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________________ ३८] [श्री महावीर-वचनामृत विवेचन-सूक्ष्म-वायुकायिक जीव पृथ्वीकायिक सूक्ष्म जीव के समान ही सूक्ष्म है और वे समस्त लोक में व्याप्त हैं। जो रुक-रुक कर फिर से वहने लगे, वह उत्क्रलिक वायु । जो चक्राकार घूमता आये अर्थात् झमावात जैसा हो, वह मण्डल्कि वायु । जो वायु गाढ-घना हो, वह धन वायु । यह वायु ससार को स्थिर रखनेवाली घनोदवि का आवाररूप होता है। जो वायु गूंजता हुआ बहे, वह गूंजन वायु और जिस वायु की मन्द-मन्द लहरियां वहतो है, वह शुद्ध वायु । ओराला तसा जे उ, चहा ते पकित्तिया । वेइंदिया तेइंदिया, चउरो पंचिंदिया चेव ॥२३॥ [उत्त० अ० ३६, गा० १२६] प्रधान त्रस जीव चार प्रकार के कहे गये हैं:-(१) दो इन्द्रियवाले, (२) तीन इन्द्रियवाले, (३) चार इन्द्रियवाले और (४) पांच इन्द्रियवाले। वेइंदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणह मे ॥२४॥ किमिणो सोसंगला चेव, अलसा माइवाया। वासीमुहा य सिप्पीया, संखा संखणगा तहा ॥२५॥ पल्लोयाणुल्ल्या चेव, तहेव च वराडगा। जलूगा जालगा चंव, चंदणा य तहेब य ॥२६॥
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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