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________________ संसारी जीवों का स्वरूप ] [ ३६ एवमायओ । इइ वेइंदिया एए, ऽणेगहा लोगेगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ वियाहिया ||२७|| [ उत्त० अ० ३६, गा० १२७ से १३० ] दो इन्द्रियोवाले जीव दो प्रकार के होते है :- पर्याप्त और अपर्याप्त । इनके दो भेद मेरे द्वारा सुनो कृमि ( अशुचिमय पदार्थो में उत्पन्न होनेवाले ), सुमङ्गल, अलसिया, मातृवाहक ( कनखजूरा ), वासीमुख, छिपकली, शंख, घोघा, पल्लक, अनुपल्लक, कोडी, जलौका, जालक, चदनक ( स्थापनाचार्य मे रखा जाता है ) आदि । ये दो इन्द्रियवाले जीव अनेक प्रकार के है । ये सब लोक के एक भाग में स्थित कहे गये हैं, न कि सर्वत्र । विवेचन- जिन्हे सामान्यतया जन्तु अथवा कीड़े ( Worms and insects ) कहते है, उनका समावेश, दो इन्द्रियवाले, तीन इन्द्रियवाले और चतुरिन्द्रियवाले जीवो में होता है | तेइंदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । पजत्तमपज्जत्ता, तेर्सि भेए भेए सुणेह मे |२८| कुंथु पिवीलिया दंसा, उक्ललुद्देहिया तहा ॥ तणहारकट्ठहारा य, मालूगा पत्तहारका ||२६|| कपासट्ठिमिंजा य, तिंदुगा तउस मिंजगा || सदावरी य गुम्मी य, बोधन्वा इंदगाइया ||३०||
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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