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________________ [भगवान् महावीर की रात्रि मे बाहर जाकर मुहर्त तक भी ध्यान करते।' निद्रा को दूर रखने के लिये उनका यह मुख्य प्रयोग था। भगवान् अपने मन को निष्क्रिय नही रखते थे। कभी उसे अनुप्रेक्षा अर्थात् तत्त्वचिन्तन मे लगाते अथवा कभी उसे धर्मध्यान में सलग्न करते। वारणा सिद्ध हो जाने से उनके धर्मध्यान मे बहुत ही स्थिरता एव उज्ज्वलता आ गई थी। फिर तो वे आत्मा के शुद्धोपयोगरूप शुक्लध्यान धारण करने मे पूर्णरूपेण सफल हो गये थे। शुक्लध्यान की द्वितीय भूमिका मे श्रुत-ज्ञान का आलम्बन प्राप्त करते हुए द्रव्य के एक ही पर्याय का अभेद-चिन्तन होता है और इसी भूमिका मे मन की समस्त वृत्तियों का लय होने पर केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है। उस केवलज्ञान के द्वारा आत्मा भूत, भविष्य तथा वर्तमान काल की सभी वस्तुओं के सभी पर्यायों को जान सकती है देख सकती है, अर्थात सर्वज्ञ की कोटि में विराजमान हो जाती है। भगवान् महावीर जूम्भिक गांव के बाहर ऋजुवालिका नदी के उत्तरी भाग मे स्थित किमी देवालय के निकट, श्यामाक नामवाले गृहस्य के खेत मे, मालवृक्ष के नीचे, उत्कटिकासन से बैठकर, दो उपवास की तपश्चर्या पूर्वक ध्यानावस्थित हुए थे, तब वे इस शुक्लव्यान की दूसरी भूमिका पर पहुंचे और उनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ। यह गभदिन वैशाख शक्ला दशमी का था और केवलजान प्राति का समय दिन का चतुर्य प्रहर था।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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