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________________ [ श्री महावीर वचनामृत तिउट्टई उ मेहावी, जाणं लोगंसि पावगं । तुट्टंति पावकम्माणि, नयं कम्ममकुव्वओ ॥१३॥ [सू० ० १, अ०, १५, गा० ६ ] पापकर्मों को जाननेवाला बुद्धिमान् पुरुष ससार मे रहते हुए भी पापों को नष्ट करता है । जो पुरुष नये कर्म नही बाँचता, उसके सभी पाप कर्म क्षीण हो जाते है । जहा जुन्नाई कट्ठाई हव्यवाहो पमत्थति, एवं अत्तसमाहिर अणिहे ||१४|| ३४६ ] [ भ० श्रु० १, अ० ४, उ० ३] जैसे अग्नि पुरानी सूखी लकडियों को शीघ्र जला देती है, वैसे ही आत्मनिष्ठ और मोहरहित पुरुष कर्मरूपी काष्ठ को जला डालता है । पंडिए । तुलियाणं वालभावं, अबालं चेव चइऊण बालभावं, अवालं सेवई मुणी ॥ १५ ॥ [ उत्त० अ० ७, गा० ३० ] पण्डित मुनि बालभाव और अबालभाव की सदा तुलना करे. और बालभाव को छोड कर अबालभाव का सेवन करे । -::-- 1
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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