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अनुसन्धान-५६
बीजुं, उपाध्यायजी जणावे छे तेम नव्यमतमां ज्ञान-दर्शननो अभेद छे ज नहीं. ज्ञान-दर्शनमां जे भेद आगमिक साहित्यमां निरूपायो छे, तेने ज दिवाकरजीओ वधु स्पष्ट करी आव्यो छे. प्रस्तुत गाथागत 'नाणं....दंसणं होइ' आवा विधान परथी सिद्धसेन दिवाकरजीना मतमां ज्ञानदर्शननो अभेद समजी लेवामां आवे छे, पण ते बराबर नथी. 'नाण' शब्द अत्रे 'बोध' अर्थमां ज छे, अने बोधविशेष ज दर्शन छे ओवो आ विधाननो भाव छे. आ बोधविशेष कयो ते आपणे पहेलां आ गाथाना विवरणमां जोइ गया छीओ. वळी, सिद्धसेन भगवन्ते ज छाद्मस्थिक ज्ञान - दर्शननो भेद स्पष्टपणे "मणपज्जवणाणंतो णाणस्स दरिसणस्स य विसेसो " ( सन्मति - २.३) मां प्ररूप्यो छे. ट्रंकमां, उपाध्यायजी भगवन्ते करेलुं टीकाकारनुं खण्डन वाजबी लागतुं नथी.
हवे आपणे अर्थावग्रहने अंगे थोडोक विचार करीशुं. दर्शन अने व्यंजनावग्रहमां बोधमात्रा स्वीकृत छे ज. आ बोध 'कंइक छे' ओवा अस्पष्ट आभासवाळो अने अव्यक्त होय छे. आ बन्ने पछीनो ज्ञानतबक्को ‘अर्थावग्रह' गणाय छे. आ अर्थावग्रह व्यंजनावग्रहस्थानीय दर्शन अने व्यंजनावग्रह करतां वधु विकसित ज्ञानमात्रा धरावतो होय छे से सर्वसम्मत छे, पण आ विकसित ज्ञानमात्रा केटली ते चर्चानो विषय छे. आगमिको अर्थावग्रहने पण महासामान्यनो ज ग्राहक गणे छे,१ ज्यारे तार्किको 'रूप छे, रस छे' जेवा प्राथमिक विशेषोनुं ग्रहण अर्थावग्रहमां स्वीकारे छे. २ आमां प्रथम प्ररूपणामां त्रण असंगति आवे छे : १. महासामान्यनुं ग्रहण निराकारोपयोगमां ज थाय, ज्यारे अर्थावग्रह तो साकार गणाय छे. २. 'कंइक छे' ओ बोधने अर्थावग्रहनो विषय गणीओ तो अनाथी निकृष्ट ज्ञानमात्रा ज नथी संभवती के जेने व्यंजनावग्रह के दर्शनना विषय तरीके गोठवी शकाय. ३. नन्दीसूत्रगत “तेणे 'आ शब्द छे' ओवो अवग्रह कर्यो” आवी प्ररूपणाओथी जुदा पडवानुं थाय छे. तार्किकोनी 'शब्द छे' ओवी सामान्यविशेषनी ग्रहणात्मक साकार अवस्थाने अवग्रह गणवानी मान्यतामां आ असंगतिओ नथी रहेती.
१.
२.
“इय सामण्णग्गहणाणंतरमीहा" वि. भाष्य २८९, अने पृ. १४९, टि. १ प्रमाणमीमांसा १.१.२७ टीका, प्रमाणनयतत्त्वालोक १.७, तत्त्वार्थराजवार्त्तिक
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