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________________ १२० ] [ श्री महावीर वचनामृत उसे अनुपम शान्ति मिलती है । ऐसी आत्मा के सब कर्म शीघ्रता से नष्ट हो जाय, यह स्वाभाविक ही है । पडंति नरए घोरे, ज नरा पावकारिणो । दिव्वं च गड़ं गच्छंति, चरिता धम्ममारियं ॥ १०॥ [ उत्त० अ० १५, गा० २५ ] जो मनुष्य पापकर्ता है वह घोर नरक में जाता है और जो आर्य धर्म का आचरण करनेवाला है वह दिव्य गति मे जाता है । C विवेचन - कर्म का नियम अबाधित है । उसमे किसी का अनुनय-विनय अथवा अनुरोध नही चलता । जो अनुचित काम करता है, अवर्माचरण करता है, पाप प्रवृत्ति मे लीन रहता है, उसे मृत्यु के पश्चात् भयंकर नरक-योनि मे जन्म लेना पड़ता है और वहाँ उसे अवर्णनीय दुःख सहने पड़ते हैं । इसी तरह जो अच्छे कर्म करते हैं, आर्यधर्म का आचरण करते हैं, अर्थात् दया दान परोपकारादि प्रवृत्ति में लीन रहते है, उन्हें मृत्यु के पश्चात् स्वर्गीय सुख अथवा सिद्धिगति प्राप्त होती है । -:0:
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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