SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्या और क्यों?] [४१ जिनसे उनका निरोध या विनाश होता है, वे धर्म कहलाते है । भगवान् की भाषा मे समता ही धर्म है और विषमता ही अधर्म है। राग और द्वष यह विषमता है। न राग, न द्वष—यह समता, तटस्थता या मध्यस्थता है । यही धर्म है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शान्ति, क्षमा, सहिष्णुता, अभय, ऋजुता, नत्रता, पवित्रता, आत्मानुगासन, सयम, आदि-आदि जो गुण है, वे उसी के क्रियात्मक रूप है। इन्ही को व्यवहार की भाषा मे व्यक्तित्व-विकास के साधन और निश्चय की भाषा मे आत्म-विकास के साधन कहे जाते है। ___ सहज ही प्रश्न होता है, धर्म किसलिए ? साधारणतया इसका समाधान दिया जाता है-परलोक सुधारने के लिए। धर्म परलोक सुधारने के लिए है. यह सच है किन्तु अधूरा। धर्म से वर्तमान जीवन भी सुधरना चाहिए। वह शात और पवित्र होना चाहिए। अपवित्र आत्मा मे धर्म कहाँ से ठहरेगा ? उसका आलय पवित्र जीवन ही है। जिसे धर्म आराधना के द्वारा यहाँ शान्ति नही मिली, उसे आगे कैसे मिलेगी ? जिसने धर्म को आराधा, उसने दोनो लोक आराध लिए। वर्तमान जीवन मे अंधेरा देखने वाले केवल भावी जीवन के लिए धर्म करते है, वे भूले हुए हैं। १-भगवान ने कहा-इहलोक के लिए धर्म मत करो। वर्तमान जीवन मे मिलनेवाले पौद्गलिक मुखो की प्राप्ति के लिए धर्म मत करो। २-परलोक के लिए धर्म मत करो। आगामी जीवन मे मिलने वाले पौद्गलिक सुखो की प्राप्ति के लिए धर्म मत करो। ३-कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि के लिए धर्म मत करो। ४-केवल आत्म-शुद्धि या आत्मा की उपलब्धि के लिए धर्म करो।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy