________________
१६०
अनुसन्धान-५६
पश्यति सर्वात्मना धर्मास्तिकायादीन्, शब्दादीस्तु योग्यदेशावस्थितान् पश्यत्यपि।" (नन्दीसूत्रना “दव्वओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वदव्वाइं जाणइ न पासइ" ओ अंशनी हारिभद्रीय टीका) नन्दीसूत्रनी टीकाओमां श्रुतज्ञानना निरूपण वखते 'पासइ' शब्द सामे, श्रुतज्ञानमां दर्शन न होवाथी प्रश्न उठाववामां आवे छे, त्यारे ओ स्पष्ट छे के ‘पासई' दर्शन साथे सम्बन्धित छे. हवे आ दर्शन 'सामान्यांशग्रहणात्मक' अभिप्रेत छे के ‘पश्यत्तात्मक', तेनो खुलाओ उपरनी टीकाथी थइ जाय छे. मतिज्ञानीने आदेशथी (-सामान्यपणे) पण धर्मास्तिकायने जाणवा माटे, तेना सामान्य अंश- ग्रहण आवश्यक छ ज, तेने जोर्बु आवश्यक नथी. माटे दर्शननो अर्थ 'जोवू' ने बदले जो 'सामान्यांशग्रहण' अभिप्रेत होत तो 'जाणइ पासई' ज कहेवू पडत. दर्शननो अर्थ 'जोवू' लइओ तो ज 'जाणइ न पासइ' कही शकाय.
* सिद्धसेन दिवाकरजीनी वेधक दृष्टि शब्दोने पेले पार जई मूल वस्तुस्वरूपने जोइ शके छे ते सर्वप्रसिद्ध छे. तेओओ आपेली दर्शननी ओळख
"नाणमपुढे अविसए अ, अत्थम्मि दंसणं होइ ।
मोत्तूण लिंगओ जं, अणागयाईयविसएसु ॥" सन्मति० २.२५ उपर आपणे जोयुं तेम दर्शन साक्षात्कारात्मक होय छे; तेथी विचारणात्मक ज्ञानो- अनुमान, तर्क, प्रत्यभिज्ञान व. दर्शन नथी. वळी, घ्राणादि ४ इन्द्रियोथी पदार्थ जाणी शकाय छे, जोई शकातो नथी; तेथी आ चार इन्द्रियोथी जन्य ज्ञान पण दर्शन नथी. उपरान्त, चक्षु अने मनमां पण अवग्रहादि तो विशेषज्ञानात्मक होय छे; तेथी ते पण दर्शन नथी. आम, चक्षु अने मनथी थतुं निराकार ईक्षण ज 'दर्शन' कहेवाय छे. दिवाकरजीओ आपेली दर्शननी व्याख्या पण आ बे ज स्थळे दर्शनत्व प्रतिपादन करे छे.
अनुमान द्वारा लिंगनी सहायथी अतीत-अनागत वस्तुने जाणी शकाय छे. दिवाकरजीनी मान्यता प्रमाणे आबुं ज्ञान दर्शन नथी. तेओ 'मोत्तूण..." आ वाक्यथी उपरनी वात सूचवे छे. उपा. यशोविजयजीओ जणाव्या मुजब अत्रे उपलक्षणथी, स्मृति सिवायनां तमाम परोक्ष ज्ञानो दर्शन नथी गणातां तेम