________________
१५०
अनुसन्धान-५६
गणतरी वखते मतिज्ञानशक्तिने ध्यानमा राखवानी होय अने तेथी तेना दर्शनोना भेदोनो पण तेमां समावेश करवानो होय; तो अवधिज्ञान अने केवलज्ञानना भेद पण ते ते ज्ञानशक्तिना ज समजवा जोइए अने तो पछी अवधिज्ञानना भेदोमां अवधिदर्शननो अने केवलज्ञानमां केवलदर्शननो समावेश केम नथी? अने जो त्यां ओ न होय तो मतिज्ञान वखते ज दर्शननो समावेश शा माटे ? नथी लागतुं के अवग्रह-ईहाने वास्तविक दर्शन गणी लेवानी उतावळ आपणे न करवी जोइ ?
५. छद्मस्थजीवने विशेषांशना ग्रहण पूर्वे सामान्यांशनुं ग्रहण अनिवार्य छे.१ विशेषांश- ग्रहण ज्ञान कहेवाय छे अने सामान्यांशनो बोध दर्शन गणाय छे ओ आपणे पूर्वे जोइ गया. हवे नन्दीसूत्रनो मतिज्ञान- विषयक्षेत्र दर्शावतो पाठ जुओ : “दव्वओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वदव्वाइं जाणति न पासति... ।" अत्रे आगमिक परिभाषा मुजब 'जाणति' अने 'पासति' अनुक्रमे ज्ञान अने दर्शन साथे सम्बन्धित छे. तेथी प्रचलित व्यवस्था मुजब आनो अर्थ थाय : ‘मतिज्ञानी सर्वद्रव्योना विशेषांशनुं ग्रहण करे छे, पण सामान्यांशनुं नथी करतो'. आq तो कई रीते मानी शकाय ? तो 'पासति' अत्रे ‘पश्यत्ता(जोवू)'ना सन्दर्भमां ज वपरायुं छे एवं नहि ?
६. श्रुतज्ञान अने मनःपर्यवज्ञानमां तो सामान्यग्रहण ज नथी होतुं; छतांय नन्दीसूत्रगत तेमनां विषयनिरूपणमां पण 'पासति' शब्द आवे छे ! जो के आ 'पासति'ने 'पश्यत्ता'ना सन्दर्भमां व्याख्यायित करवामां आव्यु ज छे अने ओ रीते ते निरर्थक पण नथी ज; परन्तु कहेवानुं तात्पर्य अटलुं ज छे के ‘पासति (-दर्शन)' जो मूलतः ‘जोवू' ने बदले सामान्यग्रहण साथे सम्बन्ध धरावतुं होत तो कदापि नन्दीसूत्रमा अनो आ रीते प्रयोग करवामां न आव्यो होत.
७. दर्शन जो सामान्य अंश- ज ग्राहक होय अने ज्ञान विशेष अंशनुं ज, तो केवलज्ञान अने केवलदर्शन -बन्नेमांथी अक पण सर्वविषयक नहीं बने. जो के सामान्य अने विशेष -बन्ने अन्योन्य संवलित ज होय छे अने १. "दर्शनपूर्वं ज्ञानमिति छद्मस्थोपयोगदशायां प्रसिद्धम्' - ज्ञानबिन्दुगत सन्मतितर्क -
२.२२नी टीका. २. श्रुतज्ञान अने मनःपर्ययज्ञानमां ‘पासति' ना विशेष विवरण माटे जुओ पृ.१६८-१७०