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ऑगस्ट २०११
वळी, आ प्रक्रिया मुजब व्यंजनावग्रहस्थानीय विषय - इन्द्रिय सम्बन्ध अने अवग्रह वच्चे दर्शनने मूकवुं पडे छे के जे 'व्यंजनावग्रहना अन्तिम समये अर्थावग्रह होय'. १ आ शास्त्रीय नियमथी विरुद्ध छे. २
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दर्शन अंगे आ सिवाय बीजी प्ररूपणाओ पण उपलब्ध थइ शके. पण आ प्ररूपणाओ अपूर्ण छे ते सहज समजी शकाय अवुं छे. ओमनी आ अपूर्णतानुं मुख्य कारण छे आगमिक मूळ दार्शनिक विभावनानी अनभिज्ञता अथवा आगमिक दर्शन अंगेना विधानोनुं अन्यथा अर्थघटन. आगमिक मूळ दर्शनव्यवस्थामां बीजुं बधुं तो प्रचलित व्यवस्था प्रमाणे ज हतुं, पण मुख्य तफावत हतो दर्शनना स्वरूप अने स्थाननो.
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आगमिकयुगमां दर्शन शब्द 'साक्षात्कार' ना सन्दर्भमां प्रयोजातो हतो. आ अर्थ दर्शन शब्दना प्रचलित अर्थ 'जोवुं' पर आधारित छे. आपणे 'जोवुं' क्रियापद जे सन्दर्भे प्रयोजीओ छीओ ते सन्दर्भने ध्यानथी तपासीशुं तो जणाशे के से क्रियामां बे बाबत अनिवार्यपणे होय छे : १. वस्तुनी आपणी सामे साक्षात् उपस्थिति २. सामे उपस्थित घणी बधी वस्तुओनो सामान्यपणे अस्पष्ट बोध. मतलब के जोती वखते आपणी दृष्टि ओक विशाळ फलक पर पथराती होय छे, ओ विशाळ फलकमां आवेली घणीबधी वस्तुओनुं प्रतिबिम्ब आपणी आंखमां झीलातुं होय छे अने से प्रतिबिम्बमां समाती तमाम वस्तुओनो अकसरखो अस्पष्ट बोध आपणने थया करतो होय छे. जे बोधने वर्णववो ज होय तो 'कंइक छे' अ रूपे वर्णवी शकाय. आ अस्पष्ट बोधमां कोई चोक्स वस्तु विषयभूत नथी होती अने अने लीधे बोधमां विशिष्ट आकार पण नथी रचातो, बोध निराकार ज रहे छे. मतिज्ञानशक्तिनो चक्षु द्वारा थतो घटादि पदार्थोने विषय बनावनारो आवो निराकार उपयोग ज 'चक्षुदर्शन' कहेवाय छे. अनुभवथी ज जणाशे के बोधनी आ सामान्यग्राहकता बहु ज अल्प
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१. “व्यञ्जनावग्रहान्त्यक्षणेऽर्थावग्रहोत्पत्तेरेव भणनात्"
ज्ञानबिन्दु
२. तार्किकोनी आ प्ररूपणाने शब्दशः न पकडीओ, पण तेना आशयने समजवा प्रयत्न करीओ तो आ प्ररूपणा ज सौथी वधु चोक्साई भरेली शास्त्रीय व्यवस्था सुधी पहचाडे छे. ते माटे जुओ पृ. १६६