________________
ऑगस्ट २०११
१६३
उपाध्याय भगवन्ते करेली आ समग्र चर्चा वस्तुतः सिद्धसेन दिवाकरजीना अने अभयदेवसूरिजीना दर्शन अंगेना विचारोना अन्यथाग्रहणने आभारी छे. पहेली वात तो ओ के प्राचीन मूल नियम 'ज्ञान पूर्वे दर्शन होय' अ नहोतो, पण 'साकारोपयोग पूर्वे अनाकारोपयोग होय' ओवो हतो. १ आ अनाकारोपयोग जेम चाक्षुष अने मानसमां दर्शनरूप होय छे, तेम घ्राणजादि चारमां व्यंजनावग्रहरूप होय छे. हवे, आ चार स्थळे जो व्यंजनावग्रहरूप अनाकारवस्था पहेलेथी ज स्वीकृत छे, तो शा माटे त्यां अलगथी दर्शननी कल्पना करवी पडे ? 'व्यंजनावग्रह ज्यां नथी होतो, त्यां निराकार अवस्थानुं शुं ?' साचो प्रश्न तो आ छे अने अनुं समाधान टीकाकारनां प्रस्तुत वचनोमां छे.
प्रश्न ओ रहे छे के ‘ज्ञान पूर्वे तेना कारणरूप दर्शन होय' आवो नियम पण घणे ठेकाणे जोवा मळे छे, तो ते सम्बन्धे शुं समजवुं ? आनुं समाधान अ ज छे के 'दर्शन' अने 'व्यंजनावग्रह' तरीके ओळखाती निराकार अवस्थाओ वच्चे वास्तवमां झाझो तफावत नथी. दर्शनमां ग्राह्य वस्तु साथे संयोग नथी होतो, फक्त तेनो साक्षात्कार होय छे, ज्यारे व्यंजनावग्रहमां ग्राह्य वस्तुनो साक्षात्कार नहीं, पण सीधो संयोग ज होय छे. आटलो ज फेर छे. बाकी सामान्यग्रहण, विषयनो अनिश्चय, संस्कारनुं अजनकत्व व. बन्नेमां सरखुं ज छे. आ कारणे व्यंजनावग्रहमां 'दर्शन' शब्दनो उपचार थइ शके छे. अने ओ रीते व्यंजनावग्रह औपचारिक दर्शन बन्या पछी, छओ प्रत्यक्षमां अर्थावग्रहात्मक ज्ञान पूर्वे दर्शन गोठवाइ जवाथी 'ज्ञान पूर्वे दर्शन होय ज' ओवो नियम बनावी शकाय छे. निराकार व्यंजनावग्रह ज्ञाननो ज भेद होवा छतां 'ज्ञान साकार ज होय छे' अने अचक्षुर्दर्शन भेटले मानसदर्शन ज होवा छतां 'अचक्षुर्दर्शन ओटले घ्राणादि ४ इन्द्रियो अने मनथी थतो निराकार बोध' आवी प्ररूपणाओ व्यंजनावग्रहने औपचारिक दर्शन गण्या पछीनी छे. व्यंजनावग्रहने पहेलेथी ज 'दर्शन' ओटले नथी गणवामां आवतो के व्यंजनावग्रह, दर्शनना मूल अर्थ ‘पश्यत्ता(-जोवुं)'नी अन्तर्गत नथी आवतो, ज्ञानना अर्थ 'जाणवुं'नी अन्तर्गत आवे छे. पण, जो ‘पश्यत्ता' ने बहु व्यापक दृष्टि जोइओ तो ओ व्यंजनावग्रहने पण पोतानामां समावी ले छे अने त्यारे से 'दर्शन' गणाय छे.
पृष्ठ १५६, टि. २
१.