से सरल है, क्षमा और सयम मे सदा अनुरक्त रहता है, तथा परोषहो को जीतता है, उसके लिये मोक्षप्राप्ति सुलभ है। विवेचन-शुद्ध चरित्र का पालन करते समय जो कष्ट, आपत्तियां और कठिनाइयां आती हैं उनको समतापूर्वक सहन कर लेने को ही परीषह-जय कहते हैं। इसके निम्नलिखित वाईस प्रकार हैं: Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१११ साधना-क्रम] १ : क्षुधापरीषह-भूख से उत्पन्न वेदना सहन करना। २: तृषापरीषह-तृषा से उत्पन्न वेदना सहन करना। ३: शीतपरीषह-ठण्ड से होनेवाली वेदना सहन करना। ४ : उष्णपरीषह-ताप से उत्पन्न वेदना सहन करना। ५ : दंश-मशकपरीषह-मच्छरो के काटने से उत्पन्न वेदना सहन करना। ६ : अचेलकपरीषह-वस्त्र रहित अथवा फटे हुए वस्त्रवाली स्थिति - से दुखी नही होना। ७ : अरतिपरीषह-चरित्र पालन करते हुए मन मे ग्लानि न होने देना। ८ स्त्रीपरीषह-स्त्रियो के अग-प्रदर्शन से मन को विचलित न होने देना। ६ : चर्यापरीपह-किसी एक गाँव अथवा स्थान के प्रति ममत्व न रखते हुए राष्ट्र में विचरण करते रहना और इस प्रकार के विहार-परिभ्रमण मे जो कष्ट आए, उसे शान्तिपूर्वक सहन करना। १० : निषद्यापरीषह-स्त्री, पशु, और नपुसकरहित स्थान मे रह कर एकान्त सेवन करना। ११ : शय्यापरीपह-शयन का स्थान अथवा गवन के लिये पटिया आदि जो भी मिले उसके लिए दुःखी न होना। १२ : आक्रोशपरोषह-कोई मनुष्य आक्रोग-कोव करे, तिरस्कार करे, अपमान करे उसे शान्ति से सह लेना। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] [श्री महावीर-वचनामृत १३ : वधपरीषह-कोई मारपीट करे तो भी शान्ति से सह लेना। १४ : याचनापरीषह-साधु को प्रत्येक वस्तु मांग कर ही प्राप्त करना चाहिये, अतः मन मे ग्लानि नहीं लाना। १५ : अलाभपरीषह-भिक्षा मांगने पर भी कोई वस्तु न मिले तो, उसके लिये सन्ताप न करना। १६: रोगपरीषह-चाहे जैसा रोग अथवा व्याधि उत्पन्न क्यों न हुई हो किन्तु चीखना-चिल्लाना अथवा रोना-पीटना नहीं। साथ ही तत्सम्बत्वी सभी वेदनाएं गान्ति-पूर्वक सहना। १७ : तृणस्पर्शपरीषह-बैठते-उठते तथा सोते समय दर्भादि तृणों के कठोर स्पर्श को शान्तिपूर्वक सह लेना।। १८ : मलपरीषह-पसीना तथा विहार आदि के कारण शरीर पर मैल जम जाने पर भी स्नान की इच्छा नही करना। १६ मित्कारपरीपह-कोई कैसा भी सत्कार क्यों न करे उसमे अभि मान न करते हुए मन को वश में रखना और यह सत्कार मेरा नही अपित चरित्र का हो रहा है, ऐसा मानना । २० : प्रज्ञापरीषह-बुद्धि अयवा ज्ञान का अभिमान नही करना। २१ : अनानपरीपह-अत्यधिक परिश्रम करने पर भी सूत्रसिद्धान्त का चाहिये जितना वोव न हो तो उससे निराग न होना। २२: सम्यक्त्वपरीपह-क्निी भी स्थिति में सम्यक्त्व को डावांडोल न होने देना तया उसका संरक्षण करना । गे Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : १०: धर्माचरण जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥१॥ [उत्त० अ० २३, गा०६८] जरा और मरण के प्रचड झझावात मे जीवो की रक्षा के लिये धर्म एक द्वीप ( बेट ) है, आधार है और उत्तम शरण है। विवेचन-जहाँ जन्म है वहाँ जरा और मरण अवश्य है । जरा और मरण का वेग इतना तो प्रचण्ड है कि रोकने से रुक नही सकता, अर्थात् उसके प्रचंड प्रवाह मे प्राणी मात्र को बहना ही पड़ता है और अनेक प्रकार के दुःखो का अनुभव भी करना पड़ता है। ऐसी अवस्था मे धर्म ही एक अद्वितीय सहायक बनता है, इसके आधार पर ही जीव मात्र अचल-अटल रह सकते है, और उनकी उत्तम रीति से रक्षा होती है। अन्य शब्दो मे कहे तो जिसने धर्म का आचरण नही किया उसको वृद्धावस्था मे बहुत दुःख उठाना पड़ता है और उसकी मृत्यु बिगड जाती है। मरिहिसि रायं जया तया वा, मणोरमे कामगुणे विहाय । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] [श्री महावीर-वचनामृत एको हु धम्मो नरदेव ताणं, न विजई अन्नमिहेह किंचि ॥ २ ॥ [उत्त० अ० १४, गा० ४०] हे राजन् ! इन मनोहर एव कमनीय ऐसे कामभोगों को छोडकर एक दिन तुझे मरना ही है। उस समय हे नरदेव ! एकमात्र धर्म ही तेरा चरणावलम्बन सिद्ध होगा। धर्म के अतिरिक्त इस ससार मे ऐसी कोई वस्तु विद्यमान नही कि जो तेरे उपयोग मे आए। विवेचन -यहाँ राजा को सम्बोधित किया है, किन्तु वात सव के लिये समान रूप से उपयोगी है। जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वडई । जाबिंदिया न हायंति, ताव धम्म समाचरे ॥३॥ [दशः अ०८, गा० ३६] जब तक जरा पीडित न करे, व्याधि मे वृद्धि न हो और इन्द्रियाँ वलहीन न हो जाएं तबतक की अवधि मे उत्तम प्रकार से धर्माचरण कर लेना चाहिये। विवेचन-प्रायः मनुष्य ऐसा समझना है कि जब मैं वड़ा हो जाऊंगा, वृद्ध बनूंगा, तब धर्माचरण करूंगा। अभी तो आमोद-प्रमोद के दिन है। किन्तु उसका यह समझना भ्रान्ति है । देह क्षणभगुर है । यह कब नष्ट हो जायगा कहा नही जा सकता। यदि मान लिया जाय कि आयुष्य की डोरी लम्बी है, और वह वृद्ध होनेवाला है, Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माचरण] [११५ तो क्या उस समय वह धर्माचरण कर सकेगा? उस समय उसकी गारीरिक शक्तियां क्षीण हो जाती है, छोटी-बड़ी अनेक प्रकार की व्याधियां शरीर को ग्रस्त कर लेती है और इन्द्रियाँ यथेष्ट कार्य करने मे प्रायः असमर्थ होती है। ऐसी स्थिति मे भला किस तरह धर्माचरण हो सकता है ? अतः सुज्ञ मनुष्य को आरम्भ से ही धर्म का आचरण कर लेना चाहिये। साथ ही यह वात ध्यान मे रखनी चाहिये कि जिसने बाल्यकाल मे अथवा यौवन मे धर्माचरण नही किया, उसे वृद्धावस्था में धर्म प्रिय नही लगता । फलतः जबसे मनुष्य कुछ समझने लगता है तब से ही उसे धर्माचरण करना आरम्भ कर देना चाहिये। जा जा बच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई । अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ ॥ ४ ॥ जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई। धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जन्ति राइओ ॥ ५ ॥ [ उत्त० अ० १४, गा० २४-२५ ] जो-जो रात्रियाँ बीतती है वे पुनः लौटकर नही आती और अधर्मी की रात्रियाँ हमेशा निष्फल बीतती है। जो जो रात्रियाँ बीतती हैं वे वापस लौट नही आती और धर्मी की रात्रियाँ हमेशा सफल होती है। विवेचन-जो-जो रात बीतती है, वह पुनः लौट नही आती; वैसे ही जो-जो दिन बीतता है, वह भी पुनः लौट नही आता। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] [श्री महावीर-वचनामृत तात्पर्य यह है कि जो समय चला गया, वह सदा के लिये हाथ से निकल गया, वह पुनः आनेवाला नही है। ऐसी अवस्था मे बुद्धिमान मनुष्यो का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि समय का वन सके उतना सदुपयोग कर लेना चाहिये । जो मनुष्य अधर्म करता है, उसके समय का दुरुपयोग हुआ, ऐसा समझना चाहिए, क्योकि उससे नया कर्मवन्चन होता है, जिसके फलस्वरूप उसे अनेकविध दुःख सहन करने पडते हैं । जो मनुष्य धर्म का आचरण करता है उसके समय का सदुपयोग हुआ मानना चाहिये, क्योकि उससे नये कर्म नही बंचते और जो बंधे हुए हैं उनका भी क्षय हो जाता है। परिणामस्वरूप उसकी भव-परम्परा का अन्त आ जाता है और वह सर्वदुःखों से मुक्त हो जाता है। धम्मो मंगलमुक्टिं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥६॥ [दश० अ० १, गा० १] धर्म उत्कृष्ट मगल है। वह अहिंसा, सयम और तपरूप है। जिसके मन में सदा ऐसा धर्म है, उसको देवता भी नमस्कार करते हैं। विवेचन-इस जगत् मे मनुष्य मात्र सदा सर्वदा मंगल की कामना किया करते है। किन्तु उनको यह स्मरण नही होता कि उत्कृष्ट मगल तो धर्म ही है, क्योंकि धर्म से दुरित (पाप) दूर होते हैं और इच्छित फल की प्राप्ति होती है। यहाँ धर्म शब्द से अहिंसा, सयम और तप की त्रिपुटी समझना चाहिये। जहाँ किसी भी प्रकार की हिंसा होती है वहाँ धर्म नहीं रहता। जहाँ किसी भी Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माचरण] [११७ प्रकार की स्वच्छदता (दुराचार ) हो वहाँ भी धर्म नहीं होता। और जहाँ एक अथवा अन्य प्रकार से भोग-विलास की पुष्टि हो, वहाँ भी धर्म नही होता । जो अहिंसा, संयम और तपोमय धर्म का शुद्ध भावसे पालन करता है, वह मानव समाज के लिये ही नही अपितु देवताओं के लिये भी वन्दनीय-पूजनीय सिद्ध होता है। साराश यह है कि धर्म के पालन से मनुष्य सर्वश्रेष्ठ गति को प्राप्त कर सकता है। अहिंस सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य चम्भं अपरिग्गहं च। पडिबजिया पंच महन्वयाणि, चरिज धम्म जिणदेसिगं विदू ॥७॥ उत्त० अ० २१, गा० १२ ] बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिये कि वह अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पांच महाव्रतो को जीवन मे स्वीकार कर श्री जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्म का आचरण करे। विवेचन-जो इन पाँच महाव्रतो को स्वीकार नही कर सकता, उसके लिये पांच अणुव्रत, तीन गुणनत और चार शिक्षाव्रत-ऐसे बारह प्रकार के अन्य व्रतो की भी योजना की गई है। कदाचित् इनका पालन भी नही किया जा सके तो इनमे से जितना बन सके उतना पालन करना चाहिये और उसमे प्रतिदिन अधिकाधिक प्रगति किस प्रकार हो, इसका सदा ध्यान रखना चाहिये। . Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] [श्री महावीर-वचनामृत वहिया उडमादाय, नावकंक्खे कयाइ वि । पूचकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे ।।८।। [उत्त० म०६, गा० १४] संसार से वाहर और सबसे ऊपर सिद्धगिला नामक जो स्थान है, वहाँ पहुचने का उद्देश्य रखकर ही कार्य करना चाहिये । विषयभोग की आकांक्षा कदापि नही करनी चाहिये। पहले जिन को का सचय क्ाि हुआ है, उनका क्षय करने के लिये ही यह देहधारण करनी चाहिये। विवेचन-माक्ष मे पहुंचने का अवसर केवल मनुष्यजन्म मे ही मिल सकता है। मानवजन्म अनन्त भवों में भ्रमण करने के पञ्चात् अत्यन्त कष्ट से प्राप्त होता है। बुद्धिमान् लोगो को उपयुक्त तथ्य को लक्ष्य में रखकर ही मोक्षप्राप्ति को अपना ध्येय बनाना चाहिये। यह गरीर भोग-विलास के लिये नहीं है, बल्कि पूर्वसचित कर्मों का क्षय करने के लिये है इन वात को पुनः पुनः अपने मन मे दृढ करने की अत्यन्त आवश्यक्ता है। जब यह बात पूर्णरूप ने मन मे दुड हो जाएगी, तभी भोगासक्ति दूर होकर धर्माचरण करने का उत्साह बढ़ेगा। धम्मे हरए यम्भे संतितित्थे, अणाविले अत्तपमन्नलेसे । जहिं मिणाओं विमलो विमुद्धो, मुसीइभृओ पजहामि दामं ॥६॥ [उत्तः २, गा० ४] Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माचरग] [११६ मिथ्यात्व आदि दोषो से रहित और आत्म-प्रसन्नलेश्या से युक्त धर्म एक जलाशय है और ब्रह्मचर्य एक प्रकार का शान्ति-तीर्थ । इसमे स्नान करके मै विमल, विशुद्ध और सुशीतल होता हूं। ठीक वैसे ही कर्मों का नाश करता हूं। विवेचन-कुछ मनुष्य नहाना-धोना और बाहर से शुद्ध रहने को ही धर्म मान बैठे है, जबकि धर्म अन्तर की शुद्धि के साथ मुख्य सम्बन्ध रखता है । यह अन्तर की शुद्धि तभी प्राप्त होती है जब मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषायादि दोष दूर कर दिये जाते है ओर आत्मा के परिणामों को शुद्ध रखा जाता है। आत्मा के परिणामों की योग्यता समझने के लिये भगवान् महावीर ने छह लेश्याओं का स्वरूप प्रकट किया है। उनमे कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन लेश्याएं आत्मा के अशुद्धतम, अशुद्धतर और अशुद्ध परिणामो का सूचन करनेवाली है तथा पीत, पद्म तथा शुक्ल-ये तीन लेश्याएं आत्मा के शुद्ध-शुद्धतर---शुद्धतम परिणामो का सूचन करती है । अतः धर्माराधक को चाहिये कि वह सदा शुद्ध लेश्याओं मे ही रहे। धर्माराधना मे ब्रह्मचर्य का महत्त्व भी बहुत है । जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसका मन सदा विषय-विकार से दूर रहता है, और उससे अनन्य शान्ति मिलती है। सक्षेप मे यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार के लोकोत्तर उच्च धर्म का जो आचरण करता है, उसके सब मल दूर होते है. उसकी सभी अशुद्धियाँ दूर होती हैं और उसके अन्तर के सारे ताप मिटकर Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] [ श्री महावीर वचनामृत उसे अनुपम शान्ति मिलती है । ऐसी आत्मा के सब कर्म शीघ्रता से नष्ट हो जाय, यह स्वाभाविक ही है । पडंति नरए घोरे, ज नरा पावकारिणो । दिव्वं च गड़ं गच्छंति, चरिता धम्ममारियं ॥ १०॥ [ उत्त० अ० १५, गा० २५ ] जो मनुष्य पापकर्ता है वह घोर नरक में जाता है और जो आर्य धर्म का आचरण करनेवाला है वह दिव्य गति मे जाता है । C विवेचन - कर्म का नियम अबाधित है । उसमे किसी का अनुनय-विनय अथवा अनुरोध नही चलता । जो अनुचित काम करता है, अवर्माचरण करता है, पाप प्रवृत्ति मे लीन रहता है, उसे मृत्यु के पश्चात् भयंकर नरक-योनि मे जन्म लेना पड़ता है और वहाँ उसे अवर्णनीय दुःख सहने पड़ते हैं । इसी तरह जो अच्छे कर्म करते हैं, आर्यधर्म का आचरण करते हैं, अर्थात् दया दान परोपकारादि प्रवृत्ति में लीन रहते है, उन्हें मृत्यु के पश्चात् स्वर्गीय सुख अथवा सिद्धिगति प्राप्त होती है । -:0: Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : ११ : अहिंसा नाइवाइज किंचण ॥१॥ [ आ० श्रु० १, अ० २, उ० ४ ] किसी भी प्राणी की हिंसा न करो । सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अपियवा पियजीविणो, जीविकामा सच्चेसिं जीवियं पियं ||२|| [ भा० ० १, अ० २, ४०३] ( क्योकि ) सभी प्राणियों को अपना आयुष्य प्रिय है, सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल है । वच सभी को अप्रिय लगता है और जीना सब को प्रिय लगता है । जीवमात्र जीवित रहने की -कामना वाले हैं । सब को अपना जीवन प्रिय लगता है । एस मग्गो आरिएहिं पवेइए, जहेत्थ कुसले नोवलिंपिज्जासि ||३|| [ आ० श्रु० १, भ० २, उ०२] आर्य महापुरुषों द्वारा अहिंसा के इस मार्ग का कथन किया गया है । अतः कुशल पुरुष भूलकर भी अपने को हिंसा से लिप्त न करे । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] [श्री महावीर-वचनामृठ पणया वीरा महावीहिं ।।४|| [आ० ध्रु. १, २०१, २०३] कुशल पुरुप परोपह सहन करने मे सूर होते हैं और अहिंसा के प्रशस्त पथ पर चलनेवाले होते हैं। अदुवा अदिन्नाटाणं ॥॥ [आ० ध्रु. १, अ० १. उ०३] जीवों की हिंसा करना यह एक प्रकार का अदत्तादान है यानी चोरी है। तं से अहियाए, तं से अबोहिए ॥६॥ [आ०६० १, अ० १, उ०१] पृथ्वीकायिक ( आदि ) जीवो की हिंसा, हिंसक व्यक्ति के लिए सदा अहितकर होती है और अवोत्रि ( अज्ञान-मिथ्यात्व) का मुल्य कारण बनती है ! आयातुले पयासु ॥७॥ [सू० श्रु०१, ०११, गा०३] प्राणियों के प्रति आत्मतुल्य भाव रखो। सबाहिं अणुजुत्तीहि मतिमं पंडिलेहिया । सम्बे अक्वन्तदुक्खाय, अओ सब्बे न हिंसया ||८|| [सूः १० १, म० ११, गा०६] बुद्धिमान् पुरुष को सर्व प्रकार की युक्तियों से सोच-विचार कर तथा सभी प्राणियों को दुःख अच्छा नहीं लगता, इस तथ्य को ध्यान मे रखकर किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भहिंसा] [१२३ एयं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचण ।। अहिंसा समयं चेव, एयावन्तं वियाणिया ॥६॥ [सू. श्रु० १, अ० ११, गा० १०] ज्ञानियो के वचन का यह सार है कि-'किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। अहिंसा को ही शास्त्रकथित शाश्वत धर्म समझना चाहिए। संबुज्झमाणे उ नरे मइमं, पावाउ अप्पाण निवट्टएज्जा । हिंसप्यसूयाइं दुहाई मत्ता, वेरानुवन्धीणि महब्भयाणि ॥१०॥ [सू० उ० १, अ० १०, गा०२१] दुःख हिंसा से उत्पन्न हुए है, बैर को कराने तथा बढानेवाले है और महाभयङ्कर है-ऐसा जानकर मतिमान् मनुष्य अपने आप को हिंसा से बचावे। सयं तिवायए पाणे, अदुवाऽन्नेहिं धायए। हणन्तं वाऽणुजाणाइ, वेरं वड़ई अप्पणो ॥११॥ [सू० श्रु० १, अ० १, उ० १, गा० ३] परिग्रह मे आसक्त मनुष्य स्वय प्राणी का हनन करता है, दूसरे के द्वारा हनन करवाता है और हनन करनेवाले का अनुमोदन करता है-इस तरह अपना बैर बढाता है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] [श्री महावीर-वनामृत विवेचन-जैसे-जैसे हिंसा का क्षेत्र बढ़ता जाता है, वैसे-व्से वैर का भी विस्तार होता जाता है, क्योंकि जिन-जिन प्राणियों को हिंसा होती है, वे सब बदला लेने के लिए हर घड़ी तत्पर रहते हैं। अतः अपना हित चाहनेगले व्यक्ति को किसी भी प्राणी की हिता नही करना चाहिये, न ही दूसरे के द्वारा हिंसा करवानी चाहिये। और यदि कोई हिंसा करता हो, तो उसका अनुमोदन भी नहीं करना चाहिये। अणेलिसस्स खेयन्ने, ण विरुझेज केणइ ॥१२॥ [सू० ० १, सः १५, गा३] संयम में निपुण मनुष्य को किसी के भी साथ वैर-विरोध नहीं करना चाहिए। सया सच्चेण संपन्ने, मित्तिं भूएहिं कप्पए ॥१३॥ [० ० १, १० १५, गा० ३] जितको अन्तरात्मा सदा सर्वदा सत्य भावों से ओतप्रोत है, उसे सभी प्राणियों के साथ मित्रता रखनी चाहिए। सचं जगं तू समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्सइनो करेज्जा॥१४॥ - [सू० अ० १, अ० १०, गा०७] मुमुक्षु को चाहिये कि वह सारे जगत अर्थात सभी जीवों को Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा [१२५ समभाव ने देगे। यह रिनी को प्रिय और किसी को अप्रिय न बनाए। डहरे य पाणे बुडू य पाणे, ते आत्तओ पासइ सबलोए ॥१॥ [सूः ध्रु० १, अ० १२, गा० १८] मुमुक्षु छोटे और बडे समस्त जीवो को आत्मानुरूप माने । पुढ़वीजीवा पुढो सत्ता, आऊजीवा तहागणी । वाउजीवा पुढो सत्ता, तणरुक्खा सवीयगा ॥१६॥ अहावरा तसा पाणा, एवं छक्कायं आहिया । एयावए जीवकाए, नावरे कोइ विज्जई ॥ १७ ॥ सबाहिं अणुजुतीहिं, मईमं पडिलेहिया । सम्बे अक्कन्तदुक्खा य, अओ सन्चे न हिंसया ॥१८॥ [सू० श्रु० १, अ० ११, गा० ७-८-६ ] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और बीजयुक्त तृण, वृक्ष आदि वनस्पतिकाय जीव अति सूक्ष्म है। (ऊपर से एक आकृतिवाले दिखाई देने पर भी सव का पृथक्-पृथक् अस्तित्व है।) उक्त पांच स्थावरकाय के अतिरिक्त अन्य त्रस प्राणी भी हैं। ये छह षड्जीवनिकाय कहलाते है । संसार मे जितने भी जीव हैं, उन सब का समावेश इन षनिकाय मे हो जाता है। इनके अतिरिक्त अन्य कोई जीव-निकाय नही है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] [ श्री महावीर - चचनामृत वृद्धिमान् मनुष्य उक्त षड्जीवनिकाय का सर्व प्रकार से सम्यग्ज्ञान प्राप्त करे और 'सभी जीव दुःख से घबराते हैं' ऐसा मानकर उन्हे पीडा न पहुँचाए । जे केड़ तसा पाणा, परियाए अत्थि से अनू, चिट्ठन्ति अदु थावरा । जेण ते तस थावरा ॥ १६ ॥ [ सू० ० १, अ० १, उ० ४, ८ ] जगत में जितने भी त्रस और स्थावर जीव हैं, अपनी-अपनी पर्याय के कारण है । अर्थात् सभी जीव अपने-अपने कर्मानुसार त्रस अथवा स्थावर होते हैं | उरालं जगओ सच्चे जोगं, विवज्जासं पलिन्ति य । अकंतदुक्खा य, अओ सव्वे अहिंसिया ॥२०॥ [ सू० श्रु० १, अ० उ० ४. गा० ६] एक जीव जो एक जन्म मे त्रस होता है, वही दूसरे जन्म मे स्थावर होता है । त्रस हो अथवा स्यावर, सभी जीवों को दुःख अप्रिय होता है, ऐसा मानकर मुमुक्षु को सभी जीवों के प्रति अहिंसक बने रहना चाहिए | उडूं अहे य तिरिय, जे केइ तसथावरा । सव्वत्थ विरडं विज्जा, संति निव्वाणमाहियं ॥२१॥ [सू० ० १ ० ११, गा० ११ ] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भहिसा] [१२७ ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक, इन तीनो लोको मे जितने भी त्रस और स्थावर जीव है, उनके प्राणो का अतिपात (विनाश ) करने से दूर रहना चाहिये। वैर की शान्ति को ही निर्वाण कहा गया है। विवेचन-ऊर्ध्वलोक अर्थात् ऊपर का भाग-स्वर्ग, अघोलोक अर्थात् नीचे का भाग-पाताल और तिर्यग्लोक अर्थात् इन दोनो के बीच का भाग-मनुष्यलोक। जब किसी भी प्राणी के प्रति हृदय के एक अणु मे भी वैर-वृत्ति नही रहेगी तभी निर्वाण की प्राप्ति हो गई, ऐसा समझना चाहिये। तात्पर्य यह है कि अहिंसा की पूर्णता ही निर्वाण है। पभूदोसे निराकिच्चा, न विरुज्झेज्ज केण वि। मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो ॥ २२ ॥ [सू० श्रु० १, अ० ११, गा० १२] इन्द्रियो को जीतनेवाला समर्थ पुरुष मिथ्यात्व आदि दोष दूर करके किसी भी प्राणी के साथ यावज्जीव मन, वचन और काया से बैर-विरोध न करे। विरए गामधम्महिं, जे केइ जगई जगा । तेसिं अवुत्तमायाए, थाम कुव्वं परिचए ॥ २३ ॥ [ सू० ध्रु० १, भ० ११, गा० ३३] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] [श्री महावीर-वचनामृत शब्दादि विषयो के प्रति उदासीन बने हुए मनुष्य को इस ससार मे विद्यमान जितने भी त्रस और स्थावर जीव हैं, उनको आत्मतुल्य मान, उनकी रक्षा करने मे अपनी शक्ति का उपयोग करना चाहिये और इसी प्रकार संयम का भी पालन करना चाहिये। जे य बुद्धा अतिकता, जे य बुद्धा अणागया । __संति तेसिं पइट्ठाणं, भूयाणं जगई जहा ॥२४॥ [ सू० ध्रु० १, अ० ११, गा० ३६ ] जीवो का आधार-स्थान पृथ्वी है। वैसे ही भूत और भावी तीर्थडुरों का आधार-स्थान शान्ति अर्थात अहिंसा है। तात्पर्य यह है कि तीर्थडुरों को इतना ऊंचा पद अहिंसा के उत्कृष्ट पालन से ही प्राप्त होता है। पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ, तण-रुक्ख-वीया य तसा य पाणा । जे अण्डया जे य जराउ पाणा, ___संसेयया जे रसयाभिहाणा ॥ २५ ॥ एयाइं कायाइं पवेइयाई, एए जाणे पडिलेह सायं । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिसा] [१२६ एएण कारण य आयदण्डे, एएसु या विष्परियासुविन्ति ॥२६॥ [सू० श्रु० १, अ० ७, गा० १-२] (१) पृथ्वी, (२) जल, (३) तेज, (४) वायु, (५) तृण, वृक्ष, बीज आदि वनस्पति तथा (६) अण्डज, जरायुज, स्वेदज, रसज-इन सभी त्रस प्राणियो को ज्ञानियो ने जीवसमूह कहा है। इन सब में सुख की इच्छा है, यह जानो और समझो। ___ जो इन जीवकायो का नाश करके पाप का सचय करता है, वह बारबार इन्ही प्राणियो मे जन्म धारण करता है। अज्झत्थं सचओ सव्व, दिस्स पाणे पियायए । न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए ॥ २७ ॥ [उत्त० भ० ६, गा०७] सभी सुख-दुखो का मूल अपने हृदय मे है, यो मानकर तथा प्राणिमात्र को अपने अपने प्राण प्यारे है, ऐसा समझकर भय और वैर से निवृत्त होते हुए किसी भी प्राणी की हिंसा न करना। समया सव्वभूएसु, सत्तुमित्तेसु वा जगे। पाणाइवायविरई, जावज्जीवाए दुक्करं ।। २८ ।। [उत्त० अ० १६, गा० २५ ] शत्रु अथवा मित्र सभी प्राणियो पर समभाव रखना ही अहिंसा कहलाती है। आजीवन किसी भी प्राणी की मन-वचन-काया से हिंसा न करना, यह वस्तुतः दुष्कर व्रत है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] [श्री महावीर-वचनामृत अभओ पत्थिवा तुम्भ, अभयदाया भवाहि य ।। अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं हिंसाए पसज्जसि ॥२६॥ [उ० अ० १८, गा० ११] हे पार्थिव ! तुझे अभय है। तू भी अभयदाता बन । इस क्षणभगुर संसार मे जीवों की हिंसा के लिए तू क्यों आसक्त हो रहा है? जगनिस्सिएहिं भूएहि, तसनामेहिं थावरेहिं च । नो तेसिमारभे दंडं, मणसा वयसा कायसा चेव ॥३०॥ उत्त० म०८, गा०१०] ससार मे त्रस और स्यावर जितने भी जीव हैं, उनके प्रति मन, वचन और काया से दण्ड-प्रयोग नहीं करना। विवेचन--कोई भी प्राणी हमे पीडित करे, हमे सताये अथवा हमारे मार्ग मे विघ्नभत हो, तो भी उसे दण्डित करने का-उसकी हिंसा करने का विचार मन, वचन तथा काया से कदापि नही करना चाहिये। यह हमारा व्यवहार जब पीडा पहुंचानेवाले आदि के प्रति भो उचित है, तब जिसने हमारा कभी कुछ नहीं बिगाड़ा अथवा हमे किसी भी त्य मे कोई क्षति नही पहँचाई-उसे भला क्योंकर दण्ड दे सकते हैं ? तात्पर्य यह है कि मुमुनु को मन, वचन और काया से अहिंसा का पालन करना चाहिये। समणामु एगे क्यमाणा, पाणयहं मिया अयाणंता । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिसा] [ १३१ मन्दा निरयं गच्छन्ति, वाला पावियाहिं दिट्ठीहिं ॥३१॥ [उत्त० भ० ८, गा०७] 'हम श्रमण हैं' ऐसा कहनेवाला और प्राणिहिंसा में पाप नही माननेवाले मन्दबुद्धि कुछ अज्ञानी जीव अपनी पापदृष्टि से ही नरक में जाते हैं। न हु पाणवहं अणुजाणे, मुच्चेज कयाई सव्वदुक्खाणं । एवारिएहिमक्खायं, जेहिं इमो साहुधम्मो पन्नत्तो ॥३२॥ [उत्त० अ०८, गा०८] जो प्राणिहिंसा का अनुमोदन करता है, वह सर्वदुःखो से कदापि मुक्त नही हो सकता। ऐसा तीर्थङ्करो ने कहा है कि जिनके द्वारा यह साधुधर्म का प्रतिपादन किया गया है। विवेचन कहने का आशय यह है कि साधु स्वय हिंसा न करे, दूसरों से भी हिंसा न करवाये और कोई हिंसा करता हो तो उसकी अनुमोदना भी न करे। यदि वह अनुमोदना करे तो उसका मोक्षप्राप्ति का ध्येय हो विफल हो जाता है। तत्थिमं पठमं ठाणं, महावीरेण देसियं । अहिंसा निउणा दिट्ठा, सबभूएसु संजमो ॥३३॥ [ दय० म० ६, गा०६] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ [श्री महावीर-चक्नामुक भगवान् महावीर ने सभी धर्मस्थानों में पहला स्थान अहिता को दिया है। सर्व प्राणियों के साथ संयमपूर्वक वर्ताव करना, इसमे उन्होंने उत्तम प्रकार को अहिता देखी है। जावन्ति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा। ते जाणमजाणं वा, न हणे नो वि घायए ॥३४॥ [दश० ल, गा० १०] इस लोक में जितने भी त्रस और स्थावर जीव है, उनकी जाने-अनजाने हिंसा नहीं करना, और दूसरो के द्वारा भी हिना नहीं करवाना। सम्बे जीवा वि इच्छंति, जीविउन मरिजिउं। तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा बज्जयंति णं ॥३॥ [ दग- म०६, गा० १० ] सभी जीव जीना चाहते है, कोई मरना नहीं चाहता । अतः निर्ग्रन्य मुनि सदा भयङ्कर ऐनी प्राणिाि का परित्याग करते हैं। विवेचत-निर्ग्रन्य मुनि अर्थात् जन श्रमण। भयङ्कर अर्थात् परिणाम मे भपड्र। प्राणिवर अर्यात् जीवहिता हिना, प्रातना ज्यका मारणा! तेर्मि अच्छणजोएण, निच्चं होयवयं मिया । मणमा काययोण, एवं हवइ मंजए ॥३६॥ [दग. अः ८,गा०३] Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिसा] [१३३ इन जीवो के प्रति सदा अहिंसक वृत्ति से रहना। जो कोई मन, वचन और काया से अहिंसक रहता है, वही आदर्श संयमी है । अजयं चरमाणो उ, पाणभूयाइं हिंसइ । बंधइ पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥३७॥ असावधानी से चलनेवाला मनुष्य त्रस-स्थावर जीवो की हिंसा करता है, जिससे कर्मबन्धन होता है और उसका फल कटु होता है। अजयं चिट्ठमाणो उ, पाणभूयाहिं हिंसइ । बंधइ पावयं कम्म, तं से होइ कडयं फलं ॥३८॥ असावधानी से खड़ा रहनेवाला पुरुष त्रस-स्थावर जीवो की हिंसा करता है, जिससे कर्मबन्धन होता है और उसका फल कटु होता है। अजयं आसमाणो उ, पाणभूयाइं हिंसइ । बंधइ पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥३६॥ असावधानी से बैठनेवाला मनुष्य स-स्थावर जीवो की हिंसा करता है, जिससे कर्मबन्धन होता है और उसका फल कटु होता है । अजयं सयमाणो उ, पाणभूयाइं हिंसइ । बंधइ पावयं कम्म, तं से होइ कडयं फलं ॥४०॥ असावधानी से सोनेवाला पुरुष त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा करता है, जिससे कर्मवत्धन होता है और उसका फल कटु होता है। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] [श्री महावीर-वचनामृत . अजयं भुज्जमाणो उ, पाणभूयाई हिंसइ । बंधइ पावयं कम्मं, तं से होइ कडुयं फलं ॥४१॥ असावधानी से भोजन करनेवाला मनुष्य त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा करता है, जिससे कर्मबन्धन होता है और उसका फल कटु होता है। अजयं भासमाणो उ, पाणभूयाइं हिंसइ । बंधइ पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥४२॥ [दश० भ० ४, गा० १ से ६] असावधानी से बोलनेवाला पुरुप त्रस-स्थावर जीवो को हिंसा करता है, जिससे कर्मवन्धन होता है और उसका फल कटु होता है । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : १२: सत्य तं सच्चं भयवं ॥१॥ [प्रश्न० द्वितीय सवरद्वार] वह सत्य भगवान है। पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि, सच्चस्स आणाए से उवहिए मेहावी मारं तरइ ॥ २ ॥ . [भा० श्रु० १, अ० ३, उ०३] हे पुरुष! तू सत्य को ही वास्तविक तत्त्व जान। सत्य की आज्ञा मे रहनेवाला वह बुद्धिमान् मनुष्य मृत्यु को तैर जाता है। अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मुसं बूया, नो वि अन्नं क्यावए ॥३॥ [दश० अ० ६, गा० ११] अपने स्वार्थ के लिए अथवा दूसरे के लाभ के लिये, क्रोध से अथवा भय से, किसी की हिंसा हो ऐसा असत्य वचन खुद नहीं बोलना चाहिये, ठीक वैसे ही दूसरे से भी नही बुलवाना चाहिये। मुसावाओ य लोगम्मि, सव्वसाहूहि गरिहिओ। अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए ॥४॥ [दश० भ० ६, गा० १२] Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] [श्री महावीर-वचनामृत इस जगत मे सभी साधु पुरुषो ने मृषावाद अर्थात् असत्य वचन __की घोर निन्दा की है ; क्योंकि वह मनुष्यों के मन मे अविश्वास उत्पन्न करनेवाला है। अतः असत्य वचन का परित्याग करना चाहिये। न लविज्ज पुट्ठो सावज्जं, न निरटुं न मम्मयं । अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्संतरेण वा ॥५॥ [उत्त० म० १, गा० २५] यदि कोई पूछे तो अपने लिये अथवा अन्य के लिये, अथवा दोनों के लिए, स्वप्रयोजन अथवा निष्प्रयोजन, पापी एव निरर्थक वचन नही बोलना चाहिये । न मर्मभेदी वचन ही वोलना चाहिये। आहच्च चण्डालियं कटु, न निण्हविज्ज कयाइ वि । कडं कडेत्ति भासेज्जा, अकडं नो कडेत्ति य ॥६॥ [उत्त० अ० १, गा० ११] यदि क्रोध के कारण कभी मुँह से असत्य वचन निकल पड़े, तो उसे छिपाये नही । यदि असत्य वचन बोल चुके हों तो वैसा साफ साफ कह देना चाहिये और नही बोला हो तो वैसा कहना चाहिये। अर्थात् किये हुए को किया हुआ और नही किये हुए को नही किया हुआ कहना जरूरी है। इस तरह सदा सत्य बोलना चाहिये। चउण्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पन्नवं । दोहं तु विणयं सिक्खे, दो न भासिन्ज सब्बसो ॥७॥ [ दश० अ०७, गा० १] Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य ] [१३७ प्रज्ञावान् साधक चार प्रकार की भाषाओ के स्वरूप को जानकर उनमे से दो प्रकार की भाषा द्वारा विनय ( आचार ) सीखे ; और दो प्रकार की भाषाओ का कदापि उपयोग न करे। विवेचन-भाषा के चार प्रकार है :-(१) सत्य, (२) असत्य, (३) सत्यासत्य अर्थात् मिश्र और (४) असत्यामृषा अर्थात् व्यावहारिक। इनमें से प्रथम और अन्तिम इन दो भाषाओ का साधक 'विनयपूर्वक व्यवहार करे और असत्य तथा मिश्र भाषा का सर्वथा परित्याग करे। जा य सच्चा अवत्तव्या, सच्चामोसा य जा मुसा । जा य बुद्धहिंऽनाइन्ना, न तं भासिज्ज पन्नवं ॥८॥ [दश० म०७, गा० २] जो भाषा सत्य होने पर भी बोलने योग्य न हो, जो भाषा सत्य और असत्य के मिश्रणवाली हो, जो भाषा असत्य हो और जिस भाषा का तीर्थङ्करो ने निषेध किया हो-ऐसी भाषा का प्रयोग प्रज्ञावान् साधक को नही करना चाहिये। विवेचन-ऊपर की सातवी गाथा मे सत्य और व्यावहारिक भाषा बोलने के सम्बन्ध में कहा गया है। उसमे भी बहुत कुछ बात -समझने योग्य है। उसीका स्पष्टीकरण प्रस्तुत गाथा मे किया गया है। भाषा सत्य हो किन्तु बोलने जैसी न हो, अर्थात् जिसके बोलने से हिंसा अथवा अन्य किसी की हानि होने जैसी स्थिति हो तो वैसी भाषा कभी नही बोलनी चाहिये। उदाहरण के लिये-बाजार में -जाते हुए यदि कोई कसाई-वधिक पूछे, "मेरी गाय को देखा है ?" Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] [श्री महावीर-वचनामृत तो गाय को जाती हुई देखने पर उत्तरदाता ऐसा कह दे-- "हाँ, मैने देखी है, वह उस ओर गई है।" तो परिणामस्वरूप हिंसा होना सम्भव है, क्योकि कसाई उस दिशा में जाकर गाय को पकड लायगा और फिर उसका वध करेगा। अतः ऐसी भाषा नही बोलनी चाहिये। असचमोसं सच्चं च, अणवजमकक्कसं । समुपेहमसंदिद, गिरं भामिज पन्नवं ॥६॥ [दश० अ०७, गा० ३] व्यावहारिक भाषा तथा सत्य भाषा भी जो पापरहित हो, कर्कशता से मुक्त (कोमल) हो, निःसन्देह हो तथा स्व-पर का उपकार करनेवाली हो, ऐसी भाषा का ही प्रयोग प्रज्ञावान् सावक को करना चाहिये। वितहं वि तहामुत्ति, जं गिरं भासए नरो। तम्हा सो पुट्ठो पावणं, किं पुण जो मुसं वए ॥१०॥ [दश० भ० ७, गा०५]. जो मनुप्य प्रकट सत्य को भी वास्तविक असत्य के रूप मे भूल से वोल जाय तो वह पाप का भागी वनता है, तब सर्वथा असत्य बोलनेवाले का तो कहना ही क्या ? वह अनन्त पापो का. भागी वनता है। तहेब फरसा भासा, गुरुभूओवघाइणी । . सच्चा विसा न वत्तबा, जओ पावस्स आगमो॥११॥ [ दशः म०७, गा० ११ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य] [१३६ इसी तरह सत्यभाषा भी अगर अनेकविध प्राणियो की हिंसा का कारण बनती हो अथवा कठोर हो तो कभी नही बोलनी चाहिये, क्योकि उससे पाप का आगमन होता है। तहेव काणं काणे ति, पंडगं पंडगे त्ति वा। चाहियं वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरेत्तिनो वए ॥१२॥ [दश० अ०७, गा० १२] ठीक इसी प्रकार काने को काना, नपुसक को नपुसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर भी नही कहना चाहिये, क्योकि यह सब सत्य होने पर भी सुनने मे अत्यन्त कठोर लगता है। एएणऽन्नेण अटेणं, परो जेणुवहम्मइ । आयारभावदोसन्नू , न तं भासिज पन्नवं ॥१३॥ [दश० अ० ७, गा० १३ ] अतः प्रज्ञावान् साधक आचार और भाव के गुण-दोषो को परख कर उपर्युक्त तथा दूसरे के हृदय को आघात पहुँचानेवाली भाषा का प्रयोग न करे। तहेव सावजऽणुमोयणी गिरा, __ ओहारिणी जा य परोवघायणी । से कोह लोह भय हास माणवो, न हासमाणो वि गिरं वएज्जा ॥१४॥ [दश० म०७, गा: ५४] Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___१४.] [श्री महावीर-वचनामृत इसी प्रकार प्रज्ञावान् साधक क्रोध, लोभ, भय, हास्य अथवा विनोद मे पापकारिणी, पाप का अनुमोदन करनेवाली, निश्चयकारिणी और दूसरे के मन को दुःख पहुँचानेवाली भाषा बोलना छोड़ दे। मुहुत्तदुक्खा उ हवंति कंटया, ___अओमया ते वि तओ सुउद्धरा । वाया दुरुत्वाणि दुरुद्धराणि, वेराणुवन्धीणि महन्भयाणि ॥१॥ [दश अ०६, उ०३, गा०७] यदि हमे लोहे का काँटा चुभ जाय तो घडी दो घड़ी ही दुःख होता है और वह भी सरलता से निकाला जा सकता है, परन्तु अशभ वाणीरूपी कांग हृदय मे एक वार चम जाने पर सरलता से नही निकाला जा सकता, साय ही वह चिरकाल के लिए वैरानुबन्ध करनेवाला तथा महान् भय उत्पन्न करनेवाला होता है। दिटुं मियं असंदिद्धं, पडिपुण्णं विय नियं । अयंपिरमणुन्निग्गं, भासं निसिर अत्तवं ॥१६॥ [दशः म० ८, गाः ४६] आत्मार्थी सावक को चाहिये कि वह दृप्ट, परिमित, असन्दिच, परिपूर्ण, स्पष्ट, अनुमत, वाचालता-रहित बोर क्सिो को भी उद्विग्न न करनेवाली ऐसी वाणी का उपयोग करे। भासाइ दोसे य गुणे य जाणिया, तीसे य दुई परिवज्जए सया। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य] [१४१. छसु संजए सामणिए सया जए, वएज बुद्धे हियमाणुलोमियं ॥१७॥ दश० अ० ७, गा० ५६ ] भाषा के दोष और गुणो को जानकर उसके दोषों को सदा के लिये छोड देना चाहिये। छह काय के जीवो का यथार्थ संयम पालने वाले और सदा सावधानी से वर्ताव करनेवाले ज्ञानी साधक हमेशा परहितकारी तथा मधुर भाषा का ही प्रयोग करे। सुवकसुद्धिं समुपेहिया मुणी, गिरं च दुटुं परिवज्जए सया । मियं अदुटुं अणुवीइ भासए, सयाण मज्झे लहई पसंसणं ॥१८॥ 1 [वश० अ० ७, गा० ५५ ] मुनि हमेशा वचनशुद्धि का विचार करे और दुष्ट भाषा का सदा के लिये परित्याग करे। यदि अदुष्ट भाषा बोलने का अवसर भी आ जाय तो वह परिमित एव विचारपूर्वक बोले। ऐसा बोलनेवाला सन्त पुरुषो की प्रशसा का पात्र बनता है। अप्पत्तिअं जेण सिया, आसु कुप्पिज्ज वा परो । सव्वसो तं न भासिज्जा, भासं अहिअगामिणिं ॥१६॥ [दश० अ० ८, गा० ४८] जिससे अविश्वास पैदा हो अथवा दूसरे को जल्दी से क्रोध आ जाय ऐसी अहितकर भाषा का विवेकी पुरुष कदापि प्रयोग न करे। Tam . Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२] [श्री महावीर-वचनामृत देवाणं मणुयाणं च, तिरियाणं च बुग्गहे। अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउ त्ति नो वए ॥२०॥ [दशु० म०७, गा० ५०] देवता, मनुष्य तथा तिर्यचों में जब परस्पर युद्ध हो, तब इसकी जय हो और इसकी पराजय हो, ऐसा नहीं बोलना चाहिये। विवेचन-क्योंकि इस प्रकार के वचनोच्चार से एक प्रसन्न होता है और दूसरा रुष्ट । ऐसी दुःखद परिस्थिति उपस्थित करना प्रज्ञाशाली सावक के लिये उपयुक्त नही है। अपुच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अंतरा। पिट्टिमंसं न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जए ॥२१॥ [दश० स०८, गा० ४७ ] संयमी सावक विना पूछे उत्तर न दे, अन्य लोग वाते करते हो तो उनके बीच में न वोले, पीठ पीछे किसी को निन्दा न करे तथा बोलने मे कपयुक्त असत्यवाणी का प्रयोग न करे। जणवयसम्मयठवणा, नामे रूवे पडुच्चे सच्च य। ववहारभावजोगे, दसमे ओवम्मसच्चे य ॥२२॥ [प्रज्ञापना सूत्र-भाषा पदा सत्यवचनयोग के दस प्रकार हैं:-(१) जनपद-सत्य, (२) सम्मत-सत्य, (३) स्थापना सत्य, (४) नाम-सत्य, (५) रूप-सत्य, Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य] [१४३ (६) प्रतीत-सत्य, (७) व्यवहार-सत्य, (८) भाव-सत्य, (६) योग-सत्य और (१०) उपमा-सत्य। __विवेचन-दशवकालिक नियुक्ति मे इन दस प्रकार के सत्यवचनयोग की जानकारी इस प्रकार दी है : १ : जनपद-सत्य-जिस देश मे जैसी भाषा बोली जाती हो वैसी भाषा बोलना, उसे जनपद-सत्य कहते है। जैसे कि "बिल' शब्द से हिन्दी भाषा मे चूहे-सर्प आदि का निवास स्थान समझा जाता है, जबकि अग्रेजी भाषा में "विल' शब्द से मूल्य-पत्रक, [की हुई सेवा के मूल्य का पत्रक] अथवा किसी नियम की स्थापना का पत्रक समझा जाता है। २: सम्मत-सत्य-पूर्वाचार्यों ने जिस शब्द को जिस अर्थ में माना है, उस शब्द को उसी अर्थ मे मान्य रखना, वह है 'सम्मतसत्य । जैसे कि कमल और मेढक दोनों ही कीचड मे उत्पन्न होते है, तथापि पङ्कज शब्द कमल के लिये ही प्रयुक्त होता है, न कि. मेढक के लिये। ३ : स्थापना-सत्य-किसी भी वस्तु की स्थापना कर उसे इस नाम से पहिचानना, यह है, 'स्थापना-सत्य' । जैसे कि ऐसी आकृतिवाले अक्षर को ही 'क' कहना। एक के ऊपर दो बिन्दु और लगा देने से 'सौ' और तीन शून्य जोड देवे तो उसे 'हजार' कहना आदि । शतरज के मुहरों को 'हाथी', 'ऊंट', 'घोडा' आदि कहना यह भी इसीमे आता है। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] [श्री महावीर-वचनामृत ४ : नाम-सत्य-गुण-विहीन होने पर भी किसी व्यक्ति अथवा वस्तुविशेष का नाम निर्धारित करना 'नाम-सत्य' कहलाता है। जैसे एक बालक का जन्म किसी गरीव घर मे होने पर भी उसका नाम रख लिया जाता है 'लक्ष्मीचन्द्र'। ५ : रूप-सत्य-किसी विशेष रूप के धारण कर लेने पर उसे उसी नाम से सम्बोधित किया जाता है। जैसे कि साधु का देष पहने हुए देखने पर उसे 'साधु' कहा जाता है। ६:प्रतीत-सत्य-(अपेक्षा-सत्य) एक वस्तु की अपेक्षा अन्य वस्तु को वडी, भारी, हलकी आदि कहना वह 'प्रतीत-सत्य' है । जैसे कि-अनामिका की अंगुली वडी है यह वात कनिष्ठा की अपेक्षा से सत्य है, परन्तु मध्यांगुली की अपेक्षा वह छोटी है। (७) व्यवहार-सत्य-(लोक-सत्य)-जो बात व्यवहार में । .: बोली जाय वह 'व्यवहार-सत्य' । जैसे कि गाड़ी कलकत्ता पहुचती है तब कहा जाता है कि कलकत्ता आ गया। रास्ता अथवा मार्ग स्थिर है, वह चल तो सकता नही, फिर भी कहा जाता है कि यह मार्ग आवू जाता है। इसी प्रकार वन मे स्थित घास जलता है, तथापि कहा जाता है कि वन जल रहा है। (८) भाव-सत्य-जिस वस्तु मे जो भाव प्रघानरूप मे दिखाई पडता हो, उसे लक्ष्य मे रख युक्त वस्तु का प्रतिपादन करना, 'भावसत्य' कहलाता है। कितने ही पदार्थों मे पांचों रग न्यूनाधिक प्रमाण मे रहने पर भी उन रगों की प्रधानता मानकर काला, पीला Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य] [ १४५ आदि कहा जाता है । जैसे तोते मे अनेक रंग होने पर भी उसे हरे रंग का ही कहते हैं, यह है 'भाव-सत्य'। (६) योग-सत्य-योग अर्थात् सम्बन्ध से किसी व्यक्ति अथवा वस्तु को पहचानना, वह 'योग-सत्य' कहलाता है। जैसे कि अध्यापक को अध्यापन-काल के अतिरिक्त सयय मे भी अध्यापक कहा जाता है। (१०) उपमा-सत्य-किसी एक प्रकार की समानता हो, उसके आधार पर उस वस्तु की अन्य वस्तु के साथ तुलना करना और उसे तदनुसारी नाम से पहचानना वह उपमा-सत्य कहलाता है। जैसे कि 'चरण-कमल', 'मुख-चन्द्र', 'वाणी-सुधा' आदि । कोहे माणे माया, लोभे पेज्जे तहेव दोसे य । हासे भए अक्खाइय, उवघाए निस्सिया दसमा ॥२३॥ [प्रज्ञापनासुत्र-भाषापद ] क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, हास्य तथा भयभीत होकर बोली जानेवाली भाषा, कल्पित व्याख्या तथा दसमे उपघात (हिंसा) का आश्रय लेकर जिस भाषा का उपयोग किया जाय, वह असत्य भाषा कहलाती है। - Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : ९३ . अस्तेय पंचविहो पण्णत्तो, जिणेहिं इह अण्हओ अणादीओ । हिंसामोसमदत्तं, अगंभपरिग्गहं चैव ॥ १ ॥ [प्रश्न० द्वार १, गा० २ ] जिन भगवन्तों ने आस्रव को अनादि तथा पाँच प्रकार का कहा है : (१) हिंसा, (२) मृपावाद, (३) अदत्त, (४ अब्रह्म और (५) परिग्रह | विवेचन - जिसके द्वारा आत्मप्रदेशों की ओर कार्मण-वर्गणा का आकर्षण हो उसे आस्रव कहते हैं । वह प्रवाह से अनादि है । हिंसादि पाँच प्रकार के पाप के कारण उसका उद्भव होता है । इनमे से हिंसा को रोकने के लिये प्राणातिपात विरमणव्रत अर्थात् अहिंसाव्रत, मृपावाद को रोकने के लिये मृपावादविरमणव्रत अर्थात् सत्यव्रत, तथा अदत्तादान की निवृत्ति के लिये अदत्तादानविरमणव्रत अर्थात् अस्तेयन्त व्रत हैं । इसी प्रकार अब्रह्म को रोकने के लिये मैथुनविरमणव्रत और परिग्रह को रोकने के लिये परिग्रह - विरमणव्रत हैं । तइयं च अदत्तादाणं हरढहमरणभयकलुमतासणपरसंतिमऽभेज्ज लाभमूलं अकित्तिकरणं अणज्जं " Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तेय] [१४७ साहुगरहणिज्जं पियजणमित्तजणभेदविप्पीतिकारकं रागदोसबहुलं ॥२॥ [प्रश्न० द्वार ३, सूत्र 6] | तीसरा अदत्तादान दूसरों के हृदय को दाह पहुंचानेवाला, मरणभय, पाप, कष्ट तथा परद्रव्य की लिप्सा का कारण और लोभ का मूल है। यह अपयशकारक है, अनार्य कर्म है, साधु-पुरुषो द्वारा निन्दित है, प्रियजन और मित्रजनो मे भेद करानेवाला है, और अनेकविध रागद्वेष को जन्म देनेवाला है। विवेचन-प्रश्नव्याकरण सूत्र के तृतीय द्वार मे स्तेय के तीस नाम गिनाये हैं, जिनमे से कुछ इस प्रकार समझने चाहिये :(१) चोरी, (२) अदत्त, (३) परलाभ, (४) असयम, (५) परचनगृद्धि, (६) लौल्य, (७) तस्करत्व, (८) अपहार, (९) पापकर्मकरण, (१०) कूटतूल-कूटमान, (११) परद्रव्याकाक्षा, (१२) तृष्णा आदि । चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमित्तं चि, उग्गहंसि अजाइया ॥३॥ तं अपणा न गिण्हंति, नो वि गिण्हावए परं । अन्नं वा गिण्हमाणं वि, नाणुजाणंति संजया ॥ ४ ॥ [दश० म० ६, गा० १४-१५ ] __ वस्तु सजीव हो या निर्जीव, कम हो या ज्यादा, वह यहां तक कि दाँत कुतरने की सलाई के समान तुच्छ वस्तु भी उसके स्वामी को पूछे बिना सयमी पुरुष स्वय लेते नही, दूसरे से लिवाते नही तथा जो कोई लेता हो, उसे अनुमति देते नहीं। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] [श्री महावीर-वचनामृत निच्चं तसे पाणिणो थावरे य, ___ जे हिंसंति आयसुहं पडुच्च । जे लूसए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खई सेयवियस्स किंचि ॥॥ [ सूत्र ध्रु० १, अ० ५, उ० १, गा० ४] ___ जो मनुष्य अपने सुख के लिये त्रस तथा स्थावर प्राणियों की निरन्तर हिंसा करता रहता है और जो दूसरे की वस्तुएं विना लौटाये अपने पास रख लेता है अर्थात् चुरा लेता है, वह आदरणीय व्रतों का तनिक भी पालन नही कर सकता। उड् अहेय तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा । हत्थेहि पाएहि य संजमित्ता, अदिन्नमन्नेसु य नो गहेज्जा ॥६॥ [सू० श्रु० १, अ० १०, गा० २] आत्मार्थी पुरुष को चाहिये कि वह ऊपर, नीचे और तिरछी दिगाओं मे जहाँ त्रस और स्थावर जीव रहते हैं, उन्हे हाथ-पैरों के आन्दोलन से अथवा अन्य अगों द्वारा किसी प्रकार की यातना न पहुँचाते हुए सयम से रहे तथा दूसरे द्वारा नहीं दी गई वस्तु ग्रहण न करे अर्थात् अदत्तादान न करे। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तेय] [१४६ दंतसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं । अणवज्जेसणिज्जस्स, गिण्हणा अवि दुक्करं ॥७॥ [ उत्त० अ० १९, गा० २८] दांत कुतरने का तिनका भी उसके मालिक के दिये बिना ग्रहण नही करना, साथ ही निरवद्य और एषणीय वस्तुएं ही ग्रहण करनाये दोनो बाते अत्यन्त दुष्कर है। विवेचन-निरवद्य अर्थात् पापरहित । एषणीय वस्तुएं अर्थात् साधुधर्म के नियमानुसार उपयोग में ली जायं ऐसी वस्तुएं । रूवे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहिं । अतुढिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥८॥ [उत्त० भ० ३२, गा० २६] मनोहररूप ग्रहण करनेवाला जीव अतृप्त ही रहता है। उसकी आसक्ति बढती हो जाती है, इसलिए तुष्टि-तृप्ति नही होती। अतृप्ति-दोष से दुःखित होकर वह दूसरे की सुन्दर वस्तुओ का लोभी बनकर अदत्त ग्रहण करता है। तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] [ श्री महावीर वचनामृत मायामुसं वडूइ लाभदोसा, तत्था वि दुक्खा न विमुच्चई से ॥६॥ [ उत्त० अ० ३२, गा० ३० ] रूप के संग्रह मे असन्तुष्ट बना हुआ जीव तृष्णा के वशीभूत होकर अदत्त का हरण करता है और इस तरह प्राप्त वस्तु के रक्षणार्थ लोभदोप मे फंसकर कपट-क्रिया द्वारा असत्य वोलता है । इन कारणो से वह दुःख से मुक्त नही होता । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : १४ : ब्रह्मचर्य लोगुत्तमं च वयमिणं ॥ १ ॥ विणयमूलं ॥२॥ [प्रश्न संवरद्वार ४, सूत्र १] ० यह व्रत लोकोत्तम है । बंभचेर उत्तमतव - नियम-नाण- दंसण- चरित्त-सम्मत [ प्रश्न० संवरद्वार ४, सूत्र १] ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सयम और विनय का मूल है । एकं पि वंभचेरे जंमिय आराहियं पि, आराहिय वयमिणं सव्वं तम्हा निउएण वंभचरं चरियत्वं ॥ ३ ॥ [प्रश्न संवरद्वार ४, सूत्र १] जिसने अपने जीवन मे एक ही की हो, उसने सभी उत्तमोत्तम व्रतों की समझना चाहिये । अतः निपुण साधक को ब्रह्मचर्य का पालन करना ब्रह्मचर्य व्रत को आराधना आराधना की है - ऐसा चाहिये । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] [श्री महावीर वचनामृत तवेसु वा उत्तम बंभचरं ॥४॥ [सू० श्रु० १, अ० ई, गा० २३] अथवा तप में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है। विरह अबंभचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा । उग्गं महन्बयं बंभ, धारेयब्वं सुदुक्करं ॥५॥ [उत्त न० १६, गा० २६ ] कामभोग का रस जाननेवालों के लिए मंथन-त्याग और उन ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करने का कार्य अति कठिन है। मोक्खाभिकंखिस्स उ माणवस्स, संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे । नेयारिसं दुत्थरमत्थि लोए, जहित्यिओ बालमणोहराओ ॥५॥ [उत्त० म०३२, गाः १७] मोक्षार्थी, संसारभोर और धर्मनिष्ठ पुल्यों के लिये इस संसार में वाल जीवों का मन हरण करनेवाली स्त्रियों का परित्याग करने जितना मुशिल कार्य दूसरा कोई नही है। एए य संगे समइक्क मिचा, सुदुत्तरा चेव भवंति सेसा । जहा महासागरमुत्तरिता, नई भवे अवि गंगासमाणा ॥७॥ [उच ३२, गाः १८] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य [१५३ __ जैसे महासागर को तैर जानेवाले के लिये गङ्गा नदी तैर जाना सुगम है, ठीक वैसे ही स्त्री-ससर्ग का त्याग करनेवालों के लिये अन्य वस्तुओं का त्याग करना अत्यन्त सरल है। णो रक्खसीसु गिज्झेज्जा, गंडवच्छासु ऽणेगचित्तासु । जाओ पुरिसं पलोभित्ता, __ खेल्लंति जहा व दासेहिं ॥८॥ [उत्त० भ० ८, गा० १८] जिस तरह कोई राक्षसी किसी का सारा रक्त चूसकर उसके प्राण हर लेती है, ठीक उसी तरह पुष्ट स्तनवाली तथा अनेको का ध्यान चित्त में धारण करनेवाली स्त्रियां साधक के ज्ञान-दर्शन आदि सब का अपहरण कर उसकी साधना का नाश कर देती है। ऐसी स्त्री सर्वप्रथम पुरुषो को अपनी ओर आकृष्ट करती है और बाद में उनसे आज्ञाकारी दास के समान कार्य करवाती है।। अबंभचरियं घोरं, पमायं दुरहिट्ठियं । नाऽऽयरंति मुणी लोए, भेयाययणवजिणा ॥६॥ [दश० अ० ६, गा० १५] सयम का भंग करनेवाले रमणीय स्थानो से दूर रहनेवाले साधुपुरुष साधारण जन-समूह के लिये अत्यन्त दुःसाध्य, प्रमाद के कारणरूप और महान् भयङ्कर ऐसे अब्रह्मचर्य का सपने मे भी सेवन नहीं करते। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] [श्री महावीर-वचनामृत मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वजयंति णं ॥१०॥ __ [ दश० अ० ६, गा० १६] यह अब्रह्मचर्य, अधर्म का मूल और महान् दोषो का स्थान है। अतः निर्ग्रन्थ मुनि उसका सदा त्याग करते हैं। इथिओजे न सेवन्ति, आइमोक्खा हु ते जणा॥११॥ [सू० श्रु० १, अ० १५, उ०६] जो पुरुष स्त्रियों का सेवन नहीं करते, वे मोक्ष-मार्ग मे अग्रगण्य होते हैं। विवेचन-इसी प्रकार जो स्त्रियां पुरुष सेवन नहीं करती, वे भी मोक्ष-मार्ग में अग्रगण्य होती हैं। ब्रह्मचर्यव्रत पुरुष तथा स्त्री-दोनों के लिये समान रूप से हितकर है। जे विन्नवणाहिअजोसिया, __ संतिण्णेहि समं वियाहिया । 'तम्हा उडूं ति पासहा, ___ अदक्खु कामाई रोगवं ॥१२॥ [सू० ध्रु० १, न० २, उ० ३, गा० २] काम को रोगरूप समझकर जो पुरुष स्त्रियों का सेवक नहीं वनते, वे मुक्त पुरुष के समान ही है। स्त्री-त्याग के पश्चात् ही मोक्षदर्शन सुलभ है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य [१५५ जहिं नारीणं संजोगा, पूयणा पिट्ठओ कया। सव्वमेयं निराकिच्चा, ते ठिया सुसमाहिए ॥१३॥ [सू० ध्रु० १, अ० ३, उ० ४, गा० १७ ] जिन पुरुषों ने स्त्रीससर्ग और शरीरशोभा को तिलाञ्जलि दे दी है, वे समस्त विनो को जीतकर उत्तम समाधि मे निवास करते है। देवदाणवगंधबा, जक्खरक्खसकिन्नरा। वंभयारिं नमसंति, दुकरं जे करेंति तं ॥१४॥ [उत्त० अ० १६, गा० १६] अत्यन्त दुष्कर ऐसे ब्रह्मचर्यव्रत की साधना करनेवाले ब्रह्मचारी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नरादि सभी देवीदेवता नमस्कार करते हैं। एस धम्मे धुवे निच्चे, सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिज्झन्ति चाणेण, सिझस्सन्ति तहाऽवरे॥१॥ [उत्त० अ० १६, गा० १७ ] यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और जिनदेशित है, अर्थात् जिनों द्वारा उपदिष्ट है। इसी धर्म के पालन से अनेक जीव सिद्ध बन गये, बन रहे है और भविष्य में भी बनेंगे। वाउच जालमच्चइ, पिया लोगंसि इत्थओ ॥१६॥ [सू० श्रु० १, अ० १५, गा०८] जैसे वायु अग्नि की ज्वाला को पार कर जाता है, वैसे ही महापरानुक्रमी पुरुष इस लोक मे स्त्री-मोह की सीमा का उल्लंघन कर जाते है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्री महावीर-वचनामृत नीवारे व न लीएज्जा, छिन्नसोए अणाविले । अणाइले सया दंते, संधिपत्त अणेलिसं ॥१७॥ [सु० ५० १, म० १५, गा० १२] विषय-वासना तथा इन्द्रियों को जीतकर जो छिन्नस्रोत (संसार के प्रवाह को काटनेवाले ) बन गये हैं, साथ ही राग-द्वप रहित हैं, वे भूलकर भी कदापि स्त्रीमोह मे न फसे । क्योंकि स्त्रीमोह सूअर को फंसानेवाले चावल के दाने के समान है। जो पुरुष विषयभोग मे अनाकुल और सदा सर्वदा अपनी इन्द्रियो को वश मे रखनेवाला है, वह अनुपम भावसन्धि (कर्मक्षय करने की मानसिक दगा) को प्राप्त होता है। आलओ थीजणाइण्णो, थीकहा च मणोरमा । संथवो चेव नारीणं, तेसिं इंदियदरिसणं ॥१८॥ कूइ रुइझं गीअं, हासभुत्तासिआणि य । पणी भत्तपाणं च, अइमायं पाणभोअणं ॥१६॥ गत्तभूसणमिटुं च, कामभोगा य दुञ्जया । नरस्मत्तगवेगिस्स, विसं तालउडं जहा ॥२०॥ [उत्त० अ० १६, गा० १६-१२-६३] (१) स्त्रियों से व्याप्त स्थान, (२) स्त्रियों की मनोहर कथाए, (३) स्त्रियों का परिचय, (४) स्त्रियों के अजोपाग का निरीक्षण, (५) स्त्रियों के मधुर गन्द, दन, गीत, हंसी आदि का श्रवण, (६) पूर्वकाल मे मुक्त भोगो तथा अनुभूतविपयों का स्मरण, Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य] [१५७ (७) अधिक चिकने पदार्थों का सेवन, (८) प्रमाण से अधिक आहार, (E) इच्छित शरीर-शोभा और (१०) दुर्जय कामभोग का सेवनये दस वस्तुएं आत्मार्थी पुरुष के लिए तालपुट विष के समान है। जं विचित्तमणाइन्नं, रहियं थीजणेण य । बंभचेरस्स रक्खट्टा, आलयं तु निसेवए ॥२१॥ [उत्त० भ० १६, गा० १] मुमुक्षु ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये ऐसे स्थान में निवास करे, जहाँ एकान्त हो, जो कम वस्तीवाला हो और स्त्री आदि से रहित हो। विवित्तसेजासणजंतियाणं, ओमासणाणं दमिइंदियाणं। न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं, पराइओ वाहिरिवोसहेहिं ।।२२॥ [उत्त० अ० ३२, गा० १२] जिस तरह सर्वोत्तम औषधियो से दूर की गई व्याधियां पुनः अपना सिर ऊपर नहीं उठाती अर्थात पैदा नही होती, ठीक उसी तरह विविक्त शय्या और आसन का सेवन करनेवाले अल्पाहारी तथा जितेन्द्रिय महापुरुषो के चित्त को राग और विषयरूपी कोई शत्रु सता नही सकता, चचल बना नही सकता। मणपल्हायजणणी, कामराग-विवड़णी । वंभचेररओ भिक्खू, थीकहं तु विवज्जए ॥२३॥ [उत्त० भ० १६, गा०२] Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्री महावीर वचनामृत ब्रह्मचर्यपरायण साधक को चाहिए कि वह मन मे आह्लाद उत्पन्न करनेवाली तथा विषय-वासनादि की वृद्धि करनेवाली स्त्रीकथा का निरन्तर त्याग करे । १५८ ] समं च संथवं थीहि, संकहं च अभिक्खणं । भचेररओ भिक्खू, निच्चसो परिवज्जए ||२४|| [ उत्त० अ० १६, गा० ३] ब्रह्मचर्य मे अनुराग रखनेवाले साधक स्त्रियों के परिचय और उनके साथ बैठकर वारवार वार्तालाप करने के अवसरो का सदा के लिए परित्याग कर दे । कुन्यंति संथवं ताहिं, पन्भट्ठा समाहिजोगेहिं । तम्हा उ वज्जए इत्थी, विसलित्तं व कण्ठगं नच्चा ॥ २५॥ [ सू० श्र० १, भ० ४, उ० १, गा० १६ - ११ ] जो स्त्रियों के साथ परिचय रखता है, वह समाधियोग से भ्रष्ट हो जाता है । अतः स्त्रियों को विषलिप्त कंटक के समान समझकर ब्रह्मचारी उनका सम्पर्क छोड़ दे । नो तासु चक्खु संघेज्जा, नो विय साहसं समभिजाणे । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह्मचर्य] [१५६ नो सहियं पि विहरेज्जा, एवमप्या सुरक्खिओ होई ॥२६॥ [सू० श्रु० १, अ० ४, उ० १, गा०५] ब्रह्मचारी स्त्रियो पर कुदृष्टि न डाले। उनके साथ कुकर्म करने का साहस न करे। ठीक वैसे ही उनके साथ विहार अथवा एकान्तवास भी न करे। इस प्रकार स्त्री-सम्पर्क से बचनेवाला ब्रह्मचारी अपनी आत्मा को सुरक्षित रख सकता है। जतुकुंभे जहा उवज्जोई, संवासं विदू विसीएज्जा ।। २७॥ [सू० श्रु० १, अ० ४, उ० १, गा० २६ ] जैसे अग्नि के पास रहने से लाख का घडा पिघल जाता है, वैसे ही विद्वान् पुरुष भी स्त्री के सहवास से विषाद को प्राप्त होता है, अर्थात् उसका मन सक्षुब्ध बन जाता है। हत्थपायपडिच्छिन्नं, कन्ननासविगप्पियं । अवि वाससयं नारिं, बंभयारी विवज्जए ॥२८॥ [उत्त० भ० ८, गा० ५६ ] जिस के हाथ-पैर कट चुके हो, नाक-कान बेडोल बन गये हों, तथा जो सौ वर्ष की आयु की हो गई हो ऐसी वृद्धा और कुरूप स्त्री का सम्पर्क भी ब्रह्मचारी को छोड देना चाहिये। अहसेऽणुतप्पई पच्छा, भोच्चा पायसं व विसमिस्सं । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६.] [श्री महावीर-वचनामृत एवं विवेगमायाय, संवासो नवि कप्पए दविए ॥२६॥ [सू० ध्रु० १, म० ४, उ० १, गा० १०] विषमिश्रित भोजन करनेवाले मनुष्य की तरह ही स्त्री-समागम करनेवाले ब्रह्मचारी को वाद मे बहुत पछताना पडता है। इसलिये प्रारम्भ से ही विवेकी वन, मुमुक्षु आत्मा को स्त्रियों के साथ समागम नही करना चाहिये। जहा बिरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बंभयारिस्स खमो निवासी ॥३०॥ [उत्त० अ० ३२, गा० १३] जैसे विल्लियों के वास स्थान के पास रहना चूहों के लिये योग्य नही है, वैसे ही स्त्रियो के निवास स्थान के बीच रहना ब्रह्मचारी के लिये योग्य नहीं है। जहा कुक्कुडपोअसस्स, निच्चं कुललओ भयं । एवं खु बंभयारिस्स, इत्थी विग्गहओ भयं ॥३१॥ [दश० भ०८, गा०५४] जिस तरह मुर्गी के बच्चे को बिल्ली मेरा प्राण हरलेगी ऐसा भय सदा बना रहता है, ठीक वैसे ही ब्रह्मचारी को भी नित्य स्त्रीसम्पर्ग में आते हुए अपने ब्रह्मचर्य के भग होने का भय वना रहता है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ] अंगपच्चंगसं ठाणं, वंभचेररओ थीणं चारुल्लवियपेहिगं । चक्खुगिज्नं विवज्जए ||३२|| [ उत्त० अ० १६, गा० ४ ] ब्रह्मचर्य मे अनुराग रखनेवाले साधक को चाहिये कि वह स्त्रियो के अङ्ग प्रत्यग, संस्थान, मधुर भाषण तथा कटाक्ष का रसास्वादन करना छोड दे । न रूपलावण्णविलासहासं, न जंपियं इंगियपेहियं वा । [ १६१ इत्थी चित्तंसि निवेसड़ता, दट्ठे वस्से समणे तवस्सी ||३३|| [ उत्त० भ० ३२, गा० १४ ] तपस्वी श्रमण स्त्रियो के रूप लावण्य, विलास, हास-परिहास, भाषण - सभाषण, स्नेहचेष्टा अथवा कटाक्षयुक्त दृष्टि को अपने मन मे स्थान न दे अथवा उसे देखने का प्रयास न करे । चित्तभित्तिं न निज्झाए, नारिं वा सुअलंकियं । भक्खरं पिव दट्ठणं, दिट्ठि पडिसमाहरे ||३४|| [ दश० अ० ८, गा० ५५ ] साधक शृङ्गारपूर्ण चित्रो से सुसज्जित दीवार तथा उत्तम रीति से अलंकृत ऐसी नारी की ओर टकटकी लगाकर देखने का प्रयास न करे । ओर तिसपर भी यदि दृष्टि पड जाय तो उसे सूर्य पर पड़ी दृष्टि की तरह शीघ्र ही हटा ले | ११ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __१६२] [श्री महावीर-वचनामृत अदंसणं चेव अपत्थणं च, अचिंतणं चेव अकित्तणं च । इत्थीजणस्साऽऽरियज्झाणजुग्गं, हियं सया बंभवए रयाणं ॥३॥ [उत्त० अ० ३२, गा० १५] ब्रह्मचर्य मे लीन और धर्म-ध्यान के योग्य साधु स्त्रियो को रागदृष्टि से न देखे, स्त्रियो की अभिलाषा न करे, मन से उनका चिन्तन न करे और वचन से उनकी प्रशसा न करे। यह सब उसके ही हित मे है। जइ तं काहिसी भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ । वायाविद्धो व हडो, अद्विअप्पा भविस्ससि ॥३६॥ [उत्त० अ० २२, गा० ४५] हे साधक ! जिन-जिन स्त्रियों पर तेरी दृष्टि पडे, उन सब को भोगने की अभिलाषा करेगा तो वायु से कम्पायमान हड वृक्ष की तरह तू अस्थिर बन जाएगा और अपने चित्त की समाघि खो बैठेगा। कूइयं रुइयं गोयं, हसियं थणियकंदियं । बंभचररओ थीणं, सोयगेझं विवजए ॥३७॥ [ उत्त० अ० १६, गा०५] Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रहाचर्य] [१६३ ब्रह्मचर्यानुरागी साचक स्त्रियो के मीठे शब्द, प्रेम-रुदन, गीत, हास्य, चित्कार, विलाप, आदि श्रोत्रग्राह्य विषयो का परित्याग कर दे; अर्थात इन्हे कानो पर पड़ने ही न दे।। हासं किहुं रई दप्पं, सहसा वित्तासियाणि य । वंभचेररओ थीणं, नाणुचिन्ते कयाइ वि ॥३८॥ [उत्त० अ० १६, गा०६] ब्रह्मचर्य-प्रेमी साधक ने पूर्वावस्था मे स्त्रियो के साथ हास्य, धूतक्रीडा, गरीर-स्पर्श का आनन्द, स्त्री का मान-मर्दन करने के लिये धारण किये हुए गर्व तया विनोद के लिये की गई सहज चेष्टादि क्रियाओ का जो कुछ अनुभव किया हो, उनका मन से कदापि विचार न करना चाहिये। __मा पेह पुरा-पणामए, अभिकंखे उवहिं धुणित्तए । जे दुमणएहि नो नया, ते जाणंति समाहिमाहियं ॥३६॥ [सू० श्रु० १, अ० २, उ० २, गा० २७] हे प्राणी ! पूर्वानुभूत विषय-भोगों का स्मरण न कर ; न ही इनकी कामना कर । सभी माया-कर्मों को दूर कर। क्योंकि मन को दुष्ट बनानेवाले विषयों द्वारा जो नही झुकता है, वही जिनकथित समाधि को जानता है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] [श्री महावीर-वचनात जहा दवग्गी पारधणे वणे, समारुओ नोवसमं उवेइ । एविन्दियग्गी वि पगामभाइणो, न भयारिस्स हियाय कस्सई ॥४०॥ [ उत्त० अ० ३२, गा० ११] जैसे अधिक ईंधनवाले वन मे लगी हुई तथा वायु द्वारा प्रेरित दावाग्नि शान्त नही होती, वैसे ही सरस एव अधिक प्रमाण मे आहार करनेवाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियल्पी अग्नि शान्त नही होती। विभपा इत्यिसंसग्गो, पणीयं रसभायणं । नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥४१॥ [दश० अ०८, गा०५७] आत्म-गवेपी-आत्मान्वेषक पुरुष के लिये देहविभूषा, स्त्रीतसर्ग _(सम्पर्क ) तथा रसपूर्ण स्वादिष्ट भोजन तालपुट विष के समान है। पणीयं भत्तपाणं तु, खिप्पं मयविवडणं । बंभचेररओ भिक्खू, निच्चसो परिवजए ॥४२॥ [उत्त० अ० १६, गा० ७] ब्रह्मचर्य के अनुरागी सावक को शीघ्र ही मद (उन्मत्तता) बढाने वाले स्निग्च भोजन का सदा के लिये परित्याग कर देना चाहिये। विवेचन-स्निग्ध अर्थात रसपूर्ण। घी, दूध, दही, तेल, गुड़ और मिठाई, ये सब स्निग्ध पदार्थों मे गिने जाते हैं। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६५ महाचर्य] धम्मलद्धं मियं काले, जत्तत्थं पणिहाणवं । नाइमत्तं तु भुजिजा, बंभचेररओ सया ॥४३॥ [उत्त० अ० १६, गा०८] ब्रह्मचर्यानुरागी साधक को चाहिए कि भिक्षा के समय शुद्ध एषणा द्वारा प्राप्त आहार को ही स्वस्थ चित्त होकर सयम-यात्रा के लिये परिमित मात्रा मे ग्रहण करे, किन्तु अधिक मात्रा मे ग्रहण न करे। विभूसं परिवज्जेजा, सरीरपरिमंडणं । चंभचेररओ भिक्खू, सिंगारत्थं न धारए ॥४४॥ [उत्त० भ० १६, गा०६] ब्रह्मचर्यप्रेमी साधक हमेशा आभूषणो का त्याग करे, शरीर की शोभा बढाये नही तथा शृगार सजाने की कोई क्रिया करे नहीं। सई रूवे य गंधे य, रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवज्जए ॥४५॥ [उत्त० अ० १६, गा० १०] ब्रह्मचर्यप्रेमी साधक को शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शादि इन पांच प्रकार के काम-गुणो का सदा के लिये त्याग कर देना चाहिये। दुज्जए कामभोगे य, निच्चसो परिवज्जए । संकाठाणाणि सवाणि, वज्जेज्जा पणिहाणवं ॥४६॥ [उत्त० अ० १६, गा० १४] एकान मन रखनेवाला ब्रह्मचारी दुर्जय कामभोगो को सदा के लिये त्याग दे और सर्व प्रकार के शकास्पद स्थानो का परित्याग करे। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] [ श्री महावीर वचनामृत विसएसु मणुन्नेसु, पेमं नाभिनिवेसए । अणिच्चं तेसिं विन्नाय, परिणामं पुग्गलाण य ॥४॥ [दश० अ० ८, गा० ५६] शब्द, रूप, गन्च, रस और स्पर्गरूप समस्त पुद्गलों के परिणामों को अनित्य समझ कर ब्रह्मचारी साधक मनोज्ञ विषयों मे आसक्त न बने। पोग्गलाणं परिणाम, तेसिं नच्चा जहा तहा। विणीयतिण्हो विहरे, सीईभूएण अप्पणा ॥४८॥ [दश० अ०८, गा०६०] शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शरूप पुद्गल परिणामों का यथार्थ स्वरूप जानकर ब्रह्मचारी साधक अपनी आत्मा को शान्त करे तथा तृष्णारहित बन कर जीवन विताये। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : १५. अपरिग्रह धणधन्नपेसवग्गेसु, परिग्गहविवज्जणं । सवारंभपरिचाओ, निम्ममत्तं सुदुक्करं ॥१॥ [उत्त० अ० १६, गा० २६] धन, धान्य, नौकर-चाकर आदि का परिग्रह छोडना, सर्व हिंसक प्रवृत्तियो का त्याग करना और निर्ममत्व भाव से रहना, यह अत्यन्त दुष्कर है। चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि । अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खाण मुच्चइ ।।२।। [सू० श्रु० १, अ० १, उ० १, गा० २] जो सजीव अथवा निर्जीव वस्तु का स्वय सग्रह करता है और दूसरे के द्वारा भी ऐसा ही सग्रह करवाता है अथवा अन्य व्यक्ति को ऐसा परिग्रह करने की सम्मति देता है, वह दुःख से मुक्त नही होता । अर्थात् संसार मे अनन्त काल तक परिभ्रमण करता रहता है। परिव्वयन्ते अणियत्तकामे, अहो य राओ परितप्पमाण । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] [श्री महावीर-वचनामृत अन्नप्पमत्ते धणमेसमाण, पप्पोति मच्चुं पुरिसे जरं च ॥३॥ [उत्त० अ० १४, गा० १४] जो पुरुष काम-भोग से निवृत्त नही हुआ है, वह रात-दिन सन्तप्त रहता है। और तदर्थ इधर उधर भ्रमण किया करता है । साथ ही स्वजनो के लिये वह दूषित प्रवृत्ति से धन प्राप्त करने के प्रयत्न मे ही जरा एव मृत्यु को प्राप्त होता है। आउक्खयं चेव अवुज्झमाणे, ममाइसे साहसकारि मंदे । अहो य राओ परितप्पमाणे, ___ अडेसु मूढे अजरामरेन्च ॥४॥ [सू० ० १, अ० १०, गा० १८] आयुष्य पल-पल घट रहा है। इस तथ्य को न समझ कर मूर्ख मनुष्य 'मेरा-मेरा' करते हुए नित्य प्रति नया साहस करता रहता है।। वह मूढ अजरामर हो इस प्रकार अर्थ-प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है और आर्तध्यान वशात् दिन और रात सन्तप्त होता है। माहणा खत्तिया वेस्सा, चण्डाला अदु बोक्कसा । एसिया वेसिया सुद्दा, जेहि आरम्भनिस्सिया ॥शा परिग्गहनिविट्ठाणं, वेरं तेसिं पवडई । आरंभसंभिया कामा, न ते दुःखविमोयगा ॥६॥ [सू० श्रु० १, अ० ६ गा० २-३] Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह ] [१६६ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल, बोक्कस, ऐषिक, वैश्कि, शूद्र जो कोई आरम्भ मे मग्न है और परिग्रह मे आसक्त है, उसका वर बहुत बढ जाता है। विषय-वासनादि प्रवृतियाँ आरम्भ-समारम्भ से 'परिपूर्ण है अतः वे मनुष्य को दुःख से छुडा नही सकती। विवेचन-बोक्कस अर्थात् वर्णसङ्कर-जाति मे उत्पन्न । ऐषिक अर्थात् बहेलिया आदि। वैशिक अर्थात् वेश्याओ से सम्बन्ध रखनेवाला। जे पावकम्मेहिं धणं मणूसा, समाययन्ती अमई गहाय । पहाय ते पासपयट्टिए नरे, वेराणुबद्धा णरयं उवेन्ति ॥७॥ [उत्त० अ० ४, गा० २] जो मनुष्य धन को अमृत मान कर अनेकविध पापकर्मों द्वारा धन की प्राप्ति करता है, वह कर्मों के दृढ पास मे बंध जाता है और अनेक जीवो के साथ वैरानुबन्ध कर अन्त मे सारा धन-ऐश्वर्य यही पर छोड नरक में जाता है। थावरं जंगमं चेव, धणं धन्नं उवक्खरं । पच्चमाणस्स कम्मेहिं, नालं दुक्खाओ मोअणे ॥८॥ [उत्त० भ० ६, गा०६] कर्मवश दुःख भोगनेवाले प्राणी को चल-अचल सम्पति, धन, घान्य, उपकरण आदि कोई भी दुःख से मुक्त करवाने मे समर्थ नही है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] [श्री महावीर-वचनामृत खेत्तं वत्थं हिरण्णं च, च वन्धवा । चइत्ता णं इमं देहं, गन्तव्यमवसस्स मे ॥६॥ [उत्त० अ० १६, गा १७] मनुष्य मात्र को हमेशा ऐसा सोचना चाहिये कि क्षेत्र (भूमि), घर, सोना-चांदी, पुत्र, स्त्री, सगे-सम्बन्धी तथा शरीरादि सभी को छोड़कर मुझे एक दिन अवश्य जाना पड़ेगा। जस्सिं कुले समुप्पन्ने, जहिं वा संवसे नरे। ममाइ लुप्पई वाले, अन्नमन्नेहि मुच्छए ॥१०॥ [सू० ०१, अ० १, २०१, गा०४] मनुष्य जिस कुल मे उत्पन्न होता है अथवा जिनके साथ वास करता है, उनके साथ अज्ञानवश ममत्व से लिपट जाता है। (अर्थात यह मेरी माता, यह मेरी पत्नी, यह मेरा पुत्र, ऐसा मानता है।) ठीक वैसे ही अन्यान्य वस्तुओं मे (धन-धान्यादि में) भी मूच्छित (ममत्व-शाली) होता है। वित्तं सोयरिया चव, सबमेयं न ताणइ । संखाए जीवियं चेव, कम्मुणा उ तिउट्टइ ॥११॥ [सू० श्रु० १, अ० १, उ०१, गा०५] धन-धान्य और वान्वव आदि कोई भी आत्मा को ससारस्परिभ्रमण से बचा नही सकते । अतः सुज सावक को यह जीवन स्वल्प Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह] [ १७१ है-ऐसा समझ कर [ सयमानुष्ठान द्वारा ] कर्म से मुक्त होना चाहिये। कसिणं पि जो इमं लोयं, पणिपुण्णं दलेज इक्कस्स । तेणाऽवि से न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया ॥१२॥ [उत्त० भ०८, गा० १६ ] यदि धन-धान्य से परिपूर्ण यह सारा जगत् किसी मनुष्य को दे दिया जाय तो भी इससे उसे सन्तोष नही होगा। लोभी आत्मा को तृष्णा इस प्रकार शान्त होनी अत्यन्त कठिन है। सुवण्णरूपस्स उ पचया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणंतिआ॥१३॥ [उत्त० अ० ६, गा० ४८] कदाचित् सोने और चांदी के कैलास के समान असख्य पर्वत बन जाँय तो भी वे लोभी मनुष्य के लिये कुछ भी नही हैं । वास्तव में इच्छा आकाश के समान अनन्त है। वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्था । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] दीवप्पणट्टे व अणंतमोहे, नेयाउयं दमदमेव ॥ १४ ॥ [ उत्त० अ० ४, गा० ५ ] प्रमादी पुरुष इस लोक मे अथवा परलोक में कही भी धन के वल से अपनी रक्षा नही कर सकता । कारण जिसका ज्ञानदीपक अनन्त मोह से वुझ गया है, ( अत्यन्त अन्धकारपूर्ण बन गया है ) ऐसी आत्मा न्यायमार्ग को देखते हुए भी नही देखते हुए के समान वर्तन करती है । वियाणिया दुक्ख विवडूणं धणं, [ श्री महावीर वचनामृत ममत्तवन्धं च महभयावहं । अणुत्तरं, सुहावहं धम्मधुरं धारेज निव्वाणगुणावहं महं ॥ १५॥ [ उत्त० अ० १६, गा० ६८ ] हे भव्यजनो ! घन को दुःख बढानेवाला, ममत्त्वरूपी वन्चन का कारण तथा महान् भयदाता मानकर उत्तम और महान् धर्मधुरा को धारण करो कि जो सुखदायक और निर्वाण - गुणो को देनेवाली है । विडमुब्भेइमं लोणं, तिल्लं सप्पि च फाणियं । न ते सन्निहिमिच्छंति, नायपुत्तवओरया ॥ १६ ॥ [ दश० अ० ६, गा १७ ] जो लोग भगवान् महावीर के वचनो मे भगवान् महावीर द्वारा बताये हुए सयम मार्ग मे अनुरक्त है अर्थात् विचरण कर रहे हैं, Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह] [१७३ वे मक्खन, नमक, तेल, घृत, गुड़ आदि का सग्रह (एक रात्रि के लिए भी) नहीं करते। लोहस्सेस अगुप्फासे, मन्ने अन्नयरामवि । जे सिया सन्निहिकामे, गिही पचइये न से ॥१७॥ [ दश० अ० ६, गा०१८] क्योकि इस तरह सश्चित करना, यह एक अथवा अन्य रूप मे लोभ का ही स्पर्श करने जैसा है , अतः जो सग्रह करने की वृत्तिवाले है, वे साधु नही बल्कि (सांसारिक वृत्तियो मे रमे हुए ) गृहस्थ जं पि वत्थं च पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । त पि संजमलजठा, धारेन्ति परिहरन्ति य॥१८॥ [दश० अ० ६, गा० १६ ] सयमी पुरुष वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादलुन्छन आदि जो कुछ भी अपने पास रखते है, वह सयम के निर्वाह हेतु ही रखते है ( अतः वह परिग्रह नही है)। किसी समय वे संयम की रक्षा के लिये इनका त्याग भी करते हैं। न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा ॥१६॥ [दश० अ० ६, गा० २०] प्राणिमात्र के सरक्षक ज्ञातपुत्र श्रीमहावीर देव ने वस्त्रादि बाह्य Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४] [श्री महावीर-वचनामृत वस्तुओ को परिग्रह नही कहा है, बल्कि उनके प्रति मन मे रहे ममत्व को परिग्रह कहा है। सम्वत्युवहिणा वुद्धा, संरक्षणपरिग्गहे । अवि अप्पणो वि देहम्मि, नाऽऽयरंति ममाइयं ॥२०॥ दश० म०६, गा० २६ ] ज्ञानी पुरष वस्त्र, पात्र आदि सर्वप्रकार की साधन सामग्री के संरक्षण या स्वीकार मे ममत्व-वृत्ति का अवलम्बन नही रखते । अधिक क्या ? वे अपने शरीर के प्रति भी ममत्व नहीं रखते। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य साधुधर्म पंचासबपरिण्णाया, तिगुत्ता छसु संजया । पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणी ॥१॥ [दश० अ० ३, गा० ११] निर्गन्य मुनि (हिंसादि) पाँच आश्रवद्वार के त्यागी. तीन गुप्तियो से गुप्त, छह प्रकार के जीवो की दया पालनेवाले, पाँच इन्द्रियो का निग्रह करनेवाले, स्वस्थ चित्तवाले और सरलस्वभावी होते हैं। गोरवेसु कपाएसु, दण्डसल्लभएसु अ । नियत्तो हाससोगाओ. अनियाणो अवंधणो ॥२॥ [उत्त० अ० १९, गा० ६२] साधु ( रसगारव, ऋद्धिगारव और सातागारवादि तीन प्रकार के ) गारव, (क्रोवादि चार प्रकार के ) कषाय, ( मन, वचन, काया को ) दुष्प्रवृत्तिओं तथा ( माया, निदान और मिथ्यात्वादि तीन ) शल्य, भय, हास्य एवं शोक से निवृत्त होता है। वह जप-तप के फलस्वरूप सासारिक सुखो की कामना नहीं करता और माया के बन्धनो से पूर्णतया मुक्त होता है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] [ श्री महावीर वचनामृत अप्पसत्थेहिं दारेहिं, सव्वओ पिहियासवो । अज्झप्पज्झाण जोगेहिं, पसत्थदमसासणी ॥३॥ [ उत्त० अ० १६, गा० ६४ ] साघु कर्म आने के सभी अप्रगस्त द्वारों को सब ओर से बद कर अनास्रवी हो जाता है और अध्यात्म तथा ध्यान-योग से आत्मा का प्रशस्त दमन एवं अनुशासन करनेवाला होता है । अप्पभासी मियासणे । अर्तितिणे अचवले, हविञ्ज उअरे दंते, थोवं लद्धुं न खिंस ||४|| [ दश० भ० ८, गा० २६ ] साधु क्रोध से वड़बड़ाहट न करनेवाला, स्थिर-बुद्धि, तोलकर बोलनेवाला, परिमित आहारकर्ता तथा भूख का दमन करनेवाला होता है । वह थोडा आहार मिलने पर कभी क्रोध नही करता । जाइ सद्धाइ निक्खतो, परियायट्ठाणमुत्तमं । तमेव अणुपालिजा, गुणे आयरियसम्मए ||५|| [ दश० अ० ८, गा० ६१ ] ( सावु ने ) जिस अनन्य श्रद्धा से गृहत्याग कर उत्तम चारित्र - पद अगीकार किया हो, उसी श्रद्धा से महापुरुषो द्वारा प्रदर्शित कल्याणमार्ग का अनुसरण करना चाहिये । देवलोगसमाणो य, परियाओ रयाणं अरयाणं च, महेसिणं । महानरयसारिस ||६ ॥ [ दश० चू० १, गा० १० ] Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य साधुधर्म]] [१७७ सयम मे अनुरक्त महर्षियों को चारित्रपर्याय देवलोक जैसा सुखऐश्वर्य प्रदान करनेवाला होता है। जो सयम मे अनुरक्त नही है, उनके लिए वही चारित्रपर्याय महानरक जैसा कष्टदायक बन जाता है। आयावयाही चय सोअमल्लं, कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिंदाहि दोसं विणएज्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥७॥ [दश० अ० २, गा०५] आत्मा को तपाओ (क्लेश पहुँचाओ), सुकुमारता का त्याग करो और कामनाओ को छोड़ दो, इससे दुःख अवश्य दूर होगे। द्वेष को छिन्न-भिन्न करो और राग का उच्छेद करो। ऐसा करने से संसार में सुखी बनोगे। जे न वंदे न से कुप्पे, वंदिओ न समुक्कसे । एवमन्नेसमाणस्स, सामण्णमणुचिट्ठइ ॥ ८ ॥ [दश० भ० ५, उ० २, गा० ३०] यदि कोई वन्दन न करे तो क्रुद्ध न होवे और यदि कोई वन्दन करे तो अभिमान न करे। इस प्रकार जो विवेकपूर्वक सयम-धर्म का पालन करता है, उसका साधुत्व स्थिर रहता है। न सयं गिहाई कुब्बिजा, नेव अन्नेहिं कारए । गिहकम्मसमारंभे, भूयाणं दिस्सए वहो ॥६॥ [ उत्तः अ ३५, गा ] को छोड बचाओ ), सगा०५१ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्री महावीर वचनामृत नाव स्वयं गृहादि का निर्माण न करे, दूसरों के पास न करवाये और कोई करता हो तो उसका अनुमोदन भी न करे। क्योंकि गृहकार्य के समारम्भ मे अनेक प्राणियों का वव प्रत्यक्ष दिखाई देता है । तमाणं धावराणं च सुहुमाणं वायराण य । संजओ गिहकम्म समारंभ, {७८ ] [उत्तः अ० ३५, गा० ६ ] गृहादिनिर्माण मे त्रस, स्यावर, सूक्ष्म और बादर ( स्थूल ) जीवों इसलिये साबु गृहकार्य समारम्भ का परिवर्जन का वव होता है । करे । तहेब भत्तपाणे, पयणे परिवज्जए ||१०|| पावणेमु य । न पए न पयावर ||११|| [ उत्त० अ० ३५, गा० १० ] इसी प्रकार भोजन बनाने बनवाने में भी जीववव प्रत्यक्ष दिखाई देना है | अतः प्राणियो तथा भूनमात्र की दया के लिये माधु स्वयं भोजन बनाये नही और दूसरों ने भी बनवाये नही । पाणभूयद्यड्डाए, एगयाचेलए होइ, सचेले यात्रि एगया । एवं धम्महियं नच्चा, नाणो नो परिदेवए ||१२|| [ उ० ० अ० २, गा० १३] दोनों गाभवन्नरहित होता है तो कभी ममहित मन्याओं को धर्म में हितकारी मानकर उनका सेवन करे । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य साधुधर्म] [१७६ कण्णसोक्खेहिं सद्देहि, पेमं नाभिनिवेसए । दारुणं कक्कसं फासं, कारण अहियासए ॥१३॥ [ दश० भ० ८, गा० २६] साधु कर्ण-प्रिय शब्दो पर मुग्ध न होवे, साथ ही दारुण और कर्कश स्पर्शो को समभावपूर्वक सहन करे। समणं संजयं दन्तं, हणेजा को वि कत्थइ । नत्थि जीवस्स नासोत्ति, एवं पेहेज संजए ॥१४॥ [उत्त० अ० २, गा० २७ ] इन्द्रियो का दमन करनेवाले संयमी साधु को यदि कोई दुष्ट व्यक्ति किसी प्रकार से सताये अथवा मार-पीट करे तो 'जीव का कभी नाश नही होता' ऐसा विचार करे। खु पिवासं दुस्सेज्जं, सीउण्हं अरइं भयं । अहियासे अन्वहिओ, देहदुक्खं महाफलं ॥१५॥ [ दश० भ०८, गा० २७] क्षुधा, तृषा, दुःशय्या, ठड, गर्मी, अरति, भय, आदि सभी कष्टो को साधक अदीन भाव से सहन करे। [समभाव से सहन किये गये] दैहिक कष्ट महाफलदायी होते है। सूरं मण्णइ अप्पाणं, जाव जेयं न पस्सई । जुझंतं दढधम्माणं, सिसुपालो व महारहं ॥१६॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] [श्री महावीर-वचनामृत पयाया सूरा रणसीसे, संगामम्मि उचट्ठिए । माया पुत्तं न जाणाइ, जएण परिविच्छए ॥१७॥ एवं सेहे वि अप्पुढे, भिक्खायरियाअकोविए । सूरं मन्नइ अप्पाणं, जाव लूहं न सेवए ॥१८॥ [सू० श्रु० १, भ० ३, उ० १, गा० १२.३] जहाँ तक कायर पुरुष विजयी पुरुष को नही देखता है, वहाँ तक वह अपने को शूर मानता है, परन्तु युद्ध करते समय महारथी श्रीकृष्ण से शिशुपाल ज्यो क्षुब्ध हुआ था, त्यों ही क्षुब्ध होता है। स्वय को शूरवीर माननेवाला पुरुष सग्राम के अग्रिम मोर्चे पर चला जाता है, किन्तु जब युद्ध आरम्भ होता है तो ऐसी घबराहट फैल जाती है कि माता को अपनी गोद से गिरते बच्चे की भी सुधि नही रहती, तव शत्रुओं के प्रहार से भयभीत बना वह अल्प पराक्रमी पुरुष दीन बन जाता है। जैसे कायर पुरुष शत्रुओ द्वारा घायल न होवे तवतक अपने आपको गूरवीर मानता है। ठीक वैसे ही भिक्षाचर्या मे अकुशल तथा परीषहों से अस्पृष्ट ऐसा नवदीक्षित मुनि भी कठोर सयम का पालन नहीं करता, तबतक अपने को वीर मानता है। जया हेमंतमासम्मि, सीयं फुसइ सन्चगं । तत्थ मन्दा विसीयंति, रजहीणा व खत्तिया ॥१६॥ [सू० ध्रु० १, अ० ३, उ० १, गा० ४] Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य साधुधर्म [१८१ जिस तरह राज्य-भ्रष्ट क्षत्रिय विषाद का अनुभव करता है, ठीक उसी तरह अल्प पराक्रमी साधु पुरुष भी हेमन्त ऋतु के महीने में सर्वा गो को गीत स्पर्श करने पर विषाद का अनुभव करता है। पुढे गिम्हाहितावेणं, चिमणे सुपिवासिए । तत्थ मन्दा विसीयंति, मच्छा अप्पोदए जहा ॥२०॥ [सू० अ० १, अ० ३, उ० १, गा०५] ज्यों थोड़े जल मे मछली विषाद का अनुभव करती है, त्यो ही ग्रीष्म ऋतु के अति ताप से तृषापीडित होने पर अल्प पराक्रमी साधु पुरुष भी विषाद का अनुभव करता है। सया दत्तमणा दुक्खा, जायणा दुप्पणोल्लिया। कम्मत्ता ढुभगा चेर, इच्चाहंसु पुढोजणा ॥२१॥ [सू० अ० १, अ० ३, उ० १, गा० ६] साधुजोवन मे दो गई वस्तु लेना, यह दु:ख सदा रहता है। याचना का परीषह असह्य होता है । सामान्य मनुष्य प्रायः यह कहते पाये जाते है कि 'यह भिक्षु भाग्यहीन है और अपने कर्मों का फल भोग रहा है। एए सद्दा अचायन्ता, गामेसु नगरेसु वा । तत्थ मन्दा विसीयन्ति, संगामम्मि व भीरुया॥२२॥ [सू० श्रु० १, म० ३, उ० १, गा०७] गाँव और नगरो में इसतरह कहे गये आक्रोशपूर्ण वचनों को सहन न कर सकनेवाला अल्प पराक्रमी साधु पुरुष सग्राम मे गये हुए भीरु पुरुष के समान ही विषाद को प्राप्त होता है । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] [श्री महावीर-वचनामृत अप्पेगे खुधियं भिक्खं, सुणी डंसइ लूसए। तत्थ मन्दा विसीयन्ति, तेउपुट्ठा व पाणिणो ॥२३॥ [सू.सु. १,०३, उ०१, गा०८] भिक्षा के लिये निकले हुए भूखे सावु को जब कोई नर प्राणी -कुत्ता आदि काट खाता है, तब अल्प पराक्रमी साचु पुत्प अग्नि से अलसे गये प्राणी के समान विषाद को प्राप्त होता है। पुट्ठो ३ दसमसगेहि, तणफाससचाइया । न मे दिउ परे लोए. जइ परं मरणं सिया ॥२४॥ [सूः नु० १, १०३, उ० १, गा० १०] डाँस और मच्छर के ढग तथा तृण की गण्या केल्खे स्पर्गको सहन न कर सकनेवाला अल्प पराक्रमी साव पुल्प ऐसा भी सोचने लगता है कि-'मैने परलोक तो प्रत्यक्ष देखा नहीं, विन्तु इस क्र से तो साक्षात् मरण ही दिखाई दे रहा है। संतत्ता केसलोएणं, बंभचेरपराझ्या । .. 'तत्थ मन्दा विसीयन्ति, मच्छा विट्ठा व केयण ॥रशा, [ ध्रुः १, ३, उ० १, गा०१३] केशलोच से पीड़ित एवं ब्रह्मचर्य पालन मे असमर्थ अल्प पराक्रमी साधु पुरुष जाल में फंसी हुई मछली के समान दुःख का अनुभव करता है। आयदण्डसमायारे, मिच्छासंठियभावना । - हरिसप्पओसमावन्ना, केई लूसन्ति ऽनारिया ।।२।। [सुः ध्रु० १, ३, ४० १, गा० १४] Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य साधुधर्म [१८३ कितने अनार्य-पुरुष मिथ्यात्व की भावना मे डूबे हुए राग-द्वेषपूर्वक जान-बूझकर साधुओ को पीडा पहुंचाते है और अपनी आत्मा को दण्डभागी बनाते है। अप्पेगे पलियन्ते सिं, चारो चोरो त्ति सुव्वयं । बन्धन्ति भिक्खुयं वाला, कसायवयणहि य ॥२७॥ [सू० श्रु० १, अ० ३, उ० १, गा० १५] कई अज्ञानी जन विहार करते हुए सुव्रती साधु को यह 'गुप्तचर है' 'यह चोर है' ऐसा कहकर रस्सी आदि से बंधवाकर तथा कटु. . वचनो से पीडा पहुँचा कर कष्ट देते रहते है। तत्थ दंडेण संवीते, मुट्ठिणा अदु फलेण वा । नाईणं सरई वाले, इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥२८॥ [सू० श्रु० १, भ० ३, उ० १, गा० १६ ] ' अनार्य देश के असस्कारी लोग साधु को लाठी, मुक्का अथवा लकड़ी के पटिये आदि से मारते-पीटते है । उस समय अल्प पराक्रमी साधु पुरुष क्रोधवश घर से बाहर निकली हुई तथा वन्धु-बान्धवो का स्मरण करती हुई स्त्री के समान अपने बन्धु-बान्धवो का स्मरण करता है। न वि ता अहसेव लुप्पए, लप्पन्ती लोगंसि पाणिणो । एवं सहिएहि पासए, अनिहे से पुढे हियासए ॥२६॥ । [ सू० श्रु०१, अ० २, उ० १, गा० १३] . Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] [श्री महावीरवचनामृत ___कट या आपत्ति के टूट पड़ने पर ज्ञानी पुत्प प्रायः खेदरहित मन से ऐसा विचार करता है कि निरा मै ही इन कष्टों से पीड़ित नही हूं, किन्तु संसार में दूसरे भी दुःखित है । और जो कष्ट या आपत्तियां सिरपर आती है- उन्हे शान्तिपूर्वक सहन करता है। एए भो कसिणा फासा, फरुसा दुरहियासया। हत्यी वा सरसंवित्ता, कीवा वस गया गिहं ॥३०॥ [सू० ध्रु० १, सः ३, उ० १, गाः १७] हे शिष्यो ! ये सारे परीपह कष्टदायी और दुःसह है। ऐसी स्थिति मे कायर-पुरुष वाणो के प्रहार से घायल हुए हाथी की तरह भयभीत होकर गृहवास मे चला जाता है। जहा संगामकालम्मि, पिट्ठओ भीरू पेहइ । वलयं गहणं नूमं, को जाणइ पराजयं ॥३१॥ एवं उ समणा एगे, अबलं नचाण अप्पगं । अणागयं भयं दिस्म, अविकप्पंतिमं सुयं ॥३२॥ [२० अ० १, अ० ३, उः ३, गा०६३] जैसे युद्ध के समय कायर पुरुप क्मिको विजय होगीऐसी सजाबुटांका कन्ता हा हमेगा पोटे की ओर देखता है और क्लिो पल्य (गोल आकार का बड़ा), झाड़ी आदि घना प्रदेश पयवा दुर्गम भाग पर दृष्टि डालता है, वैसे ही कुछ प्रमण अपने को नयम पा पालन करने में असमर्थ पाकर बनागत भय को आगड़ा मे व्याकरण और ज्योतिष आदि को गरण लेते है। U Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य साधुधर्म] [१६५ ज उ संगामकालम्मि, नाया सूरपुरंगमा । नो ते पिट्ठमुवेहित्ति, किं परं मरणं सिया ॥३३॥ सू० अ० १, अ० ३, उ० गा०६] परन्तु जो पुरुष लडने मे प्रसिद्ध और शूरो मे अग्रगण्य होते हैं वे पिछली बातों पर कतइ ध्यान नहीं देते। क्योकि वे यह भलीभांति जानते हैं कि मृत्यु से अधिक और क्या होनेवाला है जे लक्खणं सुविण पउंजमाणे, निमित्तकोउहलसंपगाडे, कुहेडविज्जासवदारजीवी, न गच्छई सरणं तम्मि काले ॥३४॥ [उत्त० अ० २०, गा० ४५ ] जो साधु लक्षणशास्त्र तथा स्वानशास्त्र का प्रयोग करता है, सदा निमित्त कुतूहल मे आसक्त रहता है, जन साधारण को आश्चर्य चकित कर आश्रव बढानेवाली विद्याओ से जीवन चलाता है, उसका कर्मफल भोगने के समय कोई शरणभूत नहीं होता। जे सिया सन्निहिं कामे, गिही पवइए न से ॥३५॥ [दश० भ० ६, गा० १६ ] जो साधु ( घृत, गुड, मिस्री, शक्कर आदि का) सग्रह करना चाहता है, वह वस्तुतः साधु नही, गृहस्थ है। गोवालो भंडवालो वा, जहा तवणिस्सरो। एवं अणिस्सरो तं पि, सामण्णस्स भविस्ससि ॥३६|| [उत्त० अ० २२, गा०४६] Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] [श्री महावीर-वचनामृत हे शिष्य ! जिस तरह ग्वाला गौओ के चराने मात्र से उनका स्वामी नही बन जाता अथवा कोपाध्यक्ष धन की सुरक्षा करने मात्र से ही उसका स्वामी नही वन पाता। ठीक उसी तरह तू भी केवल साधु के वेश-वस्त्रादि की रक्षा करने से सावुत्व का अधिकारी नहीं बन सकेगा। कह न कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए । पए पए विसीयंती, संकप्पस्स वसं गओ ॥३७॥ [दश० अ० २, गा० १] जो सावक सङ्कल्प-विकल्प के वशीभूत होकर पद-पद पर विषादयुक्त अर्थात् शिथिल हो जाता है और विषय-वासनादि का निवारण नही करता, वह भला श्रमणत्व का पालन किस तरह कर सकेगा ?' तात्पर्य यह है कि वह कदापि नहीं कर सकेगा। न पूयणं चैव मिलोयकामी, पियमप्पियं कस्मइ णो करेज्जा ।। सम्वे अणट्ठ परिवजयंते, अणाउले या अकसाइ भिक्खू ॥३८॥ [सू० ध्रु० १, म० १३, गा० २२ ] सावु पूजन और कीर्ति की कामना न करे, किसी को प्रिय अथवा अप्रिय न बनाये। वह सभी प्रकार की अनर्थकारी, प्रवृत्तियों का त्याग करे और भयरहित तया कपायरहित बने । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य साधुधर्म] [१८७ सुक्कझाणं झियाएजा, अनियाणे अकिंचणे । वोसहकाए विहरेजा, जाव कालस्स पन्जओ ॥३६॥ [उत्त० भ० ३५, गा० १६ ] साघु शुक्ल ध्यान मे मग्न रहे, जप-तप के फलरूप सासारिक सुखो की कामना न करे, सदा अकिञ्चनवृत्ति से रहे तथा मृत्युपर्यन्त काया का ममत्व त्याग कर विचरण करता रहे । जे माहणे खत्तियजायए वा, तहुग्गपुत्तेतह लेच्छई वा । जे पवइए परदत्तभोई, गोत्ते ण जे थम्भति माणबद्धे ॥४०॥ [सू० श्रु० १, भ० १३, गा० १० ] 'जिसने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली और जो दूसरे को दी गई भिक्षा का भोक्ता बन गया, वह पहली अवस्था मे ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्रवंश अथवा लिच्छवी आदि किसी भी वश या जाति का हो, किन्तु उसे अपने पूर्व गोत्र के अभिमान मे बंधे रहना नही चाहिये। आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं, ___ सहायमिच्छे निउणत्थवुद्धि । निकेयमिच्छेज विवेगजोगं, समाहिकामे समण तवस्सी ॥४१॥ [उत्त० अ० ३२, गा० ४] समाधि के इच्छुक तपस्वी साधु को परिमित और शुद्ध आहार ग्रहण करना चाहिये, निपुणार्थ बुद्धिवाले को अपना साथी रखना Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] [ श्री महावीर वचनामृत चाहिये और रहने के लिये स्त्री आदि के ससर्ग से रहित स्थान को पसन्द करना चाहिये । न वा लभेजा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एको वि पावाह विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ||४२|| [ उत्त० अ० ३२, गा० ५] यदि योग्य छान-बीन के बाद भी गुण मे अपने से अधिक या अपने जैसी ही कक्षावाला - योग्यतावाला निपुण साथी नही मिले तो वह सदा सर्वदा पापो का वर्जन करता हुआ और भोग के प्रति अनासक्त वृत्ति धारण कर अकेला ही विचरण करे । जे ममाइअमई जहाइ, से जहाइ ममाइअं । से हु दिट्टभए मुणी, जस्स नत्थि ममाइअं ॥४३॥ [ आचा० भ० २, उ०६ ] जो अपनी ममतावाली बुद्धि का त्याग कर सकता है, वही परिग्रह का त्याग कर सकता है। जिसके चित्त मे ममत्व नही है, वही ससार के भयस्थानो को भली-भांति देख सकता है । वत्थगंधमलंकारं इत्थिओ सयणाणि य । अच्छन्दा जे न भुंजंति, न से चाइति वच्च ||४४ || [ दश० अ० २, गा० २] Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य साधुधर्म] [१८६ जो वस्त्र, गन्ध, अलकार, स्त्री, पलग आदि का परवशता के कारण उपभोग नही कर सकता, उसे सच्चा त्यागी अर्थात् साघु नही कहा जा सकता। जे य कंते पिए भोए, लद्ध वि पिढिकुबई । साहीण चयई भोए. से हु चाइ त्ति बुच्चइ ॥४॥ [दश० अ० २, गा० ३] जो इष्ट और मनोहर भोग प्राप्त होने पर भी उनका परित्याग करता है, तथा स्वाधीन भोगो को भी नही भोगता है, वही सच्चा त्यागी अर्थात साघु कहा जाता है। छज्जीवकाए असमारभन्ता, मोसं अदत्तं च असेवमाणा। परिग्गहं इथिओ माणमायं, एयं परिन्नाय चरन्ति दन्ता ॥४६॥ [उत्त० अ० १२, गा० ४१] इन्द्रियो का दमन करनेवाले साघु पुरुष छह काय के जीवो को पीडा नही पहुंचाते, मृषावाद और अदत्त का सेवन नही करते तथा परिग्रह, स्त्री, मान और माया को त्याग करके विचरते हैं। निदं च न बहु मन्नेजा, सप्पहासं विवजए । मिहो कहाहिं न रमे, सज्झायम्मि रओ सया ॥४७॥ [दश० भ०८, गा०४२] Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] [श्री महावीर-वचनामृत साप पुरुष को चाहिये कि वह निद्रा का विशेष आदर न करे, हंसी-मजाक का त्याग करे, किसी की गुप्त बातों में दिलचस्पी न ले और स्वाध्याय मे सदा मग्न रहे।। अच्चणं रयणं चेव, वन्दणं पूअणं तहा। ड्डीसकारसम्माणं, मणसा वि न पत्थए ॥४८॥ [ उत्त० अ० ३५, गा० १८] साधुपुरुष अर्चना, रचना, वन्दन, पूजन, ऋद्धि, सत्कार और सम्मान की मन से भी कभी इच्छा न करे । चरे पयाई परिमंकमाणो, ___जं किंचि पामं इह मण्णमाणो। लाभांतरे जीविय बृहइत्ता, पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ॥४६॥ [उत्त० भ० ४, गा०७] माधुपुरुप इस जगत् मे स्त्रो, पुत्र, धन, सम्पत्ति आदि जो कुछ भी मुख की मामग्री है उसे एक प्रकार का जाल या भमान माने ; और कही मेरे चारित्र्य में इनसे दोप न लग जाय, ऐमी शका धारण कर सावधानी ने अपना कदम ऊाये। जहां तक ज्ञानादि का लाभ होता हो वहाँ तक वह जीवन की वृद्धि करे और जब यह गेर नरम-साधना में निपयोगी प्रतीत हो, तब मल के समान जमका त्याग कर दे। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य साधु-धर्म] [१६१ निम्ममो निरहंकारी, निस्संगो चत्तगारयो । समो अ सबभूएसु, तसेसु थावरेसु य ॥५०॥ [उत्त० अ० १६, गा० ८६ ] साधु पुरुष ममत्वरहित, अहङ्काररहित, निःसंगी, गौरव का परित्याग करनेवाला और त्रस-स्थावर सभी प्राणियो के प्रति समदृष्टि रखनेवाला होता है। लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो निंदापसंसासु, समो माणावमाणवो ॥५१॥ [उत्त० भ० १६, गा०६०] साघु पुरुष लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशसा और मानापमान आदि हर स्थिति मे समभाव से रहनेवाला होता है। गारवेसु कसाएसु, दंड-सल्ल-भएसु य । नियत्तो हास-सोगाओ, अणियाणो अवंधणो ॥५२॥ [उत्त० अ० १६, गा० ६१] साधु पुरुष (तीन प्रकार के) गारव से, (चार प्रकार के ) कषाय से, (तीन प्रकार के ) दण्ड से, (तीन प्रकार के ) शल्य से, ( सात प्रकार के ) भय-स्थानो से, हास्य से तथा शोक से निवृत्त होता है। वह सयम के फलरूप किसी प्रकार के सासारिक सुखो की इच्छा करता नही, किसी प्रकार के बन्धन में फंसता नही । अणिस्सियो इह लोए, परलोए अणिस्सिओ। वासीचंदणकप्पो य, असणे अणसणे तहा ॥५३॥ [ उत्त० अ० १६, गा०६२] Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] [श्री महावीर-वचनामृत ___ मुनि कुज-निकुंजो मे खड़ा न रहे (क्योकि वहाँ वनस्पति का स्पर्ग होना सम्भव है)। इसी प्रकार जहाँ वीज पडे हुए हो अथवा हरी वनस्पति उगी हुई हो वहाँ भी खड़ा न रहे। साथ ही जहाँ अनन्तकाय वनस्पति, दिल्ली के टोप अथवा लील-फूग उगे हुए हो, वहाँ भी खडा न रहे। अट्ठ सुहुमाई पेहाए, जाई जाणित्तु संजए । दयाहिगारी भूएसु, आस चिट्ठ सएहि वा ॥१२॥ [दश० न०८, गा० १३]. सयमी मुनि (आगे कहे गये ) आठ प्रकार के सूक्ष्मजीवों से परिचित होने के कारण सभी जीवो के प्रति दया का अधिकारी होता है। अतः वह इन सभी जीवो को अच्छी तरह से देख भालकर बैठे, खडा रहे अथवा सोए। कयराइं अहसुहुमाई ? जाइं पुच्छिज्ज संजए । इमाई ताई मेहावी, आइक्विज विअक्षणो ॥१३॥ सिणहं पुग्फसुहुमं च. पाणुत्तिगं तहेव य । पणगं बीयहरियं च, अंडसुहुमं च अट्ठमं ॥१४॥ . [दशा म ८, गा० १४-१५] जत्र मायु पूछे कि वे आठ जीव कीन से हैं तब वद्धिमान और विचक्षण आचार्य इममा निन्नानुसार वर्णन करते हुए उत्तर दे:(१) स्नेहलूम-अर्यान् अप्काय के नुक्ष्मजीव । (२) पुष्पनूदम-अर्थात् तन्वर्णयुम्प । (३) प्राणिमूक्ष्म-अर्थात् कुंथु आदि मून जन्तु । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु का आचरण] [१६६ (४) पनकसूक्ष्म-अर्थात् वर्षा मे लकडी आदि पर रहनेवाले पचवर्णी लील-फूग । (५) उत्तिगसूक्ष्म-अर्थात् चीटियो का स्थान, उदई का घर आदि । (६) बीजसूक्ष्म-अर्थात् सूक्ष्म प्रकार के घान्यादि के बीज। (७) हरित सूक्ष्म - अर्थात् नये उत्पन्न हुए पृथ्वी के समान रग वाले अङ्कर और (८) अण्डसूक्ष्म अर्थात् मक्खी, चीटी आदि के अति सूक्ष्म अण्डे । .. एवमेयाणि जाणित्ता; सवभावेण -- संजए। अप्पमत्तो जए निच्चं, सबिंदियसमाहिए ॥१५॥ -[ दश० म०८, गा०-१६ ]. -- सर्व इन्द्रियो को शान्त रखनेवाला साधु उपर्युक्त आठ प्रकार के सूक्ष्म जीवो को बराबर पहचान कर सदा प्रमादरहित वर्तन करे और तीन करण और तीन योग से सयत बने । तसे पाणे न हिंसिजा, वाया अदुव कम्मुणा। उवरओ सबभूएसु, पासेज्ज विविहं जगं ॥१६॥ [दश० म०८, गा० १२ ] सर्व प्राणियो की हिंसा से विरक्त बना साधु, इस ससार मे छोटेबडे सभी जीवो के जीवन मे कैसी-कैसी विचित्रताएँ व्याप्त हैंइसे विवेकपूर्वक जानकर किसी भी त्रस प्राणी की मन, वचन, और काया से हिंसा न करे। ' 'इच्चेयं छज्जीवणियं, सम्मदिट्ठी सया जए । दुल्लहं लेहित्तु सामण्णं, कम्मुणा न विराहिज्जासि ॥१७॥ , [दशे० ४, गा०६] Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० [श्री महावीर-वचनामृत इस प्रकार सतत सावधान और सम्यग्दृष्टिवाला मुनि दुर्लभ श्रमणत्व को प्राप्त करके इन पडनिकाय के जीवों की मन-वचनकाया से किसी प्रकार की विराधना न करे। कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो। भुंजतो असणपाणाई, आयारा परिभस्सइ ॥१८॥ [दश० अ० ६, गा० ५०] जो मुनि गृहस्थ की काँसी आदि घातु की कटोरी और थाली मे तथा मिट्टी के पात्र मे अगन-पान आदि का भोजन करता है, वह अपने आचार से सर्वथा भ्रष्ट हो जाता है। सीओदगसमारं मे, मत्तधोअणछड्डणे । जाई छंनंति भूयाई, दिट्ठो तत्थ असंजमो ॥१६॥ [दश० अ०६, गा०५१] गृहस्थ वर्तनों को घोते और मांजते हैं, जिसमे सचित्त जल का आरम्भ होता है। ठीक वैसे ही वर्तन घोने के बाद उस गन्दे जल को इधर-उधर फेंक देते हैं, उससे अनेक जीवों की हिंसा होती है। इसलिये गृहस्थो के वर्तनों मे भोजन करने मे ज्ञानियों ने असंयम देखा है। पच्छाकम्मं पुरे क' - सया तत्थ न कप्पइ । एयमद्वं न भुंजंति, निग्गंथा गिहिभायणे ॥२०॥ [दा० अ०६, गा०५२) गृहस्य के वर्तनो में भोजन करने से पश्चात् कर्म और पुरःकम Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु का आचरण] [२०१ का दोष लगाने की सम्भावना होती है। अतः साधु के लिये वह कतइ उपयुक्त नही है। ऐसा सोचकर निर्ग्रन्थ मुनि गृहस्थ के वर्तनो मे कभी भोजन नही करते। विवेचन-खा लेने के पश्चात् सचित्त जल से वर्तन धोना, इसे पश्चात् कर्म और खाने से पूर्व सचित्त जल से वर्तन धोने को पुरःकर्म कहते हैं। आसंदीपलिअंकेसु, मंचमासालएसु वा। अणायरियमजाणं, आसइत्तु सइत्तु वा ॥२१॥ नासंदीपलिअंकेसु, न निसिजा न पीढए । निग्गंथाऽपडिलेहाए, वुद्धवुत्तमहिट्ठगा ॥२२॥ [दश० अ० ६, गा०५३-५४ ] “आर्यसाधु अति निर्ग्रन्थ श्रमणो के लिये कुर्सी, पलग, खटिया अथवा आरामकुर्सी आदि पर बैठना अथवा सोना अनाचार माना गया है। सर्वज्ञ का कहा हुआ अनुष्ठानादि में तत्पर निर्ग्रन्य साधु कुर्सी, पलङ्ग आदि तया बेत से भरा हुआ पटिये पर बैठे अथवा सोये नही क्योंकि उसका पडिलेहण बराबर हो सकता नही। विवेचनपडिलेहण का अर्थ है प्रतिलेखना, सूक्ष्म निरीक्षण । साधुओ को वस्त्र-पात्र आदि को दिन में दो बार प्रतिलेखना करनी पड़ती है। इस वख्त कोई जीव-जन्तु देखने मे आ जाय तो उसे तक. लीफ न पहुंचे इस तरह हटाया जाता है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०.] [श्री महावीर-वचनामृत गंभीरविजया एए, पाणा दुप्पडिलेहगा। आसंदीपलिअको य, एयमह विवजिया ॥२३॥ [दश० अ० ६, गा०५५] । कुर्सी, पलड्न आदि मे गहरे छिद्र होने से प्राणियो की प्रतिलेखना होना कठिन है। इसलिये मुनियों को उसपर बैठना छोड देना चाहिये। गोअरग्गपविठस्स, निसिज्जा जस्स कप्पइ । ... इमेरिसमणायारं, आवज्जइ --अवोहि ॥२४॥ विवत्ती वंभचेरस्स, पाणाणं च बहे वहो । वणीमगपडिग्याओ, पडिकोहो अगारिणं ॥२५॥ - अगुत्ती वभचेरस्स, इत्थीओ वाचि संकणं । कुसीलवडणं ठाण, दूरओ परिवज्जए ॥२६॥ [दश० अ०६, गा० ५६-५७-५८] गोचरी ( मधुकरी ) के निमित्त गृहस्थ के घर मे प्रवेश करने के पश्चात् साधु को वहाँ बैठना अनाचार है, जिसका वर्णन आगे करेंगे। इससे मिथ्यात्व की प्राप्ति होती है। गृहस्थ के घर बैठने से साधु के ब्रह्मचर्य का भग होने की तथा प्राणियो का वध होने की पूरी सम्भावना होने से सयमनाश का भय बना रहता है । साथ ही कोई भिखारी भिक्षा के लिये आये तो उसे अन्तराय होने की भी सम्भावना रहती है । ठीक वैसे ही गृहस्थ को क्रोध आ जाय यह भी सम्भव है।- - - - - - - - - Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु का आचरण] [२०३ गृहस्य के घर जाकर बैठने से ब्रह्मचर्य की गुप्तियो का यथार्थ पालन नहीं हो सकता ( क्योकि वहां पर सियो के अङ्ग-प्रत्यङ्ग देखने का प्रसंग उपस्थित हो जाता है) और गृहस्थ की स्त्री के साथ अतिपरिचय होने से दूसरो को मुनि के चरित्र के विषय मे शका करने का अवसर मिल जाता है। इसलिये ऐसी कुशीलता को बढानेवाले स्थान से मुनि दूर रहकर ही उसका त्याग करे। तात्पर्य यह कि वह गृहस्थ के यहाँ जाकर बैठने का सदैव के लिए बद ही कर दे। वाहियो वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए । चुक्तो होइ आयारो, जहो हवइ संयमो ॥२७॥ मंतिमे सुहुमा पाणा, घसासु भिलगासु य । जे य भिक्खू सिणायंतो, वियडेणुप्पिलावये ॥२८॥ तम्हा ते न सिणायंति, सीएण उसिएण वा । जावजीवं वयं घोरं, असिणाणमहिठगा ॥२६॥ दश० अ० ६, गा०६०-६१-६२] रोगी हो या निरोगी, जो साधु स्नान करने की इच्छा करता है वह निश्चय ही आचार से भ्रष्ट होता है, और सयमहीन बनता है। क्षारभूमि अथवा ऐसी ही अन्य भूमियो मे प्रायः सूक्ष्म प्राणी व्याप्त होते हैं। इसलिये साधु प्राशुक-उष्णजल से स्नान करे तो भी उसकी विराधना हुए बिना नही रहती अर्थात् - अवश्य होती है। इसी कारण शुद्ध सयम का पालन करनेवाले साधु ठडे अथवा गरम क्षारभूमि ध प्राशुकत -अवश्य होता है Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] [श्री महावीर वचनामृत पानी से कदापि स्नान नहीं करते और जीवन पर्यन्त अस्नान नामक अति कठिन व्रत का पालन करते हैं। सिणाण अदुवा कक्कं, लोद्धं पउमगाणि य । - गायस्सुबट्टणट्ठाए, नायरंति कयाइ वि ॥३०॥ - [दश० म०६, गा० ६३] 3 सयमी पुरुष स्नान नही करते तथा चन्दन-कल्क-चूर्ण, लोध्र, केशर आदि सुगन्वित- पदार्थों का उपयोग अपने शरीर पर उबटन करने के लिये कभी नहीं करते। विभूसावत्तियं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं । संसारसायरे, धोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे ॥३१॥ विभूसावत्तियं चेयं, बुद्धा मन्नंति तास्सिं । सावजबहुलं चेयं, नेयं ताईहिं सेवियं ॥३२॥ [दश० म० ६, गा० ६५-६६] विभूषा के कारण साधु को चिकने कर्मो का बन्धन होता है, उससे वह घोर दुस्तर संसारसागर मे गिरता है। ज्ञानी पुरुष स्नान को शारीरिक विभूषा और चिकने कर्मबंधन का कारण और बहुत से पापों की उत्पत्ति का हेतु मानते है। अतः छहकाय के जीवो की रक्षा करनेवाले मुनि इसका सेवन कदापि नही करते। - सुरं वा मेरगं वा वि, अन्नं वा मंजगं रसं । --- ससक्खं नं पिवे भिक्ख, जसं सारक्खमप्पणो ॥३३॥ [दरा० अ०५, उ० २, गा० ३६ ] Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु का आचरण ] [२०५. अपने संयमरूपी यश का संरक्षक भिक्षु सर्वज्ञ की साक्षी मे सदा परित्यक्त ऐसी सुरा, मदिरा तथा मद उत्पन्न करनेवाले अन्य किसी भी रस का पान न करे। पियए एगओ तेणो, न मे कोइ वियाणइ । तस्स पस्सह दोसाई, नियडिं च सुणेह मे ॥३४॥ [दश० भ० ५, उ० २, गा० ३७ ] "मुझे कोई नही देखता है" ऐसा मानकर भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करनेवाला चोर साधु एकान्त मे गुप्तरूप से मदिरापान करता है। उसके दोषो को देखो। साथ ही उसके मायाचार का जो मै वर्णन करता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो वडइ सुंडिया तस्स, माया मोसं च भिक्खुणो । - अयसो य अनिव्वाणं, सययं च असाहुया ॥३॥ [दश० भ० ५, उ० २, गा० ३८] मदिरापान करनेवाले साधु मे आसक्ति, माया, मृषावाद, अपयश, अतृप्ति आदि दोष बढते ही रहते हैं। साथ ही साथ उसकी असाधुता भी सतत बढती ही रहती है। आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसो। गिहत्थावि णं गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं ॥३६॥ [दश० अ० ५, उ० २, गा० ४०] मदिरापान करनेवाला विचारमूढ साधु न तो आचार्य की सेवा कर सकता है और न ही साधुओ की। यह साधु तो मदिरा पीता Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ [श्री महावीर वचनामृत तत्थ मन्दा विसीयन्ति, वाहच्छिन्ना व गभा । पिट्ठओ परिसप्पन्ति, पिट्ठसप्पी व संभमे ॥५॥ [सू० श्रुः १, भ० ३, उ० ४, गा०५] मन्द पराक्रमी पुरुष सचित्त जल धान्यादि के परिभोग के लोभ मे भार उठाकर थके हुए गधे के समान सयम मे निथिल बनते हैं और सभ्रम से भग्न मतिवाले होकर जीवन के हर क्षेत्र मे पिछड़ गये लोगो की तरह संयमियों की श्रेणी मे पीछे रह जाते हैं। तं च भिक्खू परिन्नाय, सम्वे संगा महासवा । जीवियं नावकंखिज्जा, सोच्चा धम्ममणुत्तरं ॥५६॥ [सूः भू० १, अ० ३, उ० २, गा० १३] श्रेष्ठधर्म का श्रवण कर तथा संसार के सव रिश्ते और सम्बन्वो को कर्म-बन्धन का महा प्रवेशद्वार समझकर भिक्षु असयमी अथवा गृहस्थ-जीवन की इच्छा न करे। विजहित्तु पुबसंजोयं, न सिहं कहिंचि कुवेज्जा । असिणेहसिणेहकरेहि, दोसपओसेहिं मुच्चए भिक्ख ॥५७|| [उत्त० म०८, गा०२] .. पूर्व सयोगो को छोड़ देने के पश्चात् भिक्षु पुनः किसी भी वस्तु के प्रति स्नेह न करे-मोह न रखे । स्नेह करनेवालों के बीच जो Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु का आचरण] [२१३ निःस्नेही-निर्मोही बना रहता है, वह सभी प्रकार के दोष-प्रदोषो से मुक्त हो जाता है। अत्थं गयंमि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गये । आहारमाइयं सव्वं, मणसा वि न पत्थए ॥५८॥ [दश० म०८, गा० २८] संयमी पुरुष को सूर्यास्त होने के पश्चात् और सूर्योदय होने से पूर्व किसी प्रकार के आहार आदि की इच्छा मन मे नही लानी चाहिये। सन्ति में सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा। जाई राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे॥५६॥ दश० अ० ६, गा० २३] इस धरती पर ऐसे त्रस और स्थावर सूक्ष्म जीव सदैव व्याप्त रहते है, जो रात्रि के अन्धकार मे दीख नही पडते। अतः ऐसे समय में भला आहार की शुद्ध गवेषणा किस प्रकार हो सकती है ? उदउल्लं बीयसंसत्तं, पाणा निचडिया महि । दिया ताई विवज्जेज्जा, राओ तत्थ कह चरे ?॥६॥ दश० अ०६, गा० २४ ] पानी से जमीन भीगी हो, उसपर बीज गिर गये हो, अथवा चीटी-कथवा--आदि अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीव हो, उन सब का वर्जन करके दिन मे तो चला जा सकता है, पर रात्रि मे कुछ दिखाई नही पड़ता । अतः भला किस तरह चला जा सकता है ? Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] [श्री महावीर-वचनामृत सम्बाहारं न भुंजति, निग्गंथा राइभोयणं ॥६१|| [दश० अ०६, गा० २५] तभी तो निर्ग्रन्थो रात्रिभोजन करते नहीं, रात्रि मे किसी प्रकार का आहार उपयोग मे लेते नहीं। चउम्विहे वि आहारे, राइभोयणवज्जणं । संनिही-संचओ चेव, वज्जेययो सुदुक्करं ॥६२।। [उत्त० अ० १६, गा० ३०] अशन, पान, खादिम और स्वादिम इस चार प्रकार के आहार का रात्रि मे त्याग करना और समय बीत जाने के पश्चात् कुछ भी पास मे नही रखना, ठीक वैसे ही उसका सग्रह नही करना-यह बात वास्तव मे अत्यन्त कठिन है, (किन्तु सयमी पुरुष को तो ये कठिनाइयाँ सहन करनी ही चाहिये ।) Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : १८: अष्ट-प्रवचनमाता अट्ठ पत्रयणमायाओ, समिई गुत्ती तहेव य । पंचेच य समिईओ, तओ गुत्तोओ आहिया ॥१॥ प्रवचनमाता के आठ प्रकार है। वह समिति और गुप्तिरूप है। उसमे पांच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ कही गई है। विवेचन-साधु, मुनि, अथवा योगी के जीवन मे अष्ट-प्रवचनमाता अति आवश्यक अङ्ग की पूर्ति करती है। इन आठ प्रकार की प्रवचनमाताओ का एक भाग समिति और दूसरा भाग गुप्ति कहलाता है। समिति का सीधा अर्थ है सगति अथवा सम्यक प्रवृति और गुप्ति का अर्थ है प्रशस्त प्रवृत्ति सहित अप्रशस्त प्रवृत्ति का निग्रह । परन्तु गहराई से देखे तो समिति मे साधु, मुनि, अथवा योगी के जीवन की समस्त जीवनचर्या का समावेश है, जबकि गुप्ति मैं उसके पालन योग्य साधनो का समावेश है। इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिई इय । मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा ॥२॥ पाँच समितियां इस प्रकार है :-(१) ईर्यासमिति, (२) भाषासमिति, (३) एपणासमिति, (४) आदान-निक्षेप समिति और Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] [ श्री महावीर वचनामृत (५) उच्चारप्रस्रवण समिति । तीन गुप्तियाँ ये हैं - (१) मनोगुप्ति, (३) वचनगुप्ति और (३) कायगुप्ति । कायगुप्ति आठवी है अतः इसके साथ अष्ट प्रवचनमाता की गणना पूरी होती है | एयाओ अट्ठ समिईओ, समासेण वियाहिया | दुवालसंगं जिणक्खायं, मायं जत्थ उ पवयणं ॥३॥ ये आठ समितियाँ सक्षेप मे कही गई है । प्रवचन अर्थात् जिन भगवन्तों द्वारा कथित द्वादशाङ्गी । वह इन आठ समितियों मे अन्तर्भूत है, इसीलिये इन्हे अष्ट-प्रवचनमाता कहा जाता हैं । विवेचन - जबकि ऊपर पांच समिति और तीन गुप्ति कहा गया है तो भला यहाँ आठ समिति कैसे हो गई ? ऐसा प्रश्न मन मे उठना सम्भव है | इसका समाधान यह है कि गुप्ति भी अपेक्षाविशेष से एक प्रकार की समिति है और यह निर्दिष्ट करने के लिये ही यहाँ 'आठ समिति' ऐसा कहा गया है । देवाधिदेव श्री जिनेश्वर भगवान् ने जो उपदेश दिया, उसे गणधर भगवन्तों ने आचारादि वारह अङ्गों मे ग्रथित किया । उसको ही निर्ग्रन्थ- प्रवचन अथवा प्रवचन कहा जाता है । इस प्रवचन मे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनो का वर्णन है, तथापि उसमे मोक्षप्राप्ति के अनन्तर कारणरूप सम्यक् चारित्र की ही प्रधानता है, जिसे अन्य शब्दों मे निर्वाणप्रापक योग-सावना भी कहते हैं । इस योगसाधना को माता के समान रक्षण करनेवाली और इसका पालन-पोषण करनेवाली ये आठ समितियाँ हैं । इसलिये इनका 'अष्ट प्रवचनमाता' ऐसा रहस्यमय नाम दिया गया है । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भप्ट प्रवचनमाता] [२१७ आलंवगण कालेण, मग्गेण जयणाइ य। चउकारणपरिसुद्धं, संजए इरियं रिए ॥४॥ साधुपुरुष को आलम्बन, काल, मार्ग और यतनादि चार कारणो __ की शुद्धिपूर्वक ईर्यासमिति का पालन करना चाहिये। विवेचन-ईर्यासमिति का वास्तविक अर्थ है चलते समय कोई ‘भी जीव न मरे, इसकी पूरी सावधानी रखना। तत्थ आलंवणं नाणं, दंसणं चरणं तहा। काले य दिवसे वुत्ते, मग्गे उप्पहवज्जिए ॥५॥ उसमें आलम्बन से ज्ञान, दर्शन और चारित्र को निर्दिष्ट किया गया है, जबकि काल से दिन और मार्ग से उत्पथ का परिवर्जन । विवेचन-आलम्बन की शुद्धिपूर्वक चलना अर्थात् ज्ञान-दर्शन'चारित्र की रक्षा अयवा वृत्ति का हेतु हो तभी साधुपुरुष को चलना चाहिये, अन्यथा नही। काल की शुद्धिपूर्वक चलना अर्थात् दिन मे ही चलना चाहिये, रात्रि में नहीं। मार्ग की शुद्धिपूर्वक चलना ‘अर्यात सभी के लिए निश्चित आवागमनवाले मार्ग मे ही चलना, किन्तु टेढ़े-मेढे मार्ग पर नही चलना। टेढे-मेढ़े उबड़-खाबड मार्गपर "चलने से जीवाकुल भूमि पर पैर गिरने की सम्भावना रहती है, जिससे बहुत जीवों की विरावना होना सम्भव है। दबओ खेतओ चेव, कालो भावओ तहा। जयणा चउविहा वुत्ता, तं मे कित्तयओ सुण ॥६॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] [ श्री महावीर-वचनामृत यतना द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से, इस तरह चार प्रकार की कही गई है, जिसका वर्णन करता हूं, उसे सुनो। दबा चक्खुसा पेहे, जुगमितं च खित्तओ। कालओ जाव रोजा, उवउत्ते य भावो ॥॥ द्रव्य से यतना करना अर्थात् आख से बराबर देखना ; क्षेत्र से यतना करना अर्थात् आगे की एक धुरा जितनी भूमि का निरीक्षण करते रहना । काल से यतना करना अर्थात् जहाँ तक चलने की क्रिया चालू रहे, वहाँ तक यतना करना और भाव से यतना करना अर्थात् उस समय पूर्णरूप से सावधानी रखना।। इढियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा । तम्मुत्ती तप्पुरकारे, उवउत्तं रियं रिए ॥८॥ __ मुनि इन्द्रिय के अर्थ तथा पाच प्रकार के स्वाध्याय का परित्याग करे और ईर्यासमिति को प्रधानता देकर उसमे तन्मय हो सावधानी से चले। विवेचन- ईयासमिति के बारे में दूसरी सूचना यह है कि चलते समय इन्द्रियों के विषय मे अर्थात् शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श सम्बत्वी अनुकूल-प्रतिकूल कोई विचार नही करना। यदि मन में ऐसे विचारों का उफान आ गया तो सावधानी नही रहेगी और किसी जीव-जन्तु के पैरों के नीचे आ जाने से उसकी विराधना होगी। स्वाध्याय अर्थात् पठन-पाठन से सम्बन्चित प्रवृत्ति । जिन-शासन में स्वाध्याय के वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा एवं धर्मकथा Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट-प्रवचनमाता ] [२१६ ऐसे पाँच प्रकार बतलाये गये है । चलते समय इन पाँच प्रकार के स्वाध्याययो मे भी मन को नही उलझाना चाहिए। मन मे पाठ चलता हो अथवा उसके अर्थ के बारे मे किसी के साथ वार्तालाप हो रहा हो या फिर उसकी पुनरावृत्ति होती हो तो चलते समय सावधानी नही बरती जाती। इसी प्रकार यदि मन उसके गहरे चिन्तन मे खो गया हो तो स्वयं कहाँ चल रहे है ? और किस तरह चल रहे हैं ? इसका भी उन्हे ध्यान नही रहता । साथ ही उस समय किसी को धर्मकथा सुनाने का काम जारी हो तो भी चलने मे अपेक्षित सावधानी नही रहती । इन्ही कारणो से इन दोनों वस्तुओ के निषेध की आज्ञा की गई है । कोहे माणं य मायाए, लोभे य उवउत्तया । हासे भए मोहरिए, विकहासु तहेव य ॥ ६ ॥ एयाइं अट्ठ ठाणाई, परिवज्जितु संजए । असाचज्जं मियं काले, भासं भासिज्ज पन्नवं ॥ १०॥ भाषासमिति का अर्थ यह है कि प्रज्ञावान् मुनि क्रोध, मान, माया, लोभ का उदय, हास्य, भय, वाचालता और विकथा आदि आठ स्थानो का त्याग कर योग्य समय पर परिमित और निरवद्य वचन ही बोले । गवसणाए गहणं य, परिभोगेसणा य जा । आहारोवहिसेज्जाए, एए तिन्नि विसोहए ॥ ११ ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] [श्री महावीर-वचनामृत एषणासमिति के तीन भेद हैं-गवेषणा, ग्रहणपणा और परिमोगैषणा । आहार, उपधि और शय्या के समय इन तीनों के बारे में पूरी शुद्धि रखनी चाहिए। उग्गमुप्पायणं पठमे, बीए सोहेज एसणं । परिभोयम्मि चउक्कं, विसोहेज जयं जई ॥१२॥ यतनावान् साधु प्रथम एषणा में उद्गम-उत्पादन दोष की शुद्धि करे, दूसरी एषणा मे गङ्कितादि दोषो की शुद्धि करे और तीसरी परिभोगपणा मे सयोजना, मोह, कारण और प्रमाण-इन चारो दोषों की शुद्धि करे। विवेचन--गवेषणा करते समय सोलह उद्गम के और सोलह उत्पादन के-कुल मिलाकर ३२दोष टालने पड़ते हैं। जबकि ग्रहण करते समय गद्धितादि १० दोष । इस प्रकार कुल ४२ दोष टालकर आहारादि को ऐषणा करनी चाहिये। इन ४२ दोषों का विस्तार से वर्णन पिण्डनियुक्ति मे किया गया है। परिभोग करते समय सयोजना, मोह, कारण और प्रमाणादि चारों को निर्दोपता के बारे में पूरा निर्णय कर लेना चाहिये। सक्षेप में सावु को अपनी आजीविका के लिये आहार-पानी, वस्त्र, पात्र, ओषचि, नय्या आदि जो कुछ भी प्राप्त करना-उपभोग करना आवश्यक रहता है, वह सब शास्त्रप्रदर्शित विधिपूर्वक प्राप्त करने-उपयोग करने से इस समिति का पालन हुआ ऐसा माना जाता है। ओहोवहोवग्गहियं, भंडगं दुविहं मुणी। ' गिण्हंतो निक्खिवंतो वा, पउंजेज्ज इयं विहिं ॥१३॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट-प्रवचनमाता] [ २२१ पात्र आदि ओघोपधि कहलाते है और सस्तारक (शय्या) आदि ओपग्रहिक उपधि कहलाते है। इन दोनो प्रकार की उपधियो को ग्रहण करते समय तथा स्थापित करते समय मुनि को इस विधि का पालन करना चाहिये , चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमज्जेज्ज जयं जई। आइए निक्खियेज्जा वा, दुहओ वि समिए सया॥१४॥ [उत्त० अ० २४, गा० १-१४ ] यतनावान् साधु आँख से देखकर दोनो प्रकार की उपधि को प्रमार्जना करे तथा उपधि को उठाने से पर्व और रखते समय इस समिति का सदा पूरी तरह से पालन करे। संथारं फलगं पीढं, निसिज्जं पायकम्पलं । अप्पमज्जियमारुहई, पावसमणित्ति वुच्चई ।।१।। [उत्त० अ० १७, गा०७] जो साधु सस्तारक ( शय्या), फलक, पीठ, पादपोछन और स्वाध्यायभूमि, इन पाचो का प्रमार्जन किये बिना ही बैठता है, वह पापश्रमण कहलाता है। पडिलेहेइ पमत्ते, अवउज्झइ पायकम्बलं । - पडिलेहा अणाउत्ते, पावसमणित्ति वुच्चइ ।। [उत्त० अ० १७, गा०६] जो ( साधु ) प्रतिलेखना मे प्रमाद करता है, पात्र-कम्बल आदि Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] [श्री महावीर-वचनामृत अव्यवस्थित रखता है और प्रतिलेखना मे पूर्ण सावधानी नही रखता है, वह पापश्रमण कहलाता है। धुवं च पडिलेहिज्जा, जोगसा पायकवलं । सिज्जमुच्चारभूमिं च, संथारं अदुवासणं ॥१७॥ [दश० अ० ८, गा० १७] साधु को चाहिये कि वह नियमित रूप से यथासमय पात्र, कम्बल, शय्या स्थान, उच्चारभूमि ( मलविसर्जन का स्थान), सस्तारक और आसन आदि की सावधानीपूर्वक प्रतिलेखना करे। पुढवी-आउक्काए, तेऊ-बाऊ-वणस्सइ-तसाणं । पडिलेहणापमत्तो, छण्हं पि विराहओ होइ ॥१८॥ [उत्त० अ० २६, गा० ३०] प्रतिलेखना मे प्रमाद करनेवाला साधु पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय इन छहों कायों का विरावक होता है। पुडवी-आउक्काए, तेऊ-बाऊ-वणस्सइ-तसाणं । पडिलेहणाआउत्तो, छण्हं संरक्खओ होइ ॥१६॥ [उत्त० अ० २६, गा० ३१] प्रतिलेखना मे जो सावधान रहनेवाला साघु पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा सकाय इन छहों कार्यों का संरक्षक होता है। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०३ अष्ट-प्रवचननाता] उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाणजल्लियं । आहारं उबहिं देहं, अन्नं वावि तहाविहं ॥२०॥ [ उत्त० भ० २४, गा० १५] मल, मूत्र, कफ, नाक का मल, शरीर का मैल, आहार, उपधि, देह, (गव तथा ऐसी अन्य वस्तुओं को विधिपूर्वक परिठवनी-ठिकाने लगानी) चाहिये। विवेचन-उच्चार-प्रस्रवण-समिति को परिष्ठापनिका-समिति भी कहते हैं। वेकार वस्तुओ का सावधानीपूर्वक परिष्ठापन करने से-ठिकाने लगाने से इस समिति का पालन होता है। मल, मूत्र, कफ, नासिका का मल, शरीर का मैल परठवने ( ठिकाने लगाने ) का प्रसग प्रतिदिन आता है, जबकि आहार परठवने ( ठिकाने लगाने ) का प्रसग तो कचित ही आता है। उपधि को परठवने (ठिकाने लगाने ) का प्रसग वर्षाकाल से पूर्व आता है और शव को परठवने ( ठिकाने लगाने ) के प्रसग कभी-कभी आते हैं। ये सभी वस्तुएं कहाँ रखनी चाहिये ? इसकी सूचना अगली गाथाओ मे दी गई है। अणावायमसंलोए, अणवाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए, आवाए चेव संलोए ॥२१॥ अणावायमसंलोए, परस्सऽणुवधाइये । समे अज्झुसिरे वावि, अचिरकालकयंमि य ॥२२॥ विच्छिन्ने दूरमोगाढे, नासन्ने विलवज्जिए । तयपाण बीयरहिए, उच्चाराइणि चोसिरे ॥२३॥ [उत्त० भ० २४, गा० १६-१७-१८] Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४] [श्री महावीर वचनामृत (१) जहाँ किसीके आने की सम्भावना न हो और कोई देखता भी न हो, (२) जहाँ किसोके आने की सम्भावना न हो किन्तु कोई देखता हो, (३) जहाँ कोई आता हो किन्तु देखने की सम्भावना न हो और (४) जहाँ कोई आता भी हो और देखता भी हो, ऐसे चार स्थानों मे से जहाँ कोई आता भी नही हो और कोई देखता भी नही। हो, ठीक वैसे ही जहाँ जीवो का घात होने की सम्भावना न हो, जो स्थान सम हो, छिद्रवाला न हो, और थोड़े समय से अचित्त बना हुआ हो, जो स्थान विस्तृत हो, नीचे दीर्घकाल तक अचित्त हो, जो ग्रामादि के समीप न हो और चूहे आदि के बिल से रहित तथा कीटकादि। प्राणी और वीज से रहित हो, ऐसे स्थान पर साधु को मलादि का त्याग करना चाहिये। एयाओ पंच समिईओ, समासेण वियाहिया। इत्तो य तओ गुत्तीओ, वोच्छामि अणुपुचसो ॥२४॥ [उत्त० अ० २४, गा० १६] ऊपर पाँच समितियों को मैने संक्षेप मे बताया है। अब तीन गुप्तियों को अनुक्रम से कहता हूं। सच्चा तहेव मोसा य, सच्चमोसा तहेब य । चउत्थी असच्चमोसा य, मणगुत्ती चउन्चिहा ॥२॥ . [उत्त० भ० २४, गा० २०] मनोगुप्ति चार प्रकार की है :-(१) सत्या, (२) असत्या, (३) मिश्रा और (४) असत्यामृषा । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट-प्रवचनमाता] [२२५ विवेचन-मन (१) सत्य, (२) असत्य, (३) अर्ध-सत्य और अर्थ असत्य तथा (४) सत्य भी नही और असत्य भी नही, ऐसे चार विषयो मे प्रवृत्त होता है। इस लिए मनोगुप्ति का चार प्रकार माना गया है। सरंभसमारंभे, आरंभे य तहेव य। मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तिज जगं जई ॥२६॥ [उत्त० अ० २४, गा० २१] संयमी पुरुष सरम्भ, समारम्भ और आरम्भ मे प्रवृत होते मन का नियन्त्रण करे। विवेचन-आरम्भ अर्थात् जीवविराधना । उसके सम्बन्ध मे सकल्प किया जाय वह सरम्भ और जो आवश्यक प्रवृत्ति की जाय वह समारम्भ। मणो साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावइ ॥२७॥ [उत्त० अ० २३, गा०५८] मन एक साहसिक, भयकर और दुष्ट घोड़े के समान है, जो ___ चारो ओर दौड़ता है। साहरे हत्थपाए य, मणं पंचेदियाणि य। पावकं च परिणामं, भासादोसं च तारिसं ॥२८॥ [सू० ध्रु० १, अ०८, गा० १७ ] ज्ञानी पुरुष हाथ-पैर का संकोच करते है, मन और पांच इन्द्रियों को वश में रखते है और दूष्ट भावो को हृदय मे उठने नही देता। उसी तरह वह सावध भाषा का सेवन भी नहीं करता। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] [श्री महावीर-वचनामत समाइ पहाड परिचयंतो, - सिया मणो निस्सरई वहिद्धा । 'नसा महं नो वि अहं वि तीसे, इच्चेव ताओ विणएज रागं ॥२६॥ [दश० अ० २, गा० ४] समदृष्टिपूर्वक सयमयात्रा में विचरण करते हुए भी कदाचित ६ परिभुक्त भोगो का स्मरण होने से अथवा अभुक्त भोगों के भोगने की वासना जागृत होने से) संयमी पुरुष का मन संयममार्ग से विचलित होने लगे तब उसे ऐसा विचार करना चाहिये कि 'विषयमोगो की सामग्री. मेरी नहीं है और मैं इनका नही हूं।' इस प्रकार सुविचार के अंकुश से उसके मन मे उत्पन्न क्षणिक आसक्ति को दूर करे। सच्चा तहेव मोसा य, सच्चमोसा तहेव य । चउत्थी असच्चमोसा य, वयगुत्ती चउबिहा ॥३०॥ [उत्त० अ० २४, गा० २२ ] वचनगुप्ति चार प्रकार की हैं :-(१) सत्य भाषा सम्बन्ची, २) असत्य भाषा सम्बन्धी, (३) सत्यासत्य भाषा सम्बन्ची और (53) असत्यामृषा-भाषा सम्बन्धी। संरंभसमारंभे, आरम्भे य तहेव य । वयं पवत्तमाणं तु, नियत्तिज जयं जई ॥३१॥ [उत्त० भ०२४, गा० २३] . Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट-प्रवचनमाता] [ २२७ संयमी पुरुष सरम्भ, समारम्भ और आरम्भ मे प्रवृत्त होती वाणी पर सावधानी पूर्वक नियन्त्रण करे। ठाणे निसीयणे चेव, तहेव य तुयट्टणे ।। उल्लंघणपल्लंघणे, इंदियाण य झुंजणे ॥३२॥ _[उत्त० अ० २४, गा० २४] सयमी पुरुष खडा रहने मे, बैठने मे, सोने मे उल्लघन-प्रलघन करने मे तथा इन्द्रियो के प्रयोग मे सदा काया का नियन्त्रण करे। संरंभसमारंभे, आरंभे तहेव य । कायं पचत्तमाणं तु, नियत्तिज जयं जई ॥३३॥ [उत्त० अ० २४, गा० २५ ] संयमी पुरुष सरम्भ, समारम्भ और आरम्भ मे प्रवृत्त होती काया को सावधानी से नियन्त्रण करे। मणगुत्तयाए णं भंते ! जोवे कि जणयई ? मणगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयई, एगग्गचित्ते णं जीवे मणगुत्त संजमाराहए भवइ ॥३४॥ [उत्त० १० २६, गा.५३ ] प्रश्न-हे भगवन् ! मनोगुप्ति से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर-हे शिष्य ! मनोगुप्ति से जीव एकापनित्त प्राता है और एकागचित्तपाला मनोगुत जीव राणम का गान तोा। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८] [श्री महावीर वचनामृत वयगुत्तयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? वयगुत्तयाए णं निन्निकारत्तं जणयइ, निचिकारे णं जीवे वगुत्ते अज्झप्पजोगसाहणजुत्ते यावि भवड्॥३५॥ [उत्तः भ० २६, गा० ५४ ] प्रश्न- हे भगवन् ! वचनगुप्ति से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर-हे निष्य ! वचनगुप्ति से जीव निर्विकार भाव को उत्पन्न करता है। और इसी निर्विकार भाव से वचनगुप्त जीव अव्यात्मयोगसावन से युक्त होता है। कायगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयह ? कायगुत्तयाए संवरं जणयइ, संवरेणं [णं जीवे] कायगुत्ते पुणो पावासवनिराहं करेइ ॥३६॥ उत्त. न. २६, गा: ५५] प्रश्न हे भगवन् ! कायगृप्ति से जीव क्या उपार्जित करता है ? उत्तर-हे शिष्य ! कायगुप्ति से जीव संवर उत्पन्न करता है और सवर से कायगुप्त वना हुआ जीव पापात्रव का निरोव करता है। एयाओ पंचसमिईओ, चरणस्स य पवत्तण । गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्येमु सन्चसो ॥३७॥ [दगः १०२४, गा.२६] इस तरह के पांच समितियां चारित्र को प्रवृत्ति के लिये है और तोन गुप्तिनां सर्व प्रकार की अनुमत्रवृत्तियों को रोकने के लिये है। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२६ अष्ट-प्रवचनमाता] एसा पवयणमाया, जे सम्मं आयरे मुणी।। से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए ॥३८॥ [उत्त० अ० २४, गा० २७] जो विद्वान् मुनि उपर्युक्त प्रवचन माताओ का सम्यग् आचरण करता है, वह ससार परिभ्रमण से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। विवेचन-गृहस्थ साधक भी इन समिति-गुप्तियो का यथाशक्ति पालन करने पर चारित्रशुद्धि का लाभ प्राप्त कर सकता है। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घारा: १६: भिक्षाचरी एसणासमिओ लज्जू , गामे अणियओ चरे । अप्पमत्तो पमहि, पिण्डवायं गवेसए ॥१॥ [उत्त० स० ६, गा० १४] सयमी सावु एषणासमिति का पालन करता हुआ गांव मे अनियतवृत्ति से अप्रमादी होकर गृहस्यों के घर से भिक्षा की गवेषणा करे। समुयाणं उंछमेसिजा, जहासुत्तमणिदियं । लाभालामम्मि संतुडे, पिण्डवायं चरे मुणी ॥२॥ [उत्तः अ० ३५, गा०६] मुनि को चाहिये कि वह सूत्रानुसार और अनिन्दित अनेक परिवारों से थोडा-थोज आहार ग्रहण करे और मिले अथवा न मिले तो भी सन्तुष्ट रहकर भिक्षावृत्ति का पालन करे। भिक्खियन्त्रं न केयन्त्र, भिक्खुणा भिक्खवत्तिणा। कयविक्कओ महादोसो, भिक्खावित्ती सुहावहा ॥३॥ [ उत्त अ० ३५, गा० १५] Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिक्षाधरी] [२३ भिक्षावृत्तिवाले मिक्षक को भिक्षा का ही अवलम्बन करना चाहिये, परन्तु मूल्य देकर कोई भी वस्तु नही खरीदनी चाहिये, क्योकि क्रय-विक्रय मे महादोष है और भिक्षावृत्ति सुख देनेवाली है। कालेण निक्खमे भिक्खू , कालेण य पडिक्कमे । अकालं च विवजिता, काले कालं समायरे ॥४॥ [उत्त० भ०१, गा० ३१ ] साधु नियत समय पर भिक्षा के लिए जाए और वहाँ से यथा समय लौट आये। वह अकाल को छोडकर योग्य काल में उसके अनुरूप क्रिया करे। सइकाले चरे भिक्खू , कुजा पुरिसकारियं । अलाभुत्ति न सोएजा, तवोत्ति अहियासए ।शा [दश० अ०५, उ० २, गा०६] भिक्षुक समय होते ही भिक्षा के लिए जाए और यथोचित पुरुषार्थ करे। कभी भिक्षा नही मिले तो शोक न करे, परन्तु उस समय 'चलो सहज तप होगा' ऐसा विचार कर क्षुधादि परीषहमें को सहन करे। संपत्ते भिक्खकालम्मि, असंभंतो अमुच्छिओ। ___ इमेण कम्मजोगेण, भत्तपाणं गवेसए ॥६॥ [दश मे० ५, उ० १, गा०१] भिक्षा का समय होने पर साघु उत्सुक और आहारादि के Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] [श्री महावीर-वचनामृत अन्यान्य विचारो मे होश न खो कर आगे कही गई विधि के अनुसार आहार-पानी की गवेषणा करे। से गामे वा नगरे वा, गोयरग्गओ मुणी। चरे मन्दमणुबिग्गो, अवक्खित्तेण चेयसा ॥७॥ [ दश० अ० ५, उ० १, गा० २] गाँव में अथवा नगर मे गोचरी के लिये गया हुआ मुनि उद्वगरहित बनकर स्वस्थ चित्त हो धीरे-धीरे चले। पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे। वज्जंतो वीयहरियाई, पाणे य दगमट्टियं ॥८॥ [दश० अ० ५, उ० १, गा० ३] मुनि अपने सामने की घुरा प्रमाण ( चार हाथ जितनी ) भूमि को देखता हुआ चले। वह चलते समय बीज, हरी वनस्पति, सूक्ष्म जीवजन्तु तथा कीचड आदि को छोड़कर चले अर्थात् इन पर पर न पड़ जाय इसकी पूरी सावधानी रखे। न चरेज वासे वासंते, महियाए वा पडंतिए | महावाए व वायंते, तिरिच्छसंपाइमेसु वा ॥६॥ [ दश० अ०५, उ० १, गा०१०] वर्षा हो रही हो, कुहासा छा रहा हो, आंधी चल रही हो अथवा पतगे आदि अनेक प्रकार के जीवजन्तु उड़ रहे हों, ऐसी परिस्थिति मे साघु अपने स्थान से बाहर न निकले। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षाचरी] [२३३ अणाययणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं । हुन्ज वयाणं पीला, सामण्णम्मि य संसओ ॥१०॥ [दश० अ० ५, उ० १, गा० १० ] गोचरी के लिये वेश्याओ के मुहल्ले मे जानेवाले साधु को उनका बार-बार संपर्क होता है, जिससे महाव्रतो को पीडा होती है और समाज उसकी साघुता पर सन्देह करने लगता है। तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवणं । वजए वेससामन्तं, मुणी एगंतमस्सिए ॥११॥ [दश० अ० ५, उ० १, गा० ११] इसलिये दुर्गति को बढाने मे सहायता देनेवाले उपर्युक्त दोषो को समझकर एकान्त मोक्ष की कामना रखनेवाले मुनि वेश्याओ के मुहल्लों मे भिक्षा के लिए जाना छोड दे। साणं सूअं गावि, दित्तं गोणं हयं गयं । सडिम्भं कलहं जुद्धं, दूरओ परिवजए ॥१२॥ [दश० अ० ५, उ० १, गा० १२] जहाँ कुत्ता हो, तत्काल व्याही हुई गाय हो, साड, हाथी अथवा 'घोडा हो या जिस स्थान पर बालक क्रीडा करते हों, कलह हो रहा हो, युद्ध मच रहा हो, वहाँ साघु पुरुषको नहीं जाना चाहिये। बल्कि उसका दूर से ही त्याग करना चाहिये। अणुन्नए नावणए, अप्पहिढे अणाउले । इंदियाणि जहाभाग, दमइत्ता मुणी चरे ॥१३॥ [ दरा० ५० ५, ७० १, गा० १३ ] Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] [श्री महावीर-वचनामृत ___गोचरी के लिये जाता हुआ साघु अपनी नजर को - बहुत ऊपर अथवा बहुत नीचे न रखे, अभिमान अथवा दीनता धारण न करे, स्वादिष्ट भोजन मिलने से प्रसन्न न होवे अथवा न मिलने से व्याकुल न बने और अपनी इन्द्रियो तथा मन को निग्रह कर उसे सन्तुलित रख सदा विचरण करे। दवदवस्स न गच्छेज्जा, भासमाणो य गोयरे । हसंतो नाभिगच्छेज्जा, कुलं उच्चावयं सया ॥१४॥ [दश० अ०५, उ० १, गा० १४] गोचरी के लिये जानेवाला साघु जल्दी-जल्दी न चले, हंसताहँसता न चले अथवा वात-चीत करता न चले। वह सदा धनवान और निर्घन दोनो प्रकार के कुलो मे समान भाव से जाय । पडिकुटुं कुलं न पविसे, मामगं परिवज्जए । अचियत्तं कुलं न पविसे, चियचं पविसे कुलं ॥१५॥ [दश० भ० ५, उ० १, गा९१७ ] साधु को चाहिए कि वह शास्त्रनिषिद्ध कुल मे गोचरी के लिये न जाए, गृह के स्वामी ने इन्कार किया हो तो उस घर मे न जाए, तथा प्रीतिरहित गृह में भी प्रवेश न करे। वह अनुराग-श्रद्धावाले गृहों मे ही प्रवेश करे। समुयाणं चरे भिक्खू, कुलमुच्चावयं सया। नीगं कुलमइक्कम्म, ऊमढं नाभिधारए ॥१६॥ [दए० अ०५, ८० २, गा० ०५] Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिक्षाचरी साधु सदा ही सामुदानिक (धनवान् और निर्धन इन दोनो) के गृह मे गोचरी करे। वह निर्धन कुल का घर समझकर उसे टालकर धनवान के घर न जाए। असंसत्तं पलोइजा, नाइदूरावलोयए। उप्फुल्लं न विनिज्झाए, निअट्टिज अयंपिरो ॥१७॥ [दश० अ० ५, उ० १, गा० २३] गोचरी के लिये गया हुआ साधु घन मे रही स्त्री की नजर से नजर मिला कर न देखे, दूर तक लम्बी नजर न डाले, आँखे फाडफाड कर न देखे। यदि भिक्षा न मिले तो बडबडाए बिना ही वापस आ जाए। जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । . ण य पुप्फ किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ॥१८॥ एमे ए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो । विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तसणे रया ॥१६॥ [दश० अ० १, गा० २-३ ] मॅवरे जब वृक्षो के फूलो का रस पीते है, तब फूलो को तनिक भी पीड़ा नही पहुंचाते और अपनी आत्मा को तृप्त कर लेते हैं। उसी प्रकार इस जगत मे जो समत्व की साधना करनेवाले बाह्य-अस्यतर परिग्रह से मुक्त साधु है, वे भ्रमर के समान इस ससार मे केवल अपने लिये उपयुक्त ऐसी गृहस्थ द्वारा दी गई सामग्नी ( वस्त्र-पात्रादि ), तथा शुद्ध निर्दोष भिक्षा प्राप्त करके सन्तुष्ट रहता है। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६] [श्री महावीर-वचनामृत महुकारसमा वुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया । नाणापिण्डरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो ॥२०॥ [दश० अ० १, गा०५] भ्रमर के समान सुचतुर मुनि अनासक्त तथा हर किसी प्रकार के भोजन मे सन्तुष्ट रहने का अभ्यासी होने से अपनी इन्द्रियों पर काबू 'पाने का आदी होता है और इसीलिए वह साधु कहलाता है। अदीणो वित्तिमेसिज्जा, न विसीइज्ज पंडिए । अमुच्छियो भायणमि, मायण्णे एसणारए ॥२१॥ [दश० भ० ५, उ० २, गा० २६] निर्दोष भिक्षा ग्रहण की गवेषणा करने मे रत और आहार की। मर्यादा को माननेवाला पण्डित साधु भोजन के प्रति अनासक्ति भाव रखे और दीन भावना को छोडकर भिक्षावृत्ति करे। ऐसा करते हुए यदि कभी मिक्षा न मिले तो किसी प्रकार का दुःख अनुभव न करे। समरेसु अगारेसु, संधी य महापहे । एगो एगिथिए सद्धि, नेव चिट्ठ न संलवे ॥२२॥ [उत्त० अ० १, गा० २६] लुहार-शाला, सूना घर, दो घरों के बीच की गली और राज-मार्ग मे अकेला साघु अकेली नारी के साथ खड़ा न रहे और बातचीत न करे। नाइद्रमणासन्ने, नन्नेसिं चक्खुफासओ। एगो चिटेज भत्तट्टा, लंधित्ता तं नइक्कमे ॥२३॥ [उत्त० अ० १, गा० ३३] Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षाचरी] [२३७. ___ गृहस्थ के घर से ( भोजनालय से ) अति दूर नही और अति निकट भी नही, तथा अन्य श्रमणो की नजर पड़े ऐसे भी नहीं, इस तरह साधु को भिक्षा के लिए खडा रहना चाहिये। वह किसी का भी उल्लघन कर आगे बढे नही। अइभूमिं न गच्छेज्जा, गोयरग्गओ मुणी । कुलस्स भूमि जाणित्ता, मियं भूमि परिकमे ॥२४॥ [दश० अ०५, उ० १, गा० २४ ] गोचरी के लिए गया हुआ साधु, जिस परिवार का जैसा आचार हो वही तक परिमित भूमि मे गमन करे। नियत सीमा के भीतर गमन नही करे। दगमट्टियआयाणे, बीयाणि हरियाणि य । परिवज्जंतो चिट्ठिज्जा, सविंदियसमाहिए ॥२॥ [दश० अ० ५, उ० १, गा० २६] सब इन्द्रियों को वश मे रखनेवाला समाधिशील मुनि जहाँ पानी और मिट्टी लाने का मार्ग हो, बीज पडे हो अथवा हरी वनस्पति हो, ऐसे स्थान को छोडकर खडा रहे। पविसित्त परागारं, पाणट्ठा भोयणस्स वा । जयं चिट्ठ मियं भासे, न य रूवेसु मणं करे ॥२६॥ [दश० म०८, गा० १६ ] साघु पानी अथवा भोजन के लिए गृहस्य के घर में प्रवेश करके यतनापूर्वक खडा रहे, थोड़ा बोले और स्त्रियों के सौन्दर्य की ओर आकृष्ट हो उसका विचार न करे। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] [श्री महावीर-वचनामृत तत्य से चिट्टमाणस्स, आहरे पाणभोयणं ।। अकप्पियं न गेहिब्जा, पडिगाहिज्ज कप्पियं ॥२७॥ [दा न० ५, उ० १, गा० २७] वहाँ (गृहस्य के घर) मर्यादित भूमि में खड़े हुए सावु को गृहस्थ आहार-पानी देवे। वह क्ल्पनीय हो तो साघु उसे ग्रहण करे और अकल्पनीय हो तो ग्रहण न करे। विवेचन सावु के आचार अनुसार जो वस्तु ग्रहण की जा सके उसे क्ल्प नीय और न ली जा सके उसे अकल्पनीय कहते हैं। नाइउच्चे नाइनीए, नासन्ने नाइदूरओ। फासुयं परकडं पिण्डं, पडिगाहेज्ज संजए ॥२८॥ [उत्तः अ० १, गा० ३४] दाता से ज्यादा ऊपर नहीं, ज्यादा नीचे भी नही अथवा ज्यादा पास नही और ज्यादा दूर भी नहीं यों खड़ा रहकर भिक्षार्थी सावु प्रानुक अर्थात् अचित्त और परकृत अर्यात दूसरे के निमित्त दना हुआ आहार ग्रहण करे। दुहं तु भुंजमाणाणं, एगो तत्य निमंतए । दिजमाणं न इच्छिजा, छंदं से पडिलेहए ।। २६ ।। [दशः स०५, १० १, गा० ३८] गृहल्य के घर मे यदि दो व्यक्ति भोजन कर रहे हों और उनमे से एक व्यक्ति निमन्त्रण दे तो सावु.उसे लेने की इच्छा न करे। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षाचरी ] [ २३६ दूसरे का अभिप्राय भी जान ले । तात्पर्य यह है कि दोनों की इच्छा हो तभी उनके पास से आहार -पानी ग्रहण करे । गुन्विणीए उवण्णत्थं, विविहं पाणभोयणं । भुंजमाणं विवज्जिज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छए ||३०|| [ दश० अ०५, ३०१, गा० ३९] गर्भवती स्त्री के लिये बनी विविध प्रकार की भोज्य सामग्री यदि वह खा रही हो तो भिक्षार्थी साधु उसे ग्रहण न करे । उसके खा लेने के पश्चात् यदि अवशिष्ट रहे तो उसे ग्रहण करे । सिया य समणट्ठाए, गुन्विणी कालमासिणी । उडिआ वा निसीइजा, निसन्ना वा पुणुट्ठए ॥३१॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पर तारिसं ||३२|| [ दश० भ०५, उ०१, गा० ४०-४१] जिसका नौवां महीना चल रहा है ऐसी गर्भवती स्त्री कदाचित् खडी हो और साधु को आहार- पानी देने के लिये नीचे बैठे अथवा पहले बैठी हुई हो और बाद मे उठना पडे तो वह आहार- पानी साघु के लिये अकल्पनीय बन जाता है। ऐसे प्रसग पर भिक्षा देनेवाली महिला से साधु यो निषेध करे कि - इस प्रकार की भिक्षा ग्रहण करना मेरे लिये उचित नही है । थणगं पिज्जेमाणी, दारगं वा कुमारियं । तं निक्खिवित्तु रोयंतं, आहरे पाणभोयणं ॥ ३३ ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ __२४०] [श्री महावीर-वचनामृत तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिय । दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥३४॥ [दश० भ० ५, उ० १, गा० ४२-४३] वालक अथवा वालिका को स्तनपान कराती हुई स्त्री यदि उसे रोता हुआ छोड कर आहार-पानी देवे तो वह साधु के लिये अकल्पनीय है। अतः देनेवाली महिला को साधु इस तरह निषेध व्यक्त करे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिये कल्लनीय नही है। असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, दाणट्ठा पगडं इमं ॥३॥ तारिसं भत्तपाणं तु, संजयाणं अकप्पिय । दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥३६॥ [दश० अ० ५, उ० १, गा० ४७-४८ ] जो साधु ऐसा जान ले अथवा कही से सुन ले कि यह अशन, पान, खादिम और स्वादिम वस्तुएं साधु को दान देने के लिये ही तैयार करवाई गई हैं, तो उसके लिये वह आहार-पानी अकल्पनीय हो जाता है, अतः उस दाता से साधु को कहना चाहिये कि इस तरह का आहार-पानी मेरे लिये कल्पनीय नही है। विवेचन-आहार के चार प्रकार है:-(१) अशन, (२) पान, (३) खादिम और (४) स्वादिम। इन मे क्षुधा का शमन करे ऐसे पदार्य जैसे कि भात, कठोल, रोटी, मोटो रोटी, पूड़ी, बडे, मांड, सत्तू आदि अमन कहलाते हैं। पीने योग्य पदार्य जैसे कि चावल का Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षाचरी] [२४१ घोन, छाछ, जौ का पानी, केर का पानी आदि पान कहलाते हैं। सुभक्ष्य पदार्थ जैसे कि भुने हुए घान्य, पोहे, बादाम, (द्राक्ष) दाख, सूखा मेवा आदि खादिम कहलाते है, और स्वाद लेने योग्य जैसे कि चूर्ण की गोली, हरॆ आदि स्वादिम पदार्थ कहलाते है। न य भोयणम्मि गिद्धो, चरे उंछं अयंपिरो । अफासुयं न भुंजिजा, कीयमुद्देसियाहडं ॥३७॥ [दश० भ०८, गा० २३] साधु भोजन मे आसक्त हुए बिना गरीब तथा धनवान् सभी दाताओ के यहाँ भिक्षा के लिये जावे। वहाँ अप्रासुक अर्थात् सचित्त वस्तु, क्रीत अर्थात् साधु के लिये ही खरीद कर लाई गई वस्तु, औद्देशिक अर्थात् साधु का उद्देश्य रख कर बनवाई गई वस्तु तथा आहृत अर्थात् सामने लायी हुई वस्तु ग्रहण न करे। भूल से ग्रहण कर ली गई हो तो उसका भोग न करे । बहुं परघरे अत्थि, विविहं खाइमसाइमं । न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा दिज्ज परो न वा॥३८॥ [दश० अ०५, उ० २, गा० २७ ] गृहस्थ के घर में खाद्य और स्वाद्य अनेक प्रकार के पदार्थ होते हैं, परन्तु वह न देवे तो बुद्धिमान् साधु उस पर क्रोध न करे। वह ऐसा विचार करे कि देना या नही देना, यह उसकी इच्छा की बात है।' निट्ठाणं रसनिज्जलं, भद्दगं पावगं ति वा। पुट्ठो वा वि अपुट्ठो वा, लाभालाभं न निद्दिसे ॥३६॥ [ दशः १०८, गा० २२] Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] [श्री महावीर-चक्नामत किसी के पूछने पर अथवा पूछे विना सावु ऐसा कभी न कहे कि यमुक आहार सरस था, और अमुक नीरस । वह बाहार बहुत अच्छा या और वह बहुत खराव । सा उसके लाभालाभ की चर्चा मी न करे। विणएण पविसिचा, सगासे गुरुणो मुणी। इरियावहियमायाय, आगओ य पडिक्कमे ॥४०॥ [दगु० म०५, २०१, गा० ८८] गोचरी से लौटकर आने के पश्चात् साधु विनयपूर्वक अपने स्यान में प्रवेश करे और गुरु के समक्ष आकर, ईर्यावही का पाठ करके कायोत्सर्ग करे। आमोइत्ता ण नीसेसं, अइयारं जहक्कमं । गमणागमणे चव, भत्तपाणे व संजए ॥४१॥ उज्जुप्पन्नो अणुन्निग्गो, अन्नक्खित्र्तण चेयसा । आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहियं भवे ॥४२।। [दग० न० ५, उ० १, गाः ८६-६०] कायोत्सर्ग करते समय मावु आने-जाने में तथा आहार-पानी प्रहण करने मे तो कोई व्यतिवार लगे हों उन सब को वह ययान्म याद करे और उसके लिए हृदय से खेद प्रकट करे। _ वाद में सरलचित्तवाला और अनुहिन ऐसा सावु अन्याक्षिन्त वित्त से गोवरी को मिली, उसका वर्णन गुरु के समक्ष निवेदित करे। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षाचरी] [२४३ न सम्ममालोइयं हुजा, पुच्विं पुच्छा व जंकडं । पुणो पडिक्कमे तस्स, वोसट्ठो चिन्तए इमं ॥४३॥ अहो जिणेहिं असावजा, वित्ती साहूण देसिया। मोक्खसाहणहेउस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥४४॥ [दश० अ० ५, उ० १, गा० ६१-६२ ] पहले अथवा बाद मे किये गये दोषो की उस समय यदि पूरी तरह आलोचना न हुई हो तो फिरसे इसका प्रतिक्रमण करे और तब कायोत्सर्ग करके ऐसा चिन्तन करे कि 'अहो ! जिनेश्वर देवो ने मोक्षप्राप्ति के साधनभूत साधु का शरीर धारण करने के लिये कैसी निर्दोष भिक्षावृत्ति बताई है ?' णमुक्कारेण पारित्ता, करित्ता जिणसंथवं । सज्झाणं पट्ठवित्ता णं, वीसमेज खणं मुणी ॥४॥ [दश० अ० ५, उ० १, गा० ९३] पीछे 'नमो अरिहंताण' उच्चारणपूर्वक कायोत्सर्ग पालन कर 'जिनस्तुति करके स्वाध्याय करता हुआ मुनि कुछ समय के लिये विश्राम करे। वीसमंतो इमं चिंते, हियमढे लाभमट्ठिओ। जइ मे अणुग्गहं कुजा, साहू हुजामि तारिओ ॥४६॥ [दश० अ०५, उ० १, गा० ६४] विश्राम लेने के पश्चात् निर्जरारूपी लाभ का इच्छुक वह साधु अपने कल्याण के लिये ऐसा चिंतन करे कि 'अन्य मुनिवर मुझ पर Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] [श्री महावीर-वचनामृत अनुग्रह करके मेरे इस आहार मे से थोड़ा भी ग्रहण करे तो मै संसारसमुद्र पार पा जाऊं।' साहवो तो चियत्तेणं, निमंतिजा जहक्कम । जइ तत्थ केइ इच्छिज्जा, तेहि सद्धिं तु भुंजए ॥४७॥ [दश० अ० ५, उ० १, गा० ६५] इस प्रकार विचार कर मुनि सर्व साधुओं को प्रीतिपूर्वक निमत्रित करे और उनमे से जो भी साघु उसके साथ आहार करना चाहे तो उसके साथ आहार करे। विवेचन इसका क्रम ऐसा है कि प्रयम दीक्षावृद्ध को आमन्त्रित करे, बाद में उन से उतरते हुए क्रमवाले साधुओं को आमन्त्रित करे, बाद मे उनसे उतरते हुए क्रमवालों को आमन्त्रित करे। इस प्रकार सभी को आमन्त्रित करे। अह कोइ न इच्छिन्जा, तओ भुंजिज्ज एक्कओ। आलोए भायणे साहू, जयं अप्परिसाडियं ॥४८|| [दश अ०५, उ० १, गा०६६] यदि आमत्रण देने के बाद कोई सावु आहार का इच्छक न हो तो उक्त नाचु अकेला ही चौड़े मुखवाले प्रकाशयुक्त पात्र मे, वस्तु नीचे न गिरे ऐसी पद्धति से यतनापूर्वक आहार करे। पडिग्गहं संलिहित्ता णं, लेवमायाए संजए । दुगन्धं वा सुगन्धं वा, सन्नं मुंजे न छड्डए ॥४६॥ [दा अ०५, ८० २, गा०१} Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] [श्री महावीर-वचनामृत ___ इडिं च सकारणपूयणं च, चए ठिअप्पा अणिहे ज स भिक्ख् ॥१६॥ [दश० म० १०, गा ] जो अलोलुप हो, किसी प्रकार के रसों मे आसक्त न हो, अपरिचित गृहों से आहारादि ग्रहण करता हो, जो जीवितव्य के प्रति मोह न दिखलाता हो, जो अपने यश, सत्कार और पूजा का त्याग करनेवाला हो, जिसकी आत्मा स्थिर हो और आकाक्षारहित हो, उसे ही सच्चा भिक्षु समझना चाहिये। न परं वइज्जासि अयं कुसीले, ___ जेणं च कुप्पेज न तं वइज्जा । जाणिय पत्तयं पुण्ण-पावं, __ अचाणं न समुक्कसे ज स भिक्ख ॥१७॥ दिश० स० १० गा० १८] 'यह कुशील है' ऐसा शब्द दूसरो को न कहता हो, सामनेवाला व्यक्ति क्रुद्ध होवे ऐसे वचन न बोलता हो, जो प्रत्येक आत्मा स्वयंकृत पाप अथवा पुण्य के फल भोगती है, ऐसा जानता हो और जो अपने गुणो को वडाई न करता हो, उसे ही सच्चा भिक्षु समझना चाहिये। __ न जाइमत्ते न य रूवमत्ते, न लाभमत्ते न सुएण मत्त । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भिक्षु की पहचान] [२५५ भयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता, धम्मज्झाणरए य जे स भिक्खू ॥१८॥ [दश० अ० १०, गा० १६] जो जातिमद, रूपमद, काममद, श्रुतमद, तथा अन्य मदों का वर्जन करके धर्मध्यान मे मग्न रहता हो, उसे ही सच्चा भिक्षु समझना चाहिये। पवेयए अज्जपयं महामुणी, धम्मे ठिओ ठावयई परं पि। निक्खम्म वज्जेज्ज कुसीललिंग, न यावि हासंकुहए जे स भिक्खू ॥१६॥ [दश० अ० १० गा० २० ] जो महामुनि आर्यमार्ग को कहता हो, जो सयममार्ग मे स्थिर रहता हो और दूसरो को भी सयममार्ग मे स्थिर रखता हो, जो संसार को त्यागने के पश्चात् कुशीलचेष्टित आरम्भादि कार्य नहीं करता हो तथा हास्य उत्पन्न करनेवाली चेष्टा न करता हो, उसे ही सच्चा भिक्षु समझना चाहिये। बहुं सुणेई कन्नेहिं, बहुं अच्छीहिं पिच्छइ । न य दिळं सुयं सम्बं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ॥२०॥ दिश० भ०८ गा० २०] भिक्षु कानो से बहुत-सी बाते सुनता है और आँखो से अनेक Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] [श्री महावीर-वचनामृत वस्तुएं देखता है, परन्तु सुनी हुई अथवा देखी हुई सभी वाते वह किसी दूसरे को कहे, यह उचित नही है। अक्कोसेज्ज परो भिक्खु, न तेसिं पडिसंजले ॥२१॥ [उत्त० अ० २, गा० २४] कोई तिरस्कार करे तो भिक्षु उसपर क्रोध न करे। चत्तयुत्तकलत्तस्स, निबावारस्स भिक्खुणो । पियं न विज्जई किंचि, अप्पियं पि न विज्जई ॥२२॥ [उत्त० अ० ६ , गा० १५] पुत्र-पली को छोड़नेवाले तथा सासारिक व्यवहार से दूर ऐसे भिक्षु के लिये कोई वस्तु प्रिय नही होती और कोई अप्रिय भी नहीं होती। सन्वेहिं भूएहिं दयाणुकंपी, ___ खंतिक्खमे संजयवंभयारो । सावज्जजोगं परिवज्जयंतो, चरेज्ज भिक्खू सुसमाहिंइन्दिए ॥२३॥ [उत्त० म० २१, गा० १३] भिक्षु को चाहिये कि वह सर्व प्राणियों के प्रति दयानुकम्पी रहे, कठोर वचनों को सहन करनेवाला वने, संयमी रहे, ब्रह्मचारी रहे, इन्द्रियों की सुसमाविवाला बने और सर्व पापकारी प्रवृत्ति का वर्जन करता हुआ विचरण करे। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षु की पहचान] नारीसु नो पगिज्झेज्जा, इत्थी विप्पजहे अणगारे । धम्मं च पेसलं णच्चा , तत्थ ठविज्ज भिक्खु अप्पाणं ॥२४॥ [उत्त० भ०८, गा० १६] अणगार स्त्रियो के प्रति आसक्त न बने और उनका सम्पर्कसमागम छोड़े। भिक्षु धर्म को सुन्दर मानकर उसमे अपनी आत्मा को स्थिर रखें। बहुं खु मुणिणो भई, अणगारस्स भिक्खुणो । सवओ विप्पमुक्कस्स, एगन्तमणुपस्सओ ॥२॥ [उत्त० अ० ६, गा० १६] सर्व बन्धनों से मुक्त होकर एकत्वभाव मे रहनेवाले, गृहरहित, भिक्षाचरी करनेवाले मुनि निश्रय ही बहु सुखी होता है। तं देहवासं असुइं असासयं, सया चए निचहिअडिअप्पा । छिंदित्तु जाईमरणस्स बंधणं, उवेइं भिक्खू अपुणागमं गई ॥२६॥ दश० भ० १०, गा० २१] आत्मा के हित साधन मे तत्पर साधु इस अशुचिमय और अशाश्वत शरीर का सदा के लिये परित्याग कर देता है तथा जन्म-मरण के बन्धनों को काट कर, 'जहाँ जाने के बाद फिर संसार मे जाना नही होता, ऐसे मुक्ति स्थान को प्राप्त कर लेता है। १७ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : २१: संयम की आराधना __ एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं । असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं ॥१॥ [उत्त० भ० ३१, गा० २] साधक एक वस्तु की विरति करे और एक वस्तु का प्रवर्तन करे । वह असंयम की निवृत्ति करे और सयम का प्रवर्तन करे। जो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवं दए । तस्स वि संजमो सेयो, अदिन्तस्स वि किंचण ॥२॥ [उत्त० अ० ६, गा० ४०] एक मनुष्य प्रति मास दस लाख गायों का दान करता हो और दूसरा मनुष्य कुछ भी नही करते हुए केवल सयम की आराधना करता हो, तो उस दान की अपेक्षा इसका यह सयम श्रेष्ठ है। तात्पर्य यह । है कि अपने पास सम्पत्ति हो, तो दान देना सरल बात है, किन्तु अपनी आत्मा पर अनुशासन करना यह सरल वात नही है । तमाहु लोए पडिवुद्धजीवी, सो जीयइ संजमजीविएणं ॥३॥ [दा० चू०२, गा० १५] Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम की आराधना] [२५६ इस लोक मे उसको ही प्रतिबुद्धजीवी-सदा जागृत रहनेवाला कहा जाता है-जो सयमी जीवन व्यतीत करता है। गारत्थेहि य सम्वेहि, साहवो संजमुत्तरा ॥४॥ [उत्त० अ०५, गा० २०] सर्व गृहस्थो की अपेक्षा साधु सयम में श्रेष्ठ होते है। तात्पर्य यह कि गृहस्थ चाहे जितने व्रत और नियमों का पालन करते हों, किन्तु सयम के विषय में वे साधु की समानता नही कर सकते। तहेव हिंसं अलियं, चोज्ज अबम्भसेवणं । इच्छाकामं च लोभं च, संजओ परिवज्जए ॥॥ [उत्त० अ० ३५, गा०३] सयमी पुरुष सदा हिसा, भूल, चोरी, अब्रह्मसेवन, भोगलिप्सा तथा लोभ का परित्याग करे। अणुस्सुओ उरालेसु, जयमाणो परिचए । चरियाए अप्पमत्तो, पुट्ठी तत्थ हियासए ॥६॥ [सू० श्रु० १, म०६, गा० ३० ] उदारभोगो के प्रति अनासक्त रहता हुआ मुमुक्षु यत्नपूर्वक सयम मे रमण करे, धर्मचर्या मे अप्रमादी बने और विपत्ति आ जाने पर अदीन भाव से उसे सहन करे। अणुसोअपहिए बहुजणम्मि, पडिसोयलद्धलक्खेणं। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] [श्री महावीर-वचनास्त पडिसोअमेव अप्पा, . दायचो होउ कामेणं ॥७॥ [दश० चू० २, गा० २] जगत मे बहुत से लोग अनुस्रोतगामी अर्थात् विषय के प्रवाह में वहनेवाले होते हैं। किन्तु जिसका लक्ष्य किनारे पहुंचने का है वह प्रतिलोतगामी अर्थात विषय-प्रवाह के सामने जानेवाला होता है। जो ससारसागर को पार करना चाहता है उसे अपनी आत्मा को निःसन्देह प्रतिस्रोत मे-विषय-पराङ्मुखता मे ही स्थिर करनी चाहिए। अणुसोअसुहो लोओ, पडिसोओ आसवो सुविहिआणं । अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो ॥८॥ [दश० चूः २, गा०३ ] सामान्य मनुष्य विषय के प्रवाह मे बहनेवाले तथा उसीमें सुख माननेवाले होते हैं, जबकि साघु पुरुषों का उद्देश्य तो प्रतिस्रोत ही होता है। इतना समझ लो कि अनुलोत यह ससार है और प्रतिस्रोत उससे बाहर निकलने का उपाय है। सुसंवुडा पंचहिं संवरेहिं, ___इह जीवियं अणवकंखमाणा । वोस?काया सुइचत्तदेहा, महाजयं जयइ जन्नसिहं ॥३॥ [उत्तः भ० १२, गाः ४२ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयम की आराधना] [२६१ जो पांच महाव्रतो से हिंसादि आस्रव के रोधक है, जो ऐहिक जीवन की आकाक्षा नहीं करते, जो काया की ममता छोड चुके है, और जो देह की सार-सवार वृत्ति से पर है, वे ही महाविजय के लिए श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं। कावोया जा इमा वित्ती, केसलोओ अ दारुणो । दुक्खं वंभवयं घोरं, धारेउं य महप्पणा ॥१०॥ [उत्त० अ० १९, गा० ३४] ___ मुनि जीवन कापोतवृत्ति के समान है , केशलोच अत्यन्त दारुण है और उन ब्रह्मचर्य व्रत का धारण करना कठिन है; परन्तु महात्माओं को वे गुण धारण करने चाहिये। . विवेचन कापोतवृत्ति का अर्थ है कबूतर के समान जो मिले उस पर जीवन चलाना। बालुयाकवले चेव, निरस्साए उ संजमे । असिधारागमणं चेव, दुकरं चरित्रं तवो ॥११॥ ___ [उत्त० अ० १६, गा० ३८] सयम रेती के कौर की तरह नीरस है और तपश्चर्या तलवार की धार पर चलने की तरह दुष्कर है। जहा अग्गिसिहा दित्ता, पाउं होइ सुदुक्करं । तहा दुकरं करेउं जे, तारुण्णे समणत्तणं ।।१२।। [ उत्त० भ० १९, गा० ३६] Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] [श्री महावीर-वचनामृत जैसे प्रज्वलित अग्निशिखा का पान करना अति दुष्कर है, वैसे ही तरुणावस्था मे श्रमणत्व का पालन करना अति दुष्कर है। जहा दुक्खं भरेउं जे, होइ वायस्स कोत्थलो । तहा दुक्खं करेउंजे, कीवेणं समणत्तणं ॥१३॥ [उत्त० म० १६, गा०४०] जिस तरह कपडे के थैले को वायु से भरना कठिन है, उसी तरह कायर (पुरुष) के लिये श्रमणत्व का-सयम का पालन करना कठिन है। जहा भुयाहिं तरिउ, दुक्करं रयणायरो । तहा अणुवसन्तेणं, दुकरं दमसागरो ॥१४॥ [उत्त० अ० १६, गा० ४२] जैसे भुजाओं से समुद्र को तैर कर पार करना अति कठिन है वैसे ही अनुपशान्त आत्मा द्वारा सयमरूपी समुद्र को पार करना अति कठिन है। इह लोए निप्पिवासस्स, नत्थि किंचि वि दुक्करं ॥१५॥ [उत्त० अ० १६, गा० ४४] इस लोक मे जो तृष्णारहित है, उसके लिये कुछ भी कठिन नही है। विरया वीरा समुट्ठिया, कोहकोयरियाइपीसणा। पाणे ण हणंति सबसो, पावाओ विरयाऽभिनिवुडा ॥१६॥ [सू० अ० १, अ० २, उ० १, गा० १२] Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६३ सयम की आराधना] जो ससार से विरक्त है, जो आत्मशुद्धि के लिये तत्पर है, जो क्रोध, लोभ आदि दुष्ट मानसिक वृत्तियो को दूर करनेवाले है, वे प्राणियो की हिसा कभी नहीं करते। जो पापो से निवृत्त हो गये हैं और जो शान्ति को धारण करते है, वे ही सच्चे वीर है। जया या चयइ धम्मं, अणजो भोगकारणा। से तत्थ मुच्छिए बाले, आयई नाववुज्झई ॥१७॥ [दश० चू० १, गा० १] जव कोई अनार्य पुरुष केवल भोग की इच्छा से अपने चिरसश्चित संयमधर्म को छोड़ देता है, तब वह भोगासक्त अज्ञानी अपने भविष्य का जरा भी विचार नहीं करता। जया य पूडमो होइ, पच्छा होइ अपूइमो ॥१८॥ [दश० चू० १, गा०४] मनुष्य जब सयमी होता है, तब पूज्य बनता है, परन्तु सयम से भ्रष्ट होता है, तो अपूज्य बन जाता है। जं मयं सबसाहणं, तं मयं सल्लगत्तणं । साहइत्ताण तं तिण्णा, देवा वा अभविंसु ते ॥१६॥ . [सू० श्रु० १, भ० १५, गा० २४] सर्वसाधुओ द्वारा मान्य ऐसा जो संयमधर्म है, वह पाप का नाश करनेवाला है। इसी सयम धर्म की आराधना कर अनेक जीव संसारसागर से पार हुए है और अनेक जीवों ने देवयोनि प्राप्त की है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] [श्री महावीर-वचनामृत तिविहेण वि पाण मा हणे. आयहिते अणियाण संवुड । एवं सिद्धा अणंतसो, संपइ जे अ अणागयावरे ॥२०॥ [सु. ६०१, २०२, उ० ३, गा०२१] आत्मकल्याण के लिये मन, वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करना, संयमपालन के फलस्वल्प किसी सांसारिक सुख की इच्छा नहीं रखना और तीन गुप्तियों का पालन करना। इस प्रकार अनन्त आत्माएं सिद्धि-पद को प्राप्त हुई है, वर्तमान काल मे सिद्ध हो रही है और भविष्य में भी होंगी। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : २२ : तपश्चर्या सद्धामा रुग्गमप्पणी | बलं थामं च पेहाए, खेत्तं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजुंजए ॥१॥ [ दश० अ० ८, गा० ३५ ] इन्द्रियो शक्ति का श्रद्धा और आरोग्य देखकर तथा क्षेत्र और काल को पहचानकर अपनी आत्मा को शारीरिक बल धर्म कार्य में नियुक्त करे । एगमप्पाणं सरीरगं ||२|| [ भा० ० १, अ० ४, उ० ३] साधु आत्मा को अकेला समझकर ( अमोहभाव से ) शरीर को उग्र तप द्वारा क्षीण करे । सउणी जह एवं सपेहाए धुणे पंसुगुण्डिया, विहुणिय धंसयई सियं रयं । दविओवहाणचं, कम्मं खबड़ तवस्सिमाहणे ॥ ३ ॥ [सू० ० १, २० २, उ०१, गा० १५ ] Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२६६] [श्री महावीर-वचनामृत जैसे शकुनिका नामक एक पक्षी अपने शरीर मे लगी हुई धूल को पख फडफडा कर दूर कर देती है, वैसे ही जितेन्द्रिय ऐसा अहिंसक तपस्वी अनशनादि तप करके अपने आत्म-प्रदेशों पर कर्म रूपी जमी हुई मिट्टी को दूर कर देता है। जं किंचुवक्कम जाण, आउक्खेमस्स अप्पणो । तस्सेव अन्तराखिप्पं, सिक्खं सिक्खेज पण्डिए ॥४॥ [सू० श्रु० १, १०८, गा० १५] यदि पण्डित पुरुप किसी भी तरह अपनी आयु का क्षयकाल जान ले, तो उस से पूर्व वह शीघ्र ही सलेखनारूप शिक्षा को ग्रहण, करे। खवेत्ता पुनकम्माइं संजमेण तवेण य । सबदुक्खपहीणट्ठा, पक्कमति महेसिणो ॥५॥ [उत्त० म०२८, गा० ३६] महर्षिगण संयम और तप द्वारा अपने सभी पूर्व कर्मों को क्षीण ___ करके सर्व दुःखों से रहित ऐसा जो मोक्षपद है उसे पाने के लिए प्रयल करते हैं। तवनारायजुत्तणं, भित्तण कम्मकंचुयं । मुणी विगयसंगामो, भवाओ परिमुच्चए ॥६॥ [उत्त० म०९, गा० २२] तपरूपी वाण से सयुक्त मुनि कर्मरूपी कवच को भेदकर कर्म के साथ होनेवाले युद्ध का अन्त करता है और भव-परम्परा से मुक्त होता है। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपश्चर्या ] [ ६७ एवं तवं तु दुविहं, जे सम्म आयरे मुणी | सो खिप्पं सव्वसंसारा, विष्पमुच्चड़ पंडिओ ||७|| [ उत्त० अ० ३८, गा० ३७ ] जो पण्डित मुनि वाह्य और आभ्यन्तर ऐसे दोनो प्रकार के तप का सम्यग् आचरण करता है, वह समस्त नसार से शीघ्र ही हो जाता है । मुक्त Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाओ गंधप्पभवो दुमस्स, धारा : २३ : विनय ( गुरु- सेवा ) एवं साहप्पसाहा विरुहन्ति पत्ता, जेण खंधाउ पच्छा समुवेन्ति साहा । तओ सि पुष्पं च फलं रसो अ ॥१॥ विणओ, परमो से मोक्खो । सुयं सिग्यं, धम्मस्स मूलं कित्तिं चाभिगच्छन् ||२|| [ दश० भ० ६, उ०२, गा० १-२ ] वृक्ष के मूल से तना निकलता है । बाद मे तने से विभिन्न शाखाएं निकलती हैं । उन शाखाओं से अन्य कई छोटी-छोटी प्रशाखाएं ( डालियाँ) फूटती हैं । उन प्रशाखाओ पर पत्ते लगते हैं, फिर पुष्प खिलते हैं, फल लगते हैं और उसके पश्चात् फलों मे रस होता है । निस्सेसं Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय (गुरु-सेवा)] [२६E __ इसी प्रकार धर्मरूपी वृक्ष का मूल विनय है और उसका अन्तिम परिणाम मोक्ष है। विनय से ही मनुष्य कीर्ति, श्रुतज्ञान और महापुरुषो की प्रशसा आदि पूर्ण रूप से प्राप्त करता है। जहा सूई ससुत्ता, पडिआ वि न विणस्सइ । तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ ॥३॥ [उत्त० भ० २६, गा० ५६ ] जैसे धागा (सूता ) पिरोई हुई सुई के गिर जाने पर भी वह खो नही जाती, ठीक वैसे ही (विनय-पूर्वक ) श्रुतज्ञान की प्राप्ति करनेवाला जीव चार गतिरूपी संसार में परिभ्रमण नही करता। सुस्सूसमाणो उवासेन्जा, सुप्पन्नं सुतवस्यियं ॥४॥ [सू० श्रु० १, ४०६, गा० ३३ ] मोक्षार्थी पुरुष को चाहिये कि वह प्रज्ञावान् और तपस्वी ऐसे गुरु की सेवा-सुश्रूषापूर्वक उपासना करे। जहाहिअग्गी जलणं नमसे, ___ नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं । एवायरियं उवचिट्ठइजा, अणंतनाणोवगओ वि संतो॥॥ [दश० अ० ६, उ० १, गा० ११ ] जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण भिन्न-भिन्न प्रकार के (घृत, मधु आदि) पदार्थों की आहुति से तथा वेदमन्त्रो द्वारा अभिषिक्त ऐसी होमामि Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ২৩ ] [श्री महावीर-वचनामृत को नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य अनन्त ज्ञानी हो जाने पर भी अपने आचार्य की ( गुरु की ) विनयपूर्वक सेवा करे। जस्सन्तिए धम्मपयाइ सिक्खे, तस्सन्तिए वेणइयं पउंजे । सक्कारए सिरसा पंजलीओ, कायग्गिरा भो ! मणसा य निच्चं ॥६॥ [दशः अ० ६, उ० १, गा० १२] शिष्य का यह परम कर्तव्य है कि जिस गुरु के पास उसने धर्मपदों की शिक्षा ग्रहण की हो अर्थात् धर्मज्ञान प्राप्त किया हो, उनका श्रद्धासिक्त मन से आदर करे, (वचन से सत्कार करे) और काया से दोनों हाथ जोडकर शिर से प्रणाम करे। इस प्रकार सदा मन, वचन और काया से उनके प्रति विनय प्रदर्शित करे । थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे । सो चेव उ तस्स अभूइभावो, फलं व कीयस्स वहाय होइ ॥७॥ [दश० म०६, उ० १, गा० १] जो शिष्य अभिमानवश, क्रोधवश, मद या प्रमादवश गुरु के पास रहकर भी विनय नही सीखता, अर्थात् उनके प्रति विनय से व्यवहार नहीं करता, उसका यह अविनयी वतन वाँस के फल की तरह विनाश का कारण बनता है। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय (गुरु-सेवा)] [२७१ विवेचन-बांस के फल आते है तब बाँस फट जाता है। उसी प्रकार जो शिष्य गुरु के साथ अविनय से व्यवहार करता है, उसका सर्वप्रकार से अधःपतन होता है। विणय पि जो उवाएण, चोइओ कुप्पई नरो। दिवं सो सिरिमिज्जंति, दण्डेण पडिसेहए ॥८॥ [दश० भ० ६, उ० २, गा० ४ ] कोई उपकारी महापुरुष सुन्दर शिक्षा देकर विनय मार्ग पर चलने की प्रेरणा करे, तब जो मनुष्य उस पर क्रोध करता है (और उसके द्वारा प्रदत्त शिक्षा का अनादर करता है) वह स्वय अपने घर आयी दिव्य लक्ष्मी को डण्डा उठाकर हॉक देता है~भगा देता है। जे आयरियउवज्झायाणं, सुस्यूसावयणंकरे। तेसिं सिक्खा पवति, जलसित्ता इव पायवा ।।।। [दश० अ० ६, उ० २, गा० १२ ] जो शिष्य आचार्य और उपाध्याय की सेवा करता है तथा उनके कयनानुसार चलता है, अर्थात् उनकी आज्ञा का सदा पालन करता है, उसकी शिक्षा खूब अच्छी तरह जल से सिश्चित वृक्ष के समान सदतर बढती जाती है। विवेचन--शिक्षा दो प्रकार की है :-(१) ग्रहण और (२) आसेवना । शास्त्रज्ञान सम्पादन करने को ग्रहण-शिक्षा कहते Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] [श्री महावीर-वचनामृत है और साधु के आचार के अनुरूप बर्ताव-व्यवहार करने की शिक्षा को आसेवना-शिक्षा कहते हैं। जहाँ शिक्षा का सामान्य निर्देश किया गया हो, वहाँ इन दोनो प्रकार की शिक्षाओं को समझना चाहिये। आणानिद्देसकरे, गुरूणमुक्वायकारए । इंगियागारसंपन्ने, से विणीए ति बुच्चई ॥१०॥ [उत्त० अ० १, गा०२] जो शिष्य गुरु की आज्ञा का पालन करनेवाला हो, गुरु के निकट रहता हो (गुरुकुलवासी हो) और गुरु के इगित तथा आकार से मनोभाव को समझकर कार्य करनेवाला हो, वह विनीत कहलाता है। अह पण्नरसहिं ठाणहिं, सुविणीए त्ति बुच्चई । नीयावत्ती अचवले, अमाई अकुऊहले ॥११॥ अप्पं च अहिक्खिवई, पवन्धं च न कुबई । मेत्तिजमाणो भयई, सुयं लद्धं न मजई ॥१२॥ न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई । अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई ॥१३॥ कलहडमरवजिए, वुद्ध अभिनाइए। हिरिमं पडिसंलीणे, सुविणीए तिवुच्चई ॥१४॥ [उत्त० अ० ११, गा० १० से० १३] Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय (गुर-सेवा) [२७३ निम्नाकित पन्द्रह स्थानो में वर्तन करता हुआ साधु सुविनीत कहलाता है : (१) वह नम्रवृत्तिवाला हो, (२) चपलता-रहित हो, (३) शठतारहित हो, (४) कुतूहल-रहित हो, (५) किसी का अपमान करनेवाला न हो, (६) जिसका क्रोध अधिक समय तक न टिकता हो, (७) जो मित्रता निभानेवाला हो, (८) जो विद्या प्राप्त कर अभिमान करनेवाला न हो, (६) अपने से त्रुटि हो जाने पर हितशिक्षा देनेवाले आचार्यादि का तिरस्कार करनेवाला न हो, (१०) मित्रों के प्रति क्रोध करनेवाला न हो, (११) अप्रिय मित्र की भी पीठ पीछेप्रशसा करता हो, (१२) झगडा-टटा अथवा किसी प्रकार का कलह करनेवाला न हो, (१३) बुद्धिमान् हो, (१४) कुलीन हो और (१५) आँख की शर्म रखनेवाला तथा स्थिर-वृत्तिवाला हो। आणानिदेसकरे, गुरूणमणुववायकारए । पडणीए असंयुद्ध, अविणीए त्ति वुचई ॥१॥ [उत्त० अ० १, गा०३] जो शिष्य गुरु की आज्ञा पालन करनेवाला न हो, गुरु के निकट रहनेवाला न हो (गुरुकुलवासी न हो), गुरु के मनोभाव के प्रतिकूल वर्तन करनेवाला हो तथा तत्त्वज्ञान से रहित हो वह अविनीत कहलाता है। अह चोद्दसहि ठाणहिं, वट्टमाणे उ संजए। अविणीए वुच्चई सो उ, निव्वाणंच न गच्छइ ॥१६॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] [ श्री महावीर वचनामृत अभिक्खणं कोही हवs, पवन्धं च पकुव्वई | मेत्तिजमाणो वमइ, सुयं लडूण मज्जई ॥१७॥ अवि पावपरिक्खेवो, अवि मित्सु कुप्पई | सुप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे भासइ पावगं ॥ १८ ॥ पड़ण्णवाई दुहिले, थद्धं बुद्धे अणिग्गहे । असंविभागी अवियत्ते, अविणीए ति बुच्चई ॥ १६ ॥ [ उत्त० अ० ११, गा० ६ से ६ ] यहाँ वर्णित चौदह स्थानों मे वर्तन करनेवाला साघु अविनीत कहलाता है और वह निर्वाण प्राप्त नही कर सकता - ( १ ) जो शिष्य वार-चार क्रोध करता हो, (२) जिसका क्रोव शीघ्रता से शान्त न होता हो, (३) जो मैत्री भावना को छोडनेवाला हो, (४) विद्या प्राप्त करके अभिमान करनेवाला हो, (५) किसी प्रकार की त्रुटि हो जाने पर हितशिक्षक आचार्यादि का तिरस्कार करनेवाला हो, (६) मित्रो पर भी क्रोध करनेवाला हो, (७) अत्यन्त प्रिय मित्र की भी पीठ पीछे निन्दा करनेवाला हो, (८) असम्बद्ध प्रलापकारी हो, (६) द्रोही हो, (१०) अभिमानी हो, (११) रसादि मे आसक्त हो, (१२) इन्द्रियों को वश मे नही रखनेवाला हो, (१३) असंविभागी हो अर्थात् साघमिकों को आमन्त्रित किये विना ही खान-पान को अकेला ही भोगनेवाला हो और (१४) अप्रीतिकारक हो । विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणिअस्स य । जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छड़ ||२०|| [देश० भ० ६, उ०२, गा० २१ ] Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय (गुरु सेवा)] [२७ ____ अविनयी के ज्ञानादिगुण नष्ट हो जाते हैं और विनयी को ज्ञानादिगुणो की सम्प्राप्ति होती है। इन दो वातो को जिसने बराबर जान लिया है, वही सच्ची शिक्षा प्राप्त कर सकता है। अह पंचहि ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लब्भई । थम्मा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण य ॥२१॥ [उत्त० अ० ११, गा०३] (१) अभिमान, (२) क्रोध, (३) प्रमाद, (४) रोग और (५) आलस्य इन पाँच कारणो से शिक्षा की प्राप्ति नहीं होती। अह अहहिं ठाणेहि, सिक्खासीलि त्ति वुचई । अहस्सिरे सया दन्ते, न य मम्ममुदाहरे ॥२२॥ नासीले न विसीले वि, न सिया अइलोलुए। अकोहणं सच्चरए, सिक्खासीले त्ति बुचई ॥२३॥ [ उत्त० अ० ११, गा० ४-५ ] निम्नाकित आठ कारणो से साधु शिक्षाशील कहलाता है :(१) वह बार-बार हँसनेवाला न हो, (२) निरन्तर इन्द्रियों को वश मे रखनेवाला हो, (३) दूसरो के मर्म को कहनेवाला न हो, (४) शीलरहित न हो, (५) शीलको पुनः पुनः अतिचार लगानेवाला न हो, (६) खाने-पीने मे लोलुप न हो, (७) शान्तवृत्तिवाला हो और (८) सत्यपरायण हो। मणोगयं वक्तगयं, जाणित्तायरियस्स उ। तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए ॥२४॥ [उत्त० अ० १, गा० ४३] Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६] [श्री महावीर वचनामृत विनीत शिष्य आचार्य के मनोगत-भावों को जानकर अथवा उनके वचन सुनकर अपने वचनो द्वारा उनको स्वीकृत करे और कार्य द्वारा उसका आचरण करे। वित्तं अचोइए निच्चं, खिप्पं हवइ सुचोइए । जहोवइटुं सुकयं, किच्चाई कुन्बई सया ।।२शा [उत्त० अ० १, गा० ४४ ] विनीत शिष्य गुरु द्वारा प्रेरणा दिवे विना भी कार्य में सदा प्रवृत्त रहता है और गुरु द्वारा व्यवस्थित रूप से प्रेरित किया गया हो तो वह कार्य शीघ्र सम्पादित करता है। अधिक क्या ? गुरु के उपदेशानुसार वह सभी कार्य उत्तम प्रकार से करता है। न बाहिरं परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे । सुयलामे न मज्जेज्जा, जच्चा तबस्ति बुद्धिए ॥२६॥ [दश म०८, गा०३०] विनीत गिन्य किसी भी व्यक्ति का तिरस्कार न करे और न आत्म-प्रशसा ही करे । इस तरह वह शान्वज्ञान, जाति, तप अथवा बुद्धि का अभिमान भी न करे। भासमाणो न भासेज्जा, णेव वंफेज मम्मयं । मातिहाणं विवज्जज्जा, अणुचिन्तिय वियागरे ॥२७॥ [सु. १, म६, गा० २५] वह (विनीत गिप्य दूसरे व बोलते हो तब बीच में न बोले, Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय (गुर-सेवा)] [२७७ मर्मभेदी ('दिल को बुरी लगे ऐसी ) बात न करे, मायावी वचनो का त्याग करे और जो वोले वह खूब सोच-समझ कर विचार पूर्वक बोले । निस्सन्ते सिया अमुहरी, बुद्धाणमन्तिए सया। अट्ठजुत्ताणि सिक्खिज्जा, निरहाणि उ बज्जए ॥२८॥ [उत्त० भ० १, गा०८] वह सदा शान्त रहे, असम्बद्ध बाते न करे, ज्ञानियो के निकट रहकर सदा अर्थयुक्त परमार्थसाधक बातो को ग्रहण करे और निरर्थक बातो को छोड दे। अणुसासियो न कुपिपज्जा, खंति सेवेज्ज पंडिए । खुड्डहि सह संसग्गि, हासं कीडं च वज्जए ॥२६॥ [उत्त० अ० १, गा०६] गुरु के अनुशासन करने पर क्रोध न करे अपितु क्षमावान् बना रहे और दुराचारियो की सगति, हास्य तथा क्रीडा का वर्जन करे। मा य चण्डालियं कासी, बहुयं मा य आलवे । कालेण य अहिज्जित्ता, तओ झाइज्ज एगगो ॥३०॥ [उत्त० अ० १, गा० १०] वह क्रोधादि के वशीभूत हो असत्य न बोले, साथ ही अधिक भी न बोले, किन्तु कालानुसार शास्त्रो का अध्ययन करे और एकाग्न होकर उन पर चिन्तन-मनन किया करे। मा गलियस्सेव कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो । कसं व दमाइण्णे, पावगं परिवज्जए ॥३१॥ [उत्त० भ० १, गा००] Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८] [श्री महावीर-वचनामृत जैसे अडियल घोड़ा वार-बार चावुक की अपेक्षा रखता है, वैसे ही विनीत शिप्य वार-चार अनुशासन की अपेक्षा न रखे। जिस तरह सीचा घोडा चावुक को देखते ही कुमार्ग को छोड़ देता है, वैसे ही विनीत गिप्य भी गुरुजनों की दृष्टि आदि का सकेत पाकर दुष्ट मार्ग को छोड़ दे। ना पुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए । कोहं असच्च कुवेज्जा, धारेज्जा पियमप्पियं ॥३२॥ [उत्त० अ० १, गा० १४] विनीत शिप्य विना पूछे कुछ भी न बोले और पूछे जाने पर असत्य न वोले। वह क्रोच को निष्फल वना दे और प्रिय-अप्रियको समभाव से ग्रहण करे। न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ। न मुंज ऊरणा ऊरं, सयणे नो पडिस्सुण ॥३३॥ [उत्त० अ० १, गा० १८] विनीत शिप्य आचार्य की पंक्ति मे न बैठे, उनसे आगे भी न बैठे, उनके पीठ पीछे भी न बैठे और वह इतना निकट भी न बैठे कि उनकी जाँघ से जांघ मिल जाय। यदि गुरु ने किसी कार्य का आदेश दिया हो तो वह शय्या पर सोते-सोते अथवा बैठे-बैठे न सुने। तार्य यह कि खडा होकर तथा उनके पास जा कर विनय-पूर्वक सुने। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय (गुरु-सेवा) [२७६ हत्थं पायं च कायं च, पणिहाय जिइंदिए । अल्लीणगुत्तो निसीए, सगासे गुरुणो मुणी ॥३४॥ [दश० अ० ८, गा० ४५] जितेन्द्रिय मुनि गुरु के समक्ष हाथ, पैर और शरीर को यथावस्थित रखकर तथा अपनी चपल इन्द्रियो को वश मे रखकर ( बहुत दूर भी नही और पास भी नही इस प्रकार ) बैठे। नीयं सिज्ज गइं ठाणं, नीयं च आसणाणि य । नीयं च पाए बंदिजा, नीयं कुजाय अंजलिं ॥३॥ [दश० अ० ६, उ० २, गा० १७ ] विनीत शिप्य अपनी शय्या, अपनी गति, अपना स्थान और अपना आसन गुरु से नीचा रखे, वह नीचा मुककर गुरु के चरणों की वन्दना करे और कार्य उपस्थित होने पर नीचे झुककर ही अजलि करे। आसणे उवचिडेजा, अणुच्चे अकुए थिरे । अप्पुट्ठाई निरुहाई, निसीएज्जप्पकुकुए ॥३६॥ [उत्त० भ० १, गा० ३०] शिष्य ऐसे आसन पर बैठे कि जो गुरु से ऊंचा न हो, आवाज करनेवाला न हो और स्थिर हो। ऐसे आसन पर बैठने के पश्चात् वह बिना प्रयोजन उठे नही और यदि प्रयोजन हो तो भी बार-बार उठे नही । वह भोहे, हाथ अथवा पैरों से किसी प्रकार की चेप्टा किये बिना ही शान्ति से बैठे। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०] [श्री महावीर-वचनामृत नेव पल्हत्थियं कुजा, पक्खपिडं च संजए । पाए पसारिए वावि, न चिट्टे गुरुणन्तिए ॥३७॥ [उत्त० अ० १, गा० १९] शिष्य गुरु के समक्ष पाँव पर पाँव चढाकर, छाती से घुटने सटा कर, एवं पैर फैला कर न बैठे। आयरिएहिं वाहित्तो, तुसिणीओ न कयाइ वि । पसायपेहि नियागट्ठी, उवचिढे गुरु सया ॥३८॥ [उत्त० अ० १, गा० २०] आचार्यों द्वारा बुलाये जाने पर शिष्य कभी मौन का अवलम्बन न करे, बल्कि गरुकृपा और मोक्ष का अभिलापी ऐसा गिष्य उनके समीप विनय से जाए। आलवंते लवंते वा, न निसीएज्ज कयाइ वि। चऊणमासणं धीरो, जओ जत्तं पडिस्सुणे ॥३६॥ [ उत्त० अ० १, गा०२१] गुरु एक बार आवाज दें अथवा वार-बार यावाज दें, किन्तु वुद्धिमान् साधु कभी भी अपने आसन पर बैठा न रहे। वह अपना आसन छोडकर यतनापूर्वक गुरु के निकट जाए और उन्हें क्या कहना है, वह विनयपूर्वक सुने । आसणगओ न पुच्छेज्जा, नेव सेज्जागओ कया। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय (गुरु- सेवा ) ] आगम्मुक्कडुओ संतो, पुच्छेज्जा पंजलीउडो ||४० ॥ [ २८१ [ उत्त० अ० १, गा० २२ ] गुरु महाराज से यदि कुछ पूछना हो तो शिष्य अपने आसन अथवा शय्या पर बैठा-बैठा कभी नही पूछे, अपितु गुरु के समीप जाकर और उनके पास उकडू बैठ कर और दोनो हाथ जोडकर पूछे । जं मे बुद्धाणुसासन्ति, सीएण फरुसेण वा । मम लाभो ति पेहाए, पयओ तं पडिस्सुणे ॥ ४१ ॥ [ उत्त० अ० १, गा० २७] गुरु महाराज कोमल अथवा कठोर शब्दो मे मुझे जो कुछ शिक्षा देते है, उसमे मेरी ही भलाई छिपी हुई है— मुझे ही लाभ है, ऐसा विचार कर शिष्य उसे अत्यधिक सावधानी से ग्रहण करे । अगुसासणमोवायं, दुक्कडस् य दुक्कडस् य चोयणं । हियं तं मण्णई पण्णो, वेस्सं होइ असाहुणो ||४२॥ [ उत्त० अ० १, गा० २८ ] प्रज्ञावान् साधु सदा ऐसा मानता है कि गुरु महाराज ( मधुर अथवा कटु शब्दो से ) मुझे जो कुछ अनुशासित करते है, वह सब आत्मोन्नति के उपाय- स्वरूप ही है और मेरे दुष्कृतो का नाश करनेवाला है । परन्तु जो असाधु है उसके लिये यही अनुशासन द्वेष का कारण बनता है। आशय यह है कि गुरुमहाराज द्वारा हितबुद्धि से दिया गया उपालम्भ या कहे गये दो-चार कटु शब्दो को सुनकर Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२] [श्री महावीर-वचनामृत जो साघु रोष करता है अयवा गुरु के प्रति अनादर व्यक्त करता है, वह वास्तव मे साधु नहीं है। हियं विगयभया बुद्धा, फरसं पि अणुसासणं । वेसं तं होड़ मूढाणं, खंतिसोहिकरं पयं ॥४३॥ [उत्त० अ० १, गा०२६] निर्भय और तत्त्वज्ञ शिष्य गुरुजनों के कठोर अनुशासन को भी अपने लिए परम हितकारी मानते हैं, जब कि मूढ अज्ञानी शिष्यों के लिये क्षमा और आत्म-शुद्धिकर वह शिक्षापद द्वेष का कारण बन जाता है। न कोवए आयग्यिं, अप्पाणं पि न कोवए । बुद्धोषघाई न सिया, न सिया तोत्तगवेसए ॥४४|| [दशः ०१, गा०४०] विनीत गिप्य आचार्य पर कदापि क्रोच न करे। वैसे ही अपनी आत्मा पर भी क्रोव न करे। न ही वह तत्ववेत्ताओ का उपघात करे और उनके छिद्र खोजे। आयग्यिं कुवियं नच्चा, पत्तिएण पमायए । विज्ञवेज पंजलीउडो, वएज न पुणुत्ति य ॥४॥ [उत्त० म०६, गा०४] विनीत गिज्य आचार्य को कुपित जानकर प्रीतिकारक वचनों से प्रसन्न करे और हाय जोडता यो कहे-'फिर ने सा अपगन कमी न कांगा।' Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय (गुर-सेवा)] [२८३ जे य चंडे मिए थद्धे, दुबाई नियडी सढे। वुज्झइ से अविणीअप्पा, कटुं सोअगयं जहा ॥४६॥ [दश० अ० ६, उ० २, गा० ३] जो आत्मा क्रोधी, अज्ञानी, अहकारी, सदा कटु बोलनेवाला, मायावी और धूर्त होता है, उसे अविनीत समझना चाहिये। वह पानी के बहाव मे गिरी हुई लकडी की तरह संसार के बहाव मे बह जाता है। स देवगान्धवमणुस्सपूइए, चइत्तु देहं मलपंकपुब्वयं । सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वा अप्परए महिडिए ॥४७॥ [उत्त० अ० १, गा०४८] देव, गन्धर्व और मनुष्यो से पूजित ऐसा वह विनीत शिष्य मलमूत्रादि से युक्त ऐसे इस शरीर को त्याग कर 'सिद्ध और शाश्वत वनता है, अथवा अल्पकर्म बाकी रहने पर महान् ऋद्धिशाली देव बनता है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा . २४: कुशिष्य वहणे वहमाणस्स, कन्तारं अइवत्तई । जोए वहमाणस्स, संसारो अइवत्तई ॥१॥ जैसे गाडी मे सचे हुए वैलो को जोतने से वे सरलता से वन-प्रातर को पार कर जाते हैं, वैसे ही सुशिष्यो को योग-सयम रूपी वाहन मे जोजने से वे भी ससाररूपी अरण्य को सुखपूर्वक पार कर जाते हैं। खलंके जो उ जोएइ, विहम्माणो किलिस्सई । असमाहिं च वेएइ, तोत्तओ से य भजई ॥२॥ जो पुरुष वाहन मे अडियल बैलो को जोतता है, वह उन्हें पीटतेपीटते हैरान हो जाता है, विषाद का अनुभव करता है और उसका कोड़ा भी टूट जाता है। एग डसइ पुच्छस्मि, एगं विन्धहऽभिक्खणं । __ एगो मंजइ समिलं, एगो उप्पहपहिओ ॥३॥ जब वे दुष्ट दैल वाहक की इच्छा के अनुसार गमन नहीं करते तब वह क्रोध मे आकर एक की पूंछ मरोडता है तो दूसरे को वार-बार आर लगाता है । तव एक बैल जुए को तोड डालता है और दूसरा इधर-उधर जाता है। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशिष्य] - [२८९ एगो पडइ पासेणं, निवेसइ निवजई । उक्कुद्दई उप्फिडई, सढे बालगवी वए ॥४॥ कोई अडियल बैल एक तरफ भूमि पर गिर पडता है, कोई बैठ जाता है, कोई सो जाता है, कोई उछलता है, कोई कूदता है, तो कोई तरुण गाय के पीछे भागने लग जाता है। माई मुद्धेण पडई, कुद्धे गच्छइ पडिप्पहं । मपलक्खेण चिट्ठई, वेगेण य पहावई ॥॥ कोई कपट कर सिर झुकाकर गिर पडता है, कोई गुस्से हो पीछे भागने लगता है, कोई मृत लक्षण से खडा रहता है, तो कोई पूंछ उठाकर बेग से भागता है। छिन्नाले छिन्दई सेल्लि, दुद्दन्ते भजइ जुगं । सेवि य सुस्सुयाइत्ता, उजहित्ता पलायई ॥६॥ कोई अडियल बैल नासिका-रज्जु (नथ) को तोड़ देता है, कोई निरकुश बनकर जुए को तोड डालता है, तो कोई सूं-सू की आवाज निकालता गाडी को ले भाग जाता है। खलुंका जारिसा जोजा, दुस्सीसा वि हु तारिसा । जोइया धम्मजाणम्मि, भज्जन्ती धिइदुब्बला ॥७॥ ऐसे अडियल बैलो को गाडी मे जोडने पर जो स्थिति होती है, वही स्थिति धर्मरूपी वाहन मे कुशिष्यो को जोतने से होती है। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६] [श्री महावीर वचनामृत धर्मरूपी वाहन मे नियोजित किये गये कुशिष्य दुर्वल घृतिवाले होने से भली भाँति प्रवृत्ति नहीं करते । इड्ढीगारविए एगे, एगेऽथ रसगारवे । सायागारविए एगे, एगे सुचिरकोहण ।।८।। कुशिष्यों मे से कोई ऋद्धिगारव मे, कोई रसगारव मे, तो कोई सातागारव मे निमन्न होते हैं इसी तरह कोई तो दीर्घकाल तक क्रोध को धारण करनेवाले भी होते हैं। विवेचन-गृहस्य अपनी ऋद्धि-सम्पत्ति का अभिमान करे तो ऋद्धिगारव कहलाता है। साघु अपने भक्तमण्डल अथवा शिष्यमण्डल का अभिमान करे तो ऋद्धिगारव कहलाता है। गृहस्थ प्राप्त सुन्दर भोजन का अभिमान करे तो वह रसगारव कहलाता है और साधु प्राप्त इच्छानुसारी भिक्षा का अभिमान करेतो वह रसगारव कहलाता है। गृहस्थ अपनी सुख-सुविधा का अभिमान करे तो वह सातागारव कहलाता है और साघु 'मुझे जैसा आनन्द किसी को नही है' ऐसा अभिमान करे तो वह सातागारव कहलाता है। भिक्खालसिए एगे, एगे ओमाणभीरुए। थद्ध एगेऽणुसासम्मि, हेऊहिं कारणेहि य ॥६॥ कोई भिक्षाचरी मे आलस्य करता है, तो कोई अपमान से डरता है। कोई जाने योग्य घरों मे जाता नही। कुछ मिथ्याभिमान से ऐसे अकड हो जाते हैं कि किसी को वंदन करने के लिए ही तैयार नही। ऐसे हेतु और विविध कारणों के वशीभूत कुशिष्यों को मैं कैसे Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशिष्य] [ २८७ अनुशासन मे रखू ? ऐसा विचार आचार्य को खेदपूर्वक करना पड़ता है। सो वि अंतरभासिल्लो, दोसमेव पकुवई । आयरियाणं तु वयणं, पडिकूलेइऽभिक्खणं ॥१०॥ कुशिष्य बीच मे बोल उठता है, अपने गुरु अथवा अन्य साधुओ पर मिथ्या दोषारोपण करता है और आचार्य के वचनो के विपरीत बार-बार व्यवहार करता है। न सा ममं वियाणाइ, न सा मज्झ दाहिई । निग्गया होहिई मन्ने, साहू अन्नोऽत्थ वज्जउ॥११॥ (भिक्षा के लिये जाने का आदेश देने पर प्रत्युत्तर मे कुशिष्य कहता है कि ) वह श्राविका मुझे नही पहचानती, वह मुझे आहार नही देगी, मैं मानता हूँ कि वह घर भी नही होगी। अच्छा हो कि आप अन्य साचु को ही भेज दे। पेसिया पलिउचन्ति, ते परियन्ति समंतओ। रायवेढि व मन्नंता, करेन्ति भिउडिं मुहे ॥१२॥ कुशिष्य जिस कार्य के लिये भेजे गये हो वह कार्य करते नहीं और आकर मनगढन्त उत्तर दे देते हैं। वे इधर-उधर भटकते रहते हैं किन्तु गुरु के पास बैठते नहीं । कभी-कभी कार्य करते भी है तो राजा की बेगारी के समान करते हैं और मुंह बिगाड़ते हैं। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] [श्री महावीर वचनामृत बाइया संगहिया चेब, भत्तपाणण पोसिया । जायपक्सा जहा हमा, पक्कमंति ढिसो दिसि ॥१३॥ अह सारही विचिंतेइ, खलुंकेहि समागओ। किं मज्स दुङ्सीसेहिं, अप्पा मे अवसीयई ॥१४॥ ऐने प्रसंग पर धर्मरथ के सारथि स्वरूप आचार्य विचार करते है कि मैने उनको गास्त्र पढाये, अपने पास रखा, आहार-पानी से इनका पोपण किया। किन्तु जिस तरह हसों के पख फूटने पर वे अलगअलग दिशाओं मे उड़ जाते हैं, उसी तरह सब भी स्वेन्छानुसारी आचरण करनेवाले बन गये हैं। मुझे मला इन दुष्ट गियों से क्या प्रयोजन है ? मेरी आत्मा व्यर्थ ही खिन्न होती है। जारिसा मम सीसा उ, तारिसा गलिगद्दहा । गलिगदहे जहिताणं, दढं पगिण्हई तवं ॥१॥ [उत्त० अ०७, गाले १६] जैसे गवे आलसी और अडियल होते हैं, वैसे मेरे गिप्य है। इन आलसी और अड़ियल गवों जैसे शिष्यों को छोड़कर मे उन तप का आचरण क्यों न करूं? तात्पर्य यह है कि मोक्षाभिलापी आचार्य को ऐले कुनिज्यों का त्याग करके अपना क्ल्याण साव लेना चाहिये। रमए पंडिए सासं, हयं भदं व वाहए । चालं सम्मइ सासन्तो, गलियस्सं व वाहए ॥१६॥ [उत्तः २० , गा०] Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशिष्य ] [ २८६ सीधे-साधे घोडे पर सवारी करनेवाला सवार जिस तरह आनन्द पाता है, वैसे ही पण्डितों पर अनुशासन रखनेवाला आचार्य आनन्दित होता है । जैसे अडियल घोड़े पर सवारी करनेवाला सवार कष्ट भोगता है, वैसे ही मूर्ख शिष्यो पर अनुशासन रखनेवाला आचार्य कष्ट का भागी बनता है । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : २५. दुःशील चीराजिणं नगिणिणं, जडी संघाडिमुंडिणं । एयाणि वि न तायन्ति, दुस्सीलं परियागयं ॥१॥ [उत्त० भ०५, गा० २१ ] चोवर, मृगचर्म, नग्नत्व, जटा, सघाटिका ( बौद्ध साधुओ के ओढ़ने का उत्तरीय वस्त्र) और सिर का मुण्डन आदि किसी भी दुःशील को दुर्गति से बचा नहो सकते। तात्पर्य यह है कि बाह्य दृश्य (लिङ्ग) कितना भी अच्छा क्यों न हो ? किन्तु शील उत्तम हो तभी वह पुरुष सद्गति प्राप्त कर सकता है । जहा सुणी पुइकन्नी, निकसिजई सचसो । एवं दुस्सीलपडिणीए, मुहरी निकसिज्जई ॥२॥ [उत्त० अ० १, गा० ४] जैसे सडे हुए कानवाली कुतिया सब स्थानो से निकाल दी जाती है, वैसे ही दुःशील और गुरुजनों के प्रति वर रखनेवाला, असम्बद्ध प्रलापी मनुष्य सब स्थानों से निकाल दिया जाता है। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुशील] [२६१ __ कणकुण्डगं चइत्ता णं, विटुं भुंजइ सूयरे । एवं सीलं चइत्ता णं, दुस्सीलं रमई मिए ॥३॥ [उत्त० अ० १, गा०५] जैसे सूअर अनाज को तजकर विष्ठा 'खाता है, वैसे ही मूर्ख मनुष्य सदाचार का त्याग कर दुराचार मे प्रवृत्त होता है। सुणिया भावं साणस्स, सूयरस्स नरस्स य । विणए ठविज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो ॥४॥ [उत्त० अ० १, गा०६] कुतिया और सूअर के साथ अविनयी मनुष्य की तुलना होती देखकर निजहित चाहनेवाला व्यक्ति अपनी आत्मा को विनय और सदाचार मे प्रस्थापित करे। जविणो मिगा जहा संता, परिताणण वज्जिया। असंकियाई संकंति, संकिआई असंकिणो ॥५॥ परियाणियाणि संकेता, पासियाणि असंकिणो। अन्नाणभयसंचिग्गा, संपलिंति तहिं तहिं ॥६॥ अह तं पवेज्ज वझं, अहे वज्झस्स वा वए। मुच्चेज्ज पयपासाओ, तं तु मंदेण देहए ॥७॥ अहिअप्पाऽहियप्पन्नाणे, विसमतेणवागए। स बद्धे पयपासेणं, तत्थ घायं नियच्छइ ॥८॥ [सू० श्रु० १, ०१, उ० २, गा० ६ से०६] Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] [श्री महावीर-वचनामृत __रक्षण-रहित वन्य पशु निःशङ्क (सुरक्षित ) स्थान मे शङ्कित __ रहते हैं और शङ्कित ( भयग्रस्त ) स्थान मे निःशङ्क रहते हैं। इस तरह सुरक्षित स्थान मे गड़ा करते हुए तथा पाशवाले स्थान मे शङ्कारहित वनकर वे अज्ञानी और भयग्रस्त जीव पाशयुक्त स्थान मे फंस जाते हैं। यदि ये पशु सभी प्रकार के बन्चनो को लांघ कर अथवा उसके नीचे से निकल जाय तो वन्वनों से मुक्त हो सकते है। किन्तु मूर्ख पशुओ को यह वात दिखाई नही देती-समझ मे नही आतो । फलतः अपना हित न जाननेवाले ये पशु भयङ्कर पागवाले प्रदेश मे पहुँच कर पैरों से पाश मे फंस जाते हैं और वही वध कर दिये जाते हैं। एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिया । असकियाई संकेति, सकियाई असंकिणो ॥६॥ धम्मपन्नवणा जा सा, तं तु संकति मूढगा। आरंभाइं न संकंति, अवियत्ता अकोविया ॥१०॥ सम्बप्पगं विउकस्स, सन्वं मं विहूणिया । अम्पत्तियं अकम्मंसे, एयमहूं मिगे चुए ॥११॥ ज एयं नाभिजाणंति, मिच्छदिट्ठी अणारिया । मिगा वा पासबद्धा ते, घायमेसंति पंतसो ॥१२॥ [सू० श्रु० १, अ० १, १००, गा० १० से० १३] । इस प्रकार कुछ श्रमण जो कि मिय्यादृष्टि और अनार्य है, वे शङ्कारहित स्थानों मे गवा करते हैं और गड़ित ल्यान मे अग Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६३ दु शील] डित बने रहते है। और ऐसे ही ये मूढ जो सच्ची धर्म-प्ररूपणा है, उस में शङ्का करते हैं और आरम्भ-समारम्भ के कार्यों मे निःशङ्क बने रहते है। ___लोभ, मान, माया और क्रोध का परित्याग कर मनुष्य कर्मरहित बन सकता है, किन्तु अज्ञानी-मूर्ख मनुष्य इस बात को छोड देता है। जो बन्चन-मुक्ति के उपायो को कतइ नही जानते, ऐसे मिथ्यादृष्टि अनार्य लोग इसी तरह पाशबद्ध पशुओ के समान अनन्त बार घात को प्राप्त होते हैं। धम्म ज्जियं च ववहारं, वुद्धहिं आयरियं सया । तमायरंतो ववहारं, गरहं नाभिगच्छइ ॥१३॥ [उत्त० अ० १, गा० ४२ ] जो व्यवहार धर्म-सम्मत है और जिसका ज्ञानी पुरुषो ने भी सदा आचरण किया है, उस व्यवहार का आचरण करनेवाला मनुष्य कभी भी निन्दा का पात्र नहीं होता। अमणुन्नसमुप्पागं, दुक्खमेव विजाणिया । समुप्पायमजाणंता, कहं नायंति संवरं ॥१४॥ [सू० श्रु० १, भ० १, उ० ३, गा० १०] अशुभ अनुष्ठान करने से दुःख की उत्पत्ति होती है । जो मनुष्य दुःख की उत्पत्ति का कारण नही जानते, वे भला दुःख के विनाश का उपाय किस प्रकार जान सकते हैं ? - - Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : २६: काम-भोग अणागयमपस्मता, पच्चुप्पन्नगवेसगा । ते पच्छा परितप्पन्ति, खीण आउम्मि जोवणे ॥१॥ [ सूः श्रु० १, अ० ३, उ० ४, गा० १४] असत्कर्म से भविप्य मे होनेवाले दुःखो की ओर न देखते हुए जो केवल वर्तमान सुखो को दटते है, अर्थात् कामभोग में मन्न रहते हैं, वे यौवन और आयु के क्षीण होने पर पश्चात्ताप करते हैं। जे के सरीरे यत्ता, वण्णे स्वे य सचसो । मणमा काय-वकेणं, गवे ते दुक्खसंभवा ।। २ ॥ [उत्तः अ० ६, गा.१०] जो कोई मनुष्य गरीर के प्रति ही आसक्त है और मन, काया तया पत्रन से केवल स्प और रग मे पूरी तरह सराबोर रहते हैं, वे सब दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं। जे इह सायाणगा नग, अझाववन्ना कामेहिं मुच्छिया । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम-भोग] [२६५ किवणेण समं पगन्भिया, न वि जाणंति समाहिमाहितं ॥३॥ [सू० ० १, भ० २, उ० ३, गा० ४ ] जो मनुष्य इस जगत् मे पूर्वजन्म के सुकृत्यो के फलस्वरूप सुखवैभव को प्राप्त किये हुए हैं, और काय-भोग मे आसक्त होकर विलासी जीवन विताते है, वे कृपण की तरह धर्माचरण मे मिथिलता प्रदर्शित करते है और ज्ञानी पुरुपो द्वारा कथित समाधि-मार्ग को नही जानते। भोगामिसदोसविसन्ने, हियनिस्सेयसवुद्धिवोच्चत्थे । बाले य मंदिए मुढे, बज्झई मच्छिया व खेलम्मि ॥४॥ [उत्त० अ०७, गा०५ ] भोगरूपी मास-दोष मे लुब्ध, हित और मोक्ष मे विपरीत बुद्धि रखनेवाला अज्ञानी, मन्द और मूर्ख जीव कर्मपाश मे इस प्रकार फंस जाता है, जिस प्रकार मक्खी बलगम मे। उबलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई । भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ॥५॥ [ उत्त० अ० २५, गा० ३६] . भोग मे फंसा हुआ मनुष्य कर्म से लिप्त होता है, अभोगी कर्म से Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ] [श्री महावीर-वचनामृत लिप्त नहीं होता। भोगी संसार में परिभ्रमण करता है और अभोगी संसार से मुक्त हो जाता है। उल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टियामया। दो वि आवडिया कुडे, जो उल्लो सोऽत्थ लग्गई॥६॥ एवं लग्गन्ति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गन्ति, जहा से सुक्कगोलए ॥७॥ [उ० अ० २५, गा० ४२-४३ ] गीला और सूखा ऐसे मिट्टी के दो गोलो को यदि हम किसी दीवार पर फेंके तो उनमे से जो गीला होता है वह दीवार पर चिपक जाता है और सूखा चिपकता नही। ठीक उसी तरह जो मनुष्य काम-भोग मे आसक्त है और दुष्ट बुद्धिवाला है, वह सासारिक बन्वनो में फंस जाता है और जो कामभोग से विरक्त है, वह सासारिक बन्वनों मे फंसता नही। गिद्धोवमा उ नच्चाणं, कामे संसारवड़णे । उरगो सुवण्णपासे ब, संकमाणो तणु चरे ॥ ८॥ __ [ उ० अ० १४, गा० ४७] गीघ पक्षी की उपमावाले और संसार को बढानेवाले इन कामभोगों को जानकर जैसे साँप गरुड़ के समीप शकाशील होकर चलता है, उसी प्रकार तू भी संयममार्ग मे यल से चल । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम-भोग] [२९७ जे गिद्धे कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छई।। न मे दिट्टे परे लोए, चक्खु दिट्ठा इमा रई ॥६॥ [उ० अ०५, गा०५] जो कोई जीव काम-भोग मे आसक्त होता है, वह नरक मे जाता है। वह ऐसा विचार करता है कि मैने परलोक तो देखा नही, और यहाँ का सुख तो मुझे प्रत्यक्ष दीखता है। हत्थागया इमे कामा, कालिया जे अणागया। को जाणइ परे लोए, अत्थि वा नत्थि वा पुणो ॥१०॥ जणेण सद्धि होक्खामि, इइ बाले पगब्भई । कामभोगाणुराएणं, केसं संपडिवज्जई ॥ ११ ॥ [उ० भ० ५, गा०६-७] ये काम-भोग तो हाथ मे आये हुए है, जबकि भविष्य मे मिलने-वाला सुख तो परोक्ष है । और भला कौन जानता है कि परलोक का अस्तित्व है या नही ? 'जो स्थिति दूसरों की होगी, वही मेरी भी होगी।' ऐसा अज्ञानी जीव बोलता है। परन्तु वह काम-भोग के अनुराग से क्लेश 'पाता है। तओ से दंडं समारभई, तसेसु थावरेसु य । अट्टाए य अणहाए, भूयगामं विहिंसई ॥ १२ ॥ [उ० भ० ५, गा०८]] Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ [श्री महावीर-वचनामृत बाद मे वह बस और स्थावर जीवो मे दड का आरम्भ करता है। किसी प्रकार का प्रयोजन सिद्ध होता हो या नही, फिर भी वह भोगी प्राणिसमूह की विविध प्रकार से हिंमा किया ही करता है। हिंसे वाले मुसाबाई, माइल्ले पिसुणे सड । भुंजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं ति मन्नई ॥१॥ [ उ० अ० ५, गा०६] अज्ञानी जीव हिंसा, असत्य, कपट, चुगली, धूर्तता आदि के सेवन करने लगता है। वह मदिरा और मास खानेवाला बनता है और उनको ही श्रेयस्कर मानता है। ___ कायसा वयसा मच, वित्ते गिद्धेय इत्थिसु । दुहओ मलं संचिणई, सिसुनागो व मट्टियं ॥१४॥ [उ० अ० ५, गा० १०] घन और स्त्रियो मे आसक्त बना हुआ भोगी पुरुष काया से मदमत्त बन जाता है और उसके बचनों मे भी मिथ्याभिमान की भलक आ जाती है । वह कैचुआ की भांति वाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार से मल का सचय करता है। ___ विवेचन -कैचुआ का आहार ही मिट्टी है, अतः वह पेट मे मिट्टी भरता है और वाहर भी मिट्टी से सना रहता है । इसी तरह भोगी पुरुष भी आन्तरिक रूप से मलिन कर्मों का समय करता है, और बाह्य रूप से भी अपवित्र बनता है। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम-भोग] [ २६६ तओ पुट्ठो आयंकेणं, गिलाणो परितप्पई।। पभीओ परलोगस्स, कम्माणुप्पेहि अप्पणो ॥१५॥ [उत्त० अ० ५, गा० ११ ] फिर भयानक रोगो से पीड़ित होकर अनेकविध दुःखो को भोगता है। तथा परलोक से बहुत ही डरकर-भयभीत बन अपने दुष्कर्मो के लिये निरतर पश्चात्ताप करता है। सल्लंकामा विसं कामा, कामा आसीविसोपमा । कामे य पत्थेमाणा, अकामा जन्ति दोग्गई ॥१६॥ [उत्त० अ० ६, गा० ५३ ] कामभोग शल्यरूप है, कामभोग विष के समान है और कामभोग भयङ्कर सर्प जैसे है । जो कामभोगो की इच्छा करता है, वह उसे प्राप्त किये बिना ही दुर्गति में जाता है। खणसेत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा । संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणस्थाण उ कामभोगा ॥१७॥ [उत्त० अ० १४, गा० १३ ] कामभोग क्षणमात्र सुख देनेवाले है और दीर्घकाल तक दुःख देनेवाले है। कामभोगो के लिये उपयुक्त सामग्री उपलव्य करने के लिये बहुत हो कर उठाना पड़ता है. जबकि सुख तो नाममात्र का हो Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००] [श्री महावीर-वचनामृत मिलता है। फिर ससार से छूटने के लिये जो उपाय हैं, उनके ये प्रतिपक्षी हैं-पक्के विरोधी हैं और अनर्थ की खान हैं। जहा किंपागफलाण, परिणामो न सुंदरो। एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुंदरो ॥१८॥ [उत्त० म० १६, गा० १७ ] जैसे किंपाक फल खाने का परिणाम अच्छा नही होता, वैसे ही 'परिभुक्त भोगो का परिणाम भी अच्छा नहीं होता। विवेचन--किपाक फल दीखने में सुन्दर और स्वाद मे मीठा होता है, किन्तु उसके खाते ही जहर चढने लगता है और शीघ्र ही प्राण निकल जाते हैं। नहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वण्णेण य भुञ्जमाणा । ते खुड्डए जीविय पञ्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे ॥१६॥ [उत्त० म० ३२,गा०२०] जिस तरह किंपाक फल स्वादु और वर्ग से मनोहर होते हैं, किन्तु उसके खाते ही प्राण का विनाश हो जाता है, ठीक ऐसा ही कामभोग का विपाक समझना चाहिये। तात्पर्य यह है कि कामभोग प्रथम क्षण मे मनोहर लगते हैं, किन्तु भोगने के पश्चात् अत्यन्त दुःखप्रद सिद्ध होते है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम-भोग] [३०१ सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नर्से विडंपियं । सब्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥२०॥ [उत्त० अ० १३ गा० १६] ( कामवासना का पोषण करनेवाले तथा बढानेवाले ) सभी गीत विलाप तुल्य हैं, सभी नृत्य बिडम्बना के समान है और सर्व आभूषण भाररूप है। इसी तरह सर्वप्रकार के काम-भोग अन्त मे दुःख को ही लानेवाले हैं। अच्चेइ कालो तूरन्ति शइओ, न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा । उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति, ___ दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ॥२१॥ [उत्त० अ० १३, गा० ३१ ] समय बहता जाता है, रात्रियाँ व्यतीत हाती जाती है और पुरुषों के कामभोग भी नित्य नही हैं। जैसे पक्षो फलहीन वृक्षों को छोड़ देते है, वैसे ही कामभोग भी क्षीण शक्तिवाले पुरुषों के पास आकर उनको छोड़ देते हैं। पुरिसोरम पावकम्मुणा, पलियन्तं मणुयाण जीवियं । सन्ना इह काममुच्छिया, मोहं जन्ति नरा असवुडा ॥२२॥ [सू० अ० १, अ० २, उ, गा० १०] हे मनुप्य ! तू जीवन को शीघ्रगामी मानकर पापकर्मो से विरत Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२] [श्री महावीर-वधनामृत हो जा। जो मनुष्य असयमी बनकर काम-मूच्छित हो जाते हैं, वे मोह को प्राप्त होते है अर्थात् हिताहित का विवेक करने मे शक्तिमान् नही -बनते। अधुवं जीवियं नच्चा, सिद्धि मग्गं वियाणिया। . विणिअट्टज भोगेसु, आउं परिमिअमप्पणो ॥२३॥ [दश० म०८, गा० ३४] - मनुष्य की आयु परिमित ( अल्प ) है; और प्राप्त जीवन क्षणभंगुर है। मात्र सिद्धिमार्ग हो नित्य है, ऐसा मानकर भोगों से निवृत्त होना चाहिये। संबुज्झह ! किं न बुज्झह ? संबोहि खलु पेच्च दुल्लहा । नो हूवणमन्ति राइओ, नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥२४॥ [सू० श्रु० १, भ०२, उ०१ गा.१] हे लोगो ! तुम समझो 1 इतना क्यो नहीं समझते कि परलोक मे सम्बोधि अर्थात् सम्यगदर्शन की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है। जो रात्रियों वीत जाती हैं, वे पुनः लौट नही आती और मनुष्य का जीवन भी पुनः प्राप्त होना सुलभ नही है। साराश यह है कि कामभोग का परित्याग करके इस जीवन मे जितना बन सके उतना आत्मकल्याण कर लो। इह जीवियमेव पासहा. तरुणे वाससयस्स तुट्टई । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम-भोग] [३०३ - इत्तरवासे य बुज्झह, गिद्धनरा कामेसु मुच्छिया ।।२।। [सू० श्रु० १, अ०, उ० ३२, गा०८] इस ससार में तू जीवन को ही देख । उसे ही भली-भाँति परख । वह तरुणावस्था मे अथवा सौ वर्ष की आयु मे ही टूट जाता है। यहाँ तेरा कितना क्षणिक निवास है, इसे तू अच्छी तरह समझ । आश्चर्य है कि आयु का विश्वास न होने पर भी मनुष्य कामभोग मे आसक्त रहते है। इह कामाणियहस्स, अत्तट्ठ अवरज्झई । सोच्चा नेयाउयं मग्गं, जं भुजो परिभस्सई ॥२६॥ [उत्त० अ०७, गा० २५ ] इस ससार मे कामभोग से निवृत्त न होनेवाले पुरुष का आत्मप्रयोजन ही नष्ट हो जाता है। मोक्षमार्ग को सुनकर भी वह पुनः पुनः भ्रष्ट हो जाता है। वाहेण जहा व विच्छए, अबले होइ गवं पचोइए। से अन्तसो अप्पथामए, नाइवहे अवले विसीयइ ॥२७॥ एवं कामेसणं विऊ, अज सुए पयहेज्ज संथवं । कामी कामे ण कामए, लद्धे वा वि अलद्ध कण्हुई ॥२८॥ [सू० श्रृ० १, अ० २, उ० ३, गाः ५-६] जैसे वाहक द्वारा पीडा पहुँचाकर चलाया गया बल थक जाता है और मार खाने पर भी निर्वल होने के कारण चल नही सकता और Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ] [श्री महावीर-वचनामृत वह अन्त मे कष्ट का अनुभव करता है, वैसे ही क्षीण मनोवलवाला अविवेकी पुरुप सबोध प्राप्त होने पर भी कामभोगरूपी कीचड से बाहर नहीं निकल पाता। वह प्रायः ऐसे ही विचार करता रहता है कि 'मैं आज अथवा क्ल कामभोगों को छोड़ दूंगा'। सुख की इच्छा रखनेवाला पुरुष कामभोग की कामना कदापि न करे और प्राप्त भोगों को भी अप्राप्त कर दे अर्थात् छोड दे। दुप्परिच्चया इमे कामा, नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं । अह सन्ति सुन्वया साहू, जे तरंति अतरं वणिया चा ॥२६॥ उत्त० म०८, गा०६] कामभौगो का त्याग करना अत्यन्त कठिन है। निर्वल पुरुष इन्हे सरलता से नही छोड सकते। परन्तु जो सुव्रतो को धारण करनेवाले साधु पुरुष है, वे जहाज द्वारा व्यापार करनेवाले पुरुषों के समान कामवासना के दुस्तर समुद्र को पार कर जाते हैं। कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सबस्स लोगस्स सदेवगस्स । जंकाइयं माणसियं च किंचि, तस्सऽन्तगं गच्छइ वीयरागो ॥३०॥ [उत्त० अ० ३२, गा०१६]] Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम-भोग] [३०१ देवलोक सहित अखिल विश्व में जो कोई शारीरिक और मानसिक दुःख है, वे सब काम-भोग की आसक्ति मे से ही पैदा हुए है। एक मात्र वीतराग ही उनका अन्त प्राप्त कर सकते है। कामकामी खलु अयं पुरिसे, से सोयइ, जूरइ, तिप्पइ, परितप्पइ ॥३१॥ [मा० श्रु० १, अ० २, उ०५] विषयो का लोलुपी यह पुरुष (विषयों के चले जाने पर ) शोक करता है, विलाप करता है, लज्जा-मर्यादा छोड़ देता है और अत्यन्त पीडा का अनुभव करता है। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : २७ : प्रमाद पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाज्वरं । तभावादेसओ वावि, वालं पंडियमेव वा ॥१॥ [ ० ० १, अ० ८, गा० ३] तीर्थङ्करादि महापुरुषों ने प्रमाद को कर्मोपादान का कारण वतलाया है और अप्रमाद को कर्मक्षय का । इसी कर्मोपादान और कर्म-क्षय के कारणवश ही मनुष्य को वाल और पडित कहा जाता है । साराग यह है कि जो प्रमाद के वशीभूत होकर कर्मोपादान करता है, वह वाल है - अज्ञानी है और जो अप्रमत्त वनकर कर्म का क्षय करता है, वह पण्डित हैं-जानी है | विवेचन - धर्मारावन में आलस्य और विषय कपाय मे प्रवृत्ति इस प्रकार के प्रमाद का इसे सामान्यतया प्रमाद कहा जाता है । सेवन करते हुए कर्म का उपादान होता है, अर्थात् आत्मा को कर्म का बन्धन होता है और उससे आत्मा भारी वन जाती है। जबकि अप्रमत्त वनने से अर्थात् सदनुष्ठान का सेवन करने से कर्म का क्षय होता है और आत्मा हल्की बनती है । इसलिये सुज्ञ मनुष्य के लिए प्रमाद का त्याग करना ही उचित है । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद] [३.. इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं । त एवमेवं लालप्पमाणं, हरा हरंति त्ति कहं पमाए ॥२॥ [उत्त० अ० १४, गा० १५] 'यह मेरा है,' 'यह मेरा नहीं है, 'यह मैने किया है', 'यह मैने नही किया ,' इस प्रकार सलाप करते हुए पुरुष का आयुष्य रात्रि और दिवसरूपी लुटेरे लूटा करते है, वहाँ प्रमाद कैसे किया जाय ? असंखयं जीविय मा पमायए, ' जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं विजाणाहि जणे पमत्त, किण्णु विहिंसा अजया गहिन्ति ? ॥३॥ [उत्त० भ० ४, गा० १] जोवन टूट जाने के बाद जुडता नही और जरावस्था के आ 'पहुंचने पर उससे बचकर नही रहा जा सकता। जो प्रमत्त है, अनेक प्रकार की हिसा करनेवाले हैं और सयम-विहीन है, वे भला अन्त समय मे किसकी शरण मे जाएंगे ? जे पावकम्भेहि धणं मणुस्सा, समाययन्ती असई गहाय । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्री महावीर-वचनामृत पहाय ते पासपयट्टिए नरे, वेराणुबद्धा नरयं उवेन्ति ॥४॥ [उत्त० अ० ४, गा० २] जो मनुष्य कुमति से पाप-कर्म करता हुआ धन सपादन करते हैं, वह विषय रूप पाश में बंध जाता है। ऐसे मनुष्य सग्रह किये हुए धन को यहाँ पर छोड नरक में जाते हैं, क्योंकि उन्होने इस तरह धन सपादन करते हुए कई प्राणियों के साथ वैरानुबन्ध किया है। संसारमावन्न परस्स अष्टा, साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले, न बन्धवा बन्धवयं उवेन्ति ॥शा [उत्त० अ० ४, गा० ४] ससारी जीव अपने कुटुम्ब-परिवार के लिये कृषि, वाणिज्य आदि प्रवृत्तियाँ कर कर्म बाँचता है। पर जब वह कर्म का फल भोगने का समय आता है, तब बन्धुजन बन्धुता नही दिखलाते, अर्थात् उन कर्मो के फल का बंटवारा नही करवाते। अतः कर्मों का फल उस अकेले को ही भोगना पडता है। वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्था । दीवप्पणढे व अणंतमोहे, नेयाउयं दद्रुमदछमेव ॥६॥ [उत्त० भ०४, गा०५] Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद] [३०८ प्रमादी पुरुष इस लोक मे अथवा परलोक मे कहीं भी धन के द्वारा अपना रक्षण नही कर सकता। अनन्त मोहवाले इस प्राणी का विवेकरूपी दीपक बुझ जाता है, अतः वह न्याय-मार्ग को देखते हुए भी नही देख कर कार्य करता रहता है। तात्पर्य यह कि वह न्याय-मार्ग मे प्रवृत्त नहीं होता। सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी, न वीससे पंडिए आसुपन्ने । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, __ भारंडपक्खीव चरेऽप्पमत्तो ॥७॥ [उत्त० अ० ४, गा ] मोहनिद्रा मे गाढ सोये हुए मनुष्यो के बीच रहते हुए भी सदा जागृत बुद्धिमान् पण्डित प्रमाद का विश्वास न करे। अर्थात् वह प्रमादी न बने। काल भयकर है और शरीर निर्बल, ऐसा मानकर वह भारड पक्षी के समान अप्रमत्त बनकर विचरण करे। छन्दं निरोहेण उवेइ मोक्खं, आसे जहा सिक्खियवम्मधारी । पुन्वाइं वासाई चरेऽप्पमत्तो, तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ॥८॥ [उत्त० अ०४, गा८] जैसे सवा हुआ कवचधारी घोडा अपनी स्वच्छन्द वृत्ति को रोकने के पश्चात् ही विजयी होता है, वैसे ही मनुष्य भी अपनी स्वच्छन्द Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०] [श्री महावीर-वचनामृत प्रवृत्ति पर नियंत्रण पाने पर ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। अप्रमत्त सावक को दीर्घकाल तक सयम का आचरण करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से वह शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। खिप्पं न सकेइ विवेगमेउ, तम्हो समुट्ठाय पहाय कामे । समिच्च लोयं समया महेसी, आयाणुरक्खी चरेऽप्पमत्तो ॥६॥ [उत्त० अ० ४, गा० १०] विवेक शीघ्र ही प्राप्त नहीं हो सकता। अतः आत्मानुरक्षी साधक काम-भोग का परित्याग कर और समभाव पूर्वक लोक का स्वरूप जान कर अप्रमत्त रूप से विचरण करे। दुमपत्तए पंड्डयए, जहा निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१०॥ उत्त० अ० १०, गा० १] रात्रि वीतने पर वृक्ष के पीले पत्ते झड जाते हैं, उसी तरह मनुष्य के जीवन का भी एक न एक दिन अन्त आता ही है ; ऐसा समझ कर हे गौतम ! तू समय मात्र का प्रमाद मत कर। विवेचन-काल के सूक्ष्मतम विभाग को समय कहते हैं। उसकी तुलना मे क्षण बहुत वडा काल है। कुसग्गे जह ओसविन्दुए, थोवं चिट्ठ लम्बमाणए । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद । [३११ एवं मणुयाण जीचियं, समयंगोयम ! मा पमायए ॥११॥ उत्त० अ० १०, गा० २] जंने कुश के अग्रभाग पर स्थित ओस की बूंद गिरने की तैयारी मे रहती है और थोड़े समय तक ही टिकती है, वैसे ही मनुष्य का जीवन भी नष्ट होने की स्थिति मे ही रहता है और अल्प समय तक ही स्थिर रहता है । ऐसा मानकर हे गौतम ! तू समयमात्र का भी प्रभाद मत कर। इइ इत्तरियम्मि आउए, __जीवियए बहुपच्चवायए। विहुणाहि रयं पुरे कडं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१२॥ [उत्त० अ० १०, गा०३] आयु थोड़ा है और जीवितव्य अनेकविध विघ्नों से भरा हुआ है, अतः पूर्व भव के कर्मों की रज दूर करने के लिये हे गौतम ! तू सयय मात्र का भी प्रमाद मत कर। दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सन्वपाणिणं । गाढा य विवाग कम्मुणो, समयंगोयम ! मापमायए ॥१३॥ [उत्त० अ० १०, गा० ४] Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२] [श्री महावीर-वचनामृत सर्व प्राणियों को दीर्घकाल के बाद भी मनुष्य-जन्म मिलना दुर्लभ है, क्योंकि दुष्कर्म का विपाक अत्यन्त गाढ होता है। अतः हे गौतम ! तु समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । विवेचन-कहने का आशय यह है कि प्राणी पहले किये हुए गाढ़ कर्मों को भोग ले और पुण्य का कुछ संचय करे तव ही मनुष्य जन्म की प्राप्ति होती है। एवं भवसंसारे संसरइ, सुहासुहेहिं कम्मेहिं । जीवो पमायबहुलो, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१४॥ [उत्त० भ० १०, गा० १५] इस प्रकार प्रमाद की अधिकतावाला जीव अपने शुभाशुभ कर्मों से संसार में परिभ्रमण करता है। अतः हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। लळूण वि माणुसत्तणं, आरियत्तं पुणरावि दुल्लहं। वहवे दसुया मिलक्खुया, -समयं गोयम ! मा पमायए॥१॥ [उत्त० अ० १०, गा० १६ ] मनुष्य-जन्म मिलने पर भी आर्यत्व मिलना अत्यन्त कठिन है, Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद] [ ३६३ क्योंकि मनुष्यो मे भी अनेक दस्यु और म्लेच्छ होते है, अर्थात् अनार्य होते हैं । इसलिये हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। लघृण वि आरियत्तणं, अहीणपंचदियया हु दुल्लहा। विगलिन्दियया हु दीसई, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१६॥ [उत्त० अ० १०, गा० १७ ] आर्यत्व प्राप्त करने के उपरान्त भी पाँचो इन्द्रियों से पूर्ण होना -दुर्लभ है, क्योकि अनेक मनुष्य इन्द्रियो की विकलता, न्यूनता अथवा हीनता वाले होते है। अतः हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। अहीणपंचेंदियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा । कुतित्थिनिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१७॥ उत्त० अ० १०, गा०१८] पाँच इन्द्रियो से पूर्ण होने पर भी उत्तम धर्म का श्रवण वस्तुतः दुर्लभ है ; क्योकि बहुत से मनुष्य कुतीबियो की सेवा करनेवाले होते हैं । इसलिये हे गौतम ! तू समय माय का भी प्रमाद मत कर। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] लद्दूण वि उत्तमं सुई, [ श्री महावीर वचनामृत सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा । जणे, समयं गोयम ! मा पमायए || १८ || [ उत्त० अ० १०, गा० १६ ] उत्तम धर्मश्रवण का अवसर प्राप्त होने पर भी उस पर श्रद्धा होना अत्यन्त दुष्कर है, क्योकि बहुत से लोग उत्तम धर्मश्रवण के पश्चात भी मिथ्यात्व का सेवन करते दिखाई देते हैं । इसलिये हे गौतम! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । धम्मं पि हु मद्दहन्तया, दुल्लहया काएण फासया । इह कामगुणेसु मुच्छिया, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ १६ ॥ [ उत्त० अ० १०, गा० २०] धर्म पर अटूट श्रद्धा बैठ जाने पर भी उसका काया से आचरण करना अति कठिन है, क्योंकि धर्म पर श्रद्धा रखनेवाले लोक भी कामभोगों मे मूच्छित दिखाई देते है । इसलिये हे गौतम ! तू समय. मात्र का भी प्रमाद मत कर । परिज्ररह ते सरीरयं, केसा पडरया हवंति ते । मिच्छत्तनिसेवए Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद] [३१६ से सोयवले य हायई, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२०॥ [उत्त० अ० १०, गा० २१] तेरा शरीर जीर्ण होता जा रहा है, तेरे केश सफेद होते जा रहे है और तेरा सारा बल भी घट रहा है। इसलिये हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। अरई गण्डं विसूइया, आयंका विविहा फुसन्ति ते । विहडइ विद्धंसइ ते सरीरयं, समयं गोयम मा पमायए ॥२१॥ [उत्त० अ० १०, गा० २७ ] अरुचि, फोड़े-फुन्सी, अजीर्ण, दस्त आदि विविध रोग तुझे घेरने लगे हैं। तेरा शरीर दिन ब दिन दुर्बल हो रहा है और विनाश की अन्तिम सीढी पर आ पहुंचा है। अतः हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। वोच्छिन्द सिणहमप्पणो, कुमुय सारइयं व पाणियं । से सम्बमिणहवजिए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२२॥ [ उत्त० अ० १०, गा०२८] Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] श्री महावीर-वचनामृत जैसे शरद् ऋतु का कमल पानी से अलिप्त रहता है, वैसे ही तू भी अपने स्नेहभाव को छिन्न-भिन्न कर दे और अपने समस्त स्नेहभाव को दूर करने मे हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। चिच्चा ण धणं च भारियं, ___ पवइओ हि सि अणगारियं । मा वन्तं पुणो वि आविए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२३॥ [उत्त० अ० १०, गा०२६] तू धन और भार्या को छोड़ कर अणगार धर्म मे दीक्षित हो गया है। अब इस वमन किये हुए विषयभोगो को पुनः भोगने को इच्छा मत कर । अतः इस कार्य मे हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। अवउज्झिय मित्तवन्धवं, विउलं चेव धणोहसंचयं । मा तं विइयं गवेसए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२३॥ [उत्त० भ० १०, गा० ३०] मित्र, वन्धुवर्ग तथा बहुत-सा धन छोडकर तू यहाँ आया है, अतः फिर से उसकी इच्छा मत कर। हे गौतम ! तु समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद] [ ३१५ अवसोहिय कटगापह, ___ ओइण्णोऽसि पहं महालयं । गच्छसि मग्गं विसोहिया, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२॥ [उत्त० अ० १०, गा० ३२] कुतीर्थरूपी कण्टकमय मार्ग को छोडकर तू मोक्ष के विराट मार्ग पर आया है। अतः विशुद्धमार्ग पर जाने के लिये हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । अवले जह भारवाहए, मा मग्गे विसमेऽवगाहिया। पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२६॥ [उत्त० अ० १०, गा० ३३ ] जैसे निर्बल भारवाहक विषम मार्ग पर नही चलता, और कदाचित् चलता भी है तो बाद मे पछताता है, वैसे हो सयम का भार वहन करनेवाले को चाहिये कि वह विषयमार्ग पर न चले। कदा. चित् चला भी जाय तो बाद मे पश्चात्ताप करे, इसलिये हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] [श्री महावीर-वचनामृत __ अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२७॥ [उत्त० म० १०, गा० ३४] निःसदेह तू संसारसमुद्र को तैर गया है, फिर भला किनारे 'पहुँच कर क्यों बैठ रहा है ! उस पार पहुँचने के लिये तुझे शोघ्नता करनी चाहिये। इसमे हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। अणाइकालप्पभवस्स सबस्स दुस्खस्स पमोक्खमग्गो । वियाहिओ जं समुविच सत्ता, कमेण अच्चन्तसुही भवन्ति ॥२८॥ [उत्त० भ० ३२, गा० १११] अनादि काल से उत्पन्न समस्त दुःखो से छूटने का यह मार्ग वतलाया गया है, जिसका पूर्णतया आचरण कर जीव क्रमशः अत्यन्त सुखी होते हैं। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा २८ : रागस्स हेडं विषय रूवस्स चक्खुं गहणं वयंति, चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति । समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउ अमणुन्नमाहु ||१|| [ उत्त० अ० ३२, गा० २३ ] रूप को ग्रहण करनेवाली चक्षुरिन्द्रिय कहलाती है और चक्षुरिन्द्रिय का ग्राह्य विषय रूप (सोन्दर्य) है । मनोज्ञ ( प्रिय ) रूप राग का कारण बनता है एवं अमनोज्ञ (अप्रिय) रूप द्वेष का । रूवेसु जो गिद्धिमुवे तिन्वं, अकालियं पावड़ से विणास | रागाउरे से जह वा पयंगे, आलोयलोले समुवे मच्चुं ॥२॥ [ उत्तः अ० ३२, गा० २४ ] जैसे स्निग्ध दीपशिखा के दर्शन ने आकृष्ट बना हुआ रागा + Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] [ श्री महावीर-वचनाटक पतग अकाल मौत का शिकार बनता है, वैसे ही रूप मे अत्यन्त आसक्ति रखनेवाला असमय में ही विनाश का भोग बनता है । जे यात्रि दोसं समुवेड़ तिव्यं, तंसि क्वणे से उ उवे दुक्खं । दुद्दंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि रूवं अवरज्झई से || ३ || [ दश० अ० ३२, गा० २५] जो जीव अरुचिकर रूप देख कर तीव्र द्वेष करता है, वह उसी समय दुःख का अनुभव करता है । वह अपने दुर्दान्त दोष से ही दुःखी होता है । रूप उसे कुछ भी दुःख नही देता । । एगंतरच रुइरंसि रूवे, अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो || ४ || [ उत्तः अ० ३२, गा० २६ ] जो जीव मनोहर रूप के प्रति एकान्त राग रखता है और अरुचिकर रूप के प्रति ऐकान्तिक द्वेष रखता है, वह अज्ञानी अनन्त दुःखों का शिकार बनता है । जबकि विरक्त मुनि उसमे लिप्त नहीं होता । ( इसलिए वह उस दुःख समूह का शिकार नही बनता ) । रुवाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ णेगरूवे । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय] [३२१ चिचेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तद्वगुरू किलिडे ॥५॥ [उत्त० अ० ३२, गा० २७] रूप की आशा के वश में पड़ा हुआ अज्ञानी जीव अपने स्वार्थ के लिये रागान्ध बनकर चराचर ( त्रस और स्थावर ) जीवों को अनेक प्रकार से हिंसा करता है, उन्हे अनेकविध कष्ट देता है और अनेक से पीड़ा पहुँचाता है। रूवाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलामे ॥६॥ [उत्त० अ०३२, गा० २८] रूप के मोह मे फंसा जीव मनोहर रूपवाले पदार्थों की प्राप्ति में उसके रक्षण और व्यय मे तथा वियोग की चिन्ता मे सलग्न रहता है । वह सम्भोगकाल मे भी अतृप्त ही रहता है। फिर भला उसे सुख कहाँ से मिले ? रूवे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहि । अत्तुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥७॥ [उत्त० भ० ३२, गा० २६] Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] [श्री महावीर-चचनामृत प्रिय रूप को पाने का लालची और आसक्त जीव कदापि सन्तुष्ट नहीं होता और असन्तुष्ट होने के कारण वह दुःखो का भोगी बनता है। तथा दूसरे की वस्तुओ के प्रति आकृष्ट होकर उनके स्वामी के दिये बिना ही ले लेता है, अर्थात उसकी चोरी करने के पाप तक हुँच जाता है। तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥८॥ [उत्त० भ० ३२, गा० ३० ] तृष्णा के वशीभूत हुआ चोरी करनेवाला और रूप के परिग्रह मे अतृप्त जीव लोभ दोष से माया एव मृषावाद की वृद्धि करता है, परन्तु फिर भी वह दुखों से मुक्त नही हो सकता। मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुहो दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥६॥ उत्त० अ० ३२, गा० ३१] वह दुरन्त आत्मा झूठ बोलने के पहले और पश्चात् और बोलने सगय भी दुःखी होता है। साथ ही अदत्त वस्तु ग्रहण करने के Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ] [ ३२३ 'पश्चात् भी वह रूप से सन्तुष्ट न होने के कारण सदैव दुःखी रहता है। उसका कोई सहायक नही होता । रूवाणुरत्तस्स रस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि १ । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वतई जस्स कए ण दुक्खं ॥ १० ॥ [ उत्त० अ० ३२, गा० ३२ ] इस प्रकार रूप मे आसक्ति रखनेवाले मनुष्य को थोडा-सा भी सुख कहाँ से मिल सकता है ? जिस वस्तु को प्राप्त करने के लिए उसने अपार कष्ट उठाया, उसका उपभोग करने मे भी अत्यन्त कष्ट है । एमेव रूवम्म गओ पओसं, उवे दुक्खोहपरंपराओ | पट्ठचित्तोय चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥११॥ [ उत्त० अ० ३२, गा० ३३ ] इसी तरह अमनोज्ञरूप के प्रति द्वेष करनेवाला जीव भी दुःख की परम्परा को प्राप्त होता है और दुष्ट चित्त से कर्म का उपार्जन करता है । फिर वही कर्म उसके लिए विपाक - काल मे दुःखरूप हो जाता है । रूवे विरत मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४] [श्री महावीर-वचनामृत न लिप्पई भवमझे वि सन्तो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥१२॥ __ [उस० अ०३२, गा० ३४] रूप से विरक्त मनुष्य शोकरहित हो जाता है। जैसे जल में रहते हुए भी कमलपत्र जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही संसार मे रहते हुए भी वह विरक्त पुरुष दुख-समूह से लिप्त नहीं होता । सहस्स सोयं गहणं वयंति, सोयस्स सदं गहणं वयन्ति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ।।१३।। [उत्त० अ० ३२, गा० ३६] शब्द को ग्रहण करनेवाली श्रोत्रेन्द्रिय कहलाती है और श्रोत्रेन्द्रिय का ग्राह्यविषय शब्द है। मनोज्ञ (प्रिय) शब्द राग का कारण बनता है, जबकि अमनोज्ञ (अप्रिय) गन्द द्वेष का कारण वनता है। सदसु जो गिद्धिमुवेइ तिबं, अकालिशं पावड़ से विणासं । रागाउरे हरिणमिए ब मुझे, सद्द अतित्ते समुवेइ मच्चुं ॥१४॥ [टत्त००, गा० ३७] - Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय [३२५ जैसे मधुर शब्द का श्रवण करने मे सरल, रागातुर हरिण असमय मे ही मृत्यु को प्राप्त होता है, वैसे ही शब्द मे अत्यन्त आसक्ति रखनेवाला भी अकाल मे विनाश को प्राप्त होता है। विवेचन इसके पश्चात् चक्षुरिन्द्रिय के लिये जो कुछ कहा गया है, वही श्रोत्रेन्द्रियादि सभी इन्द्रियों के बारे मे समान रूप से समझना चाहिये। गंधस्स घाणं गहणं वयंति, घाणस्स गंधं गहणं वयंति। रागस्स हे समणुन्नमाहु, दोसस्स हे अमणुन्नमाहु ॥१५॥ [उत्त० अ० ३२, गा० ४६ } गन्ध को ग्रहण करनेवाली घ्राणेन्द्रिय कहलाती है और नाणेन्द्रिय का ग्राह्यविषय गन्ध है। मनोज्ञ गन्ध राग का कारण बनती है, जबकि अमनोज्ञ गन्ध द्वष का कारण बनती है। गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालिअंपावइ से विणासं । रागाउरे ओसहिगंधगिद्ध, सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते ॥१६॥ [उत्त० अ० ३२, गा०५०] जैसे औषधि की सुगन्च लेने के लिए आसक्त बना रागातुर Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६] [श्री महावीर वचनामृत सर्प विल से बाहर निकलते ही मारा जाता है, वैसे ही गत्व के प्रति. आसक्ति रखनेवाला भी अकाल मे विनष्ट हो जाता है। रसस्स जिन्भं गहणं वयंति, जिभाए रसं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समगुन्नमाहु, दोसस्स हेडं अमणुन्नमाहु ॥१७॥ [उत्तः भ० ३२, गा०६२] रस को ग्रहण करनेवाली जिह्वन्द्रिय (अथवा रसनेन्द्रिय ) कहलाती है और जिह्वेन्द्रिय का विषय रस है। मनोज्ञ (प्रिय ) रस राग का कारण बनता है, जबकि अमनोज (अप्रिय ) रस द्वेष का कारण बनता है। रसेसु जो गिद्धिमुवेड तिन्वं, अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे वडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा आमिसभोगगिद्ध ॥१८॥ [उत्त० म० ३२, गा० ६३ ] जैसे मांस खाने के लिये लालची वना मत्स्य व्सी के काटे मे फंस कर अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है, वैसे ही रस मे अति आसक्ति रखनेवाला भी असामयिक मृत्यु को प्राप्त होता है। 1. फासस्स कायं गहणं वयंति, कायस्स फासं गहणं वयंति । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय] [३२० रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउ अमणुन्नमाहु ॥१६॥ [उत्त० भ० ३२, गा० ७५] । स्पर्श को ग्रहण करनेवाली इन्द्रिय काया ( अथवा स्पर्शेन्द्रिय) कहलाती है और काया का ग्राह्य विषय स्पर्श है। मनोज्ञ (प्रिय) स्पर्श राग का कारण बनता है, जबकि अमनोज्ञ ( अप्रिय ) स्पर्श द्वष का कारण बनता है। फासस्स जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालिअं पावइ से विणासं । रागाउरे सीयजलायसन्ने, गाहग्गहीए महिसे व रणे ॥२०॥ [उत्त० अ० ३२, गा०७६ ] जैसे शीतल स्पर्श का लोभी भैसा रागातुर बनकर जगल के तालाब मे गिरता है और मगर का भक्ष्य बन अकाल मे मरण को प्राप्त होता है, वैसे ही स्पर्श मे अति आसक्ति रखनेवाला भी अकाल मे ही विनष्ट होता है। भावस्स मणं गहणं वयंति, मणस्स भावं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हे अमणुन्नमाहु ॥२१॥ [ उत्त० म० ३२, गा० ८८ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८] [श्री महावीर-वचनामृत __ मन भाव को ग्रहण करता है और भाव मन का ग्राह्य विषय है। मनोज्ञ भाव राग का कारण बनता है, जबकि अमनोज्ञ ( अप्रिय ) भाव द्वेष का कारण बनता है। भावेसु जो गिद्धिमुवेइ ति, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे कामगुणेसु गिद्ध, करेणुमग्गावहिए गजे वा ।।२२।। [उत्त० अ० ३२, गा०८६] जैसे रागातुर और कामवासना मे आसक्त हाथी हथिनी के प्रति । वाकर्षित होकर मृत्यु पाता है, वैसे ही जो मनुष्य भाव मे तीन वासक्ति रखता है, वह ( उन्मार्ग मे प्रेरित होकर ) असमय मे ही विनाश को प्राप्त होता है। एविन्दियत्था य मणस्स अत्या, दुक्खस्स हेऊ मणुयस्स रागिणो । ते चेव थो पि कयाइ दुक्खं, न वीयरागस्स करेन्ति किंचि ।।२३।। [टत० अ०३२, गा० १००] इन्द्रिय और मन के विषय रागो पुरुष के लिये ही दुःख के कारण स्नते हैं। ये विषय योतराग को जरामा भी दु. या कष्ट नहीं ईनाते। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ३ - ३३८] [श्री महावीर-वचनामृत कसायपच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? कसायपचक्खाणणं वीयरागभाव जणयइ । वीयरागभावपडिवन्नेवि यणंजीवे समसुहदुक्खे भबड़ा|१३|| [ उत्त० अ० २६, गा० ३६] प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय का परित्याग करने से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर-हे शिष्य ! कषाय का परित्याग करने से जीव मे वीतरागभाव पैदा होता है और वीतरागभाव को प्राप्त किया हुआ वह जीव सुख-दुःख मे सदा समान भाववाला होता है। कोहविजएणं भंते ! जीवे किं जणयह ? कोहविजएणं खन्ति जणयइ, कोहवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, पुन्नबद्धं च निज्जरेड् ॥ १४ ॥ [उत्त० अ० २६, गा० ६७] प्रश्न- हे भगवन् ! क्रोच को जीतने से जीव क्या आर्जन करता है! उत्तर-हे शिष्य ! क्रोध को जीतने से जीव क्षमागण का उपार्जन करता है। ऐसा क्षमायुक्त जीव क्रोषवेदनीयकोच जन्यरो का बन्च नहीं करता और पूर्ववद्ध कर्मो की निर्जग कर देता है। __ माणविजएणं भन्ते ! जीवे कि जणयह ? माणविजएणं महवं जणयइ, माणवेयणिज्ज कम्मं न बन्धट, पुन्यबद्धं च निजरेह ॥१५॥ [उघ १० २६, गा३८] Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाय ] [ ३३६ प्रश्न - हे भगवन् ! मान का मर्दन करने से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर - हे शिष्य ! मान का मर्दन करने से जीव मार्दव (मृदुता ) को प्राप्त करता है । ऐसा मार्दवयुक्त जीव मानवेदनीय मानजन्य कर्मो का बन्ध नही करता और पूर्वबद्ध कर्मो की निर्जरा कर देता है । मायाविजऐणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ १ जणयह, मायाविजएणं अजवं मायावेयणिज कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ ॥ १६ ॥ [ उत्त० २६, गा०६६ ] प्रश्न - - हे भगवन् ! माया को जीतने से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर - हे शिष्य ! माया को जीतने से जीव आर्जव ( सरलता ) गुण उपार्जन करता है । ऐसा आर्जवयुक्त जीव मायावेदनीय-मायाजन्य कर्मों का बन्ध नही करता और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा कर देता है । लोभविजएणं भन्ते ! लोभविजएणं संतोसं जणय, लोभवेयणियज्जं कम्मं जीवे किं जणयइ १ न बंधइ, पुन्ववद्धं च निज्जरेइ ॥ १७॥ [ उ० भ०२६, गा० ७० ] Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] [ श्री महावीर वचनामृत प्रश्न - हे भगवन् ! लोभ पर विजय पाने से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर - हे शिष्य ! लोभ पर विजय पाने से जीव सतोष गुण का उपार्जन करता है । ऐसा सतोषयुक्त जीव लोभवेदनीय - लोभजन्य-कर्मो का बन्ध नही करता और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा कर देता है । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा :३०: बाल और पंडित एएसु वाले य पकुबमाणे, आवट्टई कम्मसु पावएसु ॥१॥ सू० श्रु० १, म १०, गा०५] पृथ्वीकाय आदि जीवो के साथ दुर्व्यवहार करता हुआ बाल जीव पापकर्मों से लिप्त होता है ।। विवेचन- जो आत्मा सत् और असत् के विवेक से रहित हैं, . अज्ञानी हैं, उनके लिये यहाँ बाल शब्द का प्रयोग हुआ है। रागदोसस्सिया बाला, पावं कुवंति ते बहुं ॥२॥ [सू० ५० १, म०८, गा०८] बाल जीव राग-द्वष के अधीन होकर बहुत पाप करते है। जावन्तविजा पुरिसा, सवे ते दुक्खसंभवा । लुप्पन्ति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणन्तए ॥३॥ [उत्त० भ० ६, गा०१] जो अविद्यापुरुष है, वे सर्व प्रकार के दुखो को भोगनेवाले है। वे मूर्ख इस अनन्त संसार मे अनेक बार पीडित होते हैं। विवेचन-अविद्या अर्थात् मिथ्यात्व अथवा ज्ञानहीन-अवस्था । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ [श्री महावीर-वचनामृत इससे जो पुरुष युक्त हैं वे अविद्यापुरुष हैं । तात्पर्य यह है कि जो पुरुष मोह-मिथ्यात्व के कारण सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके, उन्हे अविद्यापुरुप समझना चाह्येि। वे पाप-प्रवृत्ति मे सदा लिप्त रहने से कर्मवन्धन करते हैं और उसी के फलस्वरूप भयङ्कर दुःख भोगते हैं। ऐसे बहुकर्मी आत्माओं का ससार बढ जाने से वे विविध योनियों मे उत्पन्न होकर मरते ही रहते हैं। उनकी इस जन्म-मरण की शृखला का अन्त दीर्घ काल तक नहीं आता। समिक्ख पंडिए तम्हा, पासजाइपहे वह । अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मेत्तिं भूएसु कप्पए ।।४।। [उत्त० अ०६, गा० २] अतः पण्डित पुरुष एकेन्द्रियादिक पाशरूप बहुत प्रकार के जातिपथ का विचार करके अपनी आत्मा के द्वारा सत्य का अन्वेषण करे और सब प्राणियों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करे। निच्चुबिग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई। तारिसो मरणंते वि, न आराहेइ संवरं ।।। [दय० ५० ५, २० २, गा० ३६] जमे चोर सदा भयमीत रहता है और अपने पुलमों की वजह से ही दुःश्व पाता है, वैसे ही अनानी मनुप्य भी नित्य प्रति भयभीत रहता है और अपने कुकर्मों के कारण ही दुःख पाता है। ( उसको इन स्थिति में उन्त तक पोई पन्विर्तन नहीं होना।) मृत्यु गा भय सामने दोमने पर भी यह मंयम को बागना नहीं करता। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल और पण्डित ] वित्तं पसवो य नाइओ, तं बाले सरणं ति मन्नइ । एते मम तेसुवि अहं, नो ताणं सरणं न विज्जई ||६|| [ ३४३ [ सू० श्रु० १, अ० २, ३०३, गा० १६ ] वाल जीव ऐसा मानता है कि धन, पशु तथा ज्ञातिजन मेरा रक्षण करेंगे। वे मेरे है, में उनका हूं। परन्तु इस प्रकार उसकी रक्षा नही होती अथवा उनको गरण नही मिलता । भणंता अकरेन्ता य, बंधमोक्खपइण्णिणो । समासार्सेति अप्पयं ॥७॥ वायाविरियमेत्तेणं, न चित्ता तायए भासा, कुओ विज्जाणुसासणं । विसन्ना पापकम्मेहिं वाला पंडियमाणिणो ॥८॥ [ उत्त० अ० ६, गा० १०-११] बन्च और मोक्ष को माननेवाला वादीगण संयम की बातें करते है, किन्तु सयम का आचरण नही करते है । वे केवल वचनों के दल से ही आत्मा को आश्वासन देते हैं । अनेक प्रकार की भाषाओं का ज्ञान मनुष्य को शरणभूत नही होता । विद्या- मन्त्र की साधना भी कहाँ से शरणभूत हो ? वे अपने को भले ही दिग्गज पण्डित मानें, परन्तु पापकर्म से लिप्त होने के कारण वास्तव मे अज्ञानी हैं । मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेणं तु भुंजए । न सो सुअक्खायधम्मस्त, कलं अग्घर सोलसिं ॥ ६ ॥ [ उत्त० भ० ६, गा० ४४ ] Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ] [ श्री महावीर वचनामृत जो बालजीव एक-एक महीने तक भोजन का त्याग कर केवल दर्भ के अग्र भाग पर रहे उतने भोजन से पारणा करता है, वह तीर्थङ्करप्ररूपित धर्म की सोलहवी कला को भी प्राप्त नही कर सकता । विवेचन — इन जगत् में बाल जीव भी अनेकविव तपस्याएं करते हैं। उनमे से कुछ तो अत्यन्त क्लिप्ट होती हैं। एक-एक महीने का उपवास करना और पारणा के समय नाम मात्र का अन्न लेना, यह कोई ऐसी-वैसी तपस्या नही है । इतना होने पर भी वह अज्ञानमूलक होने से उसका आध्यात्मिक दृष्टि से कोई विशेष मूल्य नही है | तीर्थङ्कर भगवन्तो ने जो धर्म बतलाया है, वह ज्ञानमूलक है और उसमे अहिंसा, संयम तथा तप को योग्य स्थान दिया गया है । ऐसे ज्ञानमूलक धर्म के साथ अज्ञानमूलक तपश्चर्या की तुलना ही कैसे हो सकती हैं ? इसलिये यहाँ पर कहा गया है कि वह इसकी सोलहवी कला को भी प्राप्त नही होते । जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे | | एवं पावाड़ मेहावी, अज्अप्पेण समाहरे ॥ १० ॥ [ सू० श्रु० १, अ० ८, बा० १६ ] जैसे ( सकट आजाने पर ) कछुआ अपने सभी अङ्गों को सिकोड़ लेता है, वैसे ही विवेकी मनुष्य भी अपनी पापपरायण सभी इन्द्रियों को आध्यात्मिक जीवन द्वारा अपने भीतर सिकोड़ लेवे । डहरे च पाण बुढे य पाणे, ते आत्तओ पासइ सन्चलोए । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल और पंडित] [३४५ उच्वेहई लोगमिणं महन्तं, बुद्धेऽपमत्तेसु परिवएज्जा ॥११॥ [सू० श्रु० १, भ० १२, गा० १८] ज्ञानी पुरुष इस सर्व लोक मे रह कर छोटे तथा बड़े प्राणियो को आत्मतुल्य देखते है, अर्थात् अपने समान ही सुख-दुःख की वृत्तिवाले मानते है । वे षड्द्रव्यात्मक इस महान् लोक का बराबर निरीक्षण करते हैं और ज्ञानी बनकर अप्रमत्तो के साथ विचरण करते हैं। सार यह है कि वे इन छोटे-बडे जीवो की हिंसा न हो जाय इसलिए प्रवजित होकर अप्रमत्त दशा धारण करते है। न कम्मुणा कम्म खवेन्ति बाला, अकम्मुणा कम्म खवेन्ति धीरा । मेहाविणो लोभभयावतीता, संतोसिणो नो पकरेन्ति पावं ॥१२॥ [सू० श्रु० १, भ० १२, गा० १५] अज्ञानी जीव भी प्रवृत्तियाँ तो काफी करते है, पर वे सभी कर्मोत्पादक होने से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय नही कर पाती। जबकि 'धीर पुरुषो की प्रवृत्तियाँ अकर्मोत्पादक अर्थात् संयमवाली होने के कारण अपने पूर्वबद्ध कर्मों को क्षीण कर सकती है। जो पुरुष वस्तुतः बुद्धिमान् हैं, वे लोभ और भय-इन दोनों वृत्तियो से सदा दूर रहते है। और इस प्रकार सन्तोषगुण से विभूषित होने के कारण किसी भी प्रकार की पापमय प्रवृत्ति नही करते। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्री महावीर वचनामृत तिउट्टई उ मेहावी, जाणं लोगंसि पावगं । तुट्टंति पावकम्माणि, नयं कम्ममकुव्वओ ॥१३॥ [सू० ० १, अ०, १५, गा० ६ ] पापकर्मों को जाननेवाला बुद्धिमान् पुरुष ससार मे रहते हुए भी पापों को नष्ट करता है । जो पुरुष नये कर्म नही बाँचता, उसके सभी पाप कर्म क्षीण हो जाते है । जहा जुन्नाई कट्ठाई हव्यवाहो पमत्थति, एवं अत्तसमाहिर अणिहे ||१४|| ३४६ ] [ भ० श्रु० १, अ० ४, उ० ३] जैसे अग्नि पुरानी सूखी लकडियों को शीघ्र जला देती है, वैसे ही आत्मनिष्ठ और मोहरहित पुरुष कर्मरूपी काष्ठ को जला डालता है । पंडिए । तुलियाणं वालभावं, अबालं चेव चइऊण बालभावं, अवालं सेवई मुणी ॥ १५ ॥ [ उत्त० अ० ७, गा० ३० ] पण्डित मुनि बालभाव और अबालभाव की सदा तुलना करे. और बालभाव को छोड कर अबालभाव का सेवन करे । -::-- 1 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : ३१: ब्राह्मण किसे कहा जाय ? जो न सज्जइ आगन्तं, पन्वयन्तो न सोई। रमइ अज्जवयणम्मि, तं वयं बूम माहणं ॥१॥ जो मनुष्य-जन्म लेकर स्वजनादि मे आसक्त नही रहता और उनसे दूर रहने पर शोक नही करता तथा सदा आर्य-वचनो मे ही रमण करता है, उसको हम 'ब्राह्मण' कहते हैं। जायरूवं जहामहूं, निद्धन्तमलयावर्ग। राग-दोस-भयाईयं, तं वयं बूम माहणं ॥२॥ जो अग्नि के द्वारा शुद्ध किया हुआ स्वर्ण के समान तेजस्वी और शुद्ध है, तथा राग, द्वेष एवं भय से रहित है, उसको हम ब्राह्मण कहते है। तवस्सियं किसं दन्तं, अवचियमंससोणियं । सुवयं पत्तनिव्वाणं, तं वयं बूम माहणं ॥३॥ जो तपस्वी, कृश और इन्द्रियो का दमन करनेवाला है, जिसके शरीर मे मास और रुधिर कम हो गया है, जो व्रतशील है और Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८] [श्री महावीर-वचनामृत "जिसने निर्वाण-परमशान्ति प्राप्त किया है, उसको हम ब्राह्मण कहते है। तसपाणे बियाणेत्ता, संगहेण य थावरे । जो न हिंसइ तिविहेण, तं वयं वूम माहणं ॥४॥ जो त्रस और स्थावर प्राणियो को संक्षेप और विस्तार से भलीभाँति जान कर उसकी मन, वचन और काया से हिंसा नहीं करता, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं। काहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया । मुसं न वयई जो उ, तं वयं वृम माहणं ॥शा जो क्रोध हास्य, लोभ अथवा भय से कभी झूठ नहीं बोलता, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं। चित्तमन्तमचित्त वा, अप्पं वा जइ वा वहुँ । न गिण्हाइ अदत्तं जे, तं वयं वूम माहणं ॥६॥ जो सचित्त अथवा अचित्त, अल्प अथवा अधिक (पदार्थ) स्वामी के द्वारा दिये विना ग्रहण नहीं करता, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं। दिब-माणुस-तेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं । ___ माणसाकाय-बक्केणं, तं वयं वूम माहणं ॥७॥ जो मन-वचन-काया से देव, मनुष्य और तिर्यच ( पशु-पक्षी) के साथ मैथुन सेवन नही करता, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण किसे कहा जाय?] [३४६ जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलित्तं कामेहि, तं वयं वम माहणं ।।८।। जैसे कमल पानी में उत्पन्न होने पर भी पानी से लिप्त नही होता, वैसे ही जो ससार के वासनामय वातावरण मे रहते हुए भी काम-भोगों से लिप्त नही होता, उसको हम ब्राह्मण कहते है। अलोलुयं मुहाजीवि, अणगारं अकिंचणं । असंसत्तं गिहत्थेसु, तं वयं बूम माहणं ॥६॥ जो लोलुपता-विहीन, भिक्षाजीवी, स्वेच्छा से त्याग करनेवाला और अकिंचन हो तथा गृहस्थो मे आसक्ति रखनेवाला नही हो, उसको हम ब्राह्मण कहते है। जहिता पुनसंजोगं, नाइसंगे य बन्धवे । जो न सजइ भोगेसु, तं वयं बूम माहण ॥१०॥ जो ज्ञातिजन और बन्धुजनो का पूर्व सम्बन्ध छोड देने के पश्चात् भोग मे आसक्त न होवे, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं । पसुबंधा सबवेया, जटुंज पावकम्मुणा। न तं तायंति दुस्सील, कम्माणि बलवंति हि ॥११॥ सभी वेद पशुओ के वध-बन्धन के लिए है और यज्ञ पापकर्म का हेतु है। अतः वे वेद अथवा वे यज्ञ ( और वे यज्ञ करनेवाले आचार्य आदि ) दुराचारी का उद्धार नही कर सकते ; क्योकि कर्म अपना फल देने मे अत्यन्त ही बलिष्ठ है ! Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : ३२ : वीर्य और वीरता दुहा चेयं सुक्खायं, वीरियं ति पच्चई | किं नु वीरस्स वीरतं, कहं चेयं पच्चई ॥ १ ॥ [सू० श्रु० १, अ० ८, गा० १] वीर्य दो प्रकार का कहा गया है । ( यह विधान सुनकर मुमुक्षु प्रश्न करता है कि हे पूज्य ! ) वीर पुरुष की वीरता क्या है ? और किस कारण से वह वीर कहलाता है ? (यह कृपा करके बतलाइए ।) कम्ममेगे पवेदेन्ति, अकम्मं वा विल्वया । जहिं दीसन्ति मच्चिया ॥२॥ एहिं दोहि ठाणेहिं [ सू० श्रु० १, अ० ८, गा० २] ( प्रत्युत्तर मे भगवान् कहते हैं ) हे सुव्रती ! कोई कर्म को वीर्य कहते हैं और कोई अकर्म को । मृत्युलोक के सभी प्राणी इन दो भेदो मे विभक्त हैं । विवेचन - वीर्य आत्मा का मूल गुण है, किन्तु इसका स्फुरण जिस अवस्था मे होता है, उसके आधार पर उसके दो भेद कहे गये हैं-सकर्मवीर्य और अकर्मवीर्य । आत्मा कर्मजन्य औदयिक भाव मे रहता हो तब जो वीर्य का स्फुरण होता है वह सकर्म अथवा Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५३. वीर्य और वीरता] बालवीर्य कहलाता है और जब क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक भाव में रहता हो तब जो स्फुरण होता है वह अकर्म अथवा पण्डितवीर्य कहलाता है। मनुष्य मे इन दोनों मे से एक वीर्य का स्फुरण अवश्य होता है। सत्थमेगे तु सिक्खंता, अतिवायाय पाणिणं । एगे मंते अहिज्जंति, पाणभूयविहेडिणो ॥३॥ [सू० श्रु० १, भ० ८, गा० ४] कुछ व्यक्ति शस्त्रविद्या सीख कर प्राणियो की हिंसा करते हैं, तो कुछ व्यक्ति मन्त्रादि बोलकर यज्ञादि अनुष्ठानो मे प्राणियों की विडम्बना करते हैं ( इसे बालवीर्य समझना चाहिये)। माइणो कट्ट माया य, कामभोगे समारमे । हंता छित्ता पगम्भिता, आयसायाणुगामिणो ॥४॥ [सू० श्रु० १, म०८, गा०५] केवल अपने ही सुख का विचार करनेवाले मायावी पुरुष मायाकपट का आधार लेकर काम-भोग के निमित्त असख्य प्राणियों की हिंसा करते हैं और इस तरह वे उनका हनन करनेवाले, छेदन करनेपाले तथा पाछ लगानेवाले बनते हैं। मणमा वयसा चेव, कायसा चेत्र अन्तसो। आरओ परओ वा वि, दुहा वि य असंजया ॥५॥ [स् ध्रुः १, म०८, गा०६] Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्री महावीर-वचनामृत । असयमी पुरुष काया से अशक्त होने पर भी मन, वचन और काया से अपने लिये तथा दूसरों के लिये हिंसा करता है और करवाता है। एयं सकम्मवीरियं, बालाणं तु पवेइयं । इत्तो अकम्म विरियं, पंडियाणं सुणेह मे ॥६।। [सू० अ० १, अ०८, गा०६] इस प्रकार वाल जीवो के सकर्मवीर्य का वर्णन किया। अव पण्डितों के अकर्मवीर्य का वर्णन करता हूं, वह मुझसे सुनो। दनिए बंधणुमुके, सबओ छिन्नबंधणे । घणोल्ल पावकं कम्म, सल्लं कंतइ अन्तसो ॥७॥ [सू० श्रु० १, अ० ८, गा० १०] भव्य पुरुष राग-द्वष के बन्धन से मुक्त होते हैं, कषायरूपी बन्धनों का सर्वथा उच्छेदन कर देते है तथा सभी प्रकार के पापकर्मों से निवृत्त होकर अपनी आत्मा से लगे हुए शल्यों को जड मूल से उखाड डालते हैं। नेयाउयं सुयक्खायं, उवादाय समीहए । भुजो भुञ्जो दुहावासं, असुहत्तं तहा तहा ॥८॥ [सू० श्रु० १, अ० ८, गा० ११] तीर्थङ्करों द्वारा कथित सम्यगदर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी मोक्षमार्ग को गहण कर उसमे पूर्णरूप से पुरुषार्थ को स्फुरित करना चाहिये। (यही पण्डितवीर्य है और इसका परिणाम सुखदायी है, जब कि) बालवीर्य पुनः पुनः दुःखदायी है। वह जैसे-जैसे स्फुरित होता जाता है, वैसे-वैसे दुःख बढता जाता है। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीर्य और वीरता] [३५४ ठाणी विविहठाणाणि, चइस्संति ण संसओ । अणियए अयं वासे, णायएहि सुहीहि य ।।६।। एवमादाय मेहावी, अप्पणी गिद्धिमुद्धरे । आरियं उपसंपज्जे, सव्वधम्ममकोवियं ॥१०॥ [सू० श्रु० १, भ०८, गा० १२-१३ ] यह निर्विवाद सत्य है कि विविध स्थानो मे रहे हुए मनुष्य किसी न किसी समय अपना स्थान अवश्य छोडेगे। जाति और मित्रजनो के साथ का यह निवास अनित्य है। इस तरह का विचार कर पण्डित 'पुरुष आत्मा के ममत्वभाव का छेदन कर देवे तथा सर्व धर्मों से अनिन्द्य ऐसे आर्यधर्म को ग्रहण करे। सह संमइए णचा, धम्मसारं सुणत्तु वा । समुवट्ठिए उ अणगारे, पच्चक्खायपावए ॥११॥ [सू० श्रु० १, भ० ८, उ० ३, गा० १४ ] अपनी बुद्धि से अथवा गुरु आदि के मुख से धर्म का सार जानने के बाद पंडित पुरुष श्रमण बनता है और सर्व पापो का प्रत्याख्यान करता है। अणु माणं च मायं च, तं पडिन्नाय पंडिए । आयतटुं सुआदाय, एवं वीरस्स चीरियं ॥१२॥ [सू० ६०१, ०८, गा० १८] माया और मान का फल हमेशा बुरा होता है-ऐसा मानकर पण्डित पुरुष उसका अणुमात्र भी सेवन न करे। वह आत्मार्थ को अच्छी तरह ग्रहण करे। यही वीर पुरुष की वीरता है। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] [ श्री महावीर वचनामृत अतिकम्मं ति वायाए, मणसा विन पत्थए । आयाणं सुसमाहरे ॥ १३॥ सन्चओ संबुडे दन्ते, [ सू० श्रु १, अ०८, गा० २० ] सच्चा वीर वाणी से और मन से भी किसी प्राणी की हिंसा न करे । वह सर्वथा सयमी बने, अपनी इन्द्रियो को जीते तथा सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग के साधनो को ग्रहण करे । कडं च कजमाणं च, आगमिस्तं च पावगं । सध्वं तं णाणुजाणंति, आयगुत्ता जिइंदिया || १४ || [ सू० श्रु० १, अ० ८, गा० २१] जो पुरुष आत्मगुप्त ओर जितेन्द्रिय हैं, वे किसी के द्वारा किये गये, करते हुए अथवा भविष्य मे किये जानेवाले किसी प्रकार के पाप की अनुमोदना न करे । पण्डिए वीरियं लद्धुं निग्घायाय पवत्तगं धुणे पुल्वकडं कम्मं गवं वाऽवि ण कुव्वती ॥१५॥ [ सू० श्रु० १, भ० १५, गा० २२] पण्डित पुरुष कर्मों का उच्छेदन करने मे समर्थ ऐसे वीर्य को प्राप्त करके नवीन कर्म न करे तथा पूर्वकृत कर्मों का क्षय कर दे । जे अबुद्धा महाभागा, वीरा असम्मत्तदसिणो । असुद्धं तेर्सि परक्कतं, सफलं होड़ सव्वमो ॥१६॥ [ सू० श्रु० १, आ० ८, गा० २२] Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर्य और वीरता] [३५७ सम्यग्दर्शन से रहित और परमार्थ को नहीं समझनेवाले ऐसे विश्रुत-यशस्वी वीर पुरुषो का पराक्रम अशुद्ध है । वे सभी तरह से ससार की वृद्धि करने में सफल होते हैं। साराश यह कि उनसे ससार अधिक बढ़ जाता है। ज य बुद्धा महाभागा, वीरा सम्मत्तदंसिणो। मुद्धं तेसिं परक्कंतं, अफलं होइ सव्वसो ॥१७॥ [सू० १ ० १, अ० ८, गा० २३ } सम्यग्दर्शनवाले और परमार्थ के ज्ञाता ऐसे विश्रुत यशवाले वीर पुरुषों का पराक्रम शुद्ध है। वे ससार की वृद्धि मे सर्वथा निष्फल होते हैं । साराश यह कि किसी भी तरह उनके ससार की वृद्धि नही होती। कुजए अपराजिए जहा, अक्खेहिं कुसलेहिं दीवयं । कडमेव गहाय नो कलिं, नो तीयं नो चेव दावरं ॥१८॥ एवं लोगम्मि ताइणा, बुइए जे धम्मे अणुत्तरे । तं गिह हियंति उत्तम, कडमिव सेसऽवहोय पण्डिए ॥१६॥ [सू० श्रु० १, भ० २, उ० २, गा० २३-२४ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ] [ श्री महावीर वचनामृत · जुए मे कुल जुआरी खेलते समय जैसे 'कृत' नामवाले पासे को ही ग्रहण करता है, किन्तु 'कलि' 'त्रेता' अथवा 'द्वापर' को ग्रहण नही करता और अपराजित रहता है, वैसे ही पण्डित पुरुष भी इस लोक में जगत्त्राता सर्वज्ञों ने जो उत्तम और अनुत्तर धर्म कहा है, उसको ही अपने हित के लिए ग्रहण करे । शेष सभी धर्मों को वह इस प्रकार छोड दे, जिस तरह कुशल जुआरी 'कृत' के अतिरिक्त अन्य सभी पासो को छोड़ देता है । झाणजोगं ? समाहट्टु, कार्य विउसेज्ज तितिक्खं परमं नच्चा, मव्वसो | आमोक्खाए परिव्वज्जासि ||२०|| [ सू० श्रु० १, अ०८, गा० २६] ग्रहण करे, देह - भावना का सर्वया विसर्जन करे, तितिक्षा को उत्तम समझे और शरीर के अन्त तक संयम पण्डित पुरुष ध्यानयोग को का पालन करता रहे । -:०: Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : २३: सम्यक्त्व निस्सग्गुवएसरुई, आणारुई सुत्तबीअरुइमव । अभिगम-वित्थाररुई, किरिया-संखेव-धम्मरुई ॥१॥ [उत्त० अ० २८, गा० १९] (१) किसी को स्वाभाविक रूप से ही तत्त्व के प्रति रुचि होने से, (२) किसी को उपदेश श्रवण करने से, (३) किसी को भगवान् की ऐसी आज्ञा है ऐसा ज्ञात होने से, (४) किसी को सूत्र सुनने से, (५) किसी को एक शब्द सुनकर उसका विस्तार करनेवाली बुद्धि से, (६) किसी को विशिष्ट ज्ञान होने से, (७) किसी को विस्तार पूर्वक अर्थ श्रवण करने से, (८) किसी को सक्रियाओं के प्रति रुचि होने से, (९) किसी को सक्षेप मे रहस्य ज्ञात हो जाने से तो (१०) किसी को धर्म के प्रति अभिरुचि होने से, यो दस प्रकार से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। विवेचन-सम्यक्त्व का सामान्य परिचय आठवी धारा में दिया है। यहां उसका विशेष परिचय दिया गया है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' ३६० ] [ श्री महावीर वचनामृत निस्संकिय-निक्कंखिय- निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । वच्छल - पभावणे अट्ठ ||२|| उववूह - थिरीकरणे, [ उत्त० अ० २८, गा० ३१] सम्यक्त्व के आठ अङ्ग इस प्रकार समझने चाहिये :(१) निःशङ्कित, (२) निःकाक्षित, (३) निर्विचिकित्स्य, (४) अमूददृष्टि, (५) उपबृंहणा, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य, ओर (८) प्रभावना । विवेचन - (१) जिनवचन मे शङ्का नही रखना, यह निःशङ्कित, (२) जिनमत के बिना अन्य मत को आकांक्षा नही करना, यह निःकाक्षित, (३) धर्म-कर्म के फल मे सन्देह नही रखना, यह निर्विचिकित्स्य, (४) अन्य मतवालों के दिखावे मे न आना, यह अमूढदृष्टि, (५) सम्यक्त्ववारी को उत्तेजन देना, यह उपबृहणा, - (६) कोई सम्यक्त्व से विचलित होता हो तो उसे स्थिर करना, यह स्थिरीकरण, (७) साधर्मिक के प्रति वात्सल्य दिखाना अर्थात् उसको प्रत्येक प्रकार से भक्ति करना, यह साधर्मिक वात्सल्य और (८) जिनशासन की प्रभावना हो अर्थात् लोगों में उसका प्रभाव बढे, ऐसे कर्म करना यह प्रभावना । मिच्छादंसणरत्ता, सनियाणा हु हिंसगा | इय जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुलहा बोही ||३|| [ उत्त० अ० ३६, गा० २५८ ] जो जीव मिथ्यादर्शन मे अनुरक्त है, सासारिक फल की अपेक्षा हुए धर्मकर्म मे प्रवृत्त होते है तथा हिंसक हैं, वे इन्हीं भावनाओं रखते Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व] [३६१ मे मरने पर दुर्लभबोधि होते है, अर्थात् उन्हें सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति -शीघ्र नही होती। इओ विद्धंसमाणस्स, पुणो संबोहि दुल्लहा । दुल्लहाओ तहच्चाओ, जे धम्मटुं वियागरे ॥४॥ [सू० अ०१, अ० १५, गा० १८] जो जीव सम्यक्त्व से भ्रष्ट होकर मरता है, उसे पुनः धर्मबोधि प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। साथ ही सम्यक्त्वप्राप्ति के योग्य अन्तःकरण के परिणाम होना अथवा धर्माचरण की वृत्ति होना भी कठिन है। कुप्पवयणपासंडी, सव्वे उम्मग्गपट्टिआ। सम्मग्गं तु जिणक्खायं, एम मग्गे हि उत्तम ॥५॥ [उत्त० अ० २३, गा० ६३ ] कुप्रवचन को माननेवाले सभी लोग उन्मार्ग मे स्थित हैं । सन्मार्ग तो जिन-भाषित है और यही उत्तम मार्ग है। सम्मदंसणरत्ता, अनियाणा सुक्कलेसमोगाटा। इय जे मरंति जीवा, तेसिं सुलहा भवे वोही ॥६॥ [ उत्त० अ० ३६, गा० २५६]. जो जीव सम्यग्दर्शन मे अनुरक्त हैं, सासारिक फल की अपेक्षा किये बिना धर्म कर्म करनेवाले हैं तथा शुक्ल लेश्या से युक्त हैं, वे -जीव उसी भावना में मरकर परलोक मे सुलभबोधि होते हैं अर्थात उन्हे सम्यग्दर्शनादि को प्राप्ति शीघ्र होती है। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] [श्री महावीर वचनास्त नाई च बुद्धिं च इहज्ज पास, भूएहिं जाणे पडिलेह सायं। । तम्हाऽतिविज्जे परमं ति णच्चा, सम्मत्तदंसी ण करेइ पावं |||| [आ० अ०३, 3० २] हे मानव ! इस संसार में जन्म और जरा की जो दो महान् दुःख है, उन्हे तू देख और सभी जीवों को सुख प्रिय लगता है और दुःख लप्रिय लगता है, इस गत को गहराई से समझ । उपर्युक्त वात का ज्ञान होने से ही ज्ञानी पुरुष सम्यक्त्वधारी बनकर हिंसादि पाप नही करते है। जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणंजे करति भावेणं। अमला असंकिलिट्ठा, ते हॉति परित्तसंसारी ॥८॥ [उत्त० २०३६, गा०२६०] जो जिनवचन में श्रद्धान्वित है, जो जिनवचन मे कही गई क्रियाएं भाव पूर्वक करते है, जो मिथ्यात्व आदि मल से दूर है तथा जो रागद्वेषयुक्त तीन भाव धारण नहीं करते, वे मर्यादित ससारवाले बनते हैं, अर्थात् उसका भवभ्रमण का प्रमाण अल्प हो जाता है। धम्मसद्धाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? धम्मसद्धाएणं सायासोक्खेसु रज्जमाण विरज्जइ ॥६॥ [उच० अ० २६ , गा०३}. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व [३६३ प्रश्न-हे भगवन् ! धर्मश्रद्धा से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर-हे शिष्य ! धर्मश्रद्धा से शाता-सुख मे अनुराग करता ढ़ा यह जीव वैराग्य को प्राप्त कर लेता है। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा :३४: पडावश्यक अनुयोगद्वार-मूत्र मे व्हा है:नावस्सय अवस्सकरणिज्ज, धुव-निग्नहो विसोही अ। अज्मयणठवगो, नाओ नाराह णा मन्गो ।। आवश्यक, अवश्यकरणीय, व, निग्रह, विशोषि, अव्ययनषड्वर्ग, न्याय, आरावना और मार्ग ये पर्यायशब्द है। आवश्यक के अर्य के सम्बन्ध मे उसमे कहा है कि:समणेण सावरण य, अवस्त-वायव्य हवइ जन्हा। अन्तो नहो-निसस्स य, तम्हा भावत्सय नाम ।। जो दिन और रात्रि के अन्तिम भाग में भ्रमण तथा श्रावकों द्वारा अवश्य करने योग्य है, इसलिये वह आवश्यक पहलाता है। वर्तमान में इस क्रिया को प्रतिक्रमग मद में पहचानने का प्रचलन है। दिन के अन्तिम भाग में जो प्रतिक्रमग गिया जाय यह देवनिक (देवन्धि ) प्रतिक्रमण और गमि के अन्तमान में किया जाय वह गरिर (ग) प्रतिमा कहलाता है। इन अनि. fDRE Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडावश्यक ] [ ३६८ रिक्त पक्ष के अन्त में, चातुर्मास के अन्त मे और सवत्सर के अन्त में भी प्रतिक्रमण की क्रिया की जाती है, उसे क्रमशः पाक्षिक-प्रति-क्रमण, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण और सावत्सरिक प्रतिक्रमण कहा जाता है । आवश्यक क्रिया के सम्बन्ध मे अधिक स्पष्टीकरण करते हुए उसमे बताया गया है कि : 'आवस्सयस्स एसो पिडत्यो वण्णिओ समासेण । एतो एक्केक पुण, अज्झयण कित्तइस्सामि || तं जहा -- (१) सामाइयं, (२) चउवीसत्यओ, (३) वदणय, (४) पडिक्क्रमण, (५) काउस्सग्गो, (६) पच्चक्खाण | आवश्यक का यह समुदायार्थ सक्षेप में कहा है । अब उसमे से एक-एक अध्ययन का मैं वर्णन करूंगा, जो इस प्रकार है (१) सामायिक, (२) चतुर्विंशति- स्तव, (३) वन्दनक, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान । तात्पर्य यह है कि आवश्यक क्रियाएं छः प्रकार की है, जिनमे से प्रत्येक का नाम इस प्रकार समझना चाहिये । सामाइएणं भंते! जीवे किं जणयड़ ? सामाइएणं सावज्जजोगविरहं जणय || १ || [ उत्त० अ० २६, गा० ८ ] प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर - हे शिष्य ! सामायिक से जीव सावद्ययोग की निवृत्ति का उपार्जन करता है । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६] [श्री महावीर-वचनामृत विवेचन सावद्ययोग अर्यात पापकारी प्रवृत्ति। उसकी निवृत्ति अयांत् उससे विराम पा लेना। तात्पर्य यह है कि कोई भी जीव सामायिक को क्रिया अंगीकार करता है, तब मैं मन-वचन-काया से कोई पाप नहीं करूंगा अथवा दूसरे से नहीं कराऊंगा' ऐसी प्रतिज्ञा लेता है और तदनुसार सामायिक के बीच कोई भी पापकारी प्रवृत्ति नहीं करता है। उस समय यह धर्मध्यानादि शुभ प्रवृत्ति ही करता है। एक सामायिक की अववि दो घडी अर्यात अतालिस मिनट की होती है। चवीसत्यएणं भंते ! जीवे किं जणयड ? चउवीसत्यएणं दंसणविसीहिं जणयह ॥२॥ [टच न. २६, गा०६] प्रश्न-हे भगवन् ! चतुर्विंशति-स्तव से जीव क्या उपार्जन करता है ? __ उत्तर-हे शिष्य ! ऋतुविंगति-स्तव से जीव दर्शन-विशुद्धि का पार्जन करता है। विवेचन-निविद्धि अर्यात् नम्यक्त्व की निर्मलता । तात्पर्य यह है कि चौबीस तीर्यकरों के गुणों का सइभत कीर्तन-मजन करने से सम्यक्त्व मे रहो हुई अशुद्धि दूर हो जाती है और देव-गुन-धर्मके प्रति श्रद्धा दृढ होतो है। अन्य लवन, स्तुति तथा स्तोत्र आदि में श्रीजिनेश्वर देव की जो भक्ति की जाती है उसका फल भो यह समन्ना चाहिये। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहावश्यक] [३६७ वंदणएणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? वंदणएणं नीयागोयं कम्मं खवेइ, उच्चागोयं कम्मं निबंधइ । सोहग्गं च णं अपडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ । दाहिणभावं च णं जणयइ ॥३॥ [उत्त० अ० २६, गा० १०] प्रश्न-हे भगवन् ! वन्दनक से जीव क्या उपार्जन करता है ? - उत्तर-हे शिष्य ! वन्दनक से जीव नीचगोत्रकर्म का क्षय कर उच्चगोत्र के लिए कर्म बांधता है। साथ ही वह अप्रतिहत सौभाग्य और उच्च अधिकार प्राप्त कर विश्ववल्लभ बनता है। विवेचन-गुरु को विधिपूर्वक वन्दन करना यह वन्दनक नाम का तीसरा आवश्यक है। गुरु के प्रति विनय किये 'बिना अथवा उनके प्रति अत्यन्त आदर-सम्मान की भावना रखे बिना आध्यात्मिक प्रसाद प्राप्त नही होता। उन्हे प्रतिदिन प्रात और साय विधिपूर्वक वन्दन करने से, ऊपर दिखलाये है वैसे लाभ प्राप्त होते है। पडिक्कमणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? पडिक्कमणणं वयछिदाणि पिहेइ । पिहिय-चयछिद्द पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरित्ते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिये विहरइ ॥४॥ [उत्त० अ० २९, गा० ११ ] प्रश्न-हे भगवन् ! प्रतिक्रमण से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर-हे शिष्य ! प्रतिक्रमण से जीव व्रतों के छिद्रो को ढंकता Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८) [ श्री महावीर-वचनामृत है और इस तरह व्रतो के छिद्रो को ढंकने से वह जीव आस्रव रोकनेवाला होता है। साथ ही शुद्ध चारित्रवान् और अटप्रवचन-माता के प्रति उपयोगवाला बनता है तथा समाधिपूर्वक संयममार्ग मे विचरण करता है। विवेचन-अज्ञान, मोह अथवा प्रमादवश अपने मूल स्वभाव से दूर गए किसी जीव का अपने मूलस्वभाव की ओर पुनः लौटने की प्रवृत्ति प्रतिक्रमण कहलाती है। यह एक प्रकार की आत्मनिरीक्षण अथवा आत्मशोचन की क्रिया है। क्योकि इस क्रिया मे आत्मा द्वारा की गई प्रत्येक प्रवृत्ति का सूक्ष्म निरीक्षण कर उसकी त्रुटियाँ ढूंढ निकालने का लक्ष्य होता है और उसके लिये पाप-जुगुप्सापूर्वक पश्चात्ताप किया जाता है। जो त्रुटियाँ निरे पश्चात्ताप से सुधरे ऐसी न हों उनके लिये प्रायश्चित्त ग्रहण किया जाता है। जैसे घर को प्रतिदिन शुद्ध-स्वच्छ रखने से वह रहने योग्य बनता है, वैसे ही आत्मा को प्रतिदिन शुद्ध-स्वच्छ करने से व्रतो की आराधना वरावर होती है और उससे चारित्र उत्तम प्रकार का बनता है। __ काउस्सग्गेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? काउस्सग्गेणं तीयपडुपन्नं पायच्छित्तं विसोहेइ। विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे नियहियए ओहरियभरु ध्व भारवहे पसत्थझाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ ।।शा [उत्त० अ० २६, गा० १२] प्रश्न-हे भगवन् ! कायोत्सर्ग से जीव क्या उपार्जन करता है। उत्तर-हे शिष्य ! कायोत्सर्ग से जीव अतीत और वर्तमान Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढावश्यक ] [ ३६६ काल के अतिचारो की शुद्धि करता है । प्रायश्चित्त से शुद्ध बना हुआ जीव ऐसे निवृत्त हृदयवाला हो जाता है जैसा कि सिर से बोझा उतर जाने पर कोई भारवाहक । इस प्रकार निवृत्त हृदयवाला बनकर वह प्रशस्त ध्यान को प्राप्त करता हुआ सुखपूर्वक विचरण करता है । विवेचन - काया का उत्सर्ग करना अर्थात् देहभावना का त्याग करके आत्मनिरीक्षण अथवा आत्मचिन्तन मे लीन हो जाना । इसमे एक ही आसन पर मोनपूर्वक स्थिरता से रहा जाता है । पच्चक्खाणं भन्ते ! जीवे पच्चक्खाणेणं आसवदाराईं निरंभड़ । इच्छानिरोहं जणय । इच्छानिरोहं गए य णं जीवे सन्वदव्वे विणीयतहे सीइए विहरइ ) || ६ || किं जणयइ १ ( पच्चक्खाणेणं [ उत्त० अ० २६, गा० १३ ] प्रश्न - हे भगवन् ! प्रत्याख्यान से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर - हे शिप्य ! प्रत्याख्यान से जीव आस्रव द्वारो को रोक रोता है । (तथा प्रत्याख्यान से जीव इच्छाओ का निरोध करता है । फिर इच्छानिरोध को प्राप्त हुआ जीव सर्व द्रव्यो मे तृष्णारहित हो परम शान्ति मे विचरता है | ) " -::-- Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा . ३५: भावना तहिं तहिं सुयक्खाय, से य सच्चे सुआहिए । सया सच्चेण संपन्ने, मेत्तिं भृएहिं कप्पए ॥१॥ भूएहिं न विरुज्झेजा, एस धम्मे वुसीमओ। बुसिमं जगं परिन्नाय, अस्सिं जीवितभावणा ॥२॥ भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । नावा च तीरसंपन्ना, सबदुक्खा तिउट्टा ॥३॥ [सू० श्रु. १, अ० १५, गा० ३ से ५] वोतराग महापुरुषों ने जो-जो भाव कहे हैं, वे वास्तव मे यथार्थ हैं। जिसका अन्तरात्मा मदा सत्य भावो से पूर्ण है, वह सर्व जीवो के प्रति मंत्री-भाव रखता है। किसी भी प्राणी के साथ वैर-विरोव नहीं करना, यह इन्द्रियों को वश करनेवाला सयमी पुरुष का धर्म है। ऐसा मयमो पुरुप जगत् का स्वरूप अच्छी तरह समझ ले और धर्म मे-धर्मवृद्धि के लिये जीवन का उत्कर्ष सावनेवाली सद्भावनाओ का सेवन करे। भावना-योग से शुद्ध हुई आत्मा जल पर नौका के समान ससार मे तैरती है। जिस तरह अनुकूल पवन का महारा मिलने से Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना] [३७१ नौका पार पहुंचती है, उसी तरह ऐसी आत्मा संसार के पार पहुंचती है और वहाँ उसके सर्व दुःखो का अन्त होता है। से हु चक्खु मणुस्साणं, जे कंखाए य अंतए । अन्तेण खुरो वहई, चकं अन्तेण लोहई ।।४।। अन्ताणि धीरा सेवन्ति, तेण अन्तकरा इह ॥५॥ [सू० श्रु० १, अ० १५, गा० १४-१५ ] जो मनुष्य ( भावना-बल से ) भोगेच्छा का-वासना का अन्त करता है, वह अन्य मनुष्यो के लिए चक्षुरूप होता है, अर्थात् मार्गदृष्टा बनता है। उस्तरा अपने अन्त भाग पर अर्थात् धार पर चलता है। गाड़ी का पहिया भी अपने अन्त भाग पर अर्थात् धार पर चलता है। वैसे ही महापुरुषों का जीवन अन्तिम सत्यों पर चलता है और ससार का अन्त करनेवाला होता है। जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जन्तवो ॥६॥ [उत्त० भ० १६, गा० १५] जन्म दुःख है, जरा भी दुःख है, रोग और मृत्यु आदि भी दुःख है । अहो ! यह समस्त संसार दुःखमय है, जिसमे प्राणी वहुत क्लेश पा रहे हैं। इमं सरीरं अणिच्चं, असुई असुइसंभवं , असासयावासमिणं, दुक्खकेसाण भायणं ॥७॥ [उत्त० अ० १६, गा० १२] Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२] [ श्री महावीर वचनामृत यह शरीर अनित्य है, अपवित्र है, और अशुचि से इसकी उत्पत्ति है । एव यह शरीर दुःख और क्लेशो का भाजन है तथा इसमें जीव का निवास भी अगाश्वत है । गब्भाड़ मिज्जंति बुयावुयाणा, परा परे पंचसिहा कुमारा । जुवाणगा मज्झिम - थेरगा य, पलीणा ||८|| चयंति ते आउक्लए [ सू० ध्रु० १, अ० ७, ना० १० ] कितने जीव गर्भावस्था मे कितने जीव दूध पीते बच्चों की अवस्था में, तो कितनेक जीव पचगिख कुमारो की अवस्था मे मरण को प्राप्त होते हैं । फिर कितने युवा, प्रोढ ( अवेड़ ) और वृद्ध होकर मरते हैं । इस तरह आयुष्य-क्षय होने पर मनुष्य हरेक हालत मे अपना देह छोड देता है | दाराणिय सुया चेव, मित्ता य तह बन्धवा | जीवन्तमणुजीवन्ति, मयं नाणुव्वयन्ति य ॥६॥ [ उत्त० भ० १८, गा= १४ ] स्त्रियां, पुत्र, मित्र, और वान्चव सर्व जीनेवाले के साथ ही जीते हैं अर्थात् उसके उपार्जन किये हुए धन से अपना जीवन-निर्वाह करते हैं, किन्तु मरे हुए के साथ कोई भी नही जाता । तं एकगं तुच्छसरीरगं से, चिईगयं दहिय उ पावगेणं । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाववा] [ ३७३ भजा य पुत्तो वि य नायओ वा, दायारमन्नं अणुसंकमन्ति ॥१०॥ [उत्त० अ० १३, गा० २५ ] जीव-रहित इस तुच्छ शरीर को चिता मे रख कर अग्नि के द्वारा जलाया जाता है। फिर उसकी भार्या, पुत्र तथा ज्ञातिजन अन्य दातार के पीछे चल पडते है। न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, नमित्तवग्गा नसुया न वन्धवा । एक्को सयं पञ्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं ॥११॥ [उत्त० अ० १३, गा० २३ ] उसके दुःख का ज्ञातिजन विभाग नही कर सकते तथा न मित्रवर्ग, न पुत्र और न ही भ्राता आदि कुछ कर सकते है, किन्तु वह अकेला स्वयमेव उस दुःख का अनुभव करता है, क्योकि कर्ता के पीछे ही कर्म जाता है। नीहरन्ति मयं पुत्ता, पियरं परमदुक्खिया । पियरो वि तहा पुत्ते, बन्धू रायं तवं चरे ॥१२॥ [ उत्त० अ० १८, गा० १५] हे राजन् ! पुत्रो परम दुखी होकर मरे हुए पिता को घर से बाहर निकाल देते है, इसी प्रकार मरे हुए पुत्र को पिता तथा भाई को भाई निकाल देता है। अतः तू तप का आचरण कर। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४] [श्री महावीर-वचनामृत अब्भागभियम्मि वा दुहे, ___ अहवा उक्कमिए भवन्तिए। एगस्स गई य आगई, विदुमन्ता सरणं न मन्नई ॥१३॥ [सू० ध्रु० १, अ० २, उ० ३, गा० १७ ] दुःख आने से अकेला ही भोगना पड़ता है अथवा आयुष्य क्षीण होने से भवान्तर मे अकेला ही जाना-आना होता है। इसलिये विवेकी पुरुष स्वजन-सम्बन्धी वर्ग को शरण-रूप नही समझता है। चिचा दुपयं चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धणधन्नं च सन्वं । सकम्मबीओ अवसो पयाइ, परं भवं संदरपावगं च ॥१४॥ [उत्त० अ० १३, गा० २४] यह जीव द्विपद, चतुप्पद, क्षेत्र, घर, धन-धान्य और सर्व वस्तु को छोड़ कर तथा दूसरे कर्म को साथ लेकर पराधीन अवस्था मे परलोक के प्रति प्रयाण करता है और वही कर्म के अनुसार अच्छी या वुरी गति को प्राप्त करता है। माया पिया एहसा भाया, भजा पुत्ता य ओरसा। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना ] नालं ते मम ताणाए, लुप्पंतस्स [ ३७ सकम्मुणा ॥ १५॥ [ उत्त० भ० ६, गा० ३] अपने कर्मों के अनुसार दुःख भोगने के समय माता, पिता, स्नुषा (पुत्र-वधू), भार्या तथा अपने अग से उत्पन्न हुआ पुत्र- ये सब मेरी रक्षा करने में समर्थ नही हो सकते । अर्थात् कर्मफल के भोग मे ये बिल्कुल हस्तक्षेप नही कर सकते । सव्वं जगं जइ तुहं, सव्वं वावि धणं भवे । सव्वं पि ते अपज्जत्तं, नेव ताणाय तं तव ॥ १६॥ [ उत्त० अ० १४, गा० ३६ ] यदि यह सारा जगत् तेरा हो जाय, सारे घनादि पदार्थ भी तेरे पास हो जायं, तो भी ये सर्व अपर्याप्त ही है । वे सर्व पदार्थ मरणादि कष्ट के समय तेरी किसी प्रकार की रक्षा करने में समर्थ नही हैं । य, गाइओ य परिग्गहं । चिच्च वित्तं च पुत्ते चिच्चा ण अंतगं सोयं निरवेक्खो परिव्वए ||१७|| " [ सू० ० १, अ० ६, गा० ७ ] विवेकी पुरुष धन, पुत्र, ज्ञातिजन, परिग्रह और आन्तरिक विषाद को छोड निरपेक्ष बने तथा सयमादि अनुष्ठान करे । बन्धप्प मुक्खो अज्झत्थेव ॥ १८ ॥ [ आ० भ०५, ३०२ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६] [श्री महावीर-वचनामृत "बन्धन से मुक्त होना" यह कार्य अपनी आत्मा से ही होता है । एगभूओ अरण्णे वा, जहा उ चरई मिगो। एवं धम्मं चरिस्सामि, संजमेण तवेण य ॥१६॥ [उत्त० अ० १६, गा० ७८] (विरक्त मनुष्य को ऐसी भावना होनी चाहिये कि ) जैसे मृग अरण्य मे अकेला ही विचरता है, उसी प्रकार मैं भी चारित्ररूप वन मे सयम और तप के साथ धर्म का पालन करता हुआ एव आत्मा को अकेली मानता हुआ विचरण करूंगा। तं मा णं तुम्भे देवाणुप्पिया, माणुस्सएसु कामभोगेसु । सजह रज्जह गिज्झह, मुज्झह अज्झोववज्जह ॥२०॥ [ज्ञा० अ०८] इसलिये हे देवानुप्रिय ! तू मानुषिक कामभोगो मे आसक्त न बन, रागी न बन, गृद्ध न बन, मूच्छित न वन और अप्राप्त भोग प्राप्त करने की लालसा भी न कर । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा: ३६: लेश्या किण्हा नीला प काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य । सुकलेसा य छट्ठा य, नामाइं तु जहकमं ॥१॥ [उत्त० अ० ३४, गा०३] छओ लेश्याओ के नाम अनुक्रम से इस प्रकार है-(१) कृष्णलेश्या, {२) नीललेश्या, (३) कापोतलेश्या, (४) तेजोलेश्या, (५) पद्मलेश्या और (६) शुक्ललेश्या। विवेचन-आत्मा का सहज रूप स्फटिक के समान निर्मल है। किन्तु कृष्ण आदि रगवाले पुद्गलो के सम्वन्च से उस का जो परिणाम होता है, उसको लेश्या कही जाती है। ये लेश्याये कर्मों की स्थिति का कारण है [ कर्मस्थितिहेतवो लेश्याः]। तेरहवे गुणस्थानक तक इन लेश्याओ का सद्भाव रहता है, और जिस समय यह आत्मा अयोगी बनती है, अर्थात चौदवे गुणस्थान को प्राप्त करती हैं, उसी समय वह लेश्याओ से रहित हो जाती है। जीमूयनिद्धसंकासा, गवलरिट्ठगसन्निभा। खंजांजणनयणनिभा, किण्हलेसा उ वण्णओ ॥२॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] [ श्री महावीर वचनामृत चासपिच्छसमप्पभा । नीलासोगसंकासा, वेरुलियनिभसंकासा, नीललेसा उ वण्णओ ॥३॥ अयसी पुप्फसंकासा, कोईलच्छदसन्निभा । पारेवयगीवनिभा, काऊलेसा उ वण्णओ ॥४॥ हिंगुलधाउसंकासा, तरुणाइचसन्निभा | सुयतुंडपईव निभा, तेओलेसा उ वण्णओ ||५|| हरियाल भेयसंकासा, हलिद्दा भेयसमप्पभा | सणासणकुसुमनिभा, पम्हलेसा उ वण्णओ ||६॥ संखंककुंदसं कासा, रययहारसंकासा, खीरपूरसमप्पभा । सुक्कलेसा उ चण्णओ ॥७॥ [ उत्त० अ० ३४, गा० ४ से ९] कृष्णलेग्या का वर्ण जलयुक्त मेघ, महिप का शृंग, काक पक्षी, अरीठा, शकट की कीट, काजल और नेत्रतारा के समान कृष्ण होता है । नील्लेश्या का वर्ण नील अशोक वृक्ष, चास पक्षी की पल और स्निग्ध वैडूर्यमणि के समान नील होता है । कापोतलेश्या का वर्ण अलमी के पुष्प, कोयल के पर और कबूतर की ग्रीवा ( गर्दन) के समान कत्यई ( किंचित् कृष्ण और किंचित् रक्त ) होता है । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेग्या ] [ ३७६ तेजोलेश्या का वर्ण हिगुल धातु, तरुण सूर्य, तोते की चोच और दीपशिखा के रंग समान रक्त होता है । पद्मलेश्या का वर्ण हरिताल, हल्दी के टुकडे तथा सण और असन के पुष्प समान पीला होता है । शुक्ललेश्या का वर्ण गख, अकरल, मुचकुन्द पुष्प, दुग्धवारा तथा रजत के हार के समान उज्ज्वल- श्वेत होता है । जह कडुयतुं वगरसो, निंबरसो कडुयरोहिणिरसो वा । एत्तो वि अनंतगुणो, रसोय किन्हाए नायची ||८|| जह तिगइयस्स यरमो, तिक्खो जह हत्थिपिप्पलीए वा । एत्तो वि अनंतगुणी, रसोउ नीलाए नायची ॥६॥ जह तरुण अवगरसो, तुवरकविस्य वावि जारिओ । एत्तो वि अनंतगुणी, रसोउ काऊए नाय ॥१०॥ जह परिणयंचगरसो, पक्कवि वावि जानिओ । एता व अनंतगुणो. सोनावनी ||११|| वरवारुणीए चरम, विविताण व आसान जागी। मरनेर व रस. एनी पहा ॥१२॥ प ं सज्जग्मुरियो, सीम एच पि अनगुण सोना 3T I ܀ ܝ : ؟ ܕ 1 ܕ ܥ ܕ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८०] [श्री महावीर-वचनामृत जितना कटु रस कोडे तूवे, निम्ब और कटुरोहिणी का होता है, उससे भी अनन्तगुण अधिक कटु रस कृष्णलेश्या का होता है। नीललेश्या के रस को मघ, मिर्च और सोंठ तथा गजपीपल के रस से भी अनन्तगण तीक्ष्ण समझना चाहिये। कापोतलेश्या के रस को कच्चे आम के रस, तुवर और कैथ के रस से भी अनन्तगुण खट्टा समझना चाहिये। तेजोलेश्या के रस को पके हुए आम्रफल अथवा पके हुए कैथ के रस से भी अनन्तगुण खट्टा-मीठा समझना चाहिये। पद्मलेश्या के रस को प्रधान मदिरा, नाना प्रकार के आसव तथा मधु और मैरेयक नाम की मदिरा से भी अनन्तगुण मधुर समझना चाहिये। शुक्ललेश्या के रस को खजूर, दाख, दूध, खाँड और शक्कर के रस से भी अनन्तगुण मोठा समझना चाहिये। जह गोमडस्स गंवो, सुणगमडस्स व जहा अहिमडस्स । एत्तो वि अर्णतगुणो, लेसाणं अप्पसत्याणं ॥१४॥ जह सुरहिकुसुमगंधो, गंधवासाण पिस्समाणाणं ।। एत्तो वि अणंतगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि ॥१॥ [उत्त० अ० ३४, गा० १६-१७] जैसी खराव गन्च मृतक गौ, अथवा मरे हुए कुत्ते की, अथवा मरे हुए सर्प को होती है, उससे भी अनन्तगुण अधिक खराव गन्ध अप्रशस्त लेश्याओं की होती है। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेग्या] [३८१ जैसी सुन्दर गन्ध केवडा आदि सुगन्धित पुष्पो की अथवा सुगन्धयुक्त पिसे हुए चन्दनादि पदार्थों की होती है, उससे भी अनन्तगुण. अधिक सुन्दर गन्ध तीनो प्रशस्त लेश्याओ की होती है। जह करगयस्स फासो, गोजिमाए य सागपत्ताणं । एत्तो वि अणंतगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाणं ॥१६॥ जह बूरस्स न फासो, नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं । एत्तो वि अणंतगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि॥१७॥ [उत्त० भ० ३४, गा० १८-१६ ] __ जैसा कर्कश स्पर्ण आरा, गाय की जीभ और सागौन के पत्तो का होता है, उनसे अनन्त गुण अधिक कर्कश स्पर्श अप्रशस्त लेश्याओ का होता है। जैसा कोमल स्पर्श बूर ( वनस्पतिविशेष ), मक्खन और सिरस के पुष्पो का होता है, उनसे अनन्त गुण अधिक कोमल स्पर्श तीनो प्रशस्त लेश्याओ का होता है। पंचासवप्पवत्तो, तीहिं अगुत्तो छसुं अविरयो य । तिवारंभपरिणओ, खुद्दो साहसिओ नरो ॥१८॥ निद्धंसपरिणामो, निस्संसो अजिइंदियो। एयजोगसमाउत्तो, किण्हलेसं तु परिणमे ॥१६॥ [उत्त० अ० ३४, गा० २१-२२ ] पाँचों आस्रवो मे प्रवृत्त, तीनो गुप्तिओ से अगुप्त, पड्काय की हिंसा मे आसक्त, उत्कट भावो से हिंसा करनेवाला, क्षुद्रबुद्धि, बिना Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२] [श्री महावीर-वननामृत विचारे काम करनेवाला, निर्दयी, पाप कृत्यों मे शंकारहित, अजितेन्द्रिय और इन क्रियाओं से युक्त जो पुरुष है वह कृष्णलेश्या के भावों से परिणत होता है, अर्थात् वह कृष्णलेश्यावाला होता है। इस्सा अमरिस अतवो, अविजमाया अहीरिया । गेही पओसे य सढे, रसलोलुए सायगवेसए ॥२०॥ आरंभाओ अविरओ, खुद्दो साहसिओ नरो । एयजोगसमाउत्तो, नीललेसं तु परिणसे ॥२१॥ [उत्त० न० ३४, गा० २३-२४] नीललेश्या के परिणामवाला पुरुप ईर्पालु, कदाग्रही, अतपस्वी, अज्ञानी, मायावी, निर्लज्ज, विषय-लम्पट, द्वपी, रसलोलुपी, गठ { धूर्त ), प्रमादी, स्वार्थी, आरम्भी, क्षुद्र और साहसी होता है। बके चकसमायारे, नियडिल्ले अणुज्जुए । पलिउंचगओवहिए, मिच्छदिडी अणारिए ॥२२॥ उप्फालगदुलवाई य, तेणे यावि य मच्छरी । एयजोगसमाउत्तो, काऊलेसं तु परिणमे ॥२३॥ [उत्त० स० ३४, गा० २५ २६ ] जो पुरुप वक्र बोलता है, वन आचरण करता है, छल करनेवाला है, निजी दोपों को छिपाता है, सरलता से रहित है, मिथ्याष्टि तथा अनार्य है, इसी प्रकार दूसरों के मर्मों का भेदन करनेवाला, दुष्ट वोलनेवाला, चोरी और असूया करनेवाला है ; वह कापोतलेल्या मे युक्त होता है। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐश्या ] [ ३८२ नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले | विणीयविणए दंते, जोगवं उवहाणवं ॥२४॥ पियधम्मे दढधम्मेऽवजभीरू हिएसए | एयजोगसमाउत्तो, तेओलेसं तु परिणमे ||२५|| [ उत्त० अ० ३४, गा० २७-२८] नम्रता का वर्ताव करनेवाला, चपलता से रहित, अमायी, अकुतूहली, परम् विनयवान्, इन्द्रियो का दमन करनेवाला, स्वाध्याय मे रत और उपधान आदि करनेवाला, धर्म मे प्रेम और दृढता रखनेवाला, पापभीरु ओर सबो का हित चाहनेवाला पुरुष तेजोलेश्या के परिणामो से युक्त होता है । पयणुकोहमाणे य, मायालोभे य पयणुए । पसंतचित्ते दंतप्पा, दंतप्पा, जोगवं उवसंते तहा पयणुवाई य, एयजोगसमाउत्तो, पम्हलेसं तु उवहाणवं ॥२६॥ जिइंदिए । परिणमे ||२७|| [ उत्त० अ० ३४, गा० २६-३० ] जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ बहुत अल्प है, तथा जो प्रशान्त चित्त और मन का निग्रह करनेवाला है, जो योग मे रत और उपधान आदि करनेवाला है, जो अतिअल्पभाषी, उपशान्त और जितेन्द्रिय है, इन लक्षणो से युक्त वह पुरुष पद्मलेग्यावाला होता है । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४] [श्री महावीर-वचनामृत अट्टरुदाणि वजिता, धम्मसुक्काणि झायए । पसंतचित्त दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्ति सु ॥२८॥ मरागो चीयरागो वा, उवसंते जिइंदिए । एयजोगसमाउत्तो, सुकलेसं तु परिणमे ॥२६॥ [उत्त० म० ३४, गा० ३१-३२ ] आर्त और रुद्र इन दो ध्यानो को त्याग कर जो पुरुष धर्म और शुक्ल इन दो ध्यानों का आसेवन करता है तथा प्रगान्तचित्तदमितेन्द्रिय, पाँच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त एवं अल्परागवान् अथवा वीतरागी, उपगमनिमग्न और जितेन्द्रिय है वह शुक्ललेश्या से युक्त होता है। किण्हा नीला काऊ, तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गइं उववजई ॥३०॥ [उत्त० अ० ३४, गा०५६] कृष्ण, नील और कापोत ये तीनों अधर्मलेश्या हैं। इन लेश्याओं से यह जीव दुर्गति मे उत्पन्न होता है। तेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ । एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गइं उबवञ्जई ॥३१॥ [उत्त० अ० ३४, गा० ५७] तेज, पद्म और शुक्ल, ये तीनों धर्मलेश्या हैं। इन लेश्याओं से यह जीव सद्गति मे उत्पन्न होता है। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेण्या ] [३८५ लेसाहिं सबाहिं, पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु । न हु कस्सइ उववत्ति, परे भवे अत्थि जीवस्स ॥३२॥ लेसाहिं सवाहि, चरम समयम्भि परिणयाहिं तु । न हु कस्सइ उववत्ति, परे भवे अस्थि जीवस्स ॥३३॥ अंतमुहुत्तंमि गए, अंतमुहुत्तंमि सेसए चेव । लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छन्ति परलोयं ॥३४॥ [उत्त० अ० ३४, गा०५८ से०६० ] सर्व लेश्याओ की प्रथम समय मे परिणति होने से किसी भी जीव की परलोक मे उत्पत्ति नही होती, अर्थात् यदि लेश्या को आये हुए एक समय हुआ हो तो उस समय जीव परलोक की यात्रा नहीं करता। सर्व लेश्याओ की परिणति मे अन्तिम समय पर किसी भी जीव की उत्पत्ति नहीं होती। ___अन्तर्मुहूर्त के बीत जाने पर और अन्तर्मुहूर्त के शेष रहने पर लेश्याओ के परिणत होने से, जीव परलोक मे गमन करते है । तम्हा एयासि लेसाणं, अणुभावे वियाणिया। अप्पसत्थाओ वजित्ता, पसत्थाओऽहिट्ठिए मुणी॥३॥ [उत्त० भ० ३४, गा० ६१] इसलिए इन लेश्याओ के अनुभाव ( रसविशेष ) को जानकर साधु अप्रशस्त लेश्याओ को छोड़कर प्रशस्त लेश्याओ को स्वीकार करे। २५ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : ३७: मृत्यु माणुस्सं च अणिच्चं, वाहिजरामरणवेयणापउरं ॥१॥ [औप० सू० ३४] मनुष्य देह अनित्य (क्षगभंगुर ) है तथा व्यावि, जरा, मरण और वेदना से पूर्ण है। डहरा बुट्टा य पासह, गन्भत्था वि चयन्ति माणवा । सेण जह वट्टयं हरे, एवं आउखयम्मि तुट्टई ॥२॥ [स्० श्रु. १, भ० २, ठ० १, गा..] देखो-जगत् की ओर दृष्टिपात करो। बालक और वृद्ध सभो मृत्यु को प्राप्त होते हैं। कई मनुष्य के तो गर्भावस्था मे ही अवमान हो जाता है। जमे बाज पक्षो तितर पर मपटा लगा के उन महार फरता है, ठीक वमे हो आयुन्य का ना होने पर मृत्यु मनुष्य पर चोट लगाता है और उनका प्राण हरता है। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु [३८७ ___ जहेह सीहो य मिगं गहाय, ___ मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले। न तस्स माया व पिता य भाया, कालम्मि तम्मं सहरा भवन्ति ॥३॥ [उत्त० अ० १३, गा० २२] जैसे इस लोक मे सिंह मृग को पकड कर ले जाता है, उसी प्रकार मृत्यु अन्त समय मे मनुष्य को पकड़ कर परलोक में ले जाती है। उस समय उसके माता, पिता, भ्राता आदि कोई भी सहायक नहीं हो सकते। इह जीविए राय असासयम्मि, धणियं तु पुण्णाई अकुबमाणो । से सोयई मच्चुमुहोवणीए, धम्मं अकाऊण परंमि लोऐ ॥४॥ [उ० अ० १३, गा० २१] हे राजन् ! इस अशाश्वत जीवन मे पुण्य को न करनेवाला जीव मृत्यु के मुख मे पहुंचकर सोच करता है और धर्म को न करनेवाला जीव परलोक मे जा कर सोच करता है। जस्सत्थि मच्चूणा सक्खं, जस्स वऽस्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्सामि, सोहु कखे सुए सिया ॥५॥ [उत्त० अ० १४, गा० २७] Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] [ श्री महावीरन्चचनामृत जो कोई पुरुष पाथेय-रहित किसी महान् मार्ग का अनुसरण करता है, वह मार्ग मे चलता हुआ क्षुधा और तृष्णा से पीडित हो कर दुःखी होता है । इसी प्रकार धर्म का आचरण किये बिना जो जीव परलोक मे जाता है, वह जाता हुआ ( वहाँ जा कर ) व्याधि ओर रोगादि से पीटित होने पर दुःखी होता है । ( यहाँ व्यावि से मानसिक कष्ट और रोग से शारीरिक पीड़ा का ग्रहण करना । ) जो कोई पुरुष पाथेययुक्त हो कर किसी महान् मार्ग का अनुसरण करता है, वह मार्ग मे क्षुधा और तृष्णा की वाधा से रहित होता हुआ सुखी होता है । इसी प्रकार जो जीव धर्म का संचय कर के परलोक को जाता है, वह वहाँ जा कर सुखी होता है और असातावेदनीय कर्म अल्प होने से विशेष वेदना को भी प्राप्त नही होता । इह जीवियं अणियमेत्ता, पत्रभट्ठा समाहिजोऐहि । ते कामभोगरसगिद्धा, उववज्जन्ति आमुरे काये ||६|| [ उत्त० अ० ८, गा० १४] जिन जीवों ने ( सावृ-वृत्ति को ग्रहण कर के भी ) अपने अमयमी जीवन को (बारह प्रकार के तप द्वारा ) वा मे नही किया, वे कामभोगों के रस मे मूच्छित होते हुए समावियोगों से सर्वथा भ्रष्ट होकर अमर कुमारों मे उत्पन्न होते हैं । जे केड़ वाला हह जीवियडी, पावा कम्माहं करेन्ति रुदा । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभव] [३९५ ते घोररूवे तमिसंधयारे, तिब्वामितावे नरए पडंति ॥७॥ [सू० अ० १, भ०५, १० १, गा० ३] जो अज्ञानी मनुष्य अपने जीवन-निर्वाह के लिए कर होते हुए पापकर्म करते है, वे तीव दुःख से भरे हुए घोर अन्धकारमय नरक मे गिरते हैं। मा पच्छ असाधुता भवे, अच्चेही अणुसास अप्पगं । अहियं च असाहु सोयई, से थणई परिदेवई वहुं ॥८॥ [सू० ध्रु० १, अ० २, उ० ३, गा०७ ] परलोक मे दुर्गति की प्राप्ति न हो, इस विचार से विषय-सग को दूर करो और आत्मा का अनुशासन करो। दुष्ट कर्मों से दुर्गति मे गया हुआ जीव शोक करता है, आक्रद करता है और बहुत विलाप भी करता है। जहाऽऽएसं समुद्दिस, कोइ पोसेज्ज एलयं । ओयणं जवसं देज्जा, पोसेज्जावि सयंगणे ॥६॥ तओ से पुढे परिवूढे, जायमेए महोदरे। पीणिए विउले देहे, आएसं परिवरूए ॥१०॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६] [श्री महावीर-वचनामृत जाव न एइ आएसे, ताव जीवइ से दुही । अह पत्तम्मि आएसे, सीसं छत्तण भुञ्जई ॥११॥ जहा से खलु ओरन्भे, आएसाए समीहिए । एवं वाले अहम्भिट्ट, ईहई नरयाउयं ॥१२॥ [उत्त० म०७, गा० १ से ४] जैसे कोई पुरुष किसी अतिथि आदि के निमित्त अपने घर मे बकरा को पालता है और उसको जो आदि अच्छे पदार्थ खाने को देता है। बाद मे जब वह बकरा पुष्ट सामर्थ्यवान्, चर्बीवाला, वडा 'पेटवाला और स्थूल देहवाला हो जाता है तब पालक अतिथि की प्रतीक्षा करता है। जब तक घर मे अतिथि नही आता तव तक वह वकरा जीता है, किन्तु अतिथि के आने पर वह दुःखी सिर छेदन करके खाया जाता है। जिस तरह वह बकरा अतिथि के लिए कल्पित है, उसी तरह अज्ञानी अधर्मिष्ठ जीव नरकायुष के लिए कल्पित है। तात्पर्य यह कि ऐसा जीव अवश्य नरक मे जाता है। हिंसे वाले मुसावाई, अद्धाणंमि विलोवए । अन्नदत्तहरे तेणे, माई कं नु हरे सहे ॥१३॥ इत्थीविसयगिद्धे य, महारम्भपरिग्गहे । - भुंजमाणे सुरं मंसं, परिवूढे परंदमे ॥१४॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभव] [३९७ अयकक्करभोई य, तुंदिल्ले चियलोहिए । आउयं नरकं कंखे, जहाऽऽएसं व एलए ॥१५॥ उत्त० अ० ७, गा० ५ से ७ ] जो अज्ञानी हिंसा करनेवाला, झूठ बोलनेवाला, मार्ग मे लूटनेवाला, बिना दिये किसी की वस्तु उठानेवाला, चोरी करनेवाला, छलकपट करनेवाला, और "किसकी चोरी करूं'ऐसादुष्ट विचार करनेवाला, फिर स्त्री और विषयो मे आसक्त, महान् आरम्भ और परिग्रह करने वाला, मदिरा तथा मास का सेवन करनेवाला, बलवान होकर दूसरों को दवानेवाला तथा भुजे हुए चने की तरह बकरे का मास खानेवाला, बडा पेटवाला और पुष्ट शरीरवाला है, वह नरकायु की आकाक्षा करता है, जिस तरह पोषा हुआ बकरा अतिथि की ।। तात्पर्य यह की उसकी दुर्गति निश्चित है। असणं सयणं जाणं, वित्तं कामे य भुजिया। दुस्साहडं धणं हिच्चा, बहुं संचिणिया रयं ॥१६॥ तओ कम्मगुरू जंतु, पच्चुप्पन्नपरायणे । अय व्य आगयाएसे, मरणंतम्भि सोयई ॥१७॥ [उत्त० भ०७, गा०८-६] जिसने विविध प्रकार के आसन, शय्या और वाहन का उपभोग किया है एव सपत्ति और शब्दादि विषयो को अच्छी तरह भोग लिया है, वह बहुत कर्म-रज का सचय करके और अति कष्ट से एकत्रित किया हुआ धन इधर छोड के मरण के समय ऐसा शोक Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३६८] [श्री महावीर-वचनामृत सताप करता है, जैसा कि अतिथि के लिए पोषा हुआ बकरा मरने के समय मे। तओ आउपरिक्खीणे, चुयादेहा विहिंसगा। आसुरियं दिसं वाला, गच्छन्ति अवसा तमं ॥१८॥ [उत्त० अ० ७, गा०१०] अनन्तर वे हिंसादि में प्रवृत्ति रखनेवाले अज्ञानी जीव आयु के क्षय होने से गरीर को छोड़ कर कर्मों के अधीन होते हुए अन्चकारयुक्त नरक दिशा-नरक गति को प्राप्त होते हैं। जहा कागिणिए हेडं, सहस्सं हारए नरो। अपत्थं अश्वगं भोच्चा, राया रज्जंतु हारए ॥१६॥ एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अन्तिए । सहस्सगुणिया भुज्जो, आउंकामा य दिन्चिया ॥२०॥ अणेगवासानउया, जा सा पण्णवओ ठिई । जाणि जीयन्ति दुम्मेहा, ऊणे वाससयाउए ॥२१॥ [उत्त० अ०७, गा० ११ से १३] जैसे एक काकिणी* के लिए कोई अज्ञानी मनुष्य हजार (कार्पापण ) को खो देता है और कुपथ्यल्प आम्र के फल को खाकर राजा राज्य (प्राण) सो हो देता है उसी प्रकार अज्ञानी जीव थोड़े से विषयजन्य सुखों के निमित्त देवलोक के महान् सुख को खो देता है। काकिणी-१ कापांपण। - भारत का एक पुराना सिक्का । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभव] [ ३६६ ऐसे मनुष्यो को समझना चाहिये कि मानुषिक काम-भोग देवों के काम-भोगो के सामने सहस्त्रगुण अधिक करने पर भी न्यून हैं तथा देवो की आयु और उनके काम-भोग दिव्य है। प्रज्ञावान् अर्थात् ज्ञान-क्रिया आराधक आत्मा मृत्यु के बाद देवलोक मे जाता है और वहाँ उनकी स्थिति अनेक नयुत वर्षों तक अर्थात् अमुक पल्योघम वा सागरोपम तक होती है। उसको मूर्ख मनुष्य कुछ कम सौ वर्ष की आयु मे विषयभोगो के वशीभूत होकर हार देते हैं। विवेचन-काकिणी और आम्रफल के दृष्टान्त उत्तराध्ययन सूत्र की वृहद्वृत्ति से देखना चाहिये। जहा य तिन्नि वणिया, मूल घेत्तूण निग्गया । एगोऽत्थ लहई लाभं, एगो मूलेण आगओ ॥२२॥ एगो मूलं वि हारित्ता, आगओ तत्थ वाणिओ। ववहारे उवमा एसा, एवं धम्मे वियाणह ॥२३॥ [उत्त० भ० ७, गा० १४-१५ ] किसी समय मे तीन व्यापारी अपनी-अपनी मूल पूंजी को लेकर व्यापार के निमित्त विदेश मे गए। उन तीनो मे से एक को तो व्यापार मे लाभ हुआ, दूसरा अपनी मूल पूंजी को कायम रखता हुआ घर को आ गया और तीसरा मूलधन को भी खो करके घर आ गया। यह जैसे व्यावहारिक उपमा है, उसी प्रकार धर्म के विषय मे भी समझना। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.] [श्री महावीर वचनामृत माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे । मूलच्छेएण जीवाणं नरगतिरिक्खत्तणं धुवं ॥२४|| [उत्तः भ७, गा० १६] मनुयल यह मूल धन है और राम के नमान देवत्व को प्राप्ति है। अतः मूल के नाग होने से इन जीवों को नररगति और तिनंच गति को ही प्राप्ति होती है। दुही गई बालम्म, आचर्डवहमूलिया। देवत्तं माणुमत्तं च, जं जिए लोलयानई ॥२५॥ नओ जिए मई होड. दुविहं दुग्ग] गए। दुल्लहा तम्म उम्मग्गा, अद्धाप मुनिरादपि ॥२६॥ [रणः मा., गा• १८] देवन्य और मनुष्यत्य को हार जानेवारे धां और मांगा पार अन्नानी पीनार और वियर दो किलो है। इनमें दरका और दगे यार। एवं जिर महाए. नुलिया बालं च पंटियं । मकर ने परमन्नि, मागुनि जानिमन्नि जे || my m.] xr morrfan । * :, 7 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'परभव] [४०१ वेमायाहिं सिक्खाहिं, जे नरा गिहिसुव्वया । उवेन्ति माणुसं जोणिं, कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥२८॥ [उत्त० भ० ७, गा० २०] जो मनुष्य विविध प्रकार की शिक्षा द्वारा गृहस्थ-जीवन मे भी सुव्रती है, वे मनुष्य-योनि को प्राप्त होते है । निश्चय ही कर्म सत्य है अर्थात् जैसे वे किये जाते है, वैसे ही फल देते हैं। जेसिं तु विउला सिक्खा, मूलं ते अइच्छिया । सीलवन्ता सविसेसा, अदीणा जन्ति देवयं ॥२६॥ [उत्त० अ० ७, गा० २१ ] जिन जीवो की शिक्षाएं अधिक विस्तृत हो गई हैं और जो सदाचारी, विशेष गुणों से युक्त और दीनता से रहित हैं, वे मूल धन का अतिक्रमण करते हुए देवलोक मे चले जाते हैं। अगारि सामाइयंगाई, सड़ी कारण फासए । पोसहं दुहओ पक्खं, एगरायं न हावए ॥३०॥ एवं सिक्खा समावन्ने, गिहिवासे वि सुन्वए । मुच्चई छविपवाओ, गच्छे जक्खसलोगयं ॥३१॥ [ उत्त० भ०५, गा० २३-२४ ] श्रद्धावान् गृहस्थ काया से सामायिक के अगो का सेवन करे, दोनों पक्षो मे पौषध करे, परन्तु एक रात्रि तो कभी भी हीन न करे, अर्थात् एक मास मे एक रात्रि भर तो संवररूप से धर्मजागरण अवश्य करे। २६ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२J [श्री महावीर-वचनामृत इन प्रकार शिक्षायुक्त सुव्रती जीव गृहस्थाश्रम मे रहता हुआ भी इस औदारिक शरीर को छोडकर यक्षलोक अर्थात देवलोक मे चला जाता है। गारं पि अ आवसे नरे, अणुपुन्वं पाणेहिं संजए । समता सम्वत्थ सन्वत्थ सुब्बते, देवाणं गच्छे स लोगयं ॥३२॥ स्० श्रुः १, अ० २, उ० ३, गा० १३] गृहस्य भी घर मे वसता हुआ अपनी शक्ति के अनुसार प्राणियों की दया पाले, सर्वत्र समता धारण करे, नित्य अर्हत-प्रवचन को सुने तो वह मृत्यु वाद देवलोक मे उत्पन्न होता है। कुसग्गमेत्ता इमे कामा, सलिरुद्धम्मि आउए । कस्स हे पुराकाउं, जोगक्षेमं न संविदे ॥३३॥ [उत्त० अ०७, गा० २४ ] ये काम-भोग कुश के अन्न भाग पर रहे हुए जलविन्दु के समान है और आयु अत्यन्त सक्षिप्त है। तो फिर किस हेतु को आगे रखकर तुम योगक्षेम को नही जानते ? विवेचन-अप्राप्त की प्राप्ति को योग और प्राप्त हुए का पालन करना क्षेम कहलाता है । इस सारे कथन का तात्पर्य यह है कि मनुष्य की समृद्धि और आयु वहुत ही स्वल्ल है। इस स्वल्ल समृद्धि बोर आयु मे उसे जो धर्म की प्राप्ति हुई है तथा उस धर्म से जो स्वर्ग Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभव] [४०३ और मोक्षसुख की आशा है उस धर्म की ओर अवश्य दृष्टि रखनी चाहिये। पच्छा वि ते पयाया, खिप्पं गच्छन्ति अमरभवणाई। जसिं पियो तवो संजमो, __य खंती य बंभचरं च ॥३४॥ [दश० भ० ४, गा० २८] जिन पुरुषो को तप, सयम, क्षमा और ब्रह्मचर्य प्रिय है । पिछली अवस्था मे भी दीक्षित हो जाने पर ( तथा सयम-मार्ग न्यायपूर्वक चलने से ) शीघ्र ही देवलोक मे चले जाते है। अह जे संवुडे भिक्खू, दोहं अन्नयरे सिया। सम्बदुक्खपहीणे वा, देवे वावि महिडिए ॥३॥ [उत्त० अ० ५, गा० २५] जो संवरयुक्त भिक्षु है, वह दो मे से एक गति को अवश्य प्राप्त हो जाता है। वह सर्व दुःख से रहित सिद्ध होता है, अन्यथा महाऋद्धि वाला देव बनता है। इड्डी जुई जसो वणो, आउं सुहमणुत्तरं । भुञ्जो जत्थ मगुस्सेसु, तत्थ से उववजई ॥३६॥ [उत्त० अ०७, गा० २७ ] देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर वह पुण्यात्मा जीव मानव-कुल मे Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८] [श्री महावीर-वचनामृत जीव रात-दिन करुण स्वर से आनद करते हैं। फिर परमावामी उनके छेदे हुए अगों को अग्निज्वाला से जलाते हैं और उस पर जल्द में जल्द क्षार छिड़कते हैं, अतः इन अंगो मे से रक्त और मास अधिक प्रमाण मे झरते रहते हैं। रुहिरे पुणो वच्चसमुस्सिअंगे, भिन्नुत्तमंगे वरिवत्तयंत्ता। पयंति णं णेरइये फुरते, सजीवमच्छे व अयोकवल्ले ॥६॥ [सू० ० १, भ० ५, उ० १, गा० १५ ] जब पापी जीव नरक मे उत्पन्न होते हैं, तव परमावामी उसका सिर काटते हैं, उसके शरीर मे से रक्त निकालते हैं और घवक्ते लोहे के कडाह मे फेंक कर खूब उबालते हैं। इस समय वे पापी जीव जिस तरह तपे हुए तवे पर मछली तडफड़ाती है, उसी तरह असह्य दुखों से पीडा पाते तड़फड़ाते हैं। नो चेव ते तत्थ मसीभवंति, ण मिज्जति तिब्बभिवेयणाए । तमाणुभागं अणुवेदयंता, दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेणं ॥१०॥ [सू० ० १, भ०५, उ० १, गा० १६] नारकीय जीवो को परमावामी उबालते और मुंजते हैं, तो भी वे Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरक की वेदना] [४०६ भस्मसात् नही होते हैं। फिर जो भयकर ताडन-तर्जन किया जाता है, इसीसे भी वे मरते नही हैं। किन्तु अपने दुष्ट कर्मों का फल भोगने के लिए वे दुःखित जीव नियत समय तक दुःख भोगते ही रहते है। ते णं तत्थ णिचा भीता णिच्चं तसिता णिच्चं छुहिया णिच्चं उब्विगा णिच्चं अप्पुआ णिच्चं वहिया णिच्चं परममसुभमउलमणुबद्धं निरयभवं पच्चणुभवमाणा विहरंति ॥११॥ [जीवा० प्रति ३, उ० २, सू० ८६ ] वे नरक के जीव सदा भयभीत, त्रस्त, क्षुधित, उद्विग्न और व्याकुल रहते हैं और नित्य वध को प्राप्त होते है। वे हमेशा अशुभ और अतुल परमाणुओ से अनुबद्ध होते है। इस तरह नरक मे उत्पन्न हुए जीव पीड़ा का अनुभव करता हुआ अपने दिन निर्गमन करते है। नेरइयाणं भंते ! केवइकालं ठिई पन्नत्तागोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ॥१२॥ [जीवा० प्रति ३, उ० ३, सू० २२२ ] प्रश्न-हे भगवन् ! नारकीय जीवो की स्थिति कितने काल की है ? उत्तर--हे गौतम ! नारकीय जीवो की स्थिति जघन्य से दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम की है। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१०] [श्री महावीर-वचनामृत एयाणि सोच्चा णरगाणि धीरे, न हिंसए किंचण सबलोए । एगंतदिट्ठी अपरिग्गहे उ, बुझिन्झ लोयस्स वसं न गच्छे ॥१३॥ [सू० ० १, भ०५, उ० २, गा० २४ ] नरक के इन दुःखों का विचार कर धीर पुरुष सर्व लोक मे किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। उसको वाहिये कि वह निश्चय सम्यक्त्व धारण करे, परिग्रह को छोड़ दे और लौकिक मान्यताओ के वश न होकर तात्त्विक बोध ग्रहण करे। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा : ४० : शिक्षापद इह माणुस्सए ठाणे, धम्ममाराहि नरा ॥१॥ [सू० श्रु० १, अ० १५, गा० १५ ] इस मनुष्य-लोक मे धर्म की आराधना करने के लिये ही मनुष्यों की उत्पत्ति है। जाइमरणं परिन्नाय, चरे संकमणे दढे ॥२॥ [मा० ध्रु० १, भ० २, उ०३] जन्म-मरण के स्वरूप को भलीभाति जानकर चारित्र मे हड होकर विचरे। कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं ॥३॥ [माः ध्रु० १, भ० ४, उ० ३] (तपश्चरण द्वारा ) अपने आपको पेश करो, अपने आपको जीर्ण करो। सन्चं सुचिण्णं सफलं नाणं ॥४॥ [उसः १३. गा० १०] मनुष्यो का अच्छा जिग हुना नव पर्म कफ होता है। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२] [श्री महावीर वचनामृत संसयं खलु सो कुणई, जो मग्गो कुणई धरं। जत्थेव गन्तुमिच्छेज्जा, तत्थ कुविज सासयं ॥१॥ [उत्त० अ० ९, गा० २६] जो पुरुष मार्ग मे घर बनाता है, वह निश्चय ही संशय-ग्रस्त कार्य करता है। जहाँ पर जाने की इच्छा हो वही पर गाश्वत घर वनाना चाहिये। वेराइं कुबई वेरी, तओ वेरेहिं रजई । पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अन्तसो ॥६॥ [सू० श्रु० १, म०८, गा०७] एक मनुष्य ने किसी के साथ वैर किया, फिर वह अनेक प्रकार के वैर करता है और इन वैरों से खुशी होता है, किन्तु वह जानता नही कि सभी दुष्प्रवृत्तियाँ पापमय होती हैं और अन्त मे वे दुःख का ही अनुभव कराती हैं। किरिअं रोअए धीरो, अकिरिअं परिवज्जए । दिट्ठीए दिट्ठीसम्पन्ने, धम्म चर सुदुच्चरं ॥७॥ [उत्त० म०१८, गा० ३३] धीर पुरुष क्रिया मे रुचि करे और अक्रिया का परित्याग कर देवे। वह सम्यग् दृष्टि से दृष्टि-सम्पन्न होकर धर्म का आचरण करे जो कि अतिदुष्कर है। कोहं माणं निगिम्हित्ता, मायं लोभं च सबओ । इंदियाइं वसे काउं, अप्पाणं उपसंहरे ॥८॥ [उत्त० अ० २२, गा०४८] Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षापद] [४१३. क्रोध, मान, माया और लोभ को जीतकर तथा पाँचो इन्द्रियो को. वश मे कर अपनी आत्मा का उपसहार करना चाहिये, अर्थात् प्रमाद की ओर बढी हुई आत्मा को पीछे हटाकर धर्म मे स्थिर करनी चाहिये। जसं कित्तिं सिलोगं च, जा य वंदणपूयणा । सबलोयंसि जे कामा, तं विज्जं परिजोणिया ।।६।। [सू० श्रु० १, अ० ६, गा० २२] यश, कीर्ति, प्रशसा, वन्दन, पूजन और सर्व लोक मे जो भी कामभोग है, इनको अपकारी समझकर छोड देना चाहिये। अट्ठावयं न सिक्खिज्जा, वेहाइयं च णो वए ॥१०॥ [सू० श्रु० १, भ० ६, गा० १७ ] जुआ खेलना मत सीखो और धर्म के विरुद्ध मत बोलो । आवण्णा दीहमद्धाणं, संसारम्मि अणन्तए । तम्हा सबदिसं पस्सं, अप्पमत्तो परिव्वए ॥११॥ [उत्त० अ० ६, गा० १३] अज्ञानी जीव इस अनन्त ससार मे जन्म-मरण के बडे लम्बे चक्कर मे पडे हुए है। इसलिए उनकी सारी दिशाओ का अवलोकन करता हुआ मुमुक्षु पुरुष सदा प्रमादरहित होकर इस ससार मे विचरे । जे रक्खसा वा जमलोइया वा, जे वा सुरा गंधवा य काया। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्री महावीर वचनामृत आगासगामी य पुढोसिया जे, पुणो पुणो विपरिया सुवेन्ति ॥ १२ ॥ [सू० ० १, अ० १२, गा० १३] जो राक्षस हैं, जो यमपुरवासी हैं, जो देव हैं, जो गन्धर्व हैं और जो अन्य कायावाले हैं तथा आकाशगामी अथवा पृथ्वीनिवासी है, वे सभी मिथ्यात्व आदि कारणो से ही वार वार भिन्न-भिन्न रूप मे जन्म धारण करते हैं । इहमेगे उ भासन्ति, सायं सायेण विज्जई | जे तत्थ आरियं मग्गं, परमं च समाहियं ॥ १३ ॥ [सू० श्रु० १, अ० ३, उ०४, गा० ६ ] कोई कहते हैं कि सुख से हो सुख की प्राप्ति होती है, किन्तु वह सत्य नही है | उसमे जो आर्यमार्ग है, वही परम-समाधि देनेवाला है । मा एयं अवमन्नन्ता, अप्पेण लुम्पहा बहुं । ४१४ ] एयस्स उ अमोक्खाए, अयोहारि व जूरह ||१४|| [सू० ध्रु० १, न० ३, २०४, गा० ७ ] इस परम - मार्ग की अवज्ञा करके अल्प सुख के लिये बहु सुख का नाश मत करो। भोग-मार्ग अमोक्ष का है । जो तुम इतना नही समझोगे, तो लोहे के बदले सोना न लेनेवाले वणिक की तरह पञ्चात्ताप करोगे । जहा य अंडप्पभवा वलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षापद] [४१५ एमेव मोहाययणं खु तण्हा, मोहं च तण्हाययणं वयन्ति ॥१॥ [उत्त० अ० ३२, गा०६ ] जैसे बगुला की उत्पत्ति अडा से और अडा की उत्पत्ति बगुला से होती है, इसी प्रकार तृष्णा की उत्पत्ति का स्थान मोह है और मोह की उत्पत्ति का स्थान तृष्णा है । मायाहिं पियाहिं लुप्पइ, नो खुलहा सुगई य पेच्चओ ॥१६॥ [सू० श्रु० १, अ० २, उ० १, गा० ३] जो माता, पिता ( पत्नी, पुत्र आदि ) मे मोह करता है, उसको परलोक मे सद्गति सुलभ नही है। पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा । आवी वा जइ वा रहस्से, णेव कुजा कयाइ वि ॥१७॥ [उत्त० भ० १, गा० १७] वचन से अथवा काया से लोगो के समक्ष अथवा एकान्त मे आचार्यों के प्रतिकूल आचरण कदाचित् भी नही करना चाहिये। पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सन्नसंजए । अन्नाणी किं काही, किंवा नाहिइ छेय-पावगं ॥१८॥ [दश० अ० ४, गा० १० ] प्रथम ज्ञान है, पीछे दया। इसी प्रकार सर्व सयत-वर्ग स्थित Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ] [श्री महावीर-वचनामृत है अर्थात् मानता है। अज्ञानी क्या करेगा ? वह पुण्य और पाप का मार्ग को क्या जानेगा? ताणि ठाणाणि गच्छन्ति, सिक्खित्ता संजमं तवं । भिक्खाए वा गिहत्थे वा, जे संति परिनिबुडा ॥१६॥ [उत्त० अ०५, गा० २८] पूर्वोक्त स्थानों को ( देवलोक को ) वे ही साधु अथवा गृहस्थ प्राप्त होते हैं, जो कि संयम और तप के अभ्यास से कषायों से रहित हो गए हैं। दुल्लहा तु मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा। मुहादाई मुहाजीवी, दो वि गच्छन्ति सोग्गई ॥२०॥ [दश० अ०५, उ० १, गा० १०० ] इस संसार मे निःस्वार्थ वद्धि से देनेवाले दाता और निःस्वार्थ बुद्धि से लेनेवाले साधु-दोनों ही दुर्लभ हैं। अतः ये दोनो ही सद्गति प्राप्त करते है। जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, कारण वाया अदु माणसेणं । तहेव धीरो पडिसाहरिजा, आइन्नओ खिप्पमिव क्खलीणं ।।२१।। [ दश० चू० २, गा० १४] Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षापद] [४१७ अपने आप को जब मन से, वचन से एव काया से स्खलित होता हुआ देखे तब सयमी पुरुष को शीघ्र ही संभल जाना चाहिये। जिस प्रकार जातिवन्त शिक्षित घोडा नियमित मार्ग पर चलने के लिये शीघ्र ही लगाम को ग्रहण करता है, उसी प्रकार साधु भी संयम-मार्ग पर चलने के लिए सम्यक् विधि का अवलम्बन करे। मीहं जहा खुड्डमिगा चरंता, दूरे चरंति परिसंकमाणा ।। एवं तु मेहावि समिक्ख धम्म, दूरेण पावं परिवजएजा ॥२२॥ [सू० श्रु० १, अ० १०, गा० २० ] अरण्य मे विचरते हुए क्षुद्र वनपशु जिस तरह (अपने को उपद्रव करनेवाले) शेर की शंका से दूर हो दूर रहते है, उसी तरह बुद्धिमान् पुरुष धम को विचारकर (अपने को उपद्रव करनेवाले) पापो से अति दूर रहे। सवणे नाणे य विनाणे, पच्चक्खाणे य संजमे । अण्हवणे तवे चेव, वोदाण अकिरिया सिद्धी ॥२३॥ [भग २० २, गा०५] ज्ञानियों को पयुपासना करने से धर्मश्रवण की प्राप्ति होती है। धर्म-श्रवण से ज्ञान की प्राति होती है। ज्ञान से विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान ) की प्राप्ति होती है। विज्ञान से प्रत्याश्यान (विरति ) की Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ] [श्री महावीर-वचनामृत प्राप्ति होती है। प्रत्याख्यान से संयम की प्राप्ति होती है। सयम से अनास्रव की प्राप्ति होती है। अनास्रव से तप की प्राप्ति होती है। तप से कर्म-क्षय होता है। कर्म-क्षय से अक्रिय अवस्था (गलेगी अवस्था ) प्राप्त होती है और अक्रिय अवस्था से सिद्धि की प्राप्ति होती है। आलोयण निरवलावे, आवईसु दधम्मया । अणिस्सि ओवहाणे य, सिक्खा निप्पडिक्कमया ॥२४॥ अण्णाणया अलोभे य, तितिक्खा अञ्जवे सुई । सम्मदिट्ठी समाही य, आयारे विणओवए ॥२५॥ धिईमई य संवेगे, पणिहि सुविहि संवरे । अत्तदोसोवसंहारे, सव्वकामाविरत्तया ॥२६॥ पच्चक्खाणे विउस्सग्गे, अप्पमादे लवालवे । ज्झाण संवरजोगे य, उदए मारणंतिए ॥२७॥ संगाणं य परिणाया, पायच्छित्तकरणे वि य । आराहणा य मरणंते, बत्तीसं जोगसंगहा ॥२८॥ [सम० सू० ३२] (१) आलोचना करना अर्थात् जानते हुए अयवा नही जानते हुए कोई भी दोप का सेवन हो गया हो तो अपने सद्गुरु के सामने प्रकट करना, (२) आलोचना का प्रकाश न करना, (३) आपत्ति के समय Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१६ शिक्षापद] धर्म मे दृढता रखना, (४) आशारहित तप करना, (५) सूत्रार्थ-ग्रहण करना, (६) शरीर के शृगार का परित्याग करना, (७) अज्ञात कुल की गोचरी करना, (८) इच्छित वस्तु की प्राप्ति होने पर वह ज्यादा मिले, ऐसी भावना न रखना, (९) तितिक्षा धारण करना, (१०) आर्जव-भाव रखना, (११) शुचि रखना-व्रतो मे दोष न लगाना, (१२) सम्यग्-दृष्टि बनना, (१३) समाधियुक्त होना, (१४) पचाचार का पालन करना, (१५) विनययुक्त होना, (५६) धृतियुक्त होना, (१७) सवेग धारण करना, (१८) चित्त व्यवस्थित रखना, (१६) सुन्दर अनुष्ठान का पालन करना, (२०) आस्रव का निरोध करना, (२१) आत्मा के दोषो का परिहार करना, (२२) सर्व प्रकार के कामभोगों से विरक्त होना, (२३) त्याग-धर्म मे आगे बढना, (२४) कायोत्सर्ग करना, (२५) प्रमाद न करना, (२६) नियत समय पर क्रियानुष्ठान करना, (२७) ध्यान धरना, (२८) योगों को सवर मे लगाना, (२९) मारणान्तिक कष्ट को सहन करना, (३०) स्वजनादि के सग का परित्याग करना, (३१) दोष लगने पर प्रायश्चित का ग्रहण करना और (३२) अन्त समय में आराधक होने का सकल्प धारण करना, ये बत्तीस शिक्षापद ज्ञानियो ने कहे हैं। नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाणमोहस्स विवजणाए । रागस दोसस्स य संखएणं, एगन्तसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥२६॥ [उत्त० म० ३२, गा०२] Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२०] [श्री महावीर-वचनामृत सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाश से, अज्ञान और मोह के सम्पूर्ण त्याग से __ तथा राग और द्वेष के सम्पूर्ण क्षय से, एकान्त सुखरूप मोक्ष को यह जीव प्राप्त कर लेता है। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ Anm वचनों का अकारादि क्रम प्रथम वचन का आध भाग दिया है, गाव में mins जाति बिल्कुल समान है, वहां द्वितीय पद की भिन्नता दिलाने के लिTHI प्रथम शब्द वचन के सामने फोड में दिया गया। अण्णरातागमा अइभूमि न गच्छेजा २३७ अगरन रानो शन अकसायमहबखायं ! ওভাৰণfir अकुव्वओ णव णत्यि ४०४ शहाद्विनिताना अक्कोमेज परो भिक्यु २५६ अरदाणि fatar अगारि सामाश्यगा ४०१ जागा Thrents अगुत्ती वभचेरस्स २०२ जटायणनामा अच्चण रयण चेव १९० अदा यणायानो अच्चे कालो तूरन्ति ३०१ अन्दर गहमा गह अधिनिमीलयमत्त ४०६ अढावा मिला मच्छिले माहए बच्चि ४० अगाया अजय याममाणो र গ্যাস ४ बजव चरमाणो उ प्रणाम /am अजय चिटमाणो उ अजय भाममाणो द १३४ श्रणावाम बगर भुनमाणी र अणावाuntim in अजय मयमाणी १३३ मिनाय गमा Yt5 H ommmmm Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिभूय कायेण परि० अमणुन्नसमुप्पाय कक्करभोई य अयसीपुप्फसकासा अरई गण्ड विसूइया अरस विरस वावि अरूविणो जीववणा अलोए पहिया सिद्धा अलोलभिक्खू न अलोलय मुहाजीवी अलोले न रसे गिद्धे अवउज्झिय मित्त० अवसोहिय कटगा० अवि पापरिक्खेव असइ वोसट्ठचत्तदेहे असच्चामोस सच्च च असणं पाणग वावि असण सयण जाण असुरा नाग-सुव्वणा असख्य जीविय मा असंसत्तं पलोइजा अस्सि च लोए अदु [ ४२३ ] २५२ २६३ ३६७ ३७८ ३१५ २४५ २४ २१ २५३ ३४६ २४६ ३१६ ३१७ २७४ २५२ १३८ २४० ३६७ ४५ ३०७ २३५ ५३ अह अट्ठहिं ठाणेहिं अह कोइ म इच्छिज्जा अह चोद्दसहि ठाणेहिं अह जे सवुडे भिक्खू अह त पवेज्ज बज्भ अह पहरसहि ठाणेह अह पचहि ठाणेहिं अह सारही विचिते अहसेऽणुतप्पई पच्छा अहावरा तसा पाणा अहिअप्पा हियप्पन्नाणे अहिंस सच्च च अतेगग च अहीणपचेदियत्त अहे वय कोण अहो जिणेहिं असावज्जा अंगपच्चगसठाण अतमुहुत्तमि गए अधिया पुत्तिया चेव आ आउक्वय चेव अ० आणानिद्द सकरे ( इगिया० ) आणानिद्देसकरे ( पडणीए ) २७५ २४४ २७३ ४०३ २६१ २७२ २७५ २८८ १५६ १२५ २६१ ११७ ३१३ ३३५ २४३ १६१ ३८५ ४० १६८ २७२ २७३ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभोत्ता ण नीसेसं वायदण्डसमायरे आयरिय कुविन नचा आर्यारए नाराहेइ आवरिएहि वाहितो आयातुले पवालु आवादयति गिम्हेनु आयावयाही चय आरभामो अविरो आओ थीजणाइगो बालवते लवते वा आलवणेण कालेण आलोयण निरवलावे जावण्णा दीहमाण सावरणिजाण तुम्हपि लासणगओन पुच्छेजा आसणे उवचिट्ठेजा वासदीपलिअकेतु आहच चडालिय आहच्च सवण ल्छु वाहारमिच्छे मियमे० इ इइ इत्तरियम्मि [ ४२४ ] २४२ १८२ २८२ २०५ २८० १२२ २०६ १७७ ३८२ १५६ इम च मे अत्यि इमं २८० इम नरीर अणिच्चं २१७ इरियाभासेसणादाणे ४१८ इस्ता अमरिस अतवो ४१३ इह कामाणियट्टस्य ७२ इह जीविए राय अ० इह जीवियमेव पाहा इह जीविय अणिय ० २५० २७ε २०१ १३६ ७८ १८७ इइ चउरिंदिया एए इजो विद्धसमाणस्त इइ वेइदिया एए इच्वेय छत्रीवणिय ३११ इड्ढीगारविए एगे इड्ढी जुई जसो वष्णो इत्यीओ जे न सेवन्ति इत्थी पुरिससिद्धा य इत्यीविसयगिद्धे य इह माणूस्वए ठाणे इहमेगे उ भासन्ति इह लोए निप्पवासस्त इहेवम्मो जयसो हंगाल अगणि अचि - ४१ ३६१ ३६ १६ २८६ ४०३ १५४ १७ ३६६ ३०७ ३७१ २१५ ३=२ ३०३ ३८७ ३०२ ३६४ ૪૨ ४१४ २६२ ૨૦૧ re Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२६ ] । १६६ २६६ ३५७ ४०१ १८० ३२८ २३० १२१ २२६ एय पचविह नाण ११ एवमेयाणि जाणित्ता एय सकम्मवीरिय ३५४ एव लग्गन्ति दुम्मेहा एयाइ कायाइ प० १२८ एव लोगम्मि ताइणा एयाइ मठ ठाणाइ २१६ एव सिक्खा-समावम्ने एयाओ अठ्ठसमिईयो (दुवाल०) २१६ एव सेहे वि अप्पुळे एयाओ पंचसमिईओ ( उत्तो) २२४ एविन्दियत्या य म० एयाओ पचसमिईओ च० एसणासमिमो लज्जू एस धम्मे धुब्वे निच्चे एयाणि सोचा णरगाणि एस ममो आरिएहिं एव उ समणा एगे १८४ एसा पवयणमाया एव कामेसण विऊ ३०३ एव गुणसमाउत्ता ओराला तसा जे उ एव तव तु दुविह २६७ ओहोवहोवग्गहिय एव तु समणा एगे एव तु सजयस्तावि एव धम्म अकाउण ३६३ कणकुण्डग चहत्ता ण एवं धम्म पि काउण कण्णसोक्तेहिं सद्देहि एव धम्म विक्कम्म कपातलिमिजा य एव धम्मन्त विणओ क्प्पाईया उजे देवा कप्पोवगा य वारसहा एव भवत्ससारे सन कम्ममेगे पवेदेन्ति एव माणुस्सगा कामा कम्नसगेहि सम्मूढा एवमादाय मेहावी कम्माण तु पहाणाए एवमावट्टनोणीनु ७५ कम्मुणा वभणो होड ३५१ U २२० २९२ कड च कजमाणच w. m m m m ar ३५६ २६१ ह १७६ ३८६ ४६ २३१ rar r ३९८ ३५२ ७५ ३५५ ७५ ३५० Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपराइ अठ्ठलुहुमाइ कलहडमरवजिए कसायपच्चक्खाणेण कसिणपि जो इम कसेहि अप्पाण, जरेहि कह चरे ? कह चिट्ठे ? कहं तु कुजा सामण्ण कहिं पहिया सिद्धा ? कदप्पकुक्कुयाइ तह कदप्पाभिओग च कसेसु कंसपाएसु काउसणं भते ! कामकामी खलु अय कामाणुगिद्धिप्पभव मेह य सथवेहि गिद्धा मते ! कायगुत्तिया कायसा वयसा मत्ते काले निक्खमे भिक्खु कावया जा इमा किण्हा नीला काऊ, तिन्ति किण्हा नीला य काऊ य किण्हा नीला य रुहिरा य [ ४२७ ] १९८ २७२ ३३८ १७१ ४११ २१० १८६ २० ३९१ ३६१ २०० ३६८ ३०५ ३०४ ५४ २२८ २६८ २३१ २६१ ३८४ ३७६ २६ किमिणो सोमंगला चेव किरिअ अए धीरो कुकुडे सिंगिरीडी य कुजए अपराजिए कुप्पवयणपासडी कुव्वति सथव ताहिं कुसग्गमेत्ता इमे कामा कुसग्गे जह ओस O कुथु पिवीलिया दसा इअ रुइअ गीम हास० इय रुइय गीय हसिय कोहविजएण भते ! कोह च माण च त० कोह माण च माय च कोह माण निगिम्हित्ता कोहा वा जइ वा हासा कोहे माणे माया, लोभे कोहे माणे यमायाए कोहो पीइ पणासेइ कोहो य माणो य अ० ख खज्जूरमुद्दियरसो खणमेत्तसोक्ला वहु ० ३८ ४१२ ४० ३५७ ३६१ १५८ ४०२ ३१० ३६ १५६ १६२ ३३८ ३३३ ३३३ ४१३ ३४८ १४५ २१६ ३३३ ३३४ ३७१ २९६ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सलका जारिसा जोना खलुके जो उ जोएइ सविता पुव्वकम्माइ सविता पुव्यकम्माइ (सिद्धि) सिप्प न सक्के विवेग० खुब पिवास दुस्तेज्ज खेत्त वत्यु हिरण प० च खेत वत्यु हिरण्ग च पु० ग गईलक्तणो उ घम्मो गत्तभूसणमिच गन्माइ मिज्जति बुवा ० गहणेनु न चिञ्जिा गवन्स घाण गहण गधेनु जो गिद्धिमुवेइ गभीरविजया एए गारत्येहिय सहि गारवेनु कमाएम् चार पिन लादने नरे गिद्धोवमा उनच्चाण गुणापमानओ दव्व गुम्विनीए उत् [ ४२८ ] २८५ २८४ १००, २६६ २१० ३१० १७६ = १ १७० ૬ १५६ ૩૭૨ १९७ ३२५ ३२५ २०२ २५६ १७५, १९१ ४०२ દ १३ २३ε गवसणाए गहणे य गोअरमापविट्ठल्स गोमेज व त्यागे अंके गोयकम्म तु दुविह गोवालो भंडवालो वा च चटण्ह खलु भासाण चप्पा व परिसप्पा चटरग दुलह नन्वा चरिदिया उ जे जीवा चवीवत्यएण भते । चलिहे वि बाहारे चक्तुमचत्तू जोहिम्स चक्खा पडिलेहित्ता चत्तपुत्तक्लत्तन्न चत्तारि परमगाणि चारि वने सवा चम्पे उलोमपक्ती य चरितमोहन कम्म चरे पवाई परिसक० चणस्य-हस चदारा य नवत्ता २१ε २०२ ३० ७१ १८५ १३६ ४३ ८२ ४० ૩૬૩ २१४ ६३ ၁၁၇ ૫૬ ७४ २४६ ૪૪ うう ११० 20 ४५ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ १०७ [ ४२६ ] चिसा ण धणं च ३१६ जमिय जगई पुढो जगा चिचा दुपय चउ० ३७४ जव चरे जब चिठे चिया वित्त च पुत्तेय ३७५ जया फम्म खवित्ताण 'वित्तभित्तिं न निझाए १६२ जवा गड बहुविह चित्तमतमचित्तं वा, अ० १४७ जवा चयइ सजोग चित्तमतमचित्तं वा, प० १६७ जया जीवमजीवे चित्तमन्तमचित्त वा (न गिण्हाड) ३४८ जया जोगे निरू भित्ता चिर दुइजमाणस्स २०७ जया ध्रुणइ कम्मरय पीराजिण नगिणिण २६० जया निविदिए भोए जया पुण्ण च पाव च छजीवकाए असमा० १८६ जया मुण्डे भवित्ताणं छन्द निरोहेण उवेई ३०६ जया य पृइमो होइ 'छिन्ताले छिन्दई सेल्लि २८५ जया या चयइ धम्म छिदति बालस्स खुरेण जया लोगमलोग च जया सवत्तग नाण जइ त काहिसी भाव १६२ जना सवरमुक्ट्ठि जगनिस्सिएहि भूएहिं १३० जया हेमतमासम्मि जणवयसम्मयठवणा जरा जाव न पीडेइ जणेण सद्धि होक्खामि २६७ जस्सन्तिए धम्मपयाइ जतुकुभे जहा उवजोई १५६ जस कित्ति सिलोग च जत्येव पासे कइ जविणो मिगा जहा सता जम्म दुक्ख जरा दुक्ख ३७१ जरामरणवेगेण १०६ १०८ २६३ २६३ ४०७ १०६ १०६ १०८ १८० १४२ २७० ४१३ २६१ ११३ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३० ] ३४६ ५७. १६४ २६२ २३५ ३४६ ર૬૨ ४१४ जत्लत्यि मन्चुणा वक्त जति कुले समुप्पन्ने जल्लेवमप्पा उ हवेज जह कडुयतुवगरसो जह करगयस फाचो जह गोमत्त गयो जह जीवा वज्झति जह तत्णअगरतो जह तिगड्डयन्स य रसो जह परिणयवगरतो जह दूरस्त व फासो जह मिउलेवालित जह रागेण कडाण जह सुरहिकुनुमगयो जहा अग्गिरिहा दित्ता जहाऽऽएन समुदिन जहा इह अगणी उन्हो जहा इह इम सीप जहा कागिणीए हेड ज्हा विपागलाण जहा पुक्कुडपोग्न जहा कुन्ने तमगाइ ३८७ जहा जुन्नाइ कछाड १७० जहा दड्डाण बीयाण ८४ जहा दवनी परिधणे ३७६ जहा दुक्त भरेउ जे ३८१ नहा दुमत्त पुप्फेनु ३८० जहा पोम जले जाय ५७ जहा भुयाहि तरित ३७६ जहा महातलागत ३७६ जहा य अडप्पभवा ३७६ जहा य किपागफला म० ३८१ जहा य विन्ति वणिया ५८ जहा लाहा तहा लोहो ५८ जहा विरालावसहस्त ३८० जहा सगानकालम्नि जहा सागडिओ जाण ३६५ जहा गुणी पुइकन्नी ४०६ जहा तूई मनुत्ता जहा से तलु औरन्ने ३६८ जहालिनी जल्न ३०० जहिना पुञ्चनजोग १६० जहेह नीही मिग ३४४ ज किंवकम जागे ३६६ ३३७ १६० १८४ २६० २६६ ४०७ २६६ m ३४६ 35. Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे विन्नवणाहिबजोलिया -जेऽसङ्ख्या तुच्छ० जे सिया सन्निहि कामे पेसि तू विउला सिक्ता जेहिं नारीण सजोगा जो नीठे विन जाणेह जो जीवे विविचाणेइ जो न तज्जइ आगन्तु जो पव्वइत्ताण जोवगन उ जो तत्य जो सहा हु गाम० जो महस्त नहस्माण स० जो सहस सहस्माण मा० झ भाणलोग समाहट्टु ठ ठाणी विविहाणाणि ठाणे निसीपणे चैव [ ४३२ ] १५४ ३३० १८५ ४०१ १५५ तइय च अदत्तादाण १०४ तमो बाउपरिक्लीणे १०५ तो कम्मर जतु -३४७ तो जिए सई होइ ८६ तनो पुट्ठो आपकेण २३ तओ से दड समा० २५१ तत्रो से पुट्ठे परिवृढे ८५ तो ते मरणन्तम्मि २५८ ३५८ ३५५ २२७ ड डहरा वुड्डा य पानह ३८६ डहरे व पाणे बुड्ढे य १२५ उहरे य पाणे वड्डे य (उहई) ३४४ ण णमुक्कारेण पारिता णो रक्खसी गि० त तपन छिदिजा तहाभिभूयत्व अ० तत्य आलवण नाण तत्य ठिच्चा जहाठाण तत्य दडेण नवीते तत्य पचविह नाणं तत्य मन्दा वितीयन्ति तत्य से चिमाणन्त तत्विम पढमं ठाण तमाह लोए परिबुद्ध ० ૨૪૩ १५३ ૨૪૬ 325 ૩૨૭ ४०० 222 २७ ३२५ ३८ १९७ १४९, ३२२ २१७ ८० १८३ ८६ ၃၁ २३८ १३१ = Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३५ ] ३४३ २५४ ३७३ 0 २७८ २५४ दुविहा वि ते भवे ४१ न चित्ता तायए भासा दुहा वणस्सईजीवा ३३ न जाइमत्ते न य स्व० न तस्स जाई व कुल घणधन्नपेसवग्गेसु १६७ न तस्स दुक्ख विभयन्ति घणु परक्कम किच्चा १०१ न त अरी कठछित्ता धम्मज्जिय च ववहार २६३ न पक्खो न पुरओ धम्मपन्नवणा जा सा २६२ न पर वइज्जासि धम्मलद्ध मिय काले १६५ न पूयण चेव सिलोय० धम्मसद्धाएण भते । ३६२ न वाहिर परिभवे धम्म पि हु सद्दहन्तया ३१४ न य पावपरिक्खेवी धम्माउ भट्ट सिरिओ २०७ नव भोयणम्मि गिद्धो धम्मे हरए बम्भे . ११८ न य बुग्गहिय कह धम्मो महम्मो आगास, का० ४ न रूवलावण्णविलास० धम्मो अहम्मो आगास, दव न लविज्ज पुट्ठो धम्मो मगलमुक्किट्ठ न वा लभेज्जा निउण घिईमई व सवेगे न वि ता अहमेव घुव च पडिलेहिजा न वि मुडिएण समणो न सम्ममालोइय हुज्जा न इम सन्वेसु भिक्खूसु न सय गिहाइ कुब्विज्जा न कम्मुणा कम्म खवेन्ति ३४५ न सतसति मरणते न कामभोगा समय ३२६ न कोवए आयरिय २८२ न सा मम वियाणाइ न चरेज वासे वासते २३२ न सो परिम्गहो वुत्तो १८६ २७६ २७२ २४१ २५१ १६१ १८८ १८३ ३५० २४३ १७६ ३६० २८७ ३६० १७३ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहु पाणवह अणुजाणे नाइउच्चे नाइनीए नाईदूरमणासन्ने नाइवाइज्ज किंचण नाणस्स केवलीण नाणस्स सव्वस्स पगासणाए नाणस्सावरणिज्ज नाण च दसण चेव ( एयमग्ग ) नाणं च दसप चेव ( वीरिय ) नाणावरण पचविह नाणेण जाणई भावे नादसणिस्स नाण ना पुट्ठो वागरे किंचि नामकम्म च गोय च नामकम्भ तु दुविह नारीसु नो पगिज्झेजा नासदीपलिअसु नासीले न विसीले वि निक्खम्ममाणाइ अ निच्च तसे पाणिणो विग्गो जहा तेणो निज्जूहिकण आहार [ ४३६ ] १३१ २३८ २३६ १२१ ३६२ ४१६ ६१ ८८ १२ ६३ ८८ ४ २७८ ६० ७० २५७ २०१ २७५ २४७ १४८ ३४२ १९३ निट्ठाण रसनिज्जूढं निद्द च न वहु मन्नेज्जा निद्दा तहेव पयला निद्धसपरिणामो निम्मो निरहकारो नि० निम्ममो निरहकारी वी० निव्वाण ति अवाह ति निसग्गुवए सरुई निस्सन्ते सिया अमु० निस्सकिय - निक्क खिय नीय सिज्ज गइ ठाणं नीयावित्ती अचवले नीलासोगसकासा नीवारे व न लीएजा नोहरन्ति मय पुत्ता नेयाय सुक्खाय नेरइयाण भते । केवइ० नेरइयातिरिक्खाउ नेरइया सत्तविहा नेरयइत्ताए कम्म नेव पल्हत्यिय कुजा नो इदियगेज्झ २४१ १८६ ६३ ३८१ १६१ १६३ २४ ३५६ २७७ ३६० २७६ ३८३ ३७८ १५६ ३७३ ३५४ ४०६ ७० ४१ ४०५ २८० ४८ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३७ ] ३८३ नो चेव ते तत्य नो तासु चक्खु सजा १८० १६८ ३१४ २६१ १६७ २०६ ३८ २३७ २५५ ४०८ पयणुकोह माणे य १५८ पयाया सूरा रणसीसे परमत्यसंथवो वा २७४ परिगहनिविठ्ठाणं ३६६ परिजूरइ ते सरीरय ४१८ परियाणियाणि सकता २०० परिव्वयन्ते अणि ४०३ परीसहरिऊदता १२० पल्लोयाणुल्लया चेव ३६७ पविसित्तु परागार २३४ पवेयए अजपय २४४ पसुबघा सव्ववेया ४१५ पकाभा य धूमाभा २२१ पचासवपरिणाया ४१५ पचासवप्पवत्तो २२ पचिंदिय तिरिक्खा.उ १२२ पचिंदिया उ जे जीवा १६४ पंचिंदियाणि कोह ३५६ पचविहो पण्णत्तो ३३ पायच्छित्त विणओ १२७ पियए एगो तेणो ३०६ पियघम्मे दढषम्मे पइण्णवाई दुहिले पञ्चक्खाणेण भते ! पञ्चक्खाणे विउस्सग्गे पच्छाकम्म पुरे कम्म पच्छा वि ते पयाया पडति नरए घोरे पडिक्कमणेण भते । पडिकुट्ठ कुल न पविसे पडिग्गह सलिहिता णं पडिणीय च बुद्धाण पडिलेहेइ पमत्ते पढम नाण तओ दया पणयालसयसहस्सा पणया वीरा महावीहिं पणीय भत्तपाण तु पण्डिए वीरिय लटु पत्तेअसरीराओ पभूदोसे निराकिच्चा पमाय कम्ममाहसु ३४६ १७५ ३८१ १४६ २०५ ३५३ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३८ ] २६५ १९० पिसाय-भूया जक्खा य ४५ फानुपम्मि अणावाहे २०७ पुळे गिम्हाहितावेग १८१ व पुठो व दसमसगेहिं १८२ वन्यप्पमुक्तो अज्झत्येव ३७५ पुढवि न खणे खणा. २४७ बल याम च पेहाए पुढवि मित्तिं मिल लेलु १६४ वहिया उड्ढमादाय ११८ पुढवी-आउकाए (पडिलेहणापमत्तो)२२२ बहु लु मुणिणो मद्द २५७ पुढवी-आउझाए (पडिलेहणा आउ०) २२२ वहु परघरे नत्यि २४१ पुढवी आउजीवा य २६ बहु सुणेई कन्नेहिं . २५५ पुढवी जीवा पुढो सत्ता १२५ वमचेर उत्तमतव० पुढवी य आऊ अगणी १२८ वायरा जे उ पज्जत्ता ( उ० ) ३७ पुढवी य सक्करा वालुया य ३० बायरा जे उ पज्जत्ता (महा) २६ पुढवो सालो जवा चेव ३३७ वायरा जे उ पज्जत्ता (साहा० ) ३३ पुरओ जुगमावाए २३२ वायरा जे उ पज्जत्ता ( सुद्धो० ) ३३ पुरिता । अत्ताणमेव ८७ वायरा जे उ पज्जत्ताऽणेग ३७ पुरिसा सच्चमेव स० १३५ वारनहिं जोवणेहिं पुरिसोरम पावकम्मुणा ३०१ वालमरणाणि बहुसो ३६२ पूयणळा असोकामी ३३७ वालाण काम तु पेसिया पलिउचन्ति २८७ विडमुम्भेइम लोणं १७२ पोगलाण परिणाम १६६ वेइदिया उ जे जीवा भ • फावस्त गहण काय - ३२६ भणन्ता अकरेन्ता य ३४३ फासस्स जो गिद्धिमुवेइ ३२६ भावणाजोगसुखप्पा ३८६ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३६ ] ११३ ४६ २३६ ३६१ ३५३ २८५ भावस्स मणं गहणं भावेसु जो गिद्धिमुवेइ भासमाणो न भासेज्जा भासाइ दोसे य गणे भिक्खालसिए एगे भिक्तिमच न केयव्व भुओरगपरिसप्पा य भुजित्तु भोगाइ ५० भूएहिं न विरुज्झज्जा भूयाणमेसमाधाओ भोगामिसदोसविसन्ने भोच्चा माणुसए भोगे ४१४ २७७ ३३८ ४०० ३२७ मरिहिसि राय जया ३२८ महासुक्का सहस्सारा २७६ महुकारसमा बुद्धा १४० मता जोग काउ २८६ माइणो कटु माया य २३० माई मुद्धण पडई ४३ मा एय अवमन्नन्ता २०८ मा गलियस्सेव कस ३७० माणविजएणं भते । १६६ माणुसत्तम्मि आयाओ २६५ माणुसत्ते भवे मूल ८१ माणुस्स च अणिच्च माणुस्स विग्गह लद्ध मा पच्छ असाधुता मा पेह पुरा-पणामए १५७ मा य चण्डालिय कासी ३५३ माया पिया एहसा भाया ४४ मायाविजएणं भन्ते । २७५ मायाहिं पियाहिं लुप्पइ २२५ मासे मासे तु जो बालो २०६ माहणा खत्तिया वैसा ३२६ मिच्छादसणरत्ता ७८ २२७ ३६५ १६३ २७७ ३७४ मच्छा य कच्छभा य मणगुत्तयाएण भते । मणपल्हायजणणी मणसा वयसा चेव मणुया दुविहभेया उ मणोगय वक्तगय मणो साहसिओ भीमो मणोहरं चित्तधरं मन्दा य फासा वहु० ३३६ ४१५ ३४३ १६८ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ ४४० ] ८१ रोइअनायपुत्तवयणे २४६ १३५ mr ३१३ ३१४ १६१ १५४ mr १४० लद्रूण वि नारियत्तणं ३२६ लभ्रूण वि उत्तम सुइ २६८ लखूण वि माणुसत्तणं लाभालामे सुहे दुक्खे लेताहिं सव्वाहिं चरम ३२२ लेताहि सवाहिं पढमे लोगुत्तम च वयमिणं लोभविजएणं भते ! ३२६ लोहत्सेत अणुप्फासे १पूर ३८५ १५१ ३३६ १७३ २८९ मित्तव नाइव होइ मुसावाओ य लोगम्मि मुहुत्तदुक्ला उ हवन्ति मुहं मुहु मोहगुणे मुलाओ खन्धप्पभवो मूलमेयमहम्मत्त मोक्ताभिकलित्व उ भीसत्व पच्छा मोहणिज्ज पि दुविह रमए पंडिए सात रसत्स जिन्मं गहणं रसेतु जो गिद्धिमुवेइ रागदोसस्तिया वाला रागो य दोसो विय रहिरे पुणो वच्च ख्वस्त चक्खं गहण ख्वाणुगासाणुगए स्वाणुरत्तस्त नरत्न ख्वाणुवाएण परि० स्वे अतित्ते य परि० स्वे विरत्तो मणुओ स्वेतु जो गिदिमुवेइ ३२६ १८५ २२८ ३४१ वड्ड्इ सुडिया तस्त ५६ वत्तणालक्षणो कालो ४०८ वत्यगंधमलकारं ३१९ वयगुतयाए णं भते ! ३२० वरवारुणीए व रतो ३२३ वर मे अप्पा दंतो ३२१ वलया पव्वया कुहणा १४६, ३२१ वहणं तसचावराण होई ३२३ वहगे वहमाणस्त ३१६ वके वकसमायारे २४ २६४ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ३४ १९८ २३६ ४१७ ७६ २४५ मवेहिं भूएहिं दया० सह समइए णच्चा नखककुदसकाना ( रयय ) नखककुदसकासा (सीयाए) सगाण य परिणाया मतत्ता केसलोएण सतिमे सुहुमा पाणा घ० सथार फलग पीढ सपत्ते भिक्खकालम्भि सवुज्झह । किं न बुज्झह । सवुज्झमाणे उ नरे सरभ समारभे ( काय) सरभसमारभे ( मण) सरभ समारभे ( वय ) ससय खलु सो कुणई ससारत्या उ जे जीवा ससारत्या य सिद्धा व ससारमावन्न परस्स साण सूइअ गाविं सामाइएण भते । सामाइय त्य पढम साहरे हत्यपाए य [ ४४३ ] २५६ साहवो तो चियत्तण ३५५ साहारणसरीराओ ३७८ सिणेह पुप्फमुहुम ६२ सियाण अदुवा कक्क २०४ ४१८ सिया य समणठाए १८२ सीओदगसमारम्भे २०० २०३ सीओदग न सेविजा १६५ २२१ सीह जहा खुडुमिगा २३१ सुइ च लद्ध सद्ध च ३०२ सुकड ति सुपक्क ति १२३ सुक्कज्माण झियाएजा . २२७ सुक्कमूले जहा रूक्खे २२५ सुणिवा भाव साणस्स २२६ सुत्तेसु यावी पडिबुद्ध० ३०९ ४१२ सुद्धपुढवी न निसीए १६४ २६ सुर वा मेरग वा वि १७ सुवक्कसुद्धिं समु० १४१, १६३ ३०८ सुवण्णरूपस्स उ २३३ सुसवुडा पचहिं स० २६० ३६५ सुसाणे सुन्नगारे वा ___६५ सुस्सूसमाणो उवासेजा २२५ सुहसायगस्स समणस्स ११० १८७ २८१ २०४ १७१ २०६ ૨૬ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 444 ] सूर मण्गइ अप्पाण से गामे वा नगरे वा से जाण अजाण वा से हु चक्सु मणुयाण सोचा जाणइ कल्लाण सो तस्स सव्वस्न मोलसविहभेएण तो वि अतरभामिल्लो सोही उज्जुभूयस्त 253 276 267 162 378 176 हत्यनजए पायजए 232 हत्य पाय च काय च 87 हत्यागया इमे कामा 371 हम्ममाणो न कुप्पेज्जा 104 हरियालभेपनकासा 332 हरियाले हिंगुलए 67 हात किहु रइ दप्प 287 हिय विगपभया बुद्धा 76 हिंगुलघाउसकाता हिंसे वाले मुसावाई म० 156 हिंसे वाले मुसावाई मा० રરર 378 हत्य पायपडिच्छिन्न 268