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________________ भिक्षु की पहचान] नारीसु नो पगिज्झेज्जा, इत्थी विप्पजहे अणगारे । धम्मं च पेसलं णच्चा , तत्थ ठविज्ज भिक्खु अप्पाणं ॥२४॥ [उत्त० भ०८, गा० १६] अणगार स्त्रियो के प्रति आसक्त न बने और उनका सम्पर्कसमागम छोड़े। भिक्षु धर्म को सुन्दर मानकर उसमे अपनी आत्मा को स्थिर रखें। बहुं खु मुणिणो भई, अणगारस्स भिक्खुणो । सवओ विप्पमुक्कस्स, एगन्तमणुपस्सओ ॥२॥ [उत्त० अ० ६, गा० १६] सर्व बन्धनों से मुक्त होकर एकत्वभाव मे रहनेवाले, गृहरहित, भिक्षाचरी करनेवाले मुनि निश्रय ही बहु सुखी होता है। तं देहवासं असुइं असासयं, सया चए निचहिअडिअप्पा । छिंदित्तु जाईमरणस्स बंधणं, उवेइं भिक्खू अपुणागमं गई ॥२६॥ दश० भ० १०, गा० २१] आत्मा के हित साधन मे तत्पर साधु इस अशुचिमय और अशाश्वत शरीर का सदा के लिये परित्याग कर देता है तथा जन्म-मरण के बन्धनों को काट कर, 'जहाँ जाने के बाद फिर संसार मे जाना नही होता, ऐसे मुक्ति स्थान को प्राप्त कर लेता है। १७
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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