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________________ आत्म-जय] [८५ अनिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे, न मूलओ छिन्दइ बंधणं से ॥१२॥ उत्त० भ० २०, गा० ३६] जो साधक प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् भी प्रमादवश अङ्गीकृत महानतों का उचित रूप से पालन नहीं करता और विविध रसो के प्रति लोभी बनकर अपनी आत्मा का निग्रह नही करता उसके बन्धन जड भूल से कभी नष्ट नहीं होते। से जाणं अजाणं या, कटु आहम्मियं पयं । संवरे खिप्पमप्पाणं, बीयं तं न समायरे ॥१३॥ [द० अ०८, गा० ३१ ] यदि विवेकी मनुष्य जाने-अनजाने मे कोई अधर्म कृत्य कर बैठे तो उसे अपनी आत्मा को शीघ्र ही उस से दूर कर ले और फिर दूसरी बार वैसा कार्य नही करे। पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिनिगिज्झ एवं दुक्खा पमो. क्खसि ॥१४॥ [आ० अ० ३, उ० ३, सू० ११६ ] हे पुरुष ! तू अपनी आत्मा को ही वश मे कर। ऐसा करने से तू सब दुःखो से मुक्त हो जायगा।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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