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अनुसन्धान- ५६
छे; तेथी दर्शनमां ग्राह्य अर्थने सम्बन्धित आकार रचातो ज नथी, ते निराकार ज रहे छे. अथी उलटुं, ज्ञान वस्तुने तेना पोतीका स्वरूपे ज पकडे छे तेथी ज्ञानमां ग्राह्य वस्तुनी जोडे एकाकारता आवे छे माटे ज्ञान साकार छे. अत्रे आकारनो अर्थ तद्रूपता छे.' आम दर्शनमां विषयवैशिष्ट्य न होवाने लीधे पण ते 'निराकार' गणाय छे, अने वस्तु साथे तद्रूपता आवती न होवाथी पण ते 'निराकार' कहेवाय छे.
दर्शन आ ज कारणथी प्रमाण अने अप्रमाण - उभयकोटिथी पर गणाय छे. कारण के दर्शने तो महासामान्यनुं ज ग्रहण करवानुं छे अने महासामान्य तो बधे सरखुं ज होय छे; तेथी तेना ग्रहणमां साचा-खोटानो प्रश्न ज उपस्थित नथी थतो. परन्तु ज्ञाननी बाबतमां आवुं नथी. ज्ञाने विशेषोने ग्रहण करवाना छे अने गृहीत विशेषो साचा के खोटा होइ शके छे, तेथी ओ विशेषोनी सत्यता के असत्यताने लीधे ज्ञान पण प्रमाण के अप्रमाण गणाय छे. जो के सापने साप गणवो ते प्रमाण अने दोरडाने साप तरीके ओळखवो ते अप्रमाण -आवुं विषयग्रहण पर निर्भर लौकिक प्रामाण्याप्रामाण्य अत्रे सम्भवी शके छे; पण वास्तवमां अत्रे जैनदर्शनने सम्मत पारमार्थिक प्रामाण्याप्रामाण्यने आपणे समजवानुं छे.२ छद्मस्थ जीवने थतो बोध अपूर्ण ज होय छे, कारण के तेनी दृष्टि बहु ज सीमित क्षेत्र अने कालमां प्रवर्ते छे, वळी बहु ज थोडां द्रव्यपर्याय तेना ज्ञाननो विषय बनी शके छे. सम्पूर्ण बोध तो केवलज्ञानी भगवन्तने ज थइ शके छे. तेओओ छाद्मस्थिकबोध शा माटे ? अने कई रीते ? अपूर्ण होय छे अने तेने सम्पूर्ण कई रीते बनावी शकाय तेनी स्पष्ट समज आपी ज छे. वळी, तत्त्व अने सत्य शुं होय ते पण बहु सूक्ष्मताथी जणाव्युं छे. आ सर्व पर श्रद्धा धरावनारी व्यक्ति अ समजणने आधारे पोताना अपूर्ण बोधने पण पूर्ण बनावी दे छे. अने अथी उलटुं श्रद्धाविहोणी व्यक्ति पोताना अपूर्ण बोधने पण पूर्ण मानी ले छे. आथी पारमार्थिक व्यवस्था अनुसार तत्त्वश्रद्धा
" न विद्यते ग्राह्यार्थसम्बन्धी आकारो यत्राऽऽसौ अनाकारः "
जीवसमास - ८३ - टीका
लौकिक अने पारमार्थिक प्रामाण्याप्रामाण्यना विशेष विवरण माटे जुओ- दर्शन और चिन्तन (- पं. सुखलालजी) पृ. ७५-७७
३. जेने केवलज्ञान नथी प्राप्त थयुं ते जीव ‘छद्मस्थ' कहेवाय छे.
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