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ऑगस्ट २०११
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पण होइ शके छे.१ ट्रॅकमां, वस्तुओरों के विशेषोनुं स्वरूपतः भान ते 'ज्ञान' के जे वस्तुना साक्षात्कारवाळु पण होय अने वगरनुं पण होय; अने वस्तुओर्नु के विशेषोनु सामान्यतः भान ते 'दर्शन' के जे अवश्य साक्षात्कारात्मक ज होय
'दर्शन' शब्द मूलतः ‘पश्यत्ता' साथे ज संकळायेलो हतो, 'सामान्यांशना ग्रहण' साथे नहीं, तेना घणां प्रमाणो नोंधी शकाय. जेम के
★ "छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से परमाणुपोग्गलं जाणइ न पासइ, उदाहु न जाणइ न पासइ ? गोयमा ! अत्थेगइए जाणइ न पासइ, अत्थेगइए न जाणइ न पासइ ।" टीका - "इह छद्मस्थो निरतिशयो गृह्यते । तत्र श्रुतज्ञानी उपयुक्तः श्रुतज्ञानेन परमाणुं जानाति, न तु पश्यति दर्शनाभावाद् , अपरस्तु न जानाति न पश्यति ।" (भगवतीजी, १८ शतक, ८ उद्देश)
★ "से किं तं दसणगुणप्पमाणे ?....'' (पृष्ठ १५१) दर्शनने पश्यत्ता साथे जोडीओ तो ज तेनुं आटलुं विशाळ विषयक्षेत्र सम्भवे छे.
★ "अट्ठविहे दंसणे पण्णत्ते । तं जहा- सम्मइंसणे, मिच्छदंसणे, सम्मामिच्छदंसणे, चक्खुदंसणे, अचक्खुदंसणे, ओहिदंसणे, केवलदसणे, सुविणदंसणे।" - स्थानांगसूत्र ।
__ आमां अचक्षुर्दर्शनथी स्वप्नदर्शनने अलग गण्युं छे. सामान्यांशनुं ग्रहण ज जो दर्शन होत, तो स्वप्नना सामान्यग्रहणमां ओवी कई विशेषता होय के जेथी अने अलग गणवू पडे ? दर्शननो अर्थ 'जोवू' लइओ तो ज आ पृथक्करणनो खुलासो थइ शके के अचक्षुर्दर्शनमा देखाता पदार्थो वास्तविक होय छे, ज्यारे स्वप्नदर्शनमां काल्पनिक पदार्थोनो आभास होय छे.२
★ "द्रव्यत आभिनिबोधिकज्ञानी... धर्मास्तिकायादीनि जानाति, न १. "जं एत्थ णिव्विसेसं, गहो विसेसाण दंसणं होति" - धर्मसङ्ग्रहणी - १३६४ २. टीकाकार भगवन्त सामान्यांशना ग्रहणने ज दर्शन गणता होवाथी, अचक्षुर्दर्शन अने
तेना ज पेटाभेदरूप स्वप्नदर्शनने अलग गणवानुं कारण जाग्रदवस्था अने सुप्तावस्थारूप उपाधि जणावे छे. पण प्रश्न ओ छे के स्वरूपथी ज जो भेद पकडातो होय तो शा माटे उपाधिने भेदक बनाववी ? वळी, सुप्तावस्थामां पण स्वप्नदर्शन सिवाय अन्य रीते पण अचक्षुर्दर्शन प्रवर्ते ज छे, तो सुप्तावस्था भेदक उपाधि बने ज कई रीते ?