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दर्शन विशे विचारणा
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'दर्शन' शब्द त्रण अर्थमां व्यापकपणे प्रचलित छे: १ १. जोवुं २. अलौकिक वस्तुनो साक्षात्कार ३. निश्चित विचारसरणी (जेम के साङ्ख्यदर्शन). जैन परम्परामां आ उपरान्त बे विशिष्ट सन्दर्भे दर्शन - शब्द प्रयोजाय छे : १. तत्त्व परनी श्रद्धा (- सम्यक्त्व) २. निराकार - उपयोग ( - सामान्यग्रहण). अत्रे आमांथी दर्शनना ओक अर्थ निराकार- उपयोग विशे ज विचारवानो उपक्रम छे. ३
३.
ले. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
जैन विद्याना अभ्यासीओमां ज्ञान - दर्शननी व्यवस्था अंगे अने तेमां पण खास करीने दर्शनना स्वरूप सम्बन्धे जे समजण आजे प्रवर्ते छे, ते आगमिक दर्शननी विभावनाथी घणी भिन्नता धरावे छे. आ भिन्नताने ली प्रचलित ज्ञान-दर्शननी व्यवस्था परत्वे आगमिक अने तार्किक –बन्ने दृष्टिओ घणी घणी समस्याओ सर्जाइ शके तेम छे. अत्रे आ समस्याओ अने मूळ दर्शननी विभावनामां रहेला तेमना उकेलो तरफ ध्यान दोरवानो उद्देश छे.
ओक वात खास ध्यानमा राखवानी छे के दर्शन विशे ओक ज स्थाने सांगोपांग निरूपण प्राय: उपलब्ध नथी थतुं; फक्त ओना अंगेना पाठ जुदां जुदां शास्त्रोमां मळे छे. सामान्यतः अभ्यासीओ द्वारा आ पाठोनुं संकलन करीने दर्शन विशे समजवामां अने समजाववामां आवतुं होय छे. आ संकलनमां थयेली त्रुटिने लीधे जूना समयथी ज दर्शननी मूळ विभावना साथेनो सम्बन्ध छूटी
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१. मूळ 'जोवुं, अवलोकन करवुं' अ अर्थमां प्रयोजातो शब्द कई रीते साक्षात्कार अने विचारसरणी सन्दर्भे प्रयोजातो थयो तेनी रसप्रद चर्चा माटे जुओ भारतीय-तत्त्वविद्या (- पं. सुखलालजी) - पृ. ९-१३
२.
आ उपरान्त 'सम्यक्त्वनी विशुद्धि कारक शास्त्र' जेवा अर्थोमां पण औपचारिक रीते 'दर्शन' शब्द जैनपरम्परामां प्रयोजाय छे. जुओ अभिधानराजेन्द्रकोश- भाग-४
पृ. २४२५
'दंसण' शब्द.
प्रस्तुत विषय साथै सम्बन्धित घणी वातो आ पूर्वे ' मतिज्ञानना उत्पत्तिक्रमनी विचारणा' अ लेखमां आवी गइ होवाथी, ते वातो अत्रे पुनरावर्तित नथी करी. लेखनुं स्थानअनुसन्धान- ५४- पृ. १५-३८
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गयो लागे छे; अने नवी व्यवस्थामां पण अलग-अलग व्यक्तिओ द्वारा थयेखें संकलन स्वाभाविक रीते थोडीक विविधता धरावे छे. अटले अत्रे दर्शावाशे ते दर्शनव्यवस्थाथी जूदं निरूपण पण कशेक उपलब्ध थइ शके छे.१ पण अत्यारे सौथी वधारे प्रचलित ज्ञान-दर्शननी व्यवस्था तो नीचे मुजब ज छे.
___ आत्मा सकल विश्वनी तमाम वस्तुओनो सम्पूर्ण बोध करवानी शक्ति धरावे छे, जे केवलज्ञानशक्ति तरीके ओळखाय छे. आत्मा ज्यां सुधी सम्पूर्ण शुद्धि नथी प्राप्त करतो, त्यां सुधी आ शक्ति कर्मने लीधे ढंकायेली रहे छे अने तेथी आत्मा तेनो उपयोग नथी करी शकतो. परन्तु, आ ज्ञानशक्ति अटली प्रबळ होय छे के जेथी गमे तेवं सबळ कर्म पण तेने सम्पूर्णतः ढांकी नथी शकतुं. अटले जेटला अंशे ओ शक्ति खुल्ली रही जाय, तेटला अंशे तेनो उपयोग करीने आत्मा बोध करी शके छे. केवलज्ञानशक्तिना आ खुल्ला रहेला अंशना, विषयक्षेत्र,उपयोगनां साधन व.ने लीधे चार प्रकार पडे छे : १. मतिज्ञानशक्ति (-पांच ज्ञानेन्द्रियो अने मन द्वारा बोध करवानी शक्ति) २. श्रुतज्ञानशक्ति (-सांभळीने के वांचीने बोध करवानी शक्ति) ३. अवधिज्ञानशक्ति (-इन्द्रिय अने मनथी निरपेक्षपणे, निश्चित मर्यादामा रहेला मूर्त पदार्थोनो बोध करवानी शक्ति) ४. मनःपर्यवज्ञानशक्ति (-बीजाना मनना विचारोने जाणवानी शक्ति). आ चारमाथी प्रथम बे ज्ञानशक्ति दरेक जीव पासे होय छे अने छेल्ली बे विशिष्ट कारणोथी ज मळी शके छे. अने पांचमी केवलज्ञानशक्ति तो सर्वथा निर्मल जीवने ज उपलब्ध थाय छे.
बीजी तरफ, दरेक ज्ञेय वस्तु बे अंश धरावे छे : १. सामान्य अंशजेना द्वारा ओक वस्तु बीजी वस्तुओ साथे समानता धरावे छे. २. विशेष अंशजेना लीधे अक वस्तु बीजी वस्तुओथी अलग पडे छे. कोई पण वस्तुमां सामान्य अंशो तो घणा होय छे, पण अत्रे ते ज अन्तिम सामान्य अंशने ध्यानमां १. जेम के 'ज्ञान पूर्वे दर्शन अवश्य होय' अने ‘मतिज्ञाननी शरुआत व्यंजनावग्रहथी थाय'
आ बे नियमोने जोइ अq पण समजाववामां आवे छे के 'दर्शन व्यंजनावग्रहनी पूर्वनो तबक्को छे.' पण व्यंजनावग्रहथी पूर्वे कोई ज्ञानमात्रा सम्भवती न होवाथी, आ वातने अनुचित जाणी अत्रे स्थान नथी आप्यु. "व्यञ्जनावग्रहप्राक्काले दर्शनपरिकल्पनस्य चाऽत्यन्तानुचितत्वात्, तथा सति तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षादपि निकृष्टत्वेनाऽनुपयोगत्वप्रसङ्गाच्च" -ज्ञानबिन्दु-पृ. ४६
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लेवानो छे के जे सामान्य अंश द्वारा तमाम पदार्थोने अक दोरे परोवी शकाय छे अने जे 'कंइक छे' ओवी प्रतीतिनो विषय छे. दरेक सत् पदार्थमां सघळां ये विशेषणोथी विमुक्त ओक उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक सत्त्व वर्ततुं होय छे के जे दार्शनिक परिभाषामां 'महासामान्य' तरीके ओळखाय छे; ते ज आ सामान्य अंश छे. अन्य आपेक्षिक सामान्य अंशो ज्ञानदर्शननी विचारणा पूरता विशेष अंशो ज गणाय छे.
आत्मा पोतानी ज्ञानशक्ति द्वारा वस्तुना सामान्य अने विशेष -बन्ने अंशोनो बोध करी शके छे. जो आ ज्ञानशक्तिओ सामान्य अंशनो बोध करवामां वपराय, तो तेमनो ते वपराश (-उपयोग) 'दर्शन' कहेवाय छे? अने विशेष अंश माटे थतो ज्ञानशक्तिओनो वपराश 'ज्ञान' कहेवाय छे.२ ।
शास्त्रोमां दर्शन 'निराकार उपयोग' तरीके पण ओळखाय छे. जो के कोई पण बोध आकार वगरनो अर्थात् सर्वथा निराकार नथी ज होतो; तो पण दर्शन अटले निराकार गणाय छे के तमाम दर्शनो समानाकार ज होय छे.३ वास्तवमां आकार शब्द अहीं वैशिष्ट्य अर्थमां छे. ज्ञानगत आ वैशिष्ट्य तेनी पोतानी चोक्कस अर्थना ग्रहण तरफनी अभिमुखताने लीधे आवे छे; के जेने लीधे अक ज्ञान बीजा ज्ञानथी जुदुं पडीने ओळखाइ शके छे. फक्त अने फक्त महासामान्यना ग्राहक दर्शनोमां आवी कोइ विशिष्टता छ ज नहीं के जेनाथी बे दर्शन परस्पर छूटां पडी शके, माटे दर्शन निराकार छे अने परस्पर विषयवैशिष्ट्य धरावनार ज्ञान साकार छे. दर्शन अटले पण निराकार गणाय छे के ते वस्तुने पकडतुं ज नथी, मात्र महासामान्यने ज देखे छे के जे बधी ज वस्तुमां सरखं
१. दृश्यतेऽनेनेति दर्शनं, दृष्टिर्वा दर्शनं, सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको
बोधः । ज्ञायते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानं, ज्ञप्तिर्वा ज्ञानं, सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि
विशेषग्रहणात्मको बोधः -नव्यकर्मग्रन्थ-१-गाथा ३-टीका. २. जो के दर्शनमां पण गौणपणे विशेषोनो अभ्युपगम होय छे, अने ज्ञानमां पण गौण
पणे सामान्यनो अभ्युपगम होय ज छे. ३. "अनाकाराणि- सामान्याकारयुक्तत्वे सत्यपि न विद्यते विशिष्टो व्यक्त आकारो येषु
तान्यनाकाराणि" - कर्मग्रन्थटीका ४. "आकारः प्रतिनियतो ग्रहणपरिणामः' - भगवतीटीका
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छे; तेथी दर्शनमां ग्राह्य अर्थने सम्बन्धित आकार रचातो ज नथी, ते निराकार ज रहे छे. अथी उलटुं, ज्ञान वस्तुने तेना पोतीका स्वरूपे ज पकडे छे तेथी ज्ञानमां ग्राह्य वस्तुनी जोडे एकाकारता आवे छे माटे ज्ञान साकार छे. अत्रे आकारनो अर्थ तद्रूपता छे.' आम दर्शनमां विषयवैशिष्ट्य न होवाने लीधे पण ते 'निराकार' गणाय छे, अने वस्तु साथे तद्रूपता आवती न होवाथी पण ते 'निराकार' कहेवाय छे.
दर्शन आ ज कारणथी प्रमाण अने अप्रमाण - उभयकोटिथी पर गणाय छे. कारण के दर्शने तो महासामान्यनुं ज ग्रहण करवानुं छे अने महासामान्य तो बधे सरखुं ज होय छे; तेथी तेना ग्रहणमां साचा-खोटानो प्रश्न ज उपस्थित नथी थतो. परन्तु ज्ञाननी बाबतमां आवुं नथी. ज्ञाने विशेषोने ग्रहण करवाना छे अने गृहीत विशेषो साचा के खोटा होइ शके छे, तेथी ओ विशेषोनी सत्यता के असत्यताने लीधे ज्ञान पण प्रमाण के अप्रमाण गणाय छे. जो के सापने साप गणवो ते प्रमाण अने दोरडाने साप तरीके ओळखवो ते अप्रमाण -आवुं विषयग्रहण पर निर्भर लौकिक प्रामाण्याप्रामाण्य अत्रे सम्भवी शके छे; पण वास्तवमां अत्रे जैनदर्शनने सम्मत पारमार्थिक प्रामाण्याप्रामाण्यने आपणे समजवानुं छे.२ छद्मस्थ जीवने थतो बोध अपूर्ण ज होय छे, कारण के तेनी दृष्टि बहु ज सीमित क्षेत्र अने कालमां प्रवर्ते छे, वळी बहु ज थोडां द्रव्यपर्याय तेना ज्ञाननो विषय बनी शके छे. सम्पूर्ण बोध तो केवलज्ञानी भगवन्तने ज थइ शके छे. तेओओ छाद्मस्थिकबोध शा माटे ? अने कई रीते ? अपूर्ण होय छे अने तेने सम्पूर्ण कई रीते बनावी शकाय तेनी स्पष्ट समज आपी ज छे. वळी, तत्त्व अने सत्य शुं होय ते पण बहु सूक्ष्मताथी जणाव्युं छे. आ सर्व पर श्रद्धा धरावनारी व्यक्ति अ समजणने आधारे पोताना अपूर्ण बोधने पण पूर्ण बनावी दे छे. अने अथी उलटुं श्रद्धाविहोणी व्यक्ति पोताना अपूर्ण बोधने पण पूर्ण मानी ले छे. आथी पारमार्थिक व्यवस्था अनुसार तत्त्वश्रद्धा
" न विद्यते ग्राह्यार्थसम्बन्धी आकारो यत्राऽऽसौ अनाकारः "
जीवसमास - ८३ - टीका
लौकिक अने पारमार्थिक प्रामाण्याप्रामाण्यना विशेष विवरण माटे जुओ- दर्शन और चिन्तन (- पं. सुखलालजी) पृ. ७५-७७
३. जेने केवलज्ञान नथी प्राप्त थयुं ते जीव ‘छद्मस्थ' कहेवाय छे.
१.
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धरावनार व्यक्तिनुं (-सम्यक्त्वी जीवनुं ) ज्ञान 'ज्ञान' कहेवाय छे अने तत्त्वश्रद्धा न धरावनार व्यक्तिनुं (-मिथ्यात्वी जीवनुं) ज्ञान 'अज्ञान' गणाय छे. १ ज्ञान प्रमाण छे अने अज्ञान अप्रमाण छे.
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श्रुतज्ञानशक्तिनो विषय छे वाक्यना अर्थथी जन्य बोध अने मनःपर्यवज्ञानशक्तिनो विषय छे मानसिक विचारो आथी आ बे ज्ञानशक्तिओ स्वभावथी ज विशेषग्राही ज छे, अने माटे तेमना निराकार उपयोग पण नथी होता. वळी, मन:पर्यवज्ञानशक्ति अने केवलज्ञानशक्ति तत्त्वश्रद्धा वगर प्राप्त ज नथी थती, माटे तेओनो साकार उपयोग कदी पण अज्ञानात्मक नथी होतो. आ उपरान्त, मतिज्ञानशक्तिनो निराकार उपयोग- सामान्यग्रहण जो चक्षु द्वारा थाय तो चक्षुर्दर्शन अने अन्य चार ज्ञानेन्द्रियो के मन द्वारा थाय तो अचक्षुर्दर्शन गणाय छे.
आ समग्र व्यवस्थाने अनुलक्षीने पांच ज्ञानशक्तिना कुल बार उपयोग सर्जाय छे :
मतिज्ञानशक्ति : १. मतिज्ञान २. मत्यज्ञान ३. चक्षुर्दर्शन ४. अचक्षुर्दर्शन
श्रुतज्ञानशक्ति १. श्रुतज्ञान २. श्रुताज्ञान
अवधिज्ञानशक्ति : १. अवधिज्ञान २. विभङ्गज्ञान' ३. अवधिदर्शन
मन:पर्यवज्ञानशक्ति : १. मन:पर्यवज्ञान
केवलज्ञानशक्ति : १. केवलज्ञान २. केवलदर्शन.
सामान्यअंशनुं ग्रहण थया पछी ज विशेषअंशनुं ग्रहण थाय ते सर्वसम्मत छे. माटे दर्शन प्रवर्ते, पछी ज ज्ञान प्रवर्ते से नियम पण आपोआप रचाय छे. दर्शन अने ज्ञान बन्ने अन्तर्मुहूर्तकालीन होय छे, कारण के कोई
१. मिथ्यात्वी जीवना ज्ञानने अज्ञान गणवानां अन्य कारणो माटे जुओ विशेषावश्यकभाष्य गाथा ११५ अने तेनी टीका.
मिथ्यात्वी जीवनुं अवधिज्ञान 'विभङ्गज्ञान' कहेवाय छे.
जैनकालगणना मुजब कालनो अन्तिम निर्विभाज्य भाग 'समय' गणाय छे. आवा ओछामां ओछा ९ समयथी मांडीने वधुमां वधु लगभग ४८ मिनिट जेटलो काल 'अन्तर्मुहूर्त' गणाय छे. मतलब के अन्तर्मुहूर्त अनेक प्रकारनुं होय छे.
२.
३.
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पण उपयोग अन्तर्मुहूर्तथी ओछा समयमां थाय पण नहीं अने अन्तर्मुहूर्तथी वधु टके पण नहीं. दर्शनोपयोगना अन्तर्मुहूर्त करतां ज्ञानोपयोगनुं अन्तर्मुहूर्त मोटुं होय छे, कारण के सामान्यना ग्रहण करतां विशेषनुं ग्रहण वधु समय मांगे छे. १ जो के आ बधा नियम छद्मस्थ जीव माटे ज छे. केवलज्ञानी भगवन्तने ते सदाकाल ओक समय केवलज्ञान अने बीजा समये केवलदर्शन ओवी धारा प्रवर्ते छे.
ज्ञानना तमाम भेदो साकार अने ज्ञानावारक कर्मना क्षयोपशमथी जन्य होय छे. तथा तमाम दर्शनो निराकार अने दर्शनावारक कर्मना क्षयोपशम साथे निस्बत धरावनारा होय छे.
ओक ओक ज्ञानना असंख्य भेदो पडे छे, छतांय स्थूल-भूमिका पांच ज्ञानना अनुक्रमे २८, १४, ६, २ अने १ ओम कुल ५१ भेद समजाववामां आवे छे. तेमांथी मतिज्ञानना उत्पत्तिक्रमने अनुलक्षीने रचाता २८ भेद प्रस्तुत चर्चामां उपयोगी होवाथी ते समजवा जरूरी छे. श्रावणमतिज्ञानना ५ भेद छे : १. व्यंजनावग्रह श्रोत्रनो शब्दात्मक पुद्गलो साथै संयोग, २. अर्थावग्रह ‘कंइक छे' ओवी निराकार प्रतीति ३. ईहा - 'शुं हशे ?' तेनी विचारणा ४. अपाय - 'शब्द छे' ओवो निश्चय ५. धारणा निश्चयनी स्थिरता. आवा ज ५-५ भेद स्पार्शन, रसन, घ्राणज, चाक्षुष अने मानस मतिज्ञानना थाय छे. कुल ३०. तेमां चक्षु अने मनने विषयबोध माटे विषय साथेना संयोगनी अपेक्षा न होवाथी', अर्थावग्रहथी ज ते बे स्थळे प्रक्रिया आरम्भाती होवाथी, ३०मांथी चाक्षुषव्यंजनावग्रह अने मानसव्यंजनावग्रह ओ बे भेद न होय; ए रीते मतिज्ञानना २८ भेद थाय छे. अन्य ज्ञानोना भेदो विशेषावश्यकभाष्य, नन्दीसूत्र जेवा महाग्रन्थोमांथी जाणी शकाय .
१.
२.
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अनुसन्धान-५६
-
उपर दर्शावेली व्यापकपणे प्रचलित ज्ञान - दर्शननी व्यवस्था खूब ज व्यवस्थित, शास्त्राधारित अने सुदृढ छे, ते स्पष्ट देखाय छे. छतां पण तेमांनां केटलाक प्रतिपादन परत्वे केटलाक प्रश्नो अवश्य सर्जाई शके तेम छे. जेम के
44
'अनाकारोपयोगकालात् साकारोपयोगकालः सङ्ख्येयगुणः प्रतिपत्तव्यः, पर्यायपरिच्छेदकतया चिरकाललगनात्, छद्मस्थानां तथास्वाभाव्यात्"
प्रज्ञापना- पद २८
टीका.
चक्षु अने मन आकारणे ज 'अप्राप्यकारी' कहेवाय छे.
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१. 'कंइक छे' एवा बोधात्मक अर्थावग्रहने अक बाजु स्पष्टत: निराकार स्वरूप धरावतो अने अव्यक्त सामान्यनो ग्राहक समजाववामां आवे छे, तो बीजी तरफ साकार अने विशेषग्राही मतिज्ञानना भेद तरीके ओनी गणतरी छे. आमां विरोध नथी ?
१
२. ज्ञाननी उत्पत्ति पूर्वे दर्शननुं होवुं अनिवार्य छे, पण उपर दर्शावेली मतिज्ञाननी उत्पत्ति प्रक्रियामां दर्शनने स्थान ज क्यां छे ?
३. उपरनी बन्ने समस्याओनुं समाधान ओ आपवामां आवे छे के व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह अने ईहा - त्रणेय दर्शनना- निराकार उपयोगना ज भेद छे. अने आ त्रण होय तो ज अपाय - धारणात्मक मतिज्ञान थइ शके छे. माटे दर्शननी ज्ञान पूर्वे अनिवार्यता पण आपोआप सचवाइ जाय छे. ३
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आ समाधाननी सामे से समस्या ऊभी थाय छे के जो आ त्रण भेदो 'दर्शन' छे, तो साक्षात् दर्शनना भेद तरीके ओमनी गणतरी केम कशे नथी देखाती ? बधे ज मतिज्ञानना अवग्रहादि २८ भेद - ओवी अकसरखी गणतरी शा माटे ? अवग्रहने, सामान्यना ग्रहणमात्रथी, 'दर्शन' गणी लेवानुं होय तो, सामान्यनी मानसिक विचारणा वखते पण फक्त सामान्य ज विषय बनतुं होय छे, तो ओ विचारणाने पण 'दर्शन' गणवी ?
१.
४. ओक समाधान ओवुं पण आपवामां आवे छे के ‘मतिज्ञानना २८ भेद' नो मतलब से नथी के मतिज्ञानरूप साकारोपयोगना २८ भेद होय छे, पण ओ छे के मतिज्ञानशक्तिना २८ भेद छे. ज्ञानशक्तिना उपयोग तो साकार - निराकार बन्ने होय छे. माटे मतिज्ञानशक्तिना भेदोमां साकार अने निराकार बन्ने उपयोगोना भेदोनी गणतरी छे. तेथी अवग्रहादि, मतिज्ञानशक्तिना दर्शनना भेदो छे अवुं समजवानुं छे जेमां कोई विरोध नथी.
आ समाधान अटले गेरवाजबी ठरे छे के जो मतिज्ञानना भेदोनी “अर्थावग्रहेऽव्यक्तशब्दश्रवणस्यैव सूत्रे निर्देशाद्, अव्यक्तस्य च सामान्यरूपत्वाद्, अनाकारोपयोगरूपस्य चाऽस्य तन्मात्रविषयत्वात् "
जैनतर्कभाषा
२. नाणमवायधिइओ, दंसणमिट्टं जहोग्गहेहाओ
वि. भाष्य
५३६
३.
अमुक ठेकाणे ओकला अर्थावग्रहने अथवा अर्थावग्रह - व्यंजनावग्रह से बेने पण 'दर्शन' तरीके ओळखाववामां आव्या छे.
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गणतरी वखते मतिज्ञानशक्तिने ध्यानमा राखवानी होय अने तेथी तेना दर्शनोना भेदोनो पण तेमां समावेश करवानो होय; तो अवधिज्ञान अने केवलज्ञानना भेद पण ते ते ज्ञानशक्तिना ज समजवा जोइए अने तो पछी अवधिज्ञानना भेदोमां अवधिदर्शननो अने केवलज्ञानमां केवलदर्शननो समावेश केम नथी? अने जो त्यां ओ न होय तो मतिज्ञान वखते ज दर्शननो समावेश शा माटे ? नथी लागतुं के अवग्रह-ईहाने वास्तविक दर्शन गणी लेवानी उतावळ आपणे न करवी जोइ ?
५. छद्मस्थजीवने विशेषांशना ग्रहण पूर्वे सामान्यांशनुं ग्रहण अनिवार्य छे.१ विशेषांश- ग्रहण ज्ञान कहेवाय छे अने सामान्यांशनो बोध दर्शन गणाय छे ओ आपणे पूर्वे जोइ गया. हवे नन्दीसूत्रनो मतिज्ञान- विषयक्षेत्र दर्शावतो पाठ जुओ : “दव्वओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वदव्वाइं जाणति न पासति... ।" अत्रे आगमिक परिभाषा मुजब 'जाणति' अने 'पासति' अनुक्रमे ज्ञान अने दर्शन साथे सम्बन्धित छे. तेथी प्रचलित व्यवस्था मुजब आनो अर्थ थाय : ‘मतिज्ञानी सर्वद्रव्योना विशेषांशनुं ग्रहण करे छे, पण सामान्यांशनुं नथी करतो'. आq तो कई रीते मानी शकाय ? तो 'पासति' अत्रे ‘पश्यत्ता(जोवू)'ना सन्दर्भमां ज वपरायुं छे एवं नहि ?
६. श्रुतज्ञान अने मनःपर्यवज्ञानमां तो सामान्यग्रहण ज नथी होतुं; छतांय नन्दीसूत्रगत तेमनां विषयनिरूपणमां पण 'पासति' शब्द आवे छे ! जो के आ 'पासति'ने 'पश्यत्ता'ना सन्दर्भमां व्याख्यायित करवामां आव्यु ज छे अने ओ रीते ते निरर्थक पण नथी ज; परन्तु कहेवानुं तात्पर्य अटलुं ज छे के ‘पासति (-दर्शन)' जो मूलतः ‘जोवू' ने बदले सामान्यग्रहण साथे सम्बन्ध धरावतुं होत तो कदापि नन्दीसूत्रमा अनो आ रीते प्रयोग करवामां न आव्यो होत.
७. दर्शन जो सामान्य अंश- ज ग्राहक होय अने ज्ञान विशेष अंशनुं ज, तो केवलज्ञान अने केवलदर्शन -बन्नेमांथी अक पण सर्वविषयक नहीं बने. जो के सामान्य अने विशेष -बन्ने अन्योन्य संवलित ज होय छे अने १. "दर्शनपूर्वं ज्ञानमिति छद्मस्थोपयोगदशायां प्रसिद्धम्' - ज्ञानबिन्दुगत सन्मतितर्क -
२.२२नी टीका. २. श्रुतज्ञान अने मनःपर्ययज्ञानमां ‘पासति' ना विशेष विवरण माटे जुओ पृ.१६८-१७०
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तेथी प्रधानपणे सामान्यग्राहक केवलदर्शनमां गौणपणे विशेषोनो बोध छे ज, तेम ज प्राधान्यथी विशेषग्राही केवलज्ञान गौणपणे सामान्यग्राही छे ज, अने अटले ते बन्ने सर्वविषयक बने छे - आवं समाधान आ समस्यानुं सूचववामां आवे छे; पण प्राधान्यथी सर्वविषयकत्व क्यांय न रहेवानी आपत्ति ऊभी ज रहे छे.
८. दर्शन फक्त सामान्यग्रहणरूप ज होय, अमां कोई विशेषता आवती ज न होय तो शा माटे चक्षुथी थतुं दर्शन ते चक्षुर्दर्शन अने अन्य ४ ज्ञानेन्द्रियो ने मनथी थतुं दर्शन ते अचक्षुर्दर्शन - आवा विभाग पाडवा पडे ? 'सन्मति'कारना शब्दोमां कहीओ तो चक्षुरिन्द्रियजन्य सामान्य बोधमां, अन्य इन्द्रियोना सामान्य बोधनी अपेक्षाओ ओवी कई विशेषता हती के तेने 'चक्षुर्दर्शन' अq जु, शीर्षक आपवू पडे ?'
९. चाक्षुष अने मानस प्रत्यक्षमां व्यंजनावग्रह नथी होतो ते बराबर छे. पण अनो मतलब ओ थोडो करी लेवाय के त्यां मतिज्ञाननी प्रक्रिया सीधी अर्थावग्रहथी ज आरम्भाय छे ? छद्मस्थ, कोई पण ज्ञान अन्तर्मुहूर्तथी ओर्छ न होय तो अने सीधो ज ओक समयमात्रनो अर्थावग्रह सम्भवे ज कई रीते? अर्थावग्रह अटले के विषय अने इन्द्रियनी ग्राह्य अने ग्राहक तरीकेनी स्थापना साथेनो अल्प बोध के जे थवामां श्रोत्रादि इन्द्रियोमा असंख्य असंख्य समयो लागी जाय छे ते चक्षु के मनना उपयोगना प्रथम समये ज थाय ज कई रीते? आवा आवा अनेक प्रश्नो उद्भवे छे, जे सूचवे छे के चाक्षुष अने मानस प्रत्यक्षमा अर्थावग्रहथी पूर्वे ओवी कोई ज्ञानमात्रा मानवी ज जोइओ के जे त्यां व्यंजनावग्रहनी खोट पूरी शके.
१०. दर्शन अंगेनी प्रचलित समजणनो मुख्य आधार छ : 'सामान्य अने विशेष -उभयात्मक वस्तुना सामान्य अंशनुं ग्राहक ते दर्शन' आवी मान्यता.२ आनी सामे दर्शन- विषयक्षेत्र दर्शावतो आगमिक पाठ जुओ : "से किं तं दंसणगुणप्पमाणे ? दंसणगुणप्पमाणे चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा - चक्खुदंसणगुणप्पमाणे अचक्खुदंसणगुणप्पमाणे ओहिदसणगुणप्पमाणे केवल१. "एवं सेसिंदियदंसणम्मि नियमेण होइ ण य जुत्तं ।
अह तत्थ नाणमित्तं घेप्पइ चक्खुम्मि वि तहेव ॥" - सन्मति-२.२४ २. पृष्ठ १४५- टि.१. अभिधानराजेन्द्रकोशमां 'दंसण' शब्दना विवरणमां आ मतलबना
घणा पाठो दर्शावाया छे.
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दंसणगुणप्पमाणे । चक्खुदंसणं चक्खुदंसणस्स घडपडकमरहाइएसु दव्वे । अचक्खुदंसणं अचक्खुदंसणस्स आयभावे । ओहिदंसणं ओहिदंसणस्स सव्वरूविदव्वेहिं, न पुण सव्वपज्जवेहिं । केवलदंसण केवलदंसणस्स सव्वदव्वेहि अ सव्वपज्जवेहि अ । से त्तं दंसणगुणप्पमाणे ॥" अनुयोगद्वार ।
I
स्पष्टतः अत्रे दर्शननुं विषयक्षेत्र सामान्य अंश करतां घणुं विशाळ देखाडायुं छे. अवधिदर्शनना विषय तरीके सर्व रूपी द्रव्योना अमुक पर्यायोनो अने केवलदर्शनना विषय तरीके सर्वद्रव्योना सर्व पर्यायोनो निर्देश खास खास ध्यानपात्र छे. कारण के पर्याय ओटले विशेष, अने प्रचलित व्यवस्था तो दर्शनमां विशेषोनुं ग्रहण स्वीकारती ज नथी.
आ उपरान्त बीजी पण अनेक विसंगतिओ आ परत्वे दर्शावी शकाय; परन्तु आ बधा परथी समजवानुं अटलुं ज छे के प्रस्तुत ज्ञान - दर्शननी विचारणा परिवर्तनीय छे. ते परिवर्तन विशे अत्रे विचारनुं प्राप्त छे. जो के ते पूर्वे 'दर्शन' अंगे केटलाक अन्य मतो उपलब्ध थाय छे ते जोइ लेवा जोईए
★ "लिंग - चिह्नने आश्रयीने थतो बोध ते ज्ञान अने लिंगना आश्रयण वगर थतो बोध ते दर्शन. " आ मत तत्त्वार्थसूत्र - २. ९नी सिद्धसेनीय वृत्तिमां अपरमत तरीके निर्दिष्ट छे. आपणने अग्नि देखातो न होय तो पण धूमाडा जेवा लिंगनी मददथी आपणे तेने जाणी शकीओ; परन्तु अग्निने जो अ त्यारे से जोवामां लिंगनी कशी जरूर नथी पडती. आम दर्शन माटे लिंगनी जरूर नथी, पण ज्ञान माटे छे आवी विचारणा आ मतनी जनक लागे छे. अनुमान सिवायनां तमाम ज्ञानो आ रीते 'दर्शन' थइ जतां होवाथी आ मत अयुक्त ठरे छे.
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★ "वर्तमानकालीन वस्तुनो बोध ते दर्शन अने त्रैकालिक वस्तुनो बोध ते ज्ञान." आ मत पण तत्त्वार्थसूत्र - २.९नी सिद्धसेनीय वृत्तिमां ज अपरमत तरीके निर्दिष्ट छे. वस्तु वर्तमानमां होय तो ज तेने जोइ शकाय; बाकी वस्तु भूतकालीन के भविष्यत्कालीन होय तो तेने जाणी शकाय, जोइ न शकायआवी विचारणा पर आधारित आ मत लागे छे. त्रिकालविषयक अवधिदर्शन अने केवलदर्शन आ व्याख्या मुजब 'ज्ञान' ज गणाइ जतां होवाथी आ मत पण अयुक्त लागे छे.
१. अभिधानराजेन्द्रकोश - ४. पृ. २४२८ पर उल्लिखित.
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★ "आत्मानुं अवलोकन ते दर्शन अने बाह्य अर्थनो प्रकाश ते ज्ञान." आ मत दार्शनिकने बदले आध्यात्मिक भावना पर आधारित लागे छे. तेथी प्रस्तुत चर्चामां ते उपयोगी नथी. दर्शन और चिन्तन-पृ. ७२ पर जणाव्या मुजब धवलाटीकामां प्रस्तुत मत व्यावर्णित छे.
★ "व्यंजनपर्यायनुं ग्राहक ते ज्ञान अने अर्थपर्यायनुं ग्राहक ते दर्शन." आ मत नन्दीसूत्रनी हारिभद्रीय वृत्ति परना श्रीश्रीचन्द्रसूरिजीना टिप्पणमां अपरमत तरीके उल्लिखित छे. आ मत विशेषावश्यकभाष्यना दर्शन अंगेना विधानना अन्यथाग्रहणथी जन्म्यो लागे छे. कारण के महाभाष्यमां अपायधारणाने ज्ञान अने अवग्रह-ईहाने दर्शन गणवामां आव्यां छे. आमां अपायने ज्ञान गणवा पाछळ, कारण तेनी मलधारीय टीकामां ओ देखाडवामां आव्यु छे के अपायथी ज वस्तुना वचनपर्यायनी (-वस्तुना नामनी) खबर पडे छे माटे ते ज्ञान छे.१ आमां जे वचनपर्याय शब्द छे तेने आ मतना प्रस्थापके व्यंजनपर्यायनो समानार्थी समजी लीधो लागे छे अने तेथी व्यंजनपर्याय, ग्राहक ते ज्ञान अने व्यंजनपर्याय सिवायना अर्थपर्यायोनुं ग्राहक ते दर्शन - अर्बु विधान करवा प्रेराया लागे छे. वास्तवमां वचनपर्याय अने व्यंजनपर्याय -ओ बे समानार्थी शब्दो नथी, अपाय-धारणामां व्यंजनपर्यायर्नु ज ग्रहण थाय, अर्थपर्यायनुं नहीं -ओवो नियम पण नथी, अने दर्शनमां पण महासामान्यनुं ग्रहण होय छे, अर्थपर्यायो, नहीं.
* "मनुष्यत्व जेवा सामान्यविशेषोनुं ग्रहण ते दर्शन छे अने तेना पण विशेषो स्त्रीत्व-पुरुषत्व व.नुं ग्रहण ते ज्ञान छे." आ मत जीवसमासगाथा ८३मां वणित छे. सामान्यनो 'महासामान्य' जेवो शास्त्रीय अर्थ पकडवाने बदले अनुभवने आधारे मनुष्यत्व जेवा सामान्य-विशेषपरक लोकप्रसिद्ध अर्थनुं ग्रहण आ मान्यतानुं निदान होइ शके.
आम मानवामां अेक प्रश्न अवश्य उपस्थित थाय के सामान्यविशेषोना ग्रहण वखते आकार तो रचावानो ज, त्यारे कंइ महासामान्यना ग्रहणनी जेम बोध अनाकार न ज रही शके; तो पछी दर्शन 'अनाकार' कइ रीते गणाशे ? त्यां आ वातनो खुलासो अम करवामां आव्यो छे के 'अनाकार'मां नञ् १. “अपायधृती वचनपर्यायग्राहकत्वाज्ज्ञानमिष्टे' – वि.भाष्य-५३६ टीका
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अभावनो नहीं पण सामान्यत्वनो सूचक छे. जेम लोकव्यवहारमा गर्भ न धरावनारी कन्याने गर्भविशिष्ट उदरना अभावे 'अनुदरा' कहेवामां आवे छे; तेम विशिष्ट आकारना अभावे दर्शन पण 'अनाकार' कहेवाय छे.
लोकप्रकाश-३.१०५१मा प्रस्तुत दर्शनने 'औपचारिक' गणाववामां आव्यु छे. 'अवग्रहमा सामान्यविशेषोनुं ग्रहण होय छे' ओवी तार्किकोनी प्ररूपणा अने 'अवग्रह ज दर्शन छे' ओवी आगमिकोनी प्ररूपणाना सम्मीलनरूपमां पण प्रस्तुत मतने समजी शकाय.
* श्रीवादिदेवसूरिजी, श्रीहेमचन्द्राचार्य व. जैन ताकिको दर्शन अंगे ओक नवो मत रजू को छे.१ आ मत मुजब दर्शन- सामान्यग्रहणात्मक स्वरूप बदलातुं नथी, पण प्रचलित ज्ञानदर्शननी व्यवस्थामां अवग्रह-ईहाने ज दर्शन गणवानी जे वात छे, तेने बदले आ मतमां दर्शनने अवग्रह-ईहा करता स्वतन्त्र स्थान प्राप्त थाय छे.
आ प्रक्रिया मुजब बोध माटे पांच ज्ञानेन्द्रियो अने मननो पोताना विषय साथे सम्बन्ध स्थपावो जरूरी छे. आ सम्बन्ध स्थपावानी साथे ज 'कंइक छे' ओवा आकार- दर्शन प्रगटे छे. आ दर्शन ज ज्ञानमात्रानी वृद्धिथी अन्तर्मुहूर्त जेटला कालमां अवग्रहरूपे परिणमे छे. अवग्रहमां 'रूप छे, रस छे' अवा सामान्यविशेषोनो बोध थाय छे. पछी विशेषविशेषोना बोध माटे ईहा-अपाय रचाय छे.
___ आ मतमां, अवग्रह विशेषग्राही बनवाथी तेना निराकारपणानी अने दर्शनने स्वतन्त्र स्थान मळवाथी दर्शननुं ज्ञानोत्पत्तिनी प्रक्रियामा स्थान न होवानी आपत्ति रहेती नथी. परन्तु शास्त्रोमां मतिज्ञानना जे २८ भेद गणाव्या होय छे तेमां ४ भेद व्यंजनावग्रहना होय छे; आ ४ भेद प्रस्तुत प्रक्रियामां मळता नथी, कारण के प्रस्तुत प्रक्रिया छ प्रत्यक्षमा विषय-इन्द्रिय सम्बन्ध स्वीकारे छे; तेथी सम्बन्धने भेद तरीके गणीओ तो छ भेद गणवा पडे जे इष्ट नथी.२ १. “अक्षार्थयोगे दर्शनानन्तरमर्थग्रहणमवग्रह:"- प्रमाणमीमांसा-१.१.२६, “विषयविषयिसन्नि
पातानन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरदर्शनाज्जातमाद्यग्रहणमवग्रहः"-प्रमाणनयतत्त्व-१.७ २. ६-६ अवग्रह-ईहा-अपाय-धारणा = २४ + ४ बुद्धि (-औत्पातिकी व.)=२८. आ रीते
पण २८ भेद गणीने प्रस्तुत असंगति निराकरण कशेक जोयु होवा- स्मरणमां छे.
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वळी, आ प्रक्रिया मुजब व्यंजनावग्रहस्थानीय विषय - इन्द्रिय सम्बन्ध अने अवग्रह वच्चे दर्शनने मूकवुं पडे छे के जे 'व्यंजनावग्रहना अन्तिम समये अर्थावग्रह होय'. १ आ शास्त्रीय नियमथी विरुद्ध छे. २
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दर्शन अंगे आ सिवाय बीजी प्ररूपणाओ पण उपलब्ध थइ शके. पण आ प्ररूपणाओ अपूर्ण छे ते सहज समजी शकाय अवुं छे. ओमनी आ अपूर्णतानुं मुख्य कारण छे आगमिक मूळ दार्शनिक विभावनानी अनभिज्ञता अथवा आगमिक दर्शन अंगेना विधानोनुं अन्यथा अर्थघटन. आगमिक मूळ दर्शनव्यवस्थामां बीजुं बधुं तो प्रचलित व्यवस्था प्रमाणे ज हतुं, पण मुख्य तफावत हतो दर्शनना स्वरूप अने स्थाननो.
*
*
आगमिकयुगमां दर्शन शब्द 'साक्षात्कार' ना सन्दर्भमां प्रयोजातो हतो. आ अर्थ दर्शन शब्दना प्रचलित अर्थ 'जोवुं' पर आधारित छे. आपणे 'जोवुं' क्रियापद जे सन्दर्भे प्रयोजीओ छीओ ते सन्दर्भने ध्यानथी तपासीशुं तो जणाशे के से क्रियामां बे बाबत अनिवार्यपणे होय छे : १. वस्तुनी आपणी सामे साक्षात् उपस्थिति २. सामे उपस्थित घणी बधी वस्तुओनो सामान्यपणे अस्पष्ट बोध. मतलब के जोती वखते आपणी दृष्टि ओक विशाळ फलक पर पथराती होय छे, ओ विशाळ फलकमां आवेली घणीबधी वस्तुओनुं प्रतिबिम्ब आपणी आंखमां झीलातुं होय छे अने से प्रतिबिम्बमां समाती तमाम वस्तुओनो अकसरखो अस्पष्ट बोध आपणने थया करतो होय छे. जे बोधने वर्णववो ज होय तो 'कंइक छे' अ रूपे वर्णवी शकाय. आ अस्पष्ट बोधमां कोई चोक्स वस्तु विषयभूत नथी होती अने अने लीधे बोधमां विशिष्ट आकार पण नथी रचातो, बोध निराकार ज रहे छे. मतिज्ञानशक्तिनो चक्षु द्वारा थतो घटादि पदार्थोने विषय बनावनारो आवो निराकार उपयोग ज 'चक्षुदर्शन' कहेवाय छे. अनुभवथी ज जणाशे के बोधनी आ सामान्यग्राहकता बहु ज अल्प
*
१. “व्यञ्जनावग्रहान्त्यक्षणेऽर्थावग्रहोत्पत्तेरेव भणनात्"
ज्ञानबिन्दु
२. तार्किकोनी आ प्ररूपणाने शब्दशः न पकडीओ, पण तेना आशयने समजवा प्रयत्न करीओ तो आ प्ररूपणा ज सौथी वधु चोक्साई भरेली शास्त्रीय व्यवस्था सुधी पहचाडे छे. ते माटे जुओ पृ. १६६
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समय माटे टके छे. अल्पकालीनता तो घणीवार ओटली बधी होय छे के आपणने निराकार स्थितिनो ख्याल पण नथी आवतो. शास्त्रोमां आ ज कारणथी निराकार स्थितिने अव्यक्त कहेवामां आवी छे. १ निराकार स्थितिनी आ अल्पकालीनता आत्मानी प्रबल ग्रहणशक्तिने आभारी छे. कोई पण वस्तुनो यथासम्भव वधु ने वधु स्पष्ट बोध करवो आत्मानो सहज स्वभाव छे. आ स्वभाववश ঔ बहु ज झडपथी निराकारबोधनी विषयभूत घणी बधी वस्तुओमांथी कोईकने अपेक्षाकृत प्राधान्य आपी तेना विशेषबोध माटेनी प्रक्रिया आरम्भी दे छे. आ प्रक्रियाना आरम्भनी साथे ज बोध सविषयक - चोक्कस विषय धरावतो बनी जाय छे. अने वस्तुनो अल्प मात्रामां विशेष बोध पण थयो होवाथी बोधनो अर्थने अनुरूप आकार रचाइ जाय छे, अर्थात् बोध साकार बने छे. विशेषबोधनी आ प्रक्रिया जेम जेम आगळ वधती जाय, तेम तेम वधु ने वधु स्पष्ट आकार रचातो जाय छे. आ तमाम साकार अवस्थाओमां जो के चोक्कस वस्तुनुं जोवानुं चालु पण होइ शके छे; तो पण जाणवानी मुख्यता होवाथी आ साकार अवस्थाओ 'ज्ञान' ज गणाय छे. मतिज्ञानशक्तिनो चक्षु द्वारा थतो आ साकार उपयोग ज 'चाक्षुष मतिज्ञान' कहेवाय छे.
उपर जे चक्षु अने घणी बधी वस्तुओना सन्दर्भे निराकार-साकार स्थिति वर्णवी, ते चक्षु अने ओक ज वस्तुना घणा बधा पर्यायोने अंगे पण समजी शकाय.
साकार-निराकार अवस्थानी परावृत्ति स्वभावथी ज अन्तर्मुहूर्ते अन्तर्मुहूर्ते थया करे छे, कारण के एक ज स्थाने अन्तर्मुहूर्तथी वधु समय अवधान टकतुं ज नथी. २
आगमिक व्यवस्थामां ज्ञान पूर्वे दर्शन कई रीते अनिवार्य बने छे ते तत्त्वार्थ. २.९नी सिद्धसेनीय वृत्तिना आधारे समजीओ. आ व्यवस्था मुजब पदार्थनो पोताना पर्यायो साथेनो विशिष्ट (specific) निर्देश ज आकार गणाय छे. आ आकार वस्तुने जोवानी प्रथम क्षणे ज नथी रचातो ते अनुभवसिद्ध छे. प्रथम क्षणथी मांडीने अमुक समय सुधी तो घणी बधी वस्तुओ के घणा ‘छद्मस्थानामनाकाराद्धाऽल्पत्वादेवाऽव्यक्ता" तत्त्वार्थ. सिद्ध.टी.
१.
२.
4.
-
-
२.९
न चाऽन्तर्मुहूर्तादुपर्येकत्राऽवधानमस्ति वस्तुनि, प्रत्यक्षमेतत्, अनाकाराद्धा साकाराद्धा द्वयपरावृत्तिश्च प्राणिनां स्वभावादुपजायमाना स्वसंवेद्या च - तत्त्वार्थ सिद्ध. टी. - २.९
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बधा पर्यायोनो ‘कंइक छे' ओवो अव्यक्त बोध थया करे छे. जेम चारे तरफथी ढंकायेली पालखीमां बेठेली व्यक्तिने बहार कंइक छे ओवो ख्याल आवे छे, पण शुं हशे तेनो ख्याल नथी आवतो; अथवा तो जेम ते ज दिवसना जन्मेला बाळकने वस्तुने जोवा छतां ते शुं हशे तेनो ख्याल नथी आवतो; तेम आ अवस्थामां पण बोध अव्यक्त ज रहे छे पण पहेलेथी ज स्पष्ट बोध नथी थतो. (जेम समय जोवा माटे घडियाळ सामे जोइओ तो पहेलां तो घडियाळ, तेना आंकडा, तेना कांटा, घडियाळ जे दिवाल पर लगाडेली होय ते दिवाल व. ओकसाथे सामान्यपणे देखाय छे अने थोडीवार पछी समयनो ख्याल आवे छे.) आम स्पष्ट बोध थतां पहेलां अस्पष्ट बोधात्मक अवस्था अनिवार्यपणे सर्जाय छे. अने माटे स्पष्टबोधात्मक ज्ञान पूर्वे अस्पष्टबोधात्मक दर्शन अनिवार्य बने छे. जे फक्त जोयुं होय तेनी स्पष्ट स्मृति लगभग नथी थती, पण जे जोवा साथे जाण्युं पण होय तेनी स्पष्ट स्मृति थइ शके छे. भगवानना दर्शन करीने आव्या पछी 'मूर्तिने माथे मुगट हतो के नहीं ?' अवुं कोई पूछे तो आपणने कोईक वार जवाब नथी आवडतो; कारण के आपणे मूर्ति सामे जोयुं हतुं, पण ध्यानथी नहीं. आ ध्यानथी जोवुं अ ज साकार अवस्था - ज्ञान. अने ध्यान वगर जोवुं अ ज निराकार अवस्था - दर्शन. दर्शनने आ रीते पण (स्मृतिना अजनकत्वने लीधे) अव्यक्त गणी शकाय.
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आ ज रीते मनथी थतो द्रव्य - पर्यायनो साक्षात्कार मानसदर्शन कहेवाय छे. दर्शन शब्दना मूळ अर्थ 'जोवुं 'नो आ अर्थविस्तार छे. मानसदर्शन शास्त्रोमां 'अचक्षुर्दर्शन' गणाय छे. चक्षुथी जोवुं ते चक्षुर्दर्शन अने चक्षु वगर जोवुं ते अ-चक्षुर्दर्शन ओवो अत्रे भाव छे.
अन्य ४ ज्ञानेन्द्रियो - श्रोत्र, घ्राण, रसना अने त्वचामां पण अवश्य निराकार स्थिति सर्जाती ज होय छे, जेम के श्रोत्रमां ओक साथे घणी बधी जातना अवाजना पुद्गलो अथडाता ज होय छे अने ते वखते ते तमाम पुद्गलोनो अस्पष्ट बोध थया ज करतो होय छे; परन्तु आ निराकार अवस्था ‘दर्शन' नथी गणाती, कारण के तेमां वस्तुनी आपणे सामी उपस्थिति नथी
१. अचक्षुर्दर्शनमित्यत्र नञः पर्युदासार्थकत्वादचक्षुर्दर्शनपदेन मानसदर्शनमेव ग्राह्यम्, अप्राप्यकारित्वेन मनस एव चक्षुः सदृशत्वात् - ज्ञानबिन्दु ।
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अनुसन्धान-५६
होती, मतलब के तेमां वस्तुओ जणाय छे खरी, पण तेमनो साक्षात्कार नथी थतो. तेथी आ ४ इन्द्रियो द्वारा थतो निराकार बोध ज्ञाननो ज भेद गणाय छे अने 'व्यंजनावग्रह' तरीके ओळखाय छे. व्यंजन- अर्थ (-विषय) तरीके नहीं स्थापित थयेला पुद्गलोनो अवग्रह- अस्पष्ट बोध - ओवो अत्रे भाव छे. स्वभावथी ज व्यंजनावग्रहमां दर्शन करतां वधु अव्यक्तता होय छे.
वांचीने के सांभळीने, तेना पर विचारणा करीने, थतुं ज्ञान 'श्रुतज्ञान' गणाय छे. आ श्रुतज्ञानमां वस्तुओ 'जणाय' छे, पण 'देखाती' नथी. मतलब के अमनो बोध थाय छे, पण साक्षात्कार नथी थतो. तेथी ज श्रुतज्ञानशक्तिना ज्ञानात्मक ज उपयोग होय छे, दर्शनात्मक नहीं. अ ज रीते मनःपर्यवज्ञानना विषयभूत पदार्थो– बीजाना मनना विचारो जाणी शकाय छे, जोइ शकाता नथी. तेथी मन:पर्यवज्ञानशक्तिनुं पण दर्शन नथी होतुं.
अवधिज्ञानथी विषयभूत पदार्थो जाणी पण शकाय छे अने जोइ पण शकाय छे, तेथी अवधिज्ञानशक्तिना साकार - निराकार बन्ने उपयोग संभवे छे. साकार उपयोग ‘अवधिज्ञान' के 'विभङ्गज्ञान' अने निराकार उपयोग 'अवधिदर्शन' कहेवाय छे.
केवलज्ञानी भगवन्त तो केवलज्ञानशक्तिना बळे तमाम द्रव्य-पर्यायोने जुओ पण छे अने जाणे पण छे. तेमनुं आ जोवुं 'केवलदर्शन' अने जाणवुं 'केवलज्ञान' कहेवाय छे.
ओक वात खास नोंधपात्र छे के शास्त्रोमां दर्शनने सामान्यग्रहणात्मक कह्युं छे.' तेनो अर्थ अ ज छे के तेमां घणी बधी वस्तुओ के पर्यायो सामान्यपणे (मतलब के समुदितरूपे, पोतपोतानी स्वतन्त्र ओळखाण साथै नहीं) देखाता होय छे. आ सामान्यग्रहणने वस्तुना सामान्य अंशना ग्रहणरूप समजी शकाय; पण तेथी कंइ ‘वस्तुना सामान्य अंशनुं ग्रहण ते दर्शन' ओवी व्याख्या बांधी शकाय नहीं, कारण के दर्शन मूलतः निराकार पश्यत्ता ( - जोवुं) साथे जोडायेलुं छे. आ पश्यत्तामां थतुं सामान्यग्रहण वस्तुनी जेम तेना विशेषोने अंगे
२
१. ‘‘जं सामन्नग्गहणं तं दंसणं" - नन्दीचूर्णि
२.
"जह पासइ तह पासउ, पासइ जेणेह दंसणं तं से" विशेषणवति "येन सामान्यावगमाकारेणाऽर्हन् पश्यति तद् दर्शनमिति ज्ञातव्यम्" - नन्दी. मलय. टीका
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पण होइ शके छे.१ ट्रॅकमां, वस्तुओरों के विशेषोनुं स्वरूपतः भान ते 'ज्ञान' के जे वस्तुना साक्षात्कारवाळु पण होय अने वगरनुं पण होय; अने वस्तुओर्नु के विशेषोनु सामान्यतः भान ते 'दर्शन' के जे अवश्य साक्षात्कारात्मक ज होय
'दर्शन' शब्द मूलतः ‘पश्यत्ता' साथे ज संकळायेलो हतो, 'सामान्यांशना ग्रहण' साथे नहीं, तेना घणां प्रमाणो नोंधी शकाय. जेम के
★ "छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से परमाणुपोग्गलं जाणइ न पासइ, उदाहु न जाणइ न पासइ ? गोयमा ! अत्थेगइए जाणइ न पासइ, अत्थेगइए न जाणइ न पासइ ।" टीका - "इह छद्मस्थो निरतिशयो गृह्यते । तत्र श्रुतज्ञानी उपयुक्तः श्रुतज्ञानेन परमाणुं जानाति, न तु पश्यति दर्शनाभावाद् , अपरस्तु न जानाति न पश्यति ।" (भगवतीजी, १८ शतक, ८ उद्देश)
★ "से किं तं दसणगुणप्पमाणे ?....'' (पृष्ठ १५१) दर्शनने पश्यत्ता साथे जोडीओ तो ज तेनुं आटलुं विशाळ विषयक्षेत्र सम्भवे छे.
★ "अट्ठविहे दंसणे पण्णत्ते । तं जहा- सम्मइंसणे, मिच्छदंसणे, सम्मामिच्छदंसणे, चक्खुदंसणे, अचक्खुदंसणे, ओहिदंसणे, केवलदसणे, सुविणदंसणे।" - स्थानांगसूत्र ।
__ आमां अचक्षुर्दर्शनथी स्वप्नदर्शनने अलग गण्युं छे. सामान्यांशनुं ग्रहण ज जो दर्शन होत, तो स्वप्नना सामान्यग्रहणमां ओवी कई विशेषता होय के जेथी अने अलग गणवू पडे ? दर्शननो अर्थ 'जोवू' लइओ तो ज आ पृथक्करणनो खुलासो थइ शके के अचक्षुर्दर्शनमा देखाता पदार्थो वास्तविक होय छे, ज्यारे स्वप्नदर्शनमां काल्पनिक पदार्थोनो आभास होय छे.२
★ "द्रव्यत आभिनिबोधिकज्ञानी... धर्मास्तिकायादीनि जानाति, न १. "जं एत्थ णिव्विसेसं, गहो विसेसाण दंसणं होति" - धर्मसङ्ग्रहणी - १३६४ २. टीकाकार भगवन्त सामान्यांशना ग्रहणने ज दर्शन गणता होवाथी, अचक्षुर्दर्शन अने
तेना ज पेटाभेदरूप स्वप्नदर्शनने अलग गणवानुं कारण जाग्रदवस्था अने सुप्तावस्थारूप उपाधि जणावे छे. पण प्रश्न ओ छे के स्वरूपथी ज जो भेद पकडातो होय तो शा माटे उपाधिने भेदक बनाववी ? वळी, सुप्तावस्थामां पण स्वप्नदर्शन सिवाय अन्य रीते पण अचक्षुर्दर्शन प्रवर्ते ज छे, तो सुप्तावस्था भेदक उपाधि बने ज कई रीते ?
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पश्यति सर्वात्मना धर्मास्तिकायादीन्, शब्दादीस्तु योग्यदेशावस्थितान् पश्यत्यपि।" (नन्दीसूत्रना “दव्वओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वदव्वाइं जाणइ न पासइ" ओ अंशनी हारिभद्रीय टीका) नन्दीसूत्रनी टीकाओमां श्रुतज्ञानना निरूपण वखते 'पासइ' शब्द सामे, श्रुतज्ञानमां दर्शन न होवाथी प्रश्न उठाववामां आवे छे, त्यारे ओ स्पष्ट छे के ‘पासई' दर्शन साथे सम्बन्धित छे. हवे आ दर्शन 'सामान्यांशग्रहणात्मक' अभिप्रेत छे के ‘पश्यत्तात्मक', तेनो खुलाओ उपरनी टीकाथी थइ जाय छे. मतिज्ञानीने आदेशथी (-सामान्यपणे) पण धर्मास्तिकायने जाणवा माटे, तेना सामान्य अंश- ग्रहण आवश्यक छ ज, तेने जोर्बु आवश्यक नथी. माटे दर्शननो अर्थ 'जोवू' ने बदले जो 'सामान्यांशग्रहण' अभिप्रेत होत तो 'जाणइ पासई' ज कहेवू पडत. दर्शननो अर्थ 'जोवू' लइओ तो ज 'जाणइ न पासइ' कही शकाय.
* सिद्धसेन दिवाकरजीनी वेधक दृष्टि शब्दोने पेले पार जई मूल वस्तुस्वरूपने जोइ शके छे ते सर्वप्रसिद्ध छे. तेओओ आपेली दर्शननी ओळख
"नाणमपुढे अविसए अ, अत्थम्मि दंसणं होइ ।
मोत्तूण लिंगओ जं, अणागयाईयविसएसु ॥" सन्मति० २.२५ उपर आपणे जोयुं तेम दर्शन साक्षात्कारात्मक होय छे; तेथी विचारणात्मक ज्ञानो- अनुमान, तर्क, प्रत्यभिज्ञान व. दर्शन नथी. वळी, घ्राणादि ४ इन्द्रियोथी पदार्थ जाणी शकाय छे, जोई शकातो नथी; तेथी आ चार इन्द्रियोथी जन्य ज्ञान पण दर्शन नथी. उपरान्त, चक्षु अने मनमां पण अवग्रहादि तो विशेषज्ञानात्मक होय छे; तेथी ते पण दर्शन नथी. आम, चक्षु अने मनथी थतुं निराकार ईक्षण ज 'दर्शन' कहेवाय छे. दिवाकरजीओ आपेली दर्शननी व्याख्या पण आ बे ज स्थळे दर्शनत्व प्रतिपादन करे छे.
अनुमान द्वारा लिंगनी सहायथी अतीत-अनागत वस्तुने जाणी शकाय छे. दिवाकरजीनी मान्यता प्रमाणे आबुं ज्ञान दर्शन नथी. तेओ 'मोत्तूण..." आ वाक्यथी उपरनी वात सूचवे छे. उपा. यशोविजयजीओ जणाव्या मुजब अत्रे उपलक्षणथी, स्मृति सिवायनां तमाम परोक्ष ज्ञानो दर्शन नथी गणातां तेम
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समजवानुं छे.' स्पष्टतः प्रत्यक्ष मतिज्ञानने ज दर्शन गणवानुं आना परथी फलित थाय छे.
प्रत्यक्ष मतिज्ञानमां पण घ्राण, रसना, त्वचा अने श्रोत्र -आ ४ इन्द्रियथी जन्य ज्ञान 'दर्शन' न गणाइ जाय ते सूचववा दिवाकरजी 'अर्थ अस्पृष्ट होवो जोइओ' ओवी शरत मूके छे. आ चार इन्द्रियोनो विषयभूत पदार्थ तो स्पृष्ट ज होय छे, तेथी ते इन्द्रियजन्य ज्ञान- पण निराकरण थइ जाय छे.
रही वात चाक्षुष अने मानस प्रत्यक्षनी. आ बे प्रत्यक्षोने 'दर्शन' ज समजवाना छे ? ना, बे प्रत्यक्षमां पण अर्थ ज्यां सुधी विषय नथी बनतो, मतलब के चोक्कस अर्थनी विषय तरीके स्थापना नथी थती, त्यां सुधी ज बोध अनुक्रमे 'चक्षुर्दर्शन' अने 'अचक्षुर्दर्शन' गणाय छे. इन्द्रिय-अर्थ वच्चे ग्राहक-ग्राह्य भाव स्थपाइ जाय, मतलब के अर्थावग्रह थाय अटले बोध अनुक्रमे 'चाक्षुष मतिज्ञान' अने 'मानस मतिज्ञान' ज गणाय छे, दर्शन नथी गणातो. आ ज वात आ गाथामां 'अर्थ अविषयभूत होवो जोइओ' ओ शरत मूकीने सूचवाइ छे.२
आम, सिद्धसेन दिवाकरजीनी दर्शनविषयक प्ररूपणा, आगमिक दर्शननी विभावनानुं ज व्यवस्थित निर्वचन छे. अने तेना परथी ओ ज समजवानुं छे के दर्शननो मूल अर्थ 'साक्षात्कार' ज छे, 'सामान्यांशनुं ग्रहण' नहीं.
'पश्यत्ता'ना सन्दर्भमां व्यावणित दर्शननो पेटाभेद अवधिदर्शन, १. "इदमुपलक्षणं भावनाजन्यज्ञानातिरिक्त-परोक्षज्ञानमात्रस्य, तस्याऽस्पृष्टाविषयार्थस्याऽपि
दर्शनत्वेनाऽव्यवहारात्' - ज्ञानबिन्दु । टीकाकारो अत्रे 'अविसए' नो अर्थ 'इन्द्रियोना अविषयभूत परमाणु व.' करे छे. आवो अर्थ करवामां, परमाणु व. ने विशे प्रवर्ततुं तमाम मानसज्ञान 'अचक्षुर्दर्शन' बने छे. जे स्पष्टतः स्खलना छे. वळी, चक्षुर्दर्शननी व्याख्यामां आ अर्थ लागु पण पडतो नथी. उपरान्त जे पदार्थो मानससाक्षात्कारना विषय बने छे, ते तमाम इन्द्रियोना अविषयभूत ज होय ते जरूरी नथी. 'अविसए'नो अर्थ 'बोधथी ग्राह्य छतां पण चोक्कस विषय तरीके स्थापित नहीं' ओवो करीओ तो ज बराबर संगति थाय छे. विशेषणवति-२२२मां ज्ञानने 'सविषयक' तरीके ओळखाव्युं छे ते पण दर्शनना आवा अविषयकत्व, ज सूचक छे. "जेसिमणिटुं दंसणमण्णं णाणा हि जिणवरिंदस्स । तेसिं न पासइ जिणो, सविसयणिययं जओ णाणं ॥"
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अवधिज्ञान पूर्वेनी निराकार अवस्था छे, तो केवलदर्शन, केवलज्ञाननी सहवर्ती के परवर्ती निराकार स्थिति छे; पण चक्षुर्दर्शन अने अचक्षुर्दर्शनने मतिज्ञानना उत्पत्तिक्रममां क्यां गोठववां ते प्रश्न छे. सन्मतिटीकाकार अभयदेवसूरिजीनां वचनो आ बाबतमां बहु प्रमाणभूत लागे छे.
"अप्राप्यकारी चक्षु अने मनथी उद्भवता अवग्रहादि मतिज्ञान पूर्वेनी, अस्पृष्ट अने अवभासी ग्राह्यने ग्रहण करनारी, आत्मानी प्रारम्भिक बोधात्मक अवस्था ज अनुक्रमे ‘चक्षुर्दर्शन' अने 'अचक्षुर्दर्शन' तरीके ओळखाय छे." (सन्मति - २.३० - टीका)
44
आनो अर्थ ओ थयो के चक्षुर्दर्शन अने अचक्षुर्दर्शन अनुक्रमे चाक्षुष अने मानस प्रत्यक्षमां व्यंजनावग्रहना स्थाने गोठवाय छे, मतलब के जे स्थान घ्राणजादि प्रत्यक्षमां व्यंजनावग्रहनुं छे, ते स्थान चाक्षुष अने मानस प्रत्यक्षमां चक्षुर्दर्शन अने अचक्षुर्दर्शननुं छे. पूर्वे प्रचलित व्यवस्था परत्वे दर्शावेली समस्या नं. ९नुं समाधान आनाथी सरस रीते थइ जाय छे.
परन्तु उपा. श्रीयशोविजयजी ज्ञानबिन्दुमां जणावे छे के टीकाकारनुं आ कथन सिद्धसेन दिवाकरना आशयने अनुरूप नथी. तेओ खूब ज कडक शब्दोमां टीकाकारनां वचनोनुं खण्डन करतां जणावे छे के “टीकाकारनुं कथन अर्धजरतीय न्यायने अनुसरे छे. कारण के, 'छद्मस्थ जीवने ज्ञानोपयोग पूर्वे दर्शनोपयोग होय' आवी प्राचीन व्यवस्था पर ज जो निर्भर रहेवुं होय तो चाक्षुष अने मानस प्रत्यक्षमां ज ज्ञान पूर्वे दर्शननो अभ्युपगम शा माटे ? श्रावण व. प्रत्यक्षमां केम नहीं ? हवे जो श्रावण व प्रत्यक्षमां पण अवग्रह पहेलां दर्शन स्वीकारशो, तो त्यां दर्शन संभवशे क्यारे ? व्यंजनावग्रहथी पूर्वे तो कोई ज्ञानमात्रा ज नथी होती, तेथी तेनी पूर्वे तो दर्शन मानी ज न शकाय . व्यंजनावग्रहथी पछी पण न मानी शकाय, कारण के शास्त्रोमां व्यंजनावग्रहनी अन्तिम क्षणे अर्थावग्रहनी ज उत्पत्ति कही छे के जे ज्ञान छे. आम, श्रावणादि ४ प्रत्यक्षमां ज्ञानोपयोग पूर्वे दर्शनोपयोग मानी शकातो नथी; अने तेथी चाक्षुषमानसमां पण तेनी कल्पना करवी वाजबी नथी. वास्तवमां सिद्धसेन दिवाकरजीना नव्य मतमां दर्शन कदापि ज्ञानथी भिन्नकालीन होतुं ज नथी, बल्के ज्ञान - दर्शन वच्चे अभेद ज छे."
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उपाध्याय भगवन्ते करेली आ समग्र चर्चा वस्तुतः सिद्धसेन दिवाकरजीना अने अभयदेवसूरिजीना दर्शन अंगेना विचारोना अन्यथाग्रहणने आभारी छे. पहेली वात तो ओ के प्राचीन मूल नियम 'ज्ञान पूर्वे दर्शन होय' अ नहोतो, पण 'साकारोपयोग पूर्वे अनाकारोपयोग होय' ओवो हतो. १ आ अनाकारोपयोग जेम चाक्षुष अने मानसमां दर्शनरूप होय छे, तेम घ्राणजादि चारमां व्यंजनावग्रहरूप होय छे. हवे, आ चार स्थळे जो व्यंजनावग्रहरूप अनाकारवस्था पहेलेथी ज स्वीकृत छे, तो शा माटे त्यां अलगथी दर्शननी कल्पना करवी पडे ? 'व्यंजनावग्रह ज्यां नथी होतो, त्यां निराकार अवस्थानुं शुं ?' साचो प्रश्न तो आ छे अने अनुं समाधान टीकाकारनां प्रस्तुत वचनोमां छे.
प्रश्न ओ रहे छे के ‘ज्ञान पूर्वे तेना कारणरूप दर्शन होय' आवो नियम पण घणे ठेकाणे जोवा मळे छे, तो ते सम्बन्धे शुं समजवुं ? आनुं समाधान अ ज छे के 'दर्शन' अने 'व्यंजनावग्रह' तरीके ओळखाती निराकार अवस्थाओ वच्चे वास्तवमां झाझो तफावत नथी. दर्शनमां ग्राह्य वस्तु साथे संयोग नथी होतो, फक्त तेनो साक्षात्कार होय छे, ज्यारे व्यंजनावग्रहमां ग्राह्य वस्तुनो साक्षात्कार नहीं, पण सीधो संयोग ज होय छे. आटलो ज फेर छे. बाकी सामान्यग्रहण, विषयनो अनिश्चय, संस्कारनुं अजनकत्व व. बन्नेमां सरखुं ज छे. आ कारणे व्यंजनावग्रहमां 'दर्शन' शब्दनो उपचार थइ शके छे. अने ओ रीते व्यंजनावग्रह औपचारिक दर्शन बन्या पछी, छओ प्रत्यक्षमां अर्थावग्रहात्मक ज्ञान पूर्वे दर्शन गोठवाइ जवाथी 'ज्ञान पूर्वे दर्शन होय ज' ओवो नियम बनावी शकाय छे. निराकार व्यंजनावग्रह ज्ञाननो ज भेद होवा छतां 'ज्ञान साकार ज होय छे' अने अचक्षुर्दर्शन भेटले मानसदर्शन ज होवा छतां 'अचक्षुर्दर्शन ओटले घ्राणादि ४ इन्द्रियो अने मनथी थतो निराकार बोध' आवी प्ररूपणाओ व्यंजनावग्रहने औपचारिक दर्शन गण्या पछीनी छे. व्यंजनावग्रहने पहेलेथी ज 'दर्शन' ओटले नथी गणवामां आवतो के व्यंजनावग्रह, दर्शनना मूल अर्थ ‘पश्यत्ता(-जोवुं)'नी अन्तर्गत नथी आवतो, ज्ञानना अर्थ 'जाणवुं'नी अन्तर्गत आवे छे. पण, जो ‘पश्यत्ता' ने बहु व्यापक दृष्टि जोइओ तो ओ व्यंजनावग्रहने पण पोतानामां समावी ले छे अने त्यारे से 'दर्शन' गणाय छे.
पृष्ठ १५६, टि. २
१.
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बीजुं, उपाध्यायजी जणावे छे तेम नव्यमतमां ज्ञान-दर्शननो अभेद छे ज नहीं. ज्ञान-दर्शनमां जे भेद आगमिक साहित्यमां निरूपायो छे, तेने ज दिवाकरजीओ वधु स्पष्ट करी आव्यो छे. प्रस्तुत गाथागत 'नाणं....दंसणं होइ' आवा विधान परथी सिद्धसेन दिवाकरजीना मतमां ज्ञानदर्शननो अभेद समजी लेवामां आवे छे, पण ते बराबर नथी. 'नाण' शब्द अत्रे 'बोध' अर्थमां ज छे, अने बोधविशेष ज दर्शन छे ओवो आ विधाननो भाव छे. आ बोधविशेष कयो ते आपणे पहेलां आ गाथाना विवरणमां जोइ गया छीओ. वळी, सिद्धसेन भगवन्ते ज छाद्मस्थिक ज्ञान - दर्शननो भेद स्पष्टपणे "मणपज्जवणाणंतो णाणस्स दरिसणस्स य विसेसो " ( सन्मति - २.३) मां प्ररूप्यो छे. ट्रंकमां, उपाध्यायजी भगवन्ते करेलुं टीकाकारनुं खण्डन वाजबी लागतुं नथी.
हवे आपणे अर्थावग्रहने अंगे थोडोक विचार करीशुं. दर्शन अने व्यंजनावग्रहमां बोधमात्रा स्वीकृत छे ज. आ बोध 'कंइक छे' ओवा अस्पष्ट आभासवाळो अने अव्यक्त होय छे. आ बन्ने पछीनो ज्ञानतबक्को ‘अर्थावग्रह' गणाय छे. आ अर्थावग्रह व्यंजनावग्रहस्थानीय दर्शन अने व्यंजनावग्रह करतां वधु विकसित ज्ञानमात्रा धरावतो होय छे से सर्वसम्मत छे, पण आ विकसित ज्ञानमात्रा केटली ते चर्चानो विषय छे. आगमिको अर्थावग्रहने पण महासामान्यनो ज ग्राहक गणे छे,१ ज्यारे तार्किको 'रूप छे, रस छे' जेवा प्राथमिक विशेषोनुं ग्रहण अर्थावग्रहमां स्वीकारे छे. २ आमां प्रथम प्ररूपणामां त्रण असंगति आवे छे : १. महासामान्यनुं ग्रहण निराकारोपयोगमां ज थाय, ज्यारे अर्थावग्रह तो साकार गणाय छे. २. 'कंइक छे' ओ बोधने अर्थावग्रहनो विषय गणीओ तो अनाथी निकृष्ट ज्ञानमात्रा ज नथी संभवती के जेने व्यंजनावग्रह के दर्शनना विषय तरीके गोठवी शकाय. ३. नन्दीसूत्रगत “तेणे 'आ शब्द छे' ओवो अवग्रह कर्यो” आवी प्ररूपणाओथी जुदा पडवानुं थाय छे. तार्किकोनी 'शब्द छे' ओवी सामान्यविशेषनी ग्रहणात्मक साकार अवस्थाने अवग्रह गणवानी मान्यतामां आ असंगतिओ नथी रहेती.
१.
२.
“इय सामण्णग्गहणाणंतरमीहा" वि. भाष्य २८९, अने पृ. १४९, टि. १ प्रमाणमीमांसा १.१.२७ टीका, प्रमाणनयतत्त्वालोक १.७, तत्त्वार्थराजवार्त्तिक
१.१५
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तार्किकोनी वात बीजी रीते पण स्वीकार्य छे. अर्थावग्रहमां चोक्कस पदार्थनी 'अर्थ- विषय' तरीके स्थापना थाय छे अने तेनो अल्प बोध थाय छे ओ तो सर्वप्रसिद्ध छे. पण ध्यानपात्र वात अ पण छे के तेमां ग्राहक इन्द्रिय पण नक्की थाय छे. जेम के ओक साथे आंख सामे वस्तु होय, जीभ पर कोईक वानगी मूकेली होय, नाकमां कशीक गन्ध प्रवेशती होय, कानमां अवाज़ अथडातो होय अने शरीर साथे कशाकनो स्पर्श थतो होय तेम बने. आ बधी निराकार अवस्थाओ छे. तेमांथी अत्यारे कई इन्द्रियना विषयग्रहणने प्राधान्य आपवुं छे ते अर्थावग्रहमां नक्की थाय छे. हवे ओक वात नक्की छे के चक्षुथी ग्राह्य रूप ज होय अने श्रोत्रथी ग्राह्य शब्द ज होय. तेथी अर्थावग्रहमां इन्द्रियना निश्चय साथे विषयनो 'रूप छे, शब्द छे व.' निश्चय पण थइ ज जाय छे. अने आ निश्चय इन्द्रियथी थतो सामान्यमां सामान्य निश्चय होवाथी सामान्यग्रहण ज गणाय छे. पछी 'आ रूप कोनुं हशे ? आ शब्द कयो हशे ?' आवी विचारणा (-ईहा) प्रवर्ते छे अने बोधप्रक्रिया आगळ वधे छे. नन्दीसूत्रमां आ ज वात प्ररूपाइ छे : " अव्वत्तं सद्दं सुणेज्जा" अव्यक्तशब्द श्रवण 'व्यंजनावग्रह' → " तेणं सद्देत्ति उग्गहिए" 'शब्द छे' अवुं ग्रहण 'अर्थावग्रह' " न उण जाणइ के वेस सद्दे त्ति, तओ से ईहं पविसइ " 'ईहा'. आम तार्किकोनी प्ररूपणा वधु सुदृढ छे.
अक प्रश्न हजु ऊभो रहे छे के जो अर्थावग्रह अने ईहा साकार मतिज्ञानोपयोगना ज भेद छे, तो ओमने घणे ठेकाणे अनाकार दर्शनोपयोगना भेद तरीके शा माटे ओळखाववामां आव्या हशे ? आनुं समाधान ओम सूझे छे के दार्शनिकक्षेत्रमां 'साकार' शब्द जे ओछामां ओछी व्यक्ततानी अपेक्षा राखे छे, तेटली व्यक्तता पण अर्थावग्रह - ईहामां होती नथी. जैनेतर दर्शनो 'आ मनुष्य छे' ओवा बोधने ज साकार गणे छे, जे अर्थावग्रह - ईहा पछीनी ज अवस्था छे. बनी शके के आ कारणथी ज अर्थावग्रह - ईहाने निराकार 'दर्शन' गणवामां आव्या होय. पण अ भूलवुं न जोइओ के वास्तवमां ज्ञानना भेदोने आ रीते दर्शन गणवा ते औपचारिक कथन ज छे. तत्त्वार्थ सिद्धसेनीयवृत्तिमां मुख्य अने
१.
" पासइ त्ति पश्यति अवग्रहेहापेक्षयाऽवबुध्यते, अवग्रहेहयोर्दर्शनत्वात्" अभयदेवसूरिजी -भगवतीटीका
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औपचारिक दर्शनो वच्चेनो भेद बहु स्पष्ट रीते देखाडवामां आव्यो छे'औपचारिकनयश्च ज्ञानप्रकारमेव दर्शनमिच्छति, शुद्धनयः पुनरनाकारमेव सङ्गिरते औपचारिक नयथी ज्ञानना भेदो ज दर्शन छे, ज्यारे शुद्धनय
दर्शनम्' (२.९) अनाकार अवस्थाने ज दर्शन गणे छे.
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विषय अने इन्द्रियना जोडाणथी उद्भवती निराकार अवस्थाओना व्यंजनावग्रह अने दर्शन सेवा भेद न पाडीओ, पण तमाम निराकार अवस्थाओ दर्शन ज गणीओ, तो 'छ ओ छ प्रत्यक्षमां विषय - इन्द्रिय सम्बन्ध स्थपाया पछी अने अवग्रहथी पूर्वे दर्शन होय छे' ओवी तार्किक प्ररूपणा (पृ. १५४) साथे पण प्रस्तुत व्यवस्था बराबर संगत थई जाय छे. अने मतिज्ञानना २८ भेद, ४ दर्शन, व्यंजनावग्रहनो अन्तिम समय अ ज अर्थावग्रह व तमाम आगमिक प्ररूपणाओ पण प्रस्तुत व्यवस्थामां बन्धबेसती आवे छे. पहेलां प्रचलित ज्ञानदर्शननी व्यवस्था परत्वे वर्णवी तेमांनी कोई समस्या पण प्रस्तुत व्यवस्थामां आवती नथी ते खास ध्यानार्ह छे.
*
*
*
प्रस्तुत समग्र चर्चानो निष्कर्ष अ ज छे के १. 'दर्शन सामान्यग्रहणात्मक होय छे' ओनो मतलब ओ नथी के दर्शनमां वस्तुना सामान्य अंशनुं ज ग्रहण होय छे, पण ओ छे के दर्शनमां- साक्षात्कारमां अकसाथे घणी बधी वस्तुओ अने विशेषोनो सामान्यतः अकसरखो बोध थाय छे. मतलब के दर्शन शब्द 'जोवुं, साक्षात्कार करवो' साथे संकळायेलो छे, 'सामान्यअंशना ग्रहण' साथे नहीं. दर्शननी ओळखाण आपता 'सामान्यग्रहण' शब्दना अन्यथा अर्थग्रहणथी दर्शननुं स्वरूप बदलाइ जवा पाम्युं छे. २. चक्षुर्दर्शन अने अचक्षुर्दर्शन अनुक्रमे चाक्षुष अने मानस प्रत्यक्षमां व्यंजनावग्रहना स्थाने गोठवाय छे. ज्यारे अवधिदर्शन, अवधिज्ञान पूर्वेनी निराकारस्थिति छे. केवलज्ञानी भगवन्तने थतो तमाम द्रव्यपर्यायोनो साक्षात्कार ज केवलदर्शन छे.' ३. 'ज्ञानथी पूर्वे दर्शन होय ज छे'
१. “ चक्षुर्ज्ञानात् पूर्वं, प्रकाशरूपेण विषयसन्दर्शि । यच्चैतन्यं प्रसरति, तच्चक्षुर्दर्शनं नाम ॥ शेषेन्द्रियावबोधात्, पूर्वं तद्विषयदर्शि यज्ज्योतिः । निर्गच्छति तदचक्षु-र्दर्शनसंज्ञं स्वचैतन्यम् ॥
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आवो नियम अने 'घ्राणादि ४ इन्द्रियोथी थतो सामान्य बोध ते पण अचक्षुर्दर्शन' आवी प्ररूपणा निराकार दर्शनथी तुल्य व्यंजनावग्रहने औपचारिक दर्शन गणीने समजवानी छे.
___ हवे आपणे प्रस्तुत ज्ञान-दर्शननी चर्चा साथे ज संकळायेला केटलाक अन्य प्रश्नो पर थोडो विचार करीओ :
★ अचक्षुर्दर्शन- विषयक्षेत्र शुं ? ___ अनुयोगद्वारमा आ माटे पाठ छे : "अचक्खुदंसणं अचक्खुदंसणस्स आयभावे ।" आमां अचक्षुर्दर्शनना विषयभूत पदार्थो तरीके आत्मभावोने जणाव्या छे. स्पष्ट छे के अचक्षुर्दर्शनथी अत्रे 'मानसदर्शन'ने ज पकडवानुं छे के जेना द्वारा आत्मानो, तेनी लागणीओनो, तेना विचारोनो अने तेवा ज बीजा आत्मिकभावोनो साक्षात्कार करी शकाय छे.
___टीकाकार अत्रे अचक्षुर्दर्शनथी घ्राण, श्रोत्र, रसना, त्वचा अने मनथी थता सामान्यबोधने पकडे छे अने तेथी 'आयभावे'नो अर्थ करे छे शब्दात्मक, गन्धात्मक व. पुद्गलो के जे उपरोक्त सामान्यबोधना विषय छे. 'घ्राणादि ४ इन्द्रियोमां पुद्गलो संयुक्त थया पछी ज बोध थइ शके छे अने संयुक्त पुद्गलो 'आत्मभूत' गणाय अने तेथी आवा आत्मभूत पुद्गलो - आत्मभावो अचक्षुर्दर्शननो विषय छे' अर्बु तेओनुं मन्तव्य जणाय छे. आमां घणी क्लिष्ट कल्पना करवी
पडे छे.
तत्त्वार्थसूत्रना गन्धहस्तिमहाभाष्यमां (२.९) इन्द्रिय-निरपेक्ष बोध के जेने अत्यारे आपणे Sixth Sense तरीके ओळखीओ छीओ तेने पण अचक्षुर्दर्शन
अवधिज्ञानात् पूर्वं, रूपिपदार्थावभासि यज्ज्योतिः । प्रविनिर्याति स्वस्मा-न्नामाऽवधिदर्शनं तत् स्यात् ॥ केवलदर्शनबोधौ, समस्तवस्तुप्रकाशिनौ युगपत् । दिनकृत्प्रकाशतापव-दावरणाभावतो नित्यम् ॥" आराधनासारना आ श्लोको अत्रे दर्शननी जे व्यवस्था वर्णवी तेनी साथे पूर्णतः संवादी छे.
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गणाववामां आव्यो छे.१ त्यां दृष्टान्त साथे आ वात समजाववामां आवी छे के आपणी पाछळथी साप चाल्यो जतो होय तो अचानक आपणने भयनी आशंका थाय छे अने आपणे त्यांथी खसी जइसे छीओ. आ सापना अस्तित्वने कोई इन्द्रियथी तो जाणी शकाय तेम हतुं ज नहीं. आपणे मानसिक व्यापारथी ज ओ बोध को छे, माटे अ अ-चक्षुर्दर्शन ज छे. प्रचलित ज्ञान-दर्शननी व्यवस्थामां Sixth Senseनो विचार कदाच आ एक ज ठेकाणे हशे.
★ "दव्वओ णं सुयनाणी उवउत्तो सव्वदव्वाइं जाणइ पासई" (नन्दीसूत्र)-आमां श्रुतज्ञानमां दर्शन न होवा छतां 'पासइ' केम का ?
__सौ प्रथम तो 'पासइ' अत्रे पश्यत्ता साथे सम्बन्धित छे. आ पश्यत्ताने 'अचक्षुर्दर्शन' रूप समजवी अवो अक मत छे के जेनुं खण्डन वि.भाष्य५५४मां करवामां आव्युं छे. सैद्धान्तिक मत प्रमाणे अत्रे 'श्रुतज्ञान-साकारपश्यत्ता' समजवी जोइओ अq स्पष्टीकरण वि.भाष्य-५५५मां करवामां आव्युं छे.
पन्नवणाजी-पद ३०मां वर्णित आ निराकार-साकार पश्यत्ता शं छे ते समजवानो प्रयत्न करीओ. कुल १२ उपयोगमांथी मतिज्ञान, मत्यज्ञान अने अचक्षुर्दर्शन -अे त्रण उपयोगनी पश्यत्ता होती नथी अने बाकीना नव उपयोगमां पश्यत्ता होय छे. आम 'उपयोग' शब्द बोधमात्र माटे वपराय छे, ज्यारे ‘पश्यत्ता' शब्द ओ ज उपयोग माटे नियत छे के जे उपयोगमां ओ उपयोगनी विषयभूत वस्तुनो साक्षात्कार- पुरतः उपस्थिति साथेनुं अवलोकन संकळायेलुं होय छे. आ रीते उपयोग अने पश्यत्ता समानकालीन होय छे अने उपयोगनी साकारता-निराकारताने अनुलक्षीने पश्यत्ता पण साकार-निराकार गणाय छे. मतिज्ञान के मत्यज्ञानमां महदंशे वस्तुनो साक्षात्कार होतो नथी, तेथी ओ बे जग्याओ आंशिक पश्यत्ता होवा छतां समग्र मतिज्ञान के मत्यज्ञानने अनुलक्षीने पश्यत्तानो निषेध छे. ओ ज रीते अचक्षुर्दर्शनमां पण आत्मिक भावोना साक्षात्कार वखते तेमनी पुरतः उपस्थिति नथी होती, मतलब के ते भावोने अपेक्षीने ‘पश्यत्ता' नथी प्रवर्तती, तेथी अचक्षुर्दर्शनने अनुलक्षीने पण
१. "इन्द्रियनिरपेक्षमेव तत् कस्यचिद् भवेद् यतः पृष्ठत उपसर्पन्तं सर्प बुद्ध्यैवेन्द्रियव्यापार
निरपेक्षं पश्यतीति ॥"
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पश्यत्तानो निषेध छे.
श्रुतज्ञानथी आपणे जे पदार्थने जेवा स्वरूपे जाणीओ तेवा स्वरूपे तेने काल्पनिक रीते मननी सामे उपस्थित पण करी शकीओ. आ साक्षात्कार श्रुतज्ञानना बळे थाय छे, माटे ते वखते श्रुतज्ञानोपयोग पण प्रवर्तमान ज होय छे. वळी आ साक्षात्कार निश्चित वस्तु-विषयने अनुलक्षीने थाय छे, तेथी ते साकार होय छे. आ साक्षात्कार ज श्रुतज्ञानसाकारपश्यत्ता तरीके ओळखाय छे. 'श्रुतज्ञानी भगवन्त अनुत्तरविमानने यथार्थ स्वरूपे चीतरी शके छे. जो अनुत्तर विमानने तेओओ जोयुं ज ना होय तो तेओ तेने चीतरी कई रीते शके ? माटे मानवू ज जोइओ के तेओ श्रुतज्ञानना बळे अनुत्तरविमानने जोइ शके छे अने तेमनुं आ जोवू श्रुतज्ञानसाकारपश्यत्ताना बळे ज शक्य छे' अवो तर्क प्रस्तुत सन्दर्भ हारिभद्रीय टीकामां अपायो छे.
ओ ज रीते अवधिज्ञानी के केवलज्ञानी महात्मा ज्यारे ज्ञानना बळे ते ते पदार्थने जाणे छे त्यारे ते ते पदार्थनो साक्षात्कार पण प्रवर्ततो ज होय छे. आ साक्षात्कार ज ते ते ज्ञाननी साकार-पश्यत्ता कहेवाय छे. दर्शनो तो स्वयं निराकार-पश्यत्तारूप ज होय छे.
★ विभङ्गज्ञानीने अवधिदर्शन केम न होय ?
आम तो विभङ्गज्ञान ओ अवधिज्ञाननो ज प्रकार छे अने ते साकार होवाथी तेनाथी पूर्वे अवधिदर्शनात्मक निराकारोपयोग मानवो ज पडे. छतां वृद्धसम्प्रदाय विभङ्गज्ञानीना निराकारोपयोगने पण, चक्षुर्दर्शन गणवाना पक्षमा ज छे.१ आनुं कारण ओ होइ शके के चक्षुर्दर्शन अने अवधिदर्शनमा ओक पायानो तफावत छे. चक्षुर्दर्शनमां स्वयं उपस्थित वस्तुनो ज साक्षात्कार होय छे, ज्यारे अवधिदर्शनमां वस्तु ज्ञानशक्तिना बळे उपस्थित थती होय छे. हवे मिथ्यात्वी जीवनी ज्ञानशक्ति तो मलिन ज होवाथी अने तेथी तेना बळे उपस्थित वस्तु पण अयथार्थ ज होवानी. तेथी आवी अयथार्थ वस्तुनो साक्षात्कार अवधिदर्शन न गणाय ओवी समजण आवा वृद्धसम्प्रदाय पाछळ होइ शके. प्रश्न ओ छे
१. अवधिदर्शनं तु सम्यग्दृष्टरेव, न मिथ्यादृष्टेः, चक्षुर्दर्शनमेव किल तस्येति पारमर्षी श्रुतिः
- तत्त्वार्थ-गन्धहस्ति० २.९
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के अयथार्थ तो अयथार्थ, वस्तु साक्षात्कार तो छ ने ? तेने क्यां समाववो? वृद्धसम्प्रदाय आ विभङ्गदर्शनने चक्षुर्दर्शन ज गणे छे, तो वि. भाष्य-८१८ मां उल्लिखित मत प्रमाणे विभङ्गदर्शन अवधिदर्शननो ज अेक प्रकार छे. भगवतीजीमां तो मिथ्यात्वीने पण साक्षात् अवधिदर्शन ज प्रतिपादित करवामां आव्युं छे.१
* मनःपर्यवज्ञानमां दर्शन न होवा छतां, नन्दीसूत्रगत मनःपर्यवना निरूपणमां "तत्थ दव्वओ णं उज्जुमती अणंते अणंतपदेसिए खंधे जाणति पासति" ओ वाक्यखण्डमां 'पासति' केम कह्यु ?
नन्दीसूत्रना टीकाकारो आनो खुलासो आम आपे छे : "मनःपर्यवज्ञानी, संज्ञी जीवे मन पणे परिणमावेला अनन्ता अनन्तप्रदेशोवाळा स्कन्धोने अने तद्गत वर्णादि भावोने साक्षात् जोइ शके छे, तेथी 'जाणति' कह्यु छे. चिन्तित अर्थ जो के साक्षात् जोइ शकातो नथी, कारण के चिन्तित अर्थ तो अमूर्त पण होय अने छद्मस्थ जीव तो अमूर्तने जोइ शके नहीं. तेथी अनुमानथी ज चिन्तित अर्थने जुओ छे तेम जणाववा ‘पासति' का छे."२
हवे आ 'पासति' कया दर्शनात्मक होइ शके ते विशे विविध मत छे. अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन के मनःपर्यवदर्शनथी, आ अनुमानित चिन्तितार्थनो साक्षात्कार स्वीकारता मतोनो निरास वि. भाष्य-८१५ थी ८२१मां जोवा मळे छे. वि.भाष्यकार पोते आ साक्षात्कारने 'मनःपर्यवज्ञान-साकारपश्यत्ता' गणे छे.
___ आमां चिन्तित अर्थ अनुमानथी जणाय छे ओ टीकाकारोनी वात अने आ अनुमित अर्थनो साक्षात्कार मनःपर्यवज्ञाननी साकार-पश्यत्ताना बळे थाय छे भाष्यकारनी वात चोक्कस बराबर छे; परन्तु समस्या ओ छे के श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान के केवलज्ञानना निरूपणमां जेम 'जाणति'नो विषयभूत पदार्थ ज 'पासति' नो विषय समजवामां आवे छे, तेम अत्रे अनन्त मनःस्कन्धो के जे
१. "ओहिदंसणअणागारोवउत्ता णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी ? गोयमा नाणी वि अन्नाणी
वि..जे अन्नाणी ते नियमा मइअन्नाणी सुयअन्नाणी विभङ्गनाणी त्ति" - षडशीति
गाथा २१- टीकामां उद्धृत २. "मणितमत्थं पुण पच्चक्खं ण पेक्खति, जेण मणालंबणं मुत्तममुत्तं वा, सो य
छउमत्थो तं अणुमाणतो पेक्खति त्ति अतो पासणता भणिता" - नन्दीचूर्णि
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ओगस्ट २०११
'जाणति'ना विषयभूत छे, तेनी साथे ज 'पासति'ने केम सांकळवामां नथी आवतुं ? अर्थात् 'मन:स्कन्धोने जाणे छे' ओम 'मनः स्कन्धोने जुभे छे' ओवो अर्थ केम नथी करवामां आवतो ? 'बाह्य अर्थ' नो उल्लेख करनारो कोई ज शब्द मूलसूत्रमां न होवा छतां 'पासति'ना व्याख्यान वखते अनुं ग्रहण कई रीते वाजबी गणाय ? वास्तवमां आवो अर्थ करवो उचित लागे छे : "मन:पर्यवज्ञानी मनपणे परिणत अनन्त स्कन्धोने सामान्यथी जुभे छे अने विशेषथी तद्गत वर्णादि भावोने जाणे छे. "
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१ मनः
वस्तुतः मनः पर्यवथी ग्राह्य, मनोवर्गणाना स्कन्धोमां रहेली विशिष्ट छापो छे के जे चोक्कस विचारने लीधे अमां अंकित थयेली होय छे. अवधिज्ञानी अवधिदर्शनना बळे मनः स्कन्धोने जोइ शके छे अने अवधिज्ञानना बळे तेने विशेषपणे जाणी पण शके छे. छतांय वस्तुना सर्व पर्यायोने अवधिज्ञान नथी पकडी शकतुं ओ तेनी मर्यादा छे अने आ मर्यादाने लीधे मनःस्कन्धगत से विशिष्टताओने पण अवधिज्ञान नथी पकडी शकतुं के जेनाथी से विशिष्टता जेने लीधे आवी छे ते विचारोने जाणी शकाय .. पर्यवज्ञान आ विशिष्टताओने जाणी शके छे अने ओना बळे अनुमान करीने बीजाना मनना विचारोने अने से विचारोना विषयभूत पदार्थोने जाणी शके छे. आ पदार्थोनुं ज्ञान थाय ओटले आ ज्ञानना आधारे तेमनो पण मानसिक साक्षात्कार करी शकाय छे. आ साक्षात्कार मनः पर्यवज्ञानना आलम्बने थयो होवाथी मनःपर्यवसाकारपश्यत्ता तरीके ओळखाय छे. सम्पूर्ण प्रक्रिया आम थशे : मनः स्कन्धोनुं सामान्यतः दर्शन ( अवधिदर्शन ) [ चोक्कस मनः स्कन्धोगत वैशिष्ट्यनुं ग्रहण ( मनः पर्यवज्ञान ) → वैशिष्ट्यना आधारे विचारो अने तेना विषयभूत पदार्थोनुं अनुमान अनुमित अर्थोनो मानसिक साक्षात्कार ( मन:पर्यवज्ञान-साकारपश्यत्ता).
आमां मनःपर्यवज्ञाननी पूर्वे अवधिदर्शन भेटले मानवुं पडे छे के छद्मस्थजीवमात्र माटे ज्ञानोपयोग पूर्वे दर्शनोपयोग अनिवार्य छे, मनः पर्यवज्ञानी
१. जो के निर्मलतम अवधिज्ञानथी आंशिक रीते मनःस्कन्धोगत विशिष्टताओ पण जाणी शकाय छे. जेम के अनुत्तरविमानवासी देवो केवली भगवन्तोना मनः परिणामने जाणी शकता होय छे.
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अनुसन्धान- ५६
अमां अपवादभूत नथी. ओटले मनःपर्यवज्ञानना उपयोग समये सौप्रथम मनः स्कन्धो ज सामान्यपणे देखाय छे (-अवधिदर्शन) अने त्यारबाद चोक्कस मनः स्कन्धोनुं विशेषथी ज्ञान थाय छे (-मनः पर्यवज्ञान). आम मनः स्कन्धविषयक ज्ञान अने दर्शन बन्ने प्रवर्ते छे अने ते ज वात 'खंधे जाणइ पासइ' कहीने सूचवाइ होय एवं लागे छे.
हवे अहीं ओक महत्त्वनी समस्या सर्जाइ शके तेम छे के जो मन:पर्यवज्ञान पूर्वे अवधिदर्शन अनिवार्य होय तो भगवतीजी - आशीविषोद्देशकमां मन:पर्यवज्ञानीने अवधिदर्शन न पण होय ओम शा माटे कह्युं छे ?
आनुं समाधान ओम जणाय छे के प्रस्तुत कथन ओवा मन:पर्यवज्ञानीने अनुलक्षीने छे के जेमने मति - श्रुत पछी अवधिज्ञानने बदले सीधुं ज मनः पर्यव प्राप्त थयुं होय. आवा महात्माने अवधिज्ञानावरणनो क्षयोपशम न होवाथी अवधिदर्शन पण नथी होतुं. पण अनो अर्थ से नथी के तेओने मनः स्कन्धो सामान्यरूपे न देखाय. मनः पर्यवज्ञानथी मनः स्कन्धोने विशेषरूपे जाणतां पहेलां तेमनुं सामान्यदर्शन अनिवार्य छे, अने आ सामान्यदर्शन अवधिदर्शनना अभावमां तेवी विशिष्ट कोटिना अचक्षुर्दर्शनथी सम्पन्न थाय छे तेम मानवुं पडे. ओक वात तो नक्की छे के मनः पर्यवज्ञाननी प्राप्ति माटे विशिष्ट लब्धिओथी सम्पन्न होवुं अनिवार्य छे अने आवी विशिष्ट लब्धिओ धरावता महात्मानां मति - श्रुत ज्ञान तेम ज चक्षु-अचक्षु दर्शन पण विशिष्ट कोटिनां ज होय छे. तेथी ते महात्मा तेवा विशिष्ट कोटिना अचक्षुर्दर्शनना बळे मनःस्कन्धोने पण जोइ ज शके. जो के उपलब्ध कथासाहित्यमां ओवो ओक पण दाखलो नथी मळतो के जेमां अवधिज्ञान वगर मन:पर्यव प्राप्त थयुं होय. तेथी ओम जणाय छे के आवी परिस्थिति भाग्ये ज सर्जाती हशे अने तेथी व्यापकताने अनुलक्षीने मनःपर्यवज्ञानीने अवधिदर्शनोपयोग अनिवार्य गणवामां आवतो हशे निष्कर्ष अ ज छे के मन:पर्यवज्ञानीने पण मनः स्कन्धोनुं सामान्यदर्शन अनिवार्य छे. पछी अ दर्शन अवधिदर्शनना बळे थाय के श्रुतकेवली जेम विशिष्ट श्रुतज्ञानना बळे सर्व वस्तुने जाणी शके छे तेम विशिष्ट अचक्षुर्दर्शनना बळे थाय.
दर्शन अंगेनी आ समग्र चर्चा शास्त्रोना सहारे ज थइ होवा छतां महदंशे
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________________ ऑगस्ट 2011 173 मानसिक विचारणात्मक छे अने तेथी ज आमां त्रुटिओ होवानी पूरेपूरी सम्भावना छे. आ त्रुटिओ तरफ ध्यान दोरनार अभ्यासीनो हुँ अवश्य ऋणी रहीश. आमा पूर्व महर्षिओना आशयथी कोईक विपरीत प्ररूपणा थई होय के तेओनां वचनो, अन्यथा अर्थघटन थयुं होय तो ते बदल मिच्छामि दुक्कडं.