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अनुसन्धान- ५६
अवधिज्ञान पूर्वेनी निराकार अवस्था छे, तो केवलदर्शन, केवलज्ञाननी सहवर्ती के परवर्ती निराकार स्थिति छे; पण चक्षुर्दर्शन अने अचक्षुर्दर्शनने मतिज्ञानना उत्पत्तिक्रममां क्यां गोठववां ते प्रश्न छे. सन्मतिटीकाकार अभयदेवसूरिजीनां वचनो आ बाबतमां बहु प्रमाणभूत लागे छे.
"अप्राप्यकारी चक्षु अने मनथी उद्भवता अवग्रहादि मतिज्ञान पूर्वेनी, अस्पृष्ट अने अवभासी ग्राह्यने ग्रहण करनारी, आत्मानी प्रारम्भिक बोधात्मक अवस्था ज अनुक्रमे ‘चक्षुर्दर्शन' अने 'अचक्षुर्दर्शन' तरीके ओळखाय छे." (सन्मति - २.३० - टीका)
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आनो अर्थ ओ थयो के चक्षुर्दर्शन अने अचक्षुर्दर्शन अनुक्रमे चाक्षुष अने मानस प्रत्यक्षमां व्यंजनावग्रहना स्थाने गोठवाय छे, मतलब के जे स्थान घ्राणजादि प्रत्यक्षमां व्यंजनावग्रहनुं छे, ते स्थान चाक्षुष अने मानस प्रत्यक्षमां चक्षुर्दर्शन अने अचक्षुर्दर्शननुं छे. पूर्वे प्रचलित व्यवस्था परत्वे दर्शावेली समस्या नं. ९नुं समाधान आनाथी सरस रीते थइ जाय छे.
परन्तु उपा. श्रीयशोविजयजी ज्ञानबिन्दुमां जणावे छे के टीकाकारनुं आ कथन सिद्धसेन दिवाकरना आशयने अनुरूप नथी. तेओ खूब ज कडक शब्दोमां टीकाकारनां वचनोनुं खण्डन करतां जणावे छे के “टीकाकारनुं कथन अर्धजरतीय न्यायने अनुसरे छे. कारण के, 'छद्मस्थ जीवने ज्ञानोपयोग पूर्वे दर्शनोपयोग होय' आवी प्राचीन व्यवस्था पर ज जो निर्भर रहेवुं होय तो चाक्षुष अने मानस प्रत्यक्षमां ज ज्ञान पूर्वे दर्शननो अभ्युपगम शा माटे ? श्रावण व. प्रत्यक्षमां केम नहीं ? हवे जो श्रावण व प्रत्यक्षमां पण अवग्रह पहेलां दर्शन स्वीकारशो, तो त्यां दर्शन संभवशे क्यारे ? व्यंजनावग्रहथी पूर्वे तो कोई ज्ञानमात्रा ज नथी होती, तेथी तेनी पूर्वे तो दर्शन मानी ज न शकाय . व्यंजनावग्रहथी पछी पण न मानी शकाय, कारण के शास्त्रोमां व्यंजनावग्रहनी अन्तिम क्षणे अर्थावग्रहनी ज उत्पत्ति कही छे के जे ज्ञान छे. आम, श्रावणादि ४ प्रत्यक्षमां ज्ञानोपयोग पूर्वे दर्शनोपयोग मानी शकातो नथी; अने तेथी चाक्षुषमानसमां पण तेनी कल्पना करवी वाजबी नथी. वास्तवमां सिद्धसेन दिवाकरजीना नव्य मतमां दर्शन कदापि ज्ञानथी भिन्नकालीन होतुं ज नथी, बल्के ज्ञान - दर्शन वच्चे अभेद ज छे."