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________________ [ श्री महावीर वचनामृत ब्रह्मचर्यपरायण साधक को चाहिए कि वह मन मे आह्लाद उत्पन्न करनेवाली तथा विषय-वासनादि की वृद्धि करनेवाली स्त्रीकथा का निरन्तर त्याग करे । १५८ ] समं च संथवं थीहि, संकहं च अभिक्खणं । भचेररओ भिक्खू, निच्चसो परिवज्जए ||२४|| [ उत्त० अ० १६, गा० ३] ब्रह्मचर्य मे अनुराग रखनेवाले साधक स्त्रियों के परिचय और उनके साथ बैठकर वारवार वार्तालाप करने के अवसरो का सदा के लिए परित्याग कर दे । कुन्यंति संथवं ताहिं, पन्भट्ठा समाहिजोगेहिं । तम्हा उ वज्जए इत्थी, विसलित्तं व कण्ठगं नच्चा ॥ २५॥ [ सू० श्र० १, भ० ४, उ० १, गा० १६ - ११ ] जो स्त्रियों के साथ परिचय रखता है, वह समाधियोग से भ्रष्ट हो जाता है । अतः स्त्रियों को विषलिप्त कंटक के समान समझकर ब्रह्मचारी उनका सम्पर्क छोड़ दे । नो तासु चक्खु संघेज्जा, नो विय साहसं समभिजाणे ।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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