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________________ ३४] [प्रस्तावना मानते थे। उन्होंने कहा-'एक व्यक्ति सम्प्रदाय को छोता है पर धर्म को नही छोडता। एक व्यक्ति धर्म छोड़ देता है पर सम्प्रदाय को नहीं छोड़ता। 'एक व्यक्ति दोनों को छोड़ देता है और एक व्यक्ति दोनों को नहीं छोडता । सम्प्रदाय धर्म की उपलब्धि में सहायक हो सकता है। इस दृष्टि से उन्होंने सघ-बद्धता को महत्व दिया। किन्तु धर्म को सम्प्रदाय से आवृत्त नहीं होने दिया । उन्होंने कहाजो दार्शनिक लोग कहते है कि हमारे सम्प्रदाय में आओ, तुम्हारी मुक्ति होगी अन्यया नही, वे भटके हुए हैं और वे भी भटके हुए हैं जो अपने-अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और दूसरो के सम्प्रदाय की निन्दा करते हैं। धर्म को आरावना सम्प्रदायातीत होकर सत्याभिमुख होकर ही की जा सकती है। सम्प्रदाय एक माचन है, जीवन यापन को परस्परता या सहयोग है। वह व्यक्ति को प्रेरित कर सकता है किन्तु वह स्वय धर्म नहीं है। सम्प्रदाय और धर्म को भिन्न-मिन्न मानने वाले सावक के लिए सम्प्रदाय धर्म-प्रेत होता है, धर्म-घातक नही। • व्यक्ति और समुदाय भगवान् महावीर तीर्यकर थे-भावना के सामुदायिक रूप के महान् सूत्रधार थे। दूसरे पार्च मे वे पूर्ण व्यक्तिवादी थे। उन्होंने कहा-आत्मा अकेला है। वह अपने आप मे परिपूर्ण है। सज्ञा और वेदना भी उसकी अपनी होती है। समुदाय का अर्थ निमित्तनैमित्तिक भाव है। सहयोग या परस्परालम्बन से गति उत्पन्न होती है। उसका अविभक्त उपयोग ही समुदाय है। भगवान् ने
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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