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________________ १३६ ] [श्री महावीर-वचनामृत इस जगत मे सभी साधु पुरुषो ने मृषावाद अर्थात् असत्य वचन __की घोर निन्दा की है ; क्योंकि वह मनुष्यों के मन मे अविश्वास उत्पन्न करनेवाला है। अतः असत्य वचन का परित्याग करना चाहिये। न लविज्ज पुट्ठो सावज्जं, न निरटुं न मम्मयं । अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्संतरेण वा ॥५॥ [उत्त० म० १, गा० २५] यदि कोई पूछे तो अपने लिये अथवा अन्य के लिये, अथवा दोनों के लिए, स्वप्रयोजन अथवा निष्प्रयोजन, पापी एव निरर्थक वचन नही बोलना चाहिये । न मर्मभेदी वचन ही वोलना चाहिये। आहच्च चण्डालियं कटु, न निण्हविज्ज कयाइ वि । कडं कडेत्ति भासेज्जा, अकडं नो कडेत्ति य ॥६॥ [उत्त० अ० १, गा० ११] यदि क्रोध के कारण कभी मुँह से असत्य वचन निकल पड़े, तो उसे छिपाये नही । यदि असत्य वचन बोल चुके हों तो वैसा साफ साफ कह देना चाहिये और नही बोला हो तो वैसा कहना चाहिये। अर्थात् किये हुए को किया हुआ और नही किये हुए को नही किया हुआ कहना जरूरी है। इस तरह सदा सत्य बोलना चाहिये। चउण्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पन्नवं । दोहं तु विणयं सिक्खे, दो न भासिन्ज सब्बसो ॥७॥ [ दश० अ०७, गा० १]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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