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ऑगस्ट २०११
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★ "आत्मानुं अवलोकन ते दर्शन अने बाह्य अर्थनो प्रकाश ते ज्ञान." आ मत दार्शनिकने बदले आध्यात्मिक भावना पर आधारित लागे छे. तेथी प्रस्तुत चर्चामां ते उपयोगी नथी. दर्शन और चिन्तन-पृ. ७२ पर जणाव्या मुजब धवलाटीकामां प्रस्तुत मत व्यावर्णित छे.
★ "व्यंजनपर्यायनुं ग्राहक ते ज्ञान अने अर्थपर्यायनुं ग्राहक ते दर्शन." आ मत नन्दीसूत्रनी हारिभद्रीय वृत्ति परना श्रीश्रीचन्द्रसूरिजीना टिप्पणमां अपरमत तरीके उल्लिखित छे. आ मत विशेषावश्यकभाष्यना दर्शन अंगेना विधानना अन्यथाग्रहणथी जन्म्यो लागे छे. कारण के महाभाष्यमां अपायधारणाने ज्ञान अने अवग्रह-ईहाने दर्शन गणवामां आव्यां छे. आमां अपायने ज्ञान गणवा पाछळ, कारण तेनी मलधारीय टीकामां ओ देखाडवामां आव्यु छे के अपायथी ज वस्तुना वचनपर्यायनी (-वस्तुना नामनी) खबर पडे छे माटे ते ज्ञान छे.१ आमां जे वचनपर्याय शब्द छे तेने आ मतना प्रस्थापके व्यंजनपर्यायनो समानार्थी समजी लीधो लागे छे अने तेथी व्यंजनपर्याय, ग्राहक ते ज्ञान अने व्यंजनपर्याय सिवायना अर्थपर्यायोनुं ग्राहक ते दर्शन - अर्बु विधान करवा प्रेराया लागे छे. वास्तवमां वचनपर्याय अने व्यंजनपर्याय -ओ बे समानार्थी शब्दो नथी, अपाय-धारणामां व्यंजनपर्यायर्नु ज ग्रहण थाय, अर्थपर्यायनुं नहीं -ओवो नियम पण नथी, अने दर्शनमां पण महासामान्यनुं ग्रहण होय छे, अर्थपर्यायो, नहीं.
* "मनुष्यत्व जेवा सामान्यविशेषोनुं ग्रहण ते दर्शन छे अने तेना पण विशेषो स्त्रीत्व-पुरुषत्व व.नुं ग्रहण ते ज्ञान छे." आ मत जीवसमासगाथा ८३मां वणित छे. सामान्यनो 'महासामान्य' जेवो शास्त्रीय अर्थ पकडवाने बदले अनुभवने आधारे मनुष्यत्व जेवा सामान्य-विशेषपरक लोकप्रसिद्ध अर्थनुं ग्रहण आ मान्यतानुं निदान होइ शके.
आम मानवामां अेक प्रश्न अवश्य उपस्थित थाय के सामान्यविशेषोना ग्रहण वखते आकार तो रचावानो ज, त्यारे कंइ महासामान्यना ग्रहणनी जेम बोध अनाकार न ज रही शके; तो पछी दर्शन 'अनाकार' कइ रीते गणाशे ? त्यां आ वातनो खुलासो अम करवामां आव्यो छे के 'अनाकार'मां नञ् १. “अपायधृती वचनपर्यायग्राहकत्वाज्ज्ञानमिष्टे' – वि.भाष्य-५३६ टीका